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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)
मील का पत्थर
नवारुण भट्टाचार्य और वह दग्ध किताब
अरविंद चतुर्वेद
हाशिये पर फेंक दिये गये मनुष्य की नियति और उसके व्यवहार
का, उसके हाहाकार और प्रतिकार का, जितना गहरा-सूक्ष्म अन्वेषण
नवारुण भट्टाचार्य का कवि-कथाकार कर लेता था,
वैसा बांग्ला साहित्य के उनके समकालीनों में दूसरा कोई दिखाई नहीं देता
नवारुण भट्टाचार्य अब नहीं हैं। लेकिन, वह दग्ध किताब मेरे पास है-‘गांधर्व कविता गुच्छ’ यानी गंधर्व के बारे में कविताएं। विख्यात बांग्ला कवि शंख घोष की गंधर्व कविता शृंखला की छोटी-सी,
कृषकाय पुस्तक। 1997 के कलकत्ता पुस्तक मेले में अचानक शाम को आग लगी और देखते-देखते लपटें पूरे मेला परिसर में फैल गयीं। आसमान काले धुएँ से भर गया। एक छोटे-से प्रकाशन ‘प्रमा प्रकाशनी’ के जलते स्टाल की किताबों के बीच नवारुण दा के हाथ जो किताब लगी, वह यही थी- ‘गांधर्व कविता गुच्छ’। इसका ऊपर से दाहिना कोना जला हुआ है। कविताएँ सुरक्षित हैं। तब ‘प्रमा प्रकाशनी’ से नवारुण दा जुड़े हुए थे।
बांग्ला कविता का जो बड़ा वितान है, उसके रवींद्रोत्तर कवियों में जीवनानंद दास, सुभाष मुखोपाध्याय, विष्णु डे और फिर शंख घोष बड़े नाम हैं- सभी चिर नवीन। व्यतिक्रमी कवियों में सुकांत, शक्ति चट्टोपाध्याय और नवारुण भट्टाचार्य को भुलाया नहीं जा सकता।
बहरहाल, शंख घोष को ‘गांधर्व कविता गुच्छ’ के लिए तब सरस्वती सम्मान की घोषणा हुई थी, जिससे सामान्य साहित्यानुरागियों में भी इस पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़ गयी थी। और, पुस्तक अप्राप्य थी। प्रकाशक सुरजित घोष जल्दी ही नया संस्करण लाने की तैयारी में थे। हमारी ‘गांधर्व कविता गुच्छ’ के हिन्दी अनुवाद की इच्छा थी। सो, अपनी सहयोगी अनुवादिका और मित्र मुनमुन सरकार के साथ उल्टाडांगा में शंख घोष के घर पर जब मिलने पहुँचा, तो वे बड़े असमंजस में थे। स्वभाव से बहुत शालीन, विनम्र और संकोची शंख दा को डर था कि अनुवाद में कविताएं कहीं बिगड़ न जाएँ। उन्होंने बताया कि उनकी पंद्रह कविताओं का अनुवाद प्रयाग शुक्ल ने किया है और कुछ नहीं। लेकिन जब शंख दा को हमने बताया कि मुनमुन ने अभी नवारुण भट्टाचार्य के उपन्यास ‘हरबर्ट’ का अनुवाद किया है, तो एक
झटके में आश्वस्त होते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हरबर्ट का अनुवाद किया है, तब तो गांधर्व... का अनुवाद भी हो सकेगा।’’
क्या कथा का अनुवाद कविता के अनुवाद की कसौटी हो सकता है? लेकिन नवारुण की कथा भंगिमा, कथा संरचना और कथा भाषा के बरअक्स इस सवाल का जवाब ‘हां’ ही होगा। इसका मतलब यह नहीं कि नवारुण जटिल और दुरूह कथाकार हैं। बल्कि उनकी कहानियाँ और ख़ासकर उपन्यास इकहरे न होकर, बहुस्तरीय हैं और उनमें बराबर एक गूँज बनी रहती है। आख़िर सब कुछ लिखा हुआ नहीं रहता, लिखे हुए के पीछे भी बहुत कुछ होता है। नवारुण दा अपने साहित्य पर चर्चा में बहुत दिलचस्पी नहीं रखते थे। अगर बात उनकी किसी कविता, कहानी या उपन्यास पर शुरूहोती, तो वे बात को अक्सर घुमा दिया करते थे-एक वीतरागी की तरह। उन्हें थुलथुल काया वाला गद्य बिल्कुल पसंद नहीं था, जिसके लिए, अतिशय विवरण और स्फीति के कारण, पूर्ववर्ती बांग्ला कथा साहित्य एक हद तक बदनाम रहा