(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्र...
(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)
रंग राग
समकालीन व आधुनिक रंगमंच के समानांतर हमारे गाँवों-कस्बों
में एक अलग तरह की रंग परंपरा मौजूद है, जहाँ कलाकार बगैर किसी प्रशिक्षण के सीधे लोक से
सीखकर आता है और लोक के साथ संगत करता है। उसके अपने अंतर्विरोध भी हैं। यहाँ इसी
तरह की रंग परंपरा का एक अनुभव साझा किया जा रहा है
गाँव में ‘खेला’
अमितेश कुमार
घर में चोरी हुई थी। इसी सिलसिले में प्रेम भाई के घर गया था और संयोग देखिये कि चला आया नाटक की दुनिया में। तो आप भी सुनिये कि दरअसल हुआ क्या-क्या...। मेरा गाँव ‘पजिअरवा’ भारत के बिहार प्रांत के मोतिहारी जिले के सुगौली प्रखंड में पड़ता है। तो घर में हुई चोरी की रपट लिखवाने या मामले को रफा-दफा कराने के संदर्भ में सलाह-मशविरा के लिए गाँव में पड़ोसी प्रेम भाई के घर उनसे मिलने गया था। मामला मेरी समझ से बाहर था क्योंकि मैं शहर से लौटा था। प्रेम भाई गाँव में वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी हैं। गाँव में नाटक, अष्टयाम, आराधना, कीर्तन, होरी इत्यादि में उनकी उपस्थिति लाज़िमी होती है। वे सधे गायक, पके अभिनेता, जमे नाल वादक और तपे-तपाये संगठनकर्ता हैं। उनके घर गया रात में, तो पता चला वे पड़ोस में हैं। वहाँ पहुँचा तो देखा, कुछ लोग इकट्ठा थे। प्रेम भाई भी वहीं थे। मैं उन्हें प्रेम भाई ही कहता हूँ और वे मुझे मोनू जी। वहाँ नाटक की भूमिका का बँटवारा हो रहा था। मैंने प्रेम भाई को बाहर बुला कर अपनी बात कही। उन्होंने भरोसा दिया कि कल सुबह वे मेरे साथ थाने चलेंगे। फिर मेरी बुलाहट अंदर हुई। मुझे भी नाटक में एक भूमिका करने के लिए कहा गया। पहला प्रस्ताव था नायिका का, गाँव के नाटकों में अभी भी पुरुष ही स्त्री की भूमिका करते हैं। इसके लिए लड़कों को मनाना मशक्कत भरा काम होता है। लड़कों को अभिभावकों का डर सताता है, जो बेटा को बेटी की भूमिका करने पर घर से निकालने तक की धमकी देते हैं। गाँव में कई बार ऐसा भी हो चुका था कि पितृ भय के चलते इच्छा रहते हुए भी कोई लड़का नायिका की भूमिका नहीं कर सकता था। मैंने कहा कि मेरे घर चोरी हुई है, इस मनःस्थिति में मैं नायिका का किरदार नहीं कर सकता, लेकिन एक छोटा रोल मुझे दे दीजिये, मैं कर लूँगा। इस तरह नाटक मंडली में मेरा प्रवेश हुआ। मुझे एक फ़ौजी की भूमिका मिली थी जो मेरी काया के अनुकूल बिलकुल नहीं थी। दिन में मैं घर के काम में उलझा रहता और रात में रिहर्सल करता। चोरी की वज़ह से पैदा हुए तनाव से निबटने का यह एक उपचार भी था।
इससे एक साल पहले इसी तरह दशहरे में मैं जिस दिन गाँव पहुँचा था, उसी दिन मुझे एक भूमिका की स्क्रिप्ट दे दी गयी और रात में रिहर्सल में आने को कहा गया। गाँव में उससे साल भर पहले जो नाटक हुआ था, उसमें मैं बैकस्टेज सक्रिय था, इसी वज़ह से यह रोल दिया गया था। शाम में रिहर्सल में पहुँचा तो पता चला कि नायक का रोल मुझे विवाद की वज़ह से मिला था। दो लोगों की दावेदारी के विवाद का निबटारा मुझे रोल देकर किया गया था। शाम में स्पष्ट हो गया कि नाटक मंचन की संभावना नहीं थी। नाटक की किताब उस टोले की पहली टीम ने उसी टोले की दूसरी टीम को और दूसरी टीम ने हमारे टोले के लड़कों को दिया था। टोला-टोला में आप भ्रम में पड़ गये होंगे, तो आइये इस टोले की गुत्थी को सुलझा लें। मेरे गाँव में मुख्यतः पाँच टोले यानी महल्ले हैं। एक