है। नवारुण इस बात के कायल थे कि गद्य को मेदहीन यानी चर्बी रहित होना चाहिए। एक बात बेहिचक कही जा सकती है कि नवारुण महानगरीय जीवन की विभीषिका के लेखक हैं और उनके कथा साहित्य में शहर के तलछट का जीवन, शहर-सीमांत की बस्तियों और उनके अंधेरे कोनों में जद्दोजहद करती ज़िंदगी के जितने जीवंत और प्रामाणिक चित्र मिलते हैं, वैसा उनके समकालीनों में दुर्लभ है। इस लिहाज़ से नवारुण एक अनिवार्य कथा पाठ हैं। साधारण मनुष्य की जिजीविषा में उनको अगाध विश्वास है और उनको लगता है कि लुटता-पिटता, पछाड़ खाता यह आदमी पलटकर अप्रत्याशित रूप से ऐसा कुछ कर सकता है कि आक्रांत करने वाली आक्रामक व्यवस्था के एक दिन परखचे उड़ जाएंगे।
बहरहाल, कोलकाता में कई साल से रहते रहने के बावजूद नवारुण भट्टाचार्य से मेरी पहली मुलाकात 1997 में ही हो पायी और वह भी कोलकाता में नहीं, पुरुलिया जिले के राजनवागढ़ में आयोजित वार्षिक
शबर मेले में। जबकि इससे सात साल पहले उनकी माँ विख्यात लेखिका महाश्वेता देवी से उनके बालीगंज स्टेशन के पास वाले लॉज के उस फ़्लैट में मेरी मुलाक़ात हो चुकी थी, जहाँ वह लम्बे अरसे
से भाड़े पर तब रह रही थीं। वह उमस भरी दोपहर थी और उनकी एक लम्बी कहानी ‘चंपा’ के अनुवाद की सहमति-स्वीकृति लेने मैं पहुँचा था। आधे घंटे की संक्षिप्त मुलाकात। एक गिलास पानी और बिना दूध वाली काली चाय। थोड़े से सवाल और जवाब, और जरा-सा परिचय, फिर स्वीकृति- ‘‘ठीक है, अनुवाद कर लो।’’ बाद में तो उनसे बहुत गर्व करने लायक इतना स्नेह, सम्मान और भरोसा मिलने लगा, जिसे जीवन की एक बड़ी पूँजी कहते हैं। लेकिन नवारुण दा अपनी माँ के साथ नहीं रहते थे। कई बार तो ऐसा भी लगता था कि नवारुण भी महाश्वेता देवी से दूसरे मुलाक़ातियों की तरह, ज़रूरी होने पर, भेंट-
मुलाक़ात करते थे। हाँ, कभी-कभार के पारिवारिक आयोजनों में वे एक साथ मिलते रहते रहे हों, शायद। वैसे भी शायद जिससे ज्यादा लगाव होता है, उनके बीच परस्पर एक क़िस्म की अ-संगता या निस्संगता पैदा होती है- उस लगाव की हिफ़ाजत के लिए, उसे कोई ठेस न पहुँचे, इसलिए। फिर भी जैसा कि होता है, कुछ बच्चे माँ पर जाते हैं और कुछ बाप पर। मैं खुद माँ पर गया हूँ और मुझे बराबर लगता रहा है कि नवारुण दा बाप पर गये थे। उनका जन्म 1948 में हुआ था और जब वे बमुश्किल 14 साल के किशोर हुए तो उनके पिता विजन भट्टाचार्य, जो एक बड़े कम्यूनिस्ट और प्रख्यात रंगकर्मी थे, और माँ महाश्वेता देवी का 1962 में संबंध विच्छेद हो गया। कहने की ज़रूरत नहीं कि इसका नवारुण के मन पर असर रहा ही होगा।
नवारुण दा की एक ख़ासियत थी कि वे न तो किसी की निजता में ताक-झांक करते थे और न खुद की निजता में किसी की घुसपैठ की कोशिश पसंद करते थे। उनके बेडरूम में माँ महाश्वेता देवी की युवावस्था की एक बहुत भव्य, आकर्षक, खूबसूरत, बड़ी-सी तस्वीर लगी थी, जिसे एक दिन मुझे खुद उस कमरे में ले जाकर उन्होंने दिखाई थी। एक विलक्षण मोर्चाबंदी और व्यूह रचना थी उनके लेखक की, जिसमें किसी को वे घुसने नहीं देते थे। शायद इसलिए भी कि उनके लेखक की दुनिया में कोई खलल न पड़े। क्या इसे ही लेखक का एकांत कहते हैं? मुझे नहीं पता कि उनकी किसी रचना का, प्रकाशन से पहले, पहला पाठक कोई था भी या नहीं। जहाँ तक मैंने देखा और महसूस किया है, घर-गृहस्थी या इसके मुतल्लिक दूसरे दुनियावी मामलों से वे हमेशा बचने की कोशिश करते थे। इस मामले में नवारुण और उनके बेटे तथागत का अभिभावक उनकी पत्नी प्रणति भट्टाचार्य रही हैं। प्रणति दी जैसी दयालु, शांत, उदार और प्रेमिल स्त्री मैंने नहीं देखी है। मैंने कभी उनको उदास और क्षुब्ध नहीं देखा। उनके चेहरे पर हरदम एक बहुत मुलायम-सी, बहुत हल्की मुस्कराहट तैरती रहती थी। हालांकि वह भी शायद कभी-कभी
उदास तो होती ही रही होंगी। क्या पता? कोई भी काम आने पर अपने बेटे बाप्पा यानी तथागत को नवारुण दा बोलते थे- ‘‘माँ के बोलो (जाओ, मां से कहो!)’’ खुद को घरेलू झमेलों से दूर रखने का यही उनका तरीक़ा था।
लेकिन यह सब तब की बात है, जब मैं उत्तर कोलकाता के लेकटाउन इलाक़े को छोड़कर दक्षिण कोलकाता में टालीगंज के पास बांसद्रोणी इलाक़े में आकर रहने लगा था। वहाँ से नवारुण दा का घर- गोल्फग्रीन में, करीब था और मैं जब-तब उनके घर पहुँच जाया करता था। मैंने पाया कि उनका अध्ययन बहुत विशद और व्यापक था- सिर्फ़ प्राचीन से लेकर अद्यतन बांग्ला साहित्य ही नहीं, अंग्रेज़ी में उपलब्ध देशी-विदेशी साहित्य, दुनियाभर के परिवर्तनकारी आंदोलनों और उनकी प्रक्रियाओं का, आर्थिक और उत्पादन प्रणालियों का।
हाशिये पर फेंक दिये गये मनुष्य की नियति और उसके व्यवहार का, उसके हाहाकार और प्रतिकार का, जितना गहरा-सूक्ष्म अन्वेषण नवारुण भट्टाचार्य का कवि-कथाकार कर लेता था, वैसा बांग्ला साहित्य के उनके समकालीनों में दूसरा कोई दिखाई नहीं देता।
नवारुण दा अंतरमुखी तो नहीं थे, लेकिन अपनी ओर से बातचीत में पहल भी नहीं करते थे। मसलन, राजनवागढ़ के बाग़ीचे में जहाँ शबर मेला लगा था, मेले के प्रवेश द्वार के अंदर, बाईं तरफ़, गहमागहमी
से ज़रा किनारे, एक मामूली-सी स्टालनुमा जगह में एक टेबुल लगाकर अपने मित्र जयदेव के साथ बैठे, मेले का नज़ारा करते मिले। मैं पहुँचा और नमस्कार किया, तो अपनी बगल वाली कुर्सी दिखाते हुए एक स्नेहसिक्त आत्मीयता के साथ बोले, ‘‘बैठो।’’ परिचय कराया, ‘‘ये मेरे दोस्त जयदेव हैं।’’ उनको बताया कि मैंने आपकी कविताएं पढ़ी हैं। ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ बहुत पहले से मेरे पास है। पूछा, ‘‘बांग्ला में?’’ मैंने बताया, ‘‘नहीं हिंदी में।’’ बोले, ‘‘हां, बहुत पहले मेरे दोस्त मंगलेश (डबराल) और कुछ लोगों ने अनुवाद किया था।’’ उन्होंने पूछा, ‘‘तुम कविता लिखते हो?’’ यह जानकर कि थोड़ा-बहुत लिखता हूं, बोले, ‘‘भालो। कलकत्ता में कहां रहते हो?’’ बताया, ‘‘लेकटाउन’’ तो बोले, ‘‘थोड़ा दूर रहते हो। मेला कैसा लग रहा है?’’ बताया, ‘‘कलकत्ता से बाहर पहली बार ग्राम बांग्ला देख रहा हूँ। मैं गाँव का ही रहने वाला हूँ, अच्छा लग रहा है।’’ बोले, ठीक है, ‘‘कलकत्ता में मिलते रहना।’’
मेले में दरअसल ज्यादा मेल-मुलाक़ात हो नहीं पाती। बस, दुआ सलाम और ऊपर-ऊपर हल्की-फुल्की बातचीत। चाय-पानी-सिगरेट तक। लेकिन जैसे कि उनकी कविताओं के ज़रिये उनकी एक छवि मेरे मन में बनी हुई थी, कोलकाता में प्रमा प्रकाशनी के दफ़्तर में जब दोबारा हमारी भेंट हुई, तब नवारुण ने भी मेरी एक कविता के जरिये मुझे अपने मन के क़रीब पाया। वही से हमारी ठीक-ठाक दोस्ती शुरू हुई। मैंने बांग्ला भाषा और देवनागरी लिपि में एक लम्बी कविता लिखी थी, जिसे एक बंगाली मित्र के माध्यम से बांग्ला में लिप्यांतरित करवाया था। वह कविता