पुर्वारी टोला, जिसमें हम हैं, दूसरा पछियारी टोला, तीसरा पोखरा पर, चौथे को केवल टोला कहते हैं और पांचवा बऊधा टोला है। पछियारी टोले में नाटक खेलने वाली दो टीमें हैं। हमारे टोले के लड़के उन्हीं दो टीमों में अपनी संगत के हिसाब से नाटक खेलते हैं। उस टोले के लोग हमारे टोले को थोड़ा कमतर मानते हैं और यह पूर्वग्रह उस टोले में निवास करने वाली सभी जातियों का हैं। आख़िर गाँव के ‘भूतपूर्व’ सामंतों और ‘दरबार’ का वह टोला था, जिसमें पोस्ट ऑफ़िस था, पुस्तकालय था, स्कूल था, मंदिर था, माई स्थान था, स्वतंत्रता सेनानी थे, पान दुकानदार थे, पत्रकार थे और एक पूर्व मुखिया भी। मेरे टोले में संपन्न, शिक्षित, नौकरी पेशा लोगों की संख्या कम थी या नहीं के बराबर थी। ले-देकर एक मसजिद और कुछ आटा पिसने की चक्कियाँ थी। उस टोले की टीम जब भी नाटक खेलती और पात्र बँटवारा करती, तब हमारे टोले के लड़कों को कमतर रोल दिया जाता। अधिकतर नायिका का, नौकर का, बूढ़े का या अन्य हास्य किरदारों का। इस उपेक्षा के प्रतिशोध में हमारे टोले के लड़के किताब उस टोले से लेकर आये थे और बुनाद की दुकान पर तराजू छूकर क़सम खाई थी कि नाटक होगा। बुनाद की शिक्षा नहीं के बराबर हुई है, फिर भी बुलंद आवाज़, साफ़ उच्चारण के साथ भूमिका को याद करने की उसमें जबरदस्त क्षमता है। नाटक खेलने की उसकी ललक ने सबको प्रेरित किया था। कसम खा ली गयी थी, रोल बँट चुके थे, रिहर्सल शुरूहो गया था, जो बुनाद की ही झोपड़ी में होता था। कान से कम सुनने वाली उसकी माँ को आखिर क्या फ़र्क पड़ता!
उस वर्ष हम जब नाटक के लिए चंदा माँगने के लिए गाँव में निकलते, तो लोग हमें हतोत्साहित करते थे, तो हम तर्क देते कि हम अठारह पात्र हैं और हमारे घरवाले जो कम से कम सौ होंगे हमारा नाटक देखेंगे। अतः हमारे पास दर्शक तो हैं। गाँव में नाट्य दल का नाम रखने का रिवाज़ था। ‘नवयुवक नाट्य कला परिषद’ के आगे कोई एक विशेषण जोड़ दिया जाता था और वह नया दल हो जाता था। हमने इस परंपरा को तोड़ कर अपने दल का नाम रखा- ‘अभिरंग कला परिषद’, जिसमें अभिरंग का आशय था अभिनव रंगमंच। नाटक हुआ और क्या जबरदस्त हुआ! ‘कश्मीर हमारा है’ उर्फ़ ‘आतंकवाद को मिटा डालो’। नाटक की समाप्ति के बाद दर्शकों को कह कर उठाना पड़ा कि नाटक समाप्त हो गया, अब आप लोग घर जाइये! उसके बाद सिलसिला चल पड़ा और इन सालों में सिर्फ़ एक साल नाटक नहीं हुआ क्योंकि उस साल ग्रामीण सहकारिता समिति का चुनाव था। गाँव के कई लोग चुनाव लड़ रहे थे। नाटक के मंच का राजनीतिक इस्तेमाल होने व तत्पश्चात विवाद का भय था। दो टोले थे, उनकी टीम थी, टीमों के बीच विवाद था और उस विवाद में पक्षधरता दिखा कर कोई भी अपना वोट बैंक नहीं खोना चाहता था। नाटक लिख लिया गया था, पात्र चुन लिये गये थे लेकिन ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ की लिखी गयी भूमिकाओं को समेट कर रख दिया गया कि अगले साल खेलेंगे। गाँव के राजनीतिक माहौल में कोई आगे बढ़ कर उस साल नाटक के लिए खड़ा नहीं हुआ था. हमारे लिये यह सबक था क्योंकि हमें उस समय संसाधन की किल्लत थी। अब तय हुआ कि नाटक खेलना है, तो अपने पास संसाधन पर्याप्त जुटाना होगा जो हस्तक्षेप और दबाव से निकलने में मदद करेगा और नाटक होता रहेगा।