एक स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में प्रमा प्रकाशनी से छपने जा रही थी। नवारुण दा ने ही उस कविता को जाँचा था और उसका शीर्षक भी थोड़ा दुरुस्त किया था- ‘आमि बांग्ला खेये बांग्ला बोली’ (मैं बांग्ला (देसी दारू) पीकर बांग्ला बोलता हूँ)। यह आख्यानपरक कविता थी, कोलकाता में एक बिहारी और एक बंगाली टैक्सी ड्राइवर की दोस्ती के बारे में, जो दिनभर टैक्सी चलाने के बाद देर शाम एक दारूखाने में मिलते हैं और दारूके नशे में अपने मन की चोट और आवेग उड़ेलते हुए एक-दूसरे से भावनाएं साझा करते हैं।
शाम के पाँच बज रहे थे और जब प्रमा प्रकाशनी के दफ़्तर से मैं निकलने को हुआ, तो नवारुण दा भी मेरे साथ ही दफ़्तर से निकल आये। बोले, ‘‘चलो इस कविता के लिए हम एक चाय पीते हैं और सिगरेट।’’ इस बार हम एक-दूसरे से खूब परिचित हो चुके थे। कविता दो लोगों के बीच इतना काम तो करती ही है! हम लोगों ने सड़क किनारे चाय पी, सिगरेट सुलगाई और दूर तक पैदल चलने के बाद
नवारुण ने अपने घर की ओर जानेवाली ट्राम पकड़ ली। मैं बस पकड़ कर वापस आ गया। फिर तो नवारुण से गाहे-ब-गाहे मुलाक़ात होने लगी। इसी बीच उन्होंने अपना साहित्य अकादमी पुरस्कृत उपन्यास ‘हरबर्ट’ अनुवाद के लिए दिया, जिसे बहुत मन लगाकर और बहुत मेहनत से मुनमुन (सरकार) ने अनूदित किया था। इसके पहले तसलीमा नसरीन के उपन्यास ‘लज्जा’ समेत उनकी कुल छह कृतियों का
अनुवाद मुनमुन कर चुकी थीं, लेकिन सबसे मुश्किल अनुवाद ‘हरबर्ट’ का ही था- नवारुण की गद्य भाषा के कारण। अनुवाद की पद्धति यह थी कि मैंने मुनमुन से कह रखा था, जहाँ कठिनाई हो, वहाँ वे
बांग्ला के शब्द ही रहने दें और जहाँ संशय हो, वहाँ कामचलाऊ अनुवाद करके उसे अंडरलाइन कर दें। इस तरह मुनमुन से अनुवाद करायी गयी सभी पुस्तकों के हर पृष्ठ को जाँचते हुए मूल पाठ से मिलाकर यथोचित परिवर्तन-परिवर्धन की प्रक्रिया में मेरा अपना फ़ायदा यह हुआ कि बांग्ला के नये-पुराने बहुतेरे महत्वपूर्ण लेखकों की रचना प्रक्रिया और भाषा के ट्रीटमेंट को मैं समझ सका। ‘हरबर्ट’ का अनुवाद इसलिए मुश्किल भरा था कि उसके केंद्रीय पात्र के वहम और उसके अभ्यांतर के एक किस्म के फ्रस्ट्रेशन की जो बाह्य अभिव्यक्ति है, उसके लिए नवारुण ने टिपिकल लोकल शब्दों का इस्तेमाल किया है। कई बार तो उन्हें फोन कर-करके मुझे समझना पड़ा। लेकिन जब ‘हरबर्ट’ का अनुवाद धारावाहिक रूप में ‘जनसत्ता’ की साप्ताहिक पत्रिका ‘सबरंग’ में हर रविवार को प्रकाशित होने
लगा, तो पाठकों की जबरदस्त प्रतिक्रियाएं मिलने लगीं-सिलीगुड़ी से लेकर आसनसोल, जमशेदपुर, धनबाद और भागलपुर तक के पाठकों की। तब मैं ‘जनसत्ता’- कोलकाता में नौकरी करते हुए ‘सबरंग’
का संपादक था। शुरूसे ही इसका दायित्व प्रभाष जोशी जी ने मुझे दे रखा था और सामग्री चयन से लेकर प्रकाशन तक में किसी की कोई दखलअंदाज़ी नहीं थी। प्रभाष जी का वीटो पावर जो था। यहाँ सुपरिचित पत्रकार और प्रतिष्ठित लेखक कृपाशंकर चौबे का ज़िक्र करना ज़रूरी है, जो तब ‘सबरंग’ में मेरे सहयोगी थे और अपनी अत्यंत सक्रिय व सार्थक भूमिका के साथ मुझे बांग्ला की सांस्कृतिक-
साहित्यिक दुनिया से उन्होंने जीवंत रूप में जोड़ दिया था। ‘हरबर्ट’ बाद में राजकमल-राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली से छपकर आया। कलकत्ता पुस्तक मेले में उसके लोकार्पण के वक़्त बड़ी तादाद में हिन्दी के पाठक-लेखक मौज़ूद थे। तब तक कोलकाता में हिन्दी- बांग्ला लेखन के बीच आदान-प्रदान की अच्छी-ख़ासी साझेदारी बन चुकी थी। ‘हरबर्ट’ के लोकार्पण के बाद अशोक माहेश्वरी के प्रस्ताव पर नवारुण दा, मैं और कृपाशंकर उनके साथ एक टैक्सी से संजय सहाय के खाली फ्लैट पर पहुँचे और पहली बार एक साथ थोड़ी रात गुलज़ार करके अपने-अपने घर लौट गये। अशोक का डेरा मेले भर उसी फ्लैट में था।
बहरहाल, ‘हरबर्ट’ के हिन्दी में आने के बाद कोलकाता में होनेवाले हिन्दी के महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों-कार्यक्रमों में नवारुण भट्टाचार्य की उपस्थिति बहुत ख़ास मानी जाने लगी। वह चाहे महाजाति सदन में होनेवाला शंभुनाथ और मानिक बच्छावत की अगुवाई में ‘समकालीन सृजन’ का हिन्दी मेला हो, जीवनानंद दास सभागार में कोई संगोष्ठी-सेमिनार हो, गीतेश शर्मा के ‘जनसंसार’ का आयोजन हो या फिर भारतीय भाषा परिषद् में विशिष्ट साहित्यिक कार्यक्रम हो-नवारुण हिन्दीवालों के अपने होते चले गये थे। वे गतानुगतिक हिन्दी वक्ताओं से अलग कुछ ख़ास बातें रखते थे, जिसका अलग ही कोण और आकर्षण होता था। मसलन, एक बार उन्होंने कहा था कि हिन्दी और बांग्ला के बीच वन वे ट्रैफिक है, जबकि इसे टू वे ट्रैफिक होना चाहिए। हिन्दी के साहित्य संसार से, ख़ासकर समकालीन साहित्य संसार से बांग्ला के पाठक ही नहीं, बहुत हद तक बांग्ला लेखक भी अनभिज्ञ हैं। जबकि दूसरी ओर हिन्दीवाले अपेक्षाकृत बांग्ला साहित्य से ज्यादा परिचित हैं। लेकिन इस वन वे ट्रैफिक के कारण भेड़ियाधसान भी बहुत है। नवारुण ने कहा था, बांग्ला का सर्वोत्कृष्ट ही हिन्दी में जा रहा हो, इस पर मुझे शक़ है। कई बार तो कुछ अनुवादों के बारे में जान-सुनकर लज्जा भी आती है कि उन्हें पढ़कर हिन्दीवाले क्या सोचते
होंगे- यही न, कि ऐसा ही बांग्ला में लिखा जा रहा है! नवारुण दा बहुत बेबाक बातें करते थे। वे बहुत ईमानदार, पारदर्शी, आत्म-आलोचक थे। उनमें स्वाभिमान तो खूब था, लेकिन दंभ बिल्कुल नहीं। ऐसी ही एक संगोष्ठी से साढ़े आठ बजे शाम को लौटते हुए मैंने प्रस्ताव रखा कि किसी बार में दो- दो पेग रम पीकर हम घर जाएंगे। जतीन दास पार्क मेट्रो स्टेशन के सामने नवारुण दा ने टैक्सी रुकवाई। हम वहीं उतर गये। सड़क के अपनी ओर वाली पटरी पर, गाजा पार्क के बगल में मुख्य सड़क से जाती एक गली के मुहाने पर, बिना किसी बोर्ड के, एक पुरानी, धूसर-सी इमारत की दूसरी मंज़िल पर वह बार
था। बालकनी से होकर गुज़रते एक संकरे गलियारे में बने दरवाज़े से जब हम बार में पहुँचे तो देखा, एक बूढ़ा जर्जर हाल था। बल्ब की पीली, मटमैली रोशनी। बहुत पुराने, नाटे कद के, लकड़ी के चौड़े टेबुल और उधड़े गद्दों वाली सोफ़ानुमा कुर्सियाँ। चमकते-दमकते कोलकाता में वह एक पीढ़ी पुराना बार। दूर एक कोने में दो बुजुर्ग व्हिस्की पी रहे थे। हम दो और ग्राहकों की उपस्थिति से जैसे वह बार कृतज्ञ हो उठा हो। हमने दो नहीं, तीन-तीन पेग रम पिया और अच्छे-ख़ासे द्रवित हो गये। नवारुण के भीतर कुछ पिघला। बोले, ‘‘इसी बगल के गाजा पार्क में मेरा बचपन गुज़रा है। माँ-बाबा के साथ यही बगल में हम रहते थे। एक सुबह पार्क में आया तो देखा, बेंच पर काकू (मशहूर फिल्मकार ऋत्विक घटक, जो महाश्वेता देवी से उम्र में थोड़े ही बड़े थे मगर उनके काका थे) बैठे हैं। वे रातभर उसी बेंच पर सोये रह गये थे। उन्होंने अपने पास बुलाया और एक चाय और बंद (पावरोटी) मँगवाकर खाया, उन्हें भूख लगी थी। कहा, माँ-बाबा को यह बताना मत।’’ पहली बार मैंने महसूस किया कि नवारुण दा बहुत शिद्दत से अपना अतीत याद करते थे। यह उनके मन का बहुत निजी और कोमल कोना था।