हमारा गाँव मुख्यतः कई टोलों का होने के बावजूद वर्चस्वशाली दो टोलों के बीच बँटा हुआ है। गाँव में पहले नाटक दोनों टोले के बीचोबीच हुआ करता था, जब वकील बाबा उर्फ़ जयनाथ मिश्र नाटक दल के मुखिया हुआ करते थे। गिरधारी राऊत के घर के आगे, जो गाँव के ठीक बीचोबीच था, बहुत बड़ा दालान था। अच्छी ख़ासी जगह थी। बेटों से पोतों के बीच बँटते-बँटते अब उस जगह पर इतने घर बन गये हैं कि जगह सिमटी हुआ दिखाई देती है, लेकिन ज़मीन देखकर अंदाज़ा हो जाता है कि नाटकों के लिए कितनी अच्छी जगह रही होगी। वकील बाबा, शायद ‘ओकिल बाबा’ उच्चारण ठीक होगा, हमारे गाँव के आदि नटकिया हैं। उनके बारे में लिखा जाये, तो अलग से एक अध्याय लिखना पड़ेगा। मुख़्तसर सा परिचय यह है कि पेशे से प्राध्यापक, छोटी क़द के हाज़िरजवाब, स्फूर्ति से भरे और पंचलाइन के व्यंग्यों के उस्ताद ओकील बाबा गाँव में नाटक शुरूकरने वाले आरंभिक लोगों में से एक थे। उनकी सक्रियता नाटक को लेकर आज भी बनी रहती है। उनका कहना है, ‘‘नचनिया जब नगाड़ा के ताल सुन ली त बैछौने पर काहे ना होई, लेकिन चुतड़ डोलइबे करी।’’ ‘नचनिया’ से मतलब अभिनेता से ही रहता है। ओकील बाबा के बाद मेरे पिताजी यानी प्रोफ़ेसर साहब के नेतृत्व में नाटक होने लगा, तो उन्होंने कभी-कभी जगह का बदलाव भी कर दिया, जैसे कि हमारे दरवाज़े पर ‘जय परशुराम’ हुआ था। जिसमें परशुराम की भूमिका निभाने वाले ने इतनी शिद्दत से अभिनय किया कि आज भी लोग याद करते हैं, ‘‘गोविंद जी पशुराम बन लें त खड़ाऊं के थाप से चौकी तुड़ देले..हाँ त गज़ब नु रोल कईलक, इयरवा!’’ मेरे पिताजी के बाद कमान अमरचंद्र मिश्र ने संभाली, तो नाटक को वे अपने टोले में ले गये और अनिल काका के दरवाज़े पर, जो गाँव के स्कूल के पास है, नाटक होने लगा।
उस टोले की टीम भी, तभी दो फाड़ हुई जब भूमिका नहीं मिलने की वज़ह से एक रंगकर्मी ने दल तोड़ कर और कुछ नये लोगों जिन्हें मौक़ा नहीं मिलता था, को जोड़कर अपना दल बना कर नाटक खेला। विवाद की तीव्रता और प्रतिद्वंदिता इतनी गहरी हो गयी थी कि एक ही नाटक ‘गुनाहों का देवता’ को दोनों दलों ने एक दिन के अंतराल पर खेल दिया। लेकिन अंततः दोनों दल बिखर गये। इसका कारण यह था कि नायिका की भूमिका करने वालों का अभाव हो गया और जो भूमिका करते थे, वह इस लायक नहीं रहे कि नायिका बनते। नायिका बनने के संकट का आलम यह था कि एक दफ़ा नाटक की पूर्व संध्या पर ही नायिका की भूमिका करने वाला अभिनेता फ़रार हो गया। नायिका के अभाव से जूझते हुए एक साल बिना नायिका की भूमिका वाला नाटक हुआ ‘अरावली का शेर’। इसके बाद नाट्य मंचन की निरंतरता टूटी जिसको फिर बहाल किया हमारे टोले के प्रेम यादव, और जादूगर ज़ाहिर जैसे लोगों ने। अपने प्रयासों से प्रेम ने अपने दरवाज़े पर ‘कच्चे धागे’ खेला। ज़ाहिर के प्रयास से ‘जंगल का दादा’ हुआ।
यह सिलसिला भी इन्हीं दो नाटकों तक कायम रहा। कुछ वर्षों के अंतराल के बाद त्रिविक्रम झा ने दो-तीन साल अपनी सक्रियता से नाटक निर्देशित किया, लेकिन वह भी निरंतरता बहाल नहीं कर सके। निरंतरता के अभाव में नाटक मंडलियों के पास सामग्री का अभाव हो गया। समय के साथ नाटक मंडलियाँ केवल मेरे गाँव में ही नहीं बिखर रही थीं, अगल-बगल के जिन गाँवों में नाटक होता था, जहाँ से नाटक के लिये सामग्री आती थी, वहाँ भी खस्ताहाल हो रहा था। गाँवों में इन सांस्कृतिक कार्यक्रमों के संचालन का जिम्मा जिन युवकों का था, वे रोज़गार की तलाश में शहरों में चले गये। ऐसे में नाटकों को बंद होना ही था। फिर नाटक तब शुरूहुआ, जब कुछ युवकों का जुटान हुआ। एक उम्र के लोग मिले और नाटक हुआ। कुछ वर्षों के अंतराल पर नाटक हुआ ‘प्रतिशोध’। मंडली का नाम रखा गया ‘नवरंग नवयुवक नाट्य परिषद’। अब इतने सारे युवकों की अटान एक ही मंडली में संभव नहीं थी इसलिये कुछ युवकों ने निकल कर दूसरा दल गठित कर लिया। पहले वाले दल में सवर्ण युवकों का वर्चस्व था, तो दूसरे दल में पिछड़ी जाति के युवकों का। एक ही टोले में जातिगत आधार पर दो दल हो गया। दोनों दल एक-दूसरे से होड़ लेने लगे। आपसी ईर्ष्या भी बढ़ी।