खैर, बार से निकल कर 12 बजे के आसपास नवारुण दा को गोल्फग्रीन में उनके घर पर ड्राप करते हुए मैं बांसद्रोणी की सूर्यनगर कालोनी में अपने डेरे पर पहुँचा। अगली सुबह मैं सोचने लगा कि हमारे पीने
से शायद प्रणति दी को बहुत बुरा लगा होगा, लेकिन दो दिन बाद जब नवारुण दा से मिलने उनके घर गया, तो प्रणति दी हमेशा की तरह बहुत सहज ढंग से मिलीं। अलबत्ता वह कुछ ज्यादा ही मुस्करा रही थीं। हाँ, महाश्वेता दी को हमारे पीने का पता चल गया था, क्योंकि जब मैं उनसे मिला, तो हल्की झिड़की और थोड़ा धमकाने वाले अंदाज़ में उन्होंने कहा, ‘‘क्यों, नवारुण से आजकल कुछ ज्यादा ही दोस्ती हो रही है। देखना, तुमको भी डायबिटीज हो जाएगी!’’ जाहिर है, प्रणति दी ने ही उनको हमारे पीने की बात बताई होगी।
तब तक मुनमुन की मृत्यु हो चुकी थी। मैंने और कृपाशंकर चौबे ने ‘जनसत्ता’ से वीआरएस ले लिया था। ऐसे ही खाली समय में नवारुण दा की पहल पर बांग्ला की सर्वभारतीय मासिक पत्रिका ‘भाषाबंधन’ की नींव पड़ी। पत्रिका का यह नाम महाश्वेता दी ने रखा था। हालांकि पहले ही हाथ झाड़ते हुए उन्होंने कह दिया कि मेरे पास ऐसे ही बहुत काम है, मैं तुम लोगों के इस झमेले में नहीं पड़ूँगी। फिर भी कृपाशंकर ने उनको इस बात के लिए राजी कर लिया कि उनका नाम पत्रिका में संपादक मंडल के अध्यक्ष के रूप में जाएगा और उन पर किसी काम का बोझ नहीं डाला जाएगा। कुल मिलाकर महीने भर की तैयारी के बाद जनवरी, 2003 में कलकत्ता पुस्तक मेले में ‘भाषाबंधन’ का पहला अंक प्रकाशित होकर आ गया। नवारुण भट्टाचार्य प्रधान संपादक और मैं व कृपाशंकर चौबे इसके संपादक हुए। वाणी प्रकाशन, दिल्ली के अरुण माहेश्वरी ने आगे बढ़कर पत्रिका के आरंभिक कुछ अंकों का प्रकाशन व्यय वहन करके ‘भाषाबंधन’ की बड़ी मदद की थी। बहरहाल, अपेक्षा के अनुरूप ही पत्रिका का बांग्ला पाठकों ने बहुत स्वागत किया, क्योंकि यह इकलौती ऐसी पत्रिका उनको मिली, जिसके माध्यम से हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के महत्वपूर्ण साहित्य को अपनी भाषा में बांग्ला पाठक पढ़ सकते थे। मैं तो ख़ैर ‘भाषाबंधन’ के पाँच-छह अंक निकलने के बाद ही कोलकाता छोड़कर बनारस चला आया और रोज़ीरोटी के चक्कर में कृपाशंकर चौबे भी एक समय के बाद उलझ कर रह गये, मगर नवारुण दा अपने दम
पर आख़िर तक इस पत्रिका का परचम थामे रहे। फिर तो एक लम्बे अंतराल के बाद 2005 में नवारुण दा से बनारस में ही मुलाकात हुई। तब क्या पता था कि वही आख़िरी मुलाकात साबित होगी। युवा कवि- आलोचक व रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल के सहयोग से आयोजित मुनमुन सरकार स्मृति साहित्य सेतु सम्मान समारोह में भाग लेने नवारुण दा कोलकाता से कृपाशंकर के साथ आये थे। इस सम्मान की निर्णायक समिति के अध्यक्ष कवि केदारनाथ सिंह के साथ दिल्ली से पुरस्कार प्राप्तकर्ता वरयाम सिंह तो थे ही- यह एक बड़ा साहित्यिक जमावड़ा था- पराड़कर स्मृति भवन के सभागार में, जहाँ काशीनाथ सिंह के अलावा चंद्रबली सिंह और बच्चन सिंह भी मंच पर मौजूद थे।
अगले दिन दोपहर में काशीनाथ सिंह की पहल पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, महिला महाविद्यालय के सभागार में नवारुण भट्टाचार्य का एकल काव्य पाठ रखा गया। सभागार खचाखच भरा था। विश्वविद्यालय के लोगों के अलावा शहर के साहित्यप्रेमी और कवि-लेखक भी मौजूद थे। नवारुण पहले से तय अपनी एक-एक कविता पढ़ते गये और मैं उनका एक-एक कर हिन्दी पाठ सुनाता गया। आज भी वह दृश्य आंखों के सामने तैर जाता है। जिसने भी नवारुण का वह काव्य पाठ सुना होगा, कभी भूल नहीं पाएगा। देर तक बस तालियाँ ही तालियाँ।
उस वक़्त सुनाई गयी उनकी एक कविता ‘अनाहारी भूखा आदमी’ का यह हिन्दी पाठ आप भी पढ़ लीजिए-
अनाहारी भूखा आदमी
सब कुछ खाता है
मुँह भर लेता है बालू से, चिलचिलाती धूप, कंकड़-पत्थर
मुट्ठी-मुट्ठी भर लोहा, बादल, आग
खाता है वर्षा, चाट खाता है सूखे को
बीमारी, ट्रक का चक्का, दियासलाई, कीटनाशक
सब कुछ खा सकता है
उसकी भूख इतनी ज़बरदस्त है
वह खुद भी नहीं जानता
अनाहारी, पेट-पीठ सटाये आदमी में एक ही अच्छा गुण है कि
वह सुखी-स्वस्थ लोगों को नहीं खाता हालांकि वे सुबह-शाम यही रटते हैं
कि अनाहारी भूखा आदमी आदतन होता है नरभक्षी
कब वह खा जाएगा
देश, देशवंदितों को, वोट, लीचड़ चिपकुओं को
क्रांति की टनों कसमें
फाइव स्टार होटल, वीडियो, रोटरी
जेल, टेलीफोन, कैसेट, टीवी वह कब खा जाएगा
उससे भयभीत न होकर भी उसकी भूख से डरते हैं बहुतेरे
मृत्यु भी उसके आगे भोजन
के अलावा और कुछ नहीं है
तभी तो श्मशान भी उसके क़रीब नहीं जाता
वह दुख खाता है, कष्ट खाता है, रुलाई खाता है मिल जाए,
तो कभी-कभी भात-रोटी खाता है खूब खाता है मार
लाठी खाता है, गोली खाता है फिर भी वह मरता नहीं
अनाहारी भूखा आदमी
हर समय, हर हाल बचा रहता है।
आज मैं सोचता हूँ तो लगता है, नवारुण भट्टाचार्य खुद ही एक दग्ध किताब थे। वे कंडीशंड यानी शीत-ताप नियंत्रित भाषा के कायल नहीं थे। उनमें एक आग भी है और भीगा हुआ-सा गीलापन भी।
नवारुण को पढ़िए तो आँच भी लगेगी और कंपकंपाहट भी होगी। नवारुण दा इंतजार करते रह गये कि मैं उनको कभी लखनऊ बुलाऊँगा। फोन करते थे, तो पूछते थे, ‘‘कखोन देखा हबे’’ (कब भेंट होगी?) मेरे मोबाइल में उनका नंबर सेव है, उसे मैं मिटाऊँगा नहीं।
मीडिया हाउस, 16/3 घ, सरोजनी नायडू मार्ग, लखनऊ-226001
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नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं
बांग्ला से अनुवाद : मिता दास
शब्द बहरे हो गये हैं
बहरे हुए शब्द यहीं रहते हैं
बहरे हुए शब्द
कोई भी बात नहीं सुन पाते
और उन्हें भी कोई नहीं सुन पाता
बहरे हुए शब्दों को
कोई किराये पर घर नहीं देता
मुँह के ऊपर ही दरवाज़ा भेड़ देते हैं
एक ही संदेह था हर किसी को ये आवारा हैं लौटेंगे या नहीं
जड़ मति हैं या लावारिस हैं ये जो शब्द बहरे हो चुके हैं
आख़िरकार मैं बोल ही उठा आओ, मेरे हृदय की कंदराओं में रहो
किराया नहीं लगेगा सिगरेट के ख़र्चे भी बच जाएंगे।
यह कैसा शहर
यह कैसा शहर जो अपनी गौरैयों को भूल जाता है
यह कैसा शहर
जो भूल जाता है अपने योद्धाओं, गणिकाओं और कवियों को
यह कैसा शहर
जहाँ आकाश छूते बहुमंजिलें श्मशान हैं
यह कैसा शहर
जहाँ कुत्ते और ट्राम निषिद्ध हुए जा रहे जहाँ पेड़ डर कर आँखें मींच लेते हैं