नाटक करने में बड़ी समस्या आर्थिक प्रबंधन है। गाँव में नाटक करने का मतलब होता है, एक दिन के लिए कुआँ खोदना, पानी पीना-पिलाना और भर देना। मंच, प्रकाश, मेकअप, साउंड, नाच सबके लिए पैसा चाहिये। पैसे का मुख्य स्रोत है ग्रामीणों से लिया जाने वाला चंदा। गाँव में चंदा देने में समर्थ मुख्यतः सवर्ण हैं, इसलिये निःसंदेह सवर्ण दल को चंदा अधिक मिलता था। पिछड़ी जाति के युवकों के पास समस्या थी कि उनके अभिभावक इस नाच-नौटंकी को फालतू समझते थे और लगता था कि खेत में या दरवाज़े पर गाय अगोरने की जगह नाटक करना एकदम फालतू काम है। इन जातियों में पैसे वाले लोग भी इन्हें चंदा देने को तैयार नहीं थे। आमतौर पर ये व्यवसायी थे और गाँव के किसी भी सार्वजनिक काम में इनकी जेब से पैसा निकालना टेढ़ी खीर था। इसलिए इनके भी चंदा का स्रोत लगभग वही लोग थे, जो पहले दल के। दरअसल गाँव में कुछ लोग भूतपूर्व नटकिये थे। इन्हें चिह्नित कर लिया गया था। वे दोनों दलों की हरसंभव मदद करते। गाँव के दुकानदारों से चंदा ले लिया जाता था। मँहगाई उतनी नहीं थी और तामझाम भी नहीं रखना था, तो कम पैसे में हो जाता था। नाच की व्यवस्था अगल-बगल के गांव में मौजूद थी, तो सस्ते में उसका प्रबंध हो जाता। नाटक खींच-खांचकर हो जाता था। लेकिन दिक्क़त तब होने लगी जब कुछ युवकों ने चंदे के पैसे में से खाना शुरूकर दिया। यह बीमारी पहले वाले दल को अधिक लगी थी। साइकिल की जगह मोटर साइकिल से चलने लगे। नाटक के काम से जाने पर पेट्रोल का पैसा दल के चंदे में से लिया जाने लगा। चंदे के पैसे से ही भूजा और ताश, मीट-भात का भोज होने लगा। खामियाज़ा उसको भुगतना पड़ा जिसके नाम से साटा था।
नाचा का साटा बहुत ही रिस्क वाला काम होता था, आज भी है। जिसके नाम से साटा होता था, भुगतान नहीं होने की स्थिति में नाच दल उसके दरवाज़े पर जुट जाती, वही खाना भी खाती और पैसा लेकर ही घर जाती थी। पंचायत बुलाने की भी नौबत आ जाती थी। यही हुआ, पैसे की कमी होगी, नाच दल दरवाज़े पर बैठ गई और दल के नेता को पैसा घर से देना पड़ा। गांव में फ़ज़ीहत और पिता जी की फटकार मुफ़्त में मिली। पता नहीं, तीसरी खाई या चौथी लेकिन कसम खाई कि आज के बाद नाटक नहीं करेंगे। अगले साल पैसे और नायक का विवाद हुआ, मंडली बिखर गयी। दूसरी मंडली की भी हालत यही थी। उसमें पैसा खाने वाले लोग नहीं थे तो पैसा मिलाने वाले भी लोग नहीं थे। तुर्रा यह कि उस दल में एक निर्देशक नाम का शख़्सियत भी था, जो दो रुपये की मदद नहीं करता था और ख़र्चा दुनिया भर का करवाता था। नतीज़न वहाँ भी दल के नेता को जब अपने घर से देना पड़ा, उसने भी तौबा कर लिया। दोनों दलों ने लगभग एक साथ नाटक करना बंद कर दिया।
जब हमारे टोले में नाटक को जबरदस्त सफ़लता मिली, जबकि इस दल में से दो-चार को छोड़कर सभी पहलौठे नटकिया थे। दूसरे टोले के लड़कों को फिर जोश आया और उन्होंने नाटक ठाना। जिस टोले में तल्खी में दो दल बँट गया था और जिनमें मेल की संभावना एकदम नहीं थी, अब मिल गये थे। इससे उन दोनों ही दलों के कुछ पुराने लोग अलग हो गये और उनकी सहानुभूति हमारी तरफ़ हो गयी। विवाद फिर गहरा गया। इस बार यह दो टोलों में था। विवाद का कारण यह था कि गाँव में छठ के अवसर पर नाटक होता रहा है और नहाय-खाय के दिन को सबसे मुफ़ीद माना जाता है। खरना करके पवित्र हुई औरतों के लिए फुरसत का दिन पारण के रोज़ ही आता है। ये नाटक की मुख्य दर्शक होती हैं। पारण के दिन अधिकांश लोग गाँव से चले जाते हैं। इसलिये नहाय-खाय के दिन नाटक होता है। नहाय-खाय के दिन नाटक खेलने के लिए विवाद हो गया। हमने घोषित किया कि हमारा नाटक पहले तय हुआ है और हमने नाच-बाज़ा सब उसी दिन का बाँधा है, इसलिये हम पीछे नहीं हटेंगे। दूसरे दल ने शुरुआती ज़िद के बाद एक दिन पहले नाटक खेल दिया। इसमें भी उनका मानना था कि जिसका नाटक पहले होगा, वह सफल होगा। दो रात जाग के लोग नाटक नहीं देख सकते, इसलिये दूसरा नाटक फ्लाप होगा। मगर संयोग से हमारा नाटक उनके नाटक पर बीस पड़ा। विवाद ने रंग पकड़ा छठ घाट पर मार-पीट की नौबत आ गयी। हमारे नाटक की सफ़लता का श्रेय दृश्यों के बीच में नाचने वाली लड़की को दे दिया गया। सिलसिला शुरूहो गया था। हर साल नहाय-खाय के दिन के लिए विवाद होता था। ‘सत्य हरिश्चंद्र’ नाटक होने देने के लिए हमारे टोले के बुजुर्ग उस टोले के लोगों को मनाने गये। समझौता इस बात पर हुआ कि अगले साल नहाय-खाय का दिन उनका होगा। गाँव का मुखिया अपने वोट को नहीं खोना चाहता था और इस मनावन दल में वह था। उसके वादे की वज़ह से हमने अगले साल नाटक नहीं खेला। इस साल ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ होते-होते रह गयी। दूसरे टोले का नाटक बुरी तरह फेल हुआ। गाँव की बदनामी हुई। ‘सत्य हरिश्चंद्र’ के मंचन से हमारे दल ने जो प्रतिष्ठा कमाई थी, वह धूमिल हो गयी। गाँव के लोगों को यह बात अखर गयी। उस दल में फिर पैसा, नायक और नायिका की भूमिका को लेकर आपसी विवाद हो गया। अगले साल से उसने नाटक खेलना बंद कर दिया। इसका एक और कारण था कि उस दल के नेता को अब चुनाव लड़ना था और वह कोई विवाद कर अपना वोट नहीं खोना चाहता था। ‘नहाय खाय’ का दिन पूरी तरह हमारा हो चुका था। अगले साल फिर भव्य तरीके से ‘कर्ण’ की प्रस्तुति हुई। नाटक के अवसर पर होने वाले नाच के लिए एक बार नाच पार्टी बुक करने की ज़िम्मेदारी आयी।
अब गाँव में नाच पार्टी नहीं थी, तो यह पता करना था कि किस गाँव में नाच पार्टी है। एक नाच मंडली में काम करने वाले शिवपूजन का ससुराल हमारे ही गाँव में था, इस नाते वे गाँव भर के बहनोई थे, पूरा गाँव उनका साला। गाँव इस मामले में अनूठा है। किसी भी गाँव में जब किसी का रिश्ता जुड़ता है, तो पूरे गाँव से जुड़ता है। ख़ैर, मेरे गाँव से थोड़ी दूर पर ही उनका गाँव है। हम साइकिल के पैंडल दाबते हुए पहुँच गये शिवपूजन के पास। दुआ-सलाम में गाली-गलौज हुआ, शिवपूजन ने तुरंत मिसरी के साथ पानी पिलाया। भोजन का औपचारिक निमंत्रण दिया, जिसे हमने टाला। वे ससुराल के मेहमान को बिना कुछ खिलाये जाने देने के लिए तैयार ही नहीं थे। हमने अपनी प्राथमिकता बतायी। शाम से पहले गाँव जरूरी तौर पर लौट जाने का हवाला दिया। फिर हमें वे अपने साथ ही ले गये, उसी गाँव के एक टोले में जिसे बखौआ टोला कहते हैं। नाच पार्टी के मालिक किसान थे। बोझा लेकर खेत से लौटे थे। बात विचार शुरू हुआ। बताया गया उन्हें कि क्या-क्या चाहिये- एक नाल वादक, एक नगाड़ा वादक, एक बैंजो वादक, दो लौंडे, एक टिमकी सेंकवा, एक एक्टर, जो खुद शिवपूजन जी थे। नाच पार्टी का साटा कैसे किया जाता है, मैंने यहीं पर सीखा। हम दो लोग थे- प्रदीप काका और मैं। प्रदीप काका नाटक करवाने के पीछे दीवाने थे। स्कंदगुप्त में लिखे मादक अधिकार सुख की सारहीनता का अर्थ मुझे उनके चरित्र में ही खुलता दिखता था। हमारी समिति के वे मानद अध्यक्ष थे। समिति बनाने का किस्सा यह था कि पहले साल के नाटक के बाद बाक़ायदा एक समिति का काग़ज़ पर गठन हुआ, जिसमें मेरे पिता सरंक्षक अध्यक्ष थे, प्रदीप काका सचिव थे और लालबाबू कोषाध्यक्ष था। सदस्यों को दस-दस रुपये प्रति माह जमा करने थे। एक साल में इस तरह एक सदस्य जमा करता एक सौ बीस रुपये जो उसे एक बार में देने में दिक्कत होती, लेकिन इस तरह आसान होता। समिति के सदस्यों की इतनी संख्या थी कि उस जमा किये गये पैसे से नाटक का खर्चा निकल आता और गाँव में जो चन्दा किया जाता, उससे नाटक के सामान ख़रीद लिये जाते। बचा हुआ पैसा अगले साल के लिए रख लिया जाता। रोड मैप बढ़िया था, लेकिन कभी लागू नहीं हो सका। आधे से अधिक सदस्य बाहर रहते थे और उन्हें माहवार जमा करने की फुरसत नहीं थी, कुछ लापरवाही भी थी जिससे यह मॉडल सफल नहीं हो सका। इसमें जिसकी कोषाध्यक्ष की भूमिका थी, वह अति लापरवाह था। असल जीवन में और मंच पर भी हर वक़्त कामेडियन की भूमिका में रहता। वह आजकल पैक्स अध्यक्ष है। ख़ैर, पहले प्रदीप जी पर लौटते हैं, उसके बाद नाच पर। प्रदीप जी पद से सचिव थे और कहलाते अध्यक्ष थे। इस नाम के लिए वे नाटक में बहुत मेहनत करते थे। उनके पास जनरेटर था, जो नाटक में मुफ़्त में चलता था। तेल समिति का होता था। नाटक में काम आने वाला हर सामान दरी, कपड़ा, तिरपाल, जो भी चाहिये था, वे घर से देते थे। ‘सत्य हरिश्चंद्र’ के दौरान लापरवाही से उनकी नयी दरी जल गयी, लेकिन उन्होंने उफ्फ तक नहीं की। अध्यक्ष थे, इसलिए दरी जलने की जिम्मेदारी भी अपने सर पर ले ली। एक बार नाच पार्टी के लौंडे के पास मोज़ा नहीं था। अपने मोज़े पैर से उतार कर लौंडा को दे दिया और लौंडा ने उसे क़द्रदान का तोहफ़ा समझ कर रख लिया। इसके एवज में दो-चार रससिक्त बातों का आदान-प्रदान उसे ज़रूर करना पड़ा होगा। वैसे प्रदीप जी ने मोज़ा हमेशा के लिए नहीं दिया था। नाटक के बाद मोज़ा माँगने पहुँचे, तो लौंडा गाँव के युवकों को एक कहानी देकर जा चुका था। नाटक में उन्हें अभिनय का मौक़ा कुल तीन ही बार मिला था। हमारे पहले नाटक में एक दृश्य की भूमिका में उन्होंने जानलेवा अभिनय किया था। हमने उनको समझाया कि आप अध्यक्ष हैं और किसी समिति का अध्यक्ष अगर अभिनय करेगा, तो वह बाक़ी चीज़ों पर कैसे ध्यान देगा! इस बात को समझते हुए उन्होंने अपने भीतर के अभिनेता की कुर्बानी दे दी या ऐसे कहिये कि हमने चालाकी से ले ली। उन्होंने रिहर्सल के दौरान अभिनेताओं को चुप कराने, सबकी उपस्थिति सुनिश्चित करने, स्टेज़ तैयार करने के लिए बांस माँगने और काटने, स्टेज़ की लाइटिंग करने जैसे कई काम अपने हाथ में लेकर एक बड़ी जिम्मेवारी ली।
आइये, अब एक बार फिर नाच दल के दरवाज़े पर वापस चलते हैं। हम नाच तय करने जा रहे हैं।
प्रदीप काका ने पहले ही मुझे इशारा कर दिया था कि चुप रहना और देखते रहना। मैं दर्शक की भूमिका में आ गया। नाच दल मालिक ने ‘समाजी’(नाच में काम करने वाले लोगों को समाजी कहते हैं) की गिनती की और उसके हिसाब से प्रति व्यक्ति तीन सौ रुपये की माँग की। प्रदीप काका ने कहा कि इतने में हम पूरा नाटक कर लेंगे। ‘‘नाटक चंदा से खेलल जाला, तोरा नईखे बुझात, पर हेड सै गो रुपया ले ल।’’ नाच मालिक- ‘‘ना जी, ना होई।’’ प्रदीप काका- ‘‘ना होई? चल हो मोनु तब...।’’ हम उठ गये। मालिक ने रोका- ‘‘अच्छा दू सौ कर दीं।’’ प्रदीप काका ने फिर कहा, ‘‘सै रुपया।’’ उठने की बारी उसकी थी। उठते-बैठते तीन-चार बार हम वहाँ से चलने-चलने को हो आये। अंततः कुल नौ सौ में बात फरिया गया। प्रदीप काका ने शिवपूजन को हिदायत किया, ‘‘समय से अईह, आ तुहु आईहा ना त...!’’ नाच मालिक एक पुरानी कापी ले आये और साटा का सारा विस्तार उसमें कलम से मैंने दर्ज़ किया, दो बार। एक प्रति अपने पास रखी, एक प्रति मालिक को दी गयी। साटा हो गया। प्रदीप काका ने कहा कि नाच बान्हे सबके ना आवेला, नचनिया ताल करेल सन, ताल में आ गइल त कटा गइल।
नाच तय करने के तो कई किस्से हैं। एक बार जब नाच नहीं मिला, तब हमने निकटवर्ती क़स्बे और प्रखंड मुख्यालय में नवजात आर्केस्ट्रा पार्टी को तय किया। उसमें नाचने वाली स्त्रियों को कहीं से आयात किया गया था। शायद बंगाल से। लगन के दौरान नाच कर ये अपना और अपने दल के मालिक का पेट भरती थीं। गाने का हुनर उनके पास नहीं था। नाचने का भी नहीं था। वे औरत थीं। देसी दर्शक समुदाय में उनके इस होने का ही जलवा था। लौंडा नाच अब गाँवों में ख़त्म हो गया। स्त्री देह की तुलना में पुरुष देह कहाँ टिक पाती।
ग्रामीण नाटकों की दृश्य सरंचना ऐसी होती है कि दो दृश्यों के बीच नाच की एक परंपरा ही है। नाटक देखने आने के पीछे दर्शकों में एक आकर्षण नाच का भी रहता है। नाच बढ़िया होगा, तो नाटक भी जमेगा। जिस दिन आर्केस्ट्रा का साटा हुआ, उस दिन दोपहर में गाँव वालों ने एक नाच दल का भी साटा कर लिया। अब दो दल हो गये। मना किसी को नहीं किया जा सकता था, बयाना हो चुका था। साटा हो जाने के कारण पूरा पैसा देना ही पड़ता नचाये या बिन नचाये। महिला नाचने वाले दल को नाटक में शामिल करने से भय था कि इनके आकर्षण में नाटक चौपट ना हो जाये। लोग नाटक छोड़ इन्हें ही न देखने लगें। इस संशय ने अभिनेताओं को भीतर से डराया और तैयारी जम कर होने लगी। दूसरी समस्या थी कि जब सभी कार्यकर्ता नाटक खेल रहे होंगे, तो इनकी सुरक्षा कैसे होगी? ये रहेंगी कहाँ? गाँव में जहाँ भी नाच दल की रिहाइश गिरती है, वहाँ तमाशबीनों का जमावड़ा हो जाता है। इससे निपटना आसान काम नहीं है। एक से एक बवाली आते हैं। मैंने अपनी माँ से पूछा, ‘‘क्या हम अपने घर में रख सकते हैं? देख लो वो लोग भी आदमी ही हैं।’’ माँ ने कहा, ‘‘तुम मेरे बेटे ही हो आख़िर।’’ मैं समझ गया। नाटकों के आयोजन में मेरी माँ की अहम भूमिका है। रिहर्सल की कितनी रातों में उसने अपनी नींद खराब की है। अपनी साड़ियाँ दी हैं। कलाकारों को बुलाकर खिलाया है। बार-बार चाय बनाया है। ख़ैर, नर्तकियों के रहने की समस्या निबट गयी। ऐसे जगह मंच बनाया, जो मेरे घर से सटे था। वहाँ से मंच के बीच में कोई अन्य न आये, इसकी व्यवस्था भी हो गयी। जिस दिन नाटक होना था, बवाल उस दिन कट गया। त्रिविक्रम झा ने पिता जी और ओकिल बाबा को चढ़ा दिया कि महिलाएं हैं नाचने वाली और ये गाँव के लिए ठीक नहीं है। अब तर्क-वितर्क होने लगा। एक तरफ़ मैं, दूसरी तरफ़ पापा। बुजुर्गों की नैतिकता प्रबल हो गयी थी। ओकिल बाबा किसी शर्त पर मानने को तैयार नहीं थे। पिताजी जिन्होंने शुरूमें अनुमति दी थी, अब विचलित हो रहे थे। पिता पुत्र के बीच क्लेश कराने में त्रिविक्रम जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कह दिया कि मेरी शह पर ही आर्केस्ट्रा लाया गया है। मेरी ऐसी तैसी तय थी। मैंने पिंटू भाई को बुलवाया जिन्होंने यह साटा किया था। उन्होंने भी दोनों बुजुर्गों को समझाया कि कुछ नहीं होगा, आने दीजिये अब उनको नहीं रोका जा सकता। वे पूरा पैसा लेंगे, नाचे या न नाचें। राजेन्द्र को बुलवाया गया, जो उस समय मुखिया भी था। मैंने अपनी मम्मी को सारी बात समझा कर कहा कि कैसे पापा उन लोगों के कहने में आ रहे हैं। मम्मी ने घर में पापा को बुलाया। मुखिया और पिंटू भाई को पीछे से मैं ले गया। पापा जैसे ही उनसे अलग हुए सारी बात समझ गये। मुखिया ने आश्वस्त किया कि कुछ नहीं होगा, उसकी खुद की इच्छा आर्केस्ट्रा देखने की थी। बाहर निकल कर पापा ने ओकिल बाबा को समझाया कि आने से मना नहीं किया जा सकता लेकिन उनको प्रोग्राम नहीं करने दिया जाएगा। एक बड़ी मुसीबत टली।
आर्केस्ट्रा पार्टी आयी। नाटक से पहले उनको हिदायत दी गयी कि यह नाटक का मंच है, बारात का नहीं। इसलिये यहाँ अश्लील कार्यक्रम नहीं होगा। नाच दल के लौंडों को इस आर्केस्ट्रा से आराम हो गया था, एक-आध ताल नाच कर वे सोने चले गये, यह कह कर कि ‘खूब नचाईं आज एह लोग के’। नाटक जम गया था। लोग आर्केस्ट्रा भूल गये। नाटक ख़तम होने के बाद आर्केस्ट्रा पार्टी को देने के लिए हमारे पास पैसे नहीं थे। साटा करने चंदन गया था, वह बेचैन था कि पैसा जल्दी से दे दिया जाये, क्योंकि साटा उसके पिता जी के नाम से हुआ था। यह ज़रूरी भी था कि सूर्योदय से पहले इस दल को रवाना कर दिया जाये, क्योंकि सुबह तक इनको रखने में दिक्क़त थी और इनका जादू भी सुबह को ही टूटता है। हमने नाच मालिक को कहा कि ढाई बजे हैं और हमारे पास पैसे नहीं है। हम आपको चार बजे तक पैसे देंगे।
आप यहाँ नाच रहे हैं तो सुरक्षित हैं। यहाँ हमारे कार्यकर्ता हैं। जैसे ही आप बंद करेंगे या सोने जाएंगे। बाकी लोग आपके पीछे लगेंगे, जहाँ-जहाँ आप जाएंगे वहाँ-वहाँ। अच्छा यह होगा कि चार बजे तक आप प्रोग्राम चलाइये। वह तैयार हो गया। हम गाँव में घूमने लगे। अभिनेताओं के पास चंदे का पैसा बाकी था। उसे रात ही में मैं, काका और चंदन सहेजने निकले। पैसा जमा किया, पिंटु भाई को बुलाया और हिसाब करके उनको विदा किया और तौबा किया। आर्केस्ट्रा दल के साफ़-सूथरे प्रदर्शन के बावजूद विरोधियों ने आरोप लगाया कि ब्रेशियर पहिना के स्टेज़ पर लइकी नचा देले बाड़ सन!
हमारे समूह की तरफ़ से नाटक जब पहली बार खेला गया, तो उसके चयन में मेरी कोई भूमिका नहीं थी। उसके चयन में हमारे दल के लोगों की भी भूमिका नहीं थी। वह एक औचक निर्णय था। नाटक अपने नाम के अनुरूप ‘कश्मीर हमारा है उर्फ़ आतंकवाद को मिटा डालो’ मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्मों का संस्करण लगता था। जाहिर है, बहुत स्तरहीन नाटक था। नाटक में हिन्दू युवक का मुसलमान युवती
से प्रेम था, जिसका विरोध उसका भाई कर रहा था। एक आतंकवादी था जिसको पकड़ने के लिए भारत की फ़ौज की एक टुकड़ी तैयारी कर रह थी। ये दो अलग-अलग कथाएं एक बिंदू पर मिल जाती थीं। जब नायक सरोज घायल होकर फ़ौजी के पास पहुँच जाता है। इस कथानक का तीसरा एंगल भी था। दो अज़ीबोगरीब नाम वाले पात्र खिलाड़ी चवन्नी लाल और अठन्नी लाल भी थे जिनकी भूमिका हास्य आइटम की तरह नाटक में थी। अंत में दोनों पात्र नाटकीय ढंग से जासूस निकलते हैं और मुख्य आतंकवादी को पकड़ने में मदद करते हैं। नाटक सुखांत था जिसमें प्रेमी आपस में मिल जाते हैं और फ़ौजी कुछ साथियों को गंवाकर आतंकवादी सरगना को पकड़ने में सफल होते हैं। इस फिल्मी कथानक का मंचन जिस तैयारी और