यह कैसा शहर
जहाँ ढोल की आवाज़ अब सुनाई नहीं देती
यह कैसा शहर
जहाँ नकली हिजड़े रोज़ अख़बारों में नाचते फिरते हैं
यह कैसा शहर जो थूक लगा-लगा कर नोट गिनते-गिनते देखता है कि उसकी जीभ ही गायब है
यह कैसा शहर
जहाँ पोलीथीन वोट देते हैं
यह कैसा शहर
जहाँ लेखक सिगरेट बन जल जाते हैं
यह कैसा शहर जहाँ जन्मांध छात्रों को ब्लैक बोर्ड पर पटक देते हैं
यह कैसा शहर
इस शहर के लिए मेरी अंतिम इच्छा....एक ग्रेनेड है।
शिशुओं को सिर्फ़
मूर्ख! कोई आस्था ही नहीं रही मंत्रियों के आश्वासनों में शिशुओं को सिर्फ़ मरना ही भाता है
इकट्ठा हो चुकी हैं दूध की खाली बोतलें, सस्ते झुनझुने
नज़र न लगने वाले काजल के टीके अब किस माथे पर धरोगे,
आंजोगे तुम झूले एकाकी ही झूल रहे हैं
रात के महा आकाश में शिशुओं को तो सिर्फ़ मरना ही भाता है
अभी-अभी तो उस दिन आये थे, जन्मे थे, इतनी जल्दी क्या थी उन्हें जाने की
मुँह जूठन के अल्प ख़र्च बचाने की ख़ातिर
छिप जाते मिट्टी के नीचे फूल खिलाने की ख़ातिर घास में शिशुओं को सिर्फ़ मरना ही भाता है
मूर्ख! कोई आस्था ही नहीं बची मंत्रियों के आश्वासनों में शिशुओं को सिर्फ़ मरना ही भाता है
शिशुओं को तो सिर्फ़ मरना ही भाता है।
गाजा-पैलेस्टाइन
दोनों बच्चे बेहद शरारती
एक के हाथ में एक धागा बँधा था
और एक था बिलकुल बेसुरा जलतरंग-सा
एक यो-यो स्टाइल में, एक झुनझुना लिए
टी. वी. के न्यूज़ चैनल पर
इन दोनों बच्चों को दिखाया जा रहा था
अरे स्टार मूवीज़ बना दिया तुमने तो
उस वक़्त दोनों बच्चे शरारत नहीं कर रहे थे
दोनों ही सोये हुए थे सपने देख रहे थे कि पता नहीं कुछ भी कहा नहीं जा सकता कारण
दोनों के सिर ही नहीं थे ।
दोनों हाथों की लड़ाई
नाखूनों में जल रही है आग, जल रहा है चूल्हा और छत
मेरे दोनों हाथ आपस में झगड़ रहे हैं
इसलिए मैं हाथों के होते हुए भी हूँ लूला
छुरी, बम, तलवार, पिस्तौल
स्तंभित हो देख रहा हूँ मैं
लड़वाकर भाग गया है हरामी
दोनों हाथ भूल गये हैं
एक संग लगी थी हथकड़ी
वे दोनों को ले गये थे
पीठ पीछे हथकड़ी डाल दोनों हाथों में
बूँद-बूँद गिरे थे
रक्त की धार अभिन्न
बेबाक हो भूल गये थे
दोनों सीखचों को पकड़े कि बाहर पहरा था
चाकू, लाठी, कटारी, बन्दूक
अवाक् हो देख रहा हूँ मैं
लड़ाकर भाग गया है हरामी
नाखूनों से झर रहा है आग, जल रहा है चूल्हा और छत
मेरे दोनों हाथों में छिड़ी है जंग
इसलिए मैं हाथ के रहते भी हूँ लूला
हत-चकित सा दोनों पैरों पर
खड़ा हूँ दोनों पैरों से
श्मशान और कारखानों की धूल में ।
खुद को जानने की कविता
गले में शीतल रस्सी बाँध बाल्टी रोज़ कुँए में कूद जाती है
और भीषण इलेक्ट्रिक करेंट से झुलस सफ़ेद हो उठता है बल्ब
दोनों आँखों में काला रुमाल बाँध कर हवा रोक
रेल लाईन पर सिर रख कर
पड़े रहना
विषाक्त चाँद आसमान को रोज़ नीले रंग से
ढँक देता है
हाथों की नसों को काट कर सूर्य आकाश को लाल कर
डूब जाता है एवम् संभवतः
कुछ लोग आत्म हत्या भी करते रोज़ मैं भी इतना कुछ और इन्हीं लोगों के संग नियत सह-मरण में जाता हूँ, संग मरता हूँ
एवम् संभवतः जिन्दा भी रहता हूँ ।
मिता दास
भिलाई-490020 (छत्तीसगढ़)
ईमेल-
mita.dasroy@gmail.com
कखन बोलतेन ना कबे ? कखन यानि (कोन क्षण) किस क्षण-तब आप जवाब में समय बताते हैं। कबे यानि कब। (अरविन्द के संस्मरण पर टीप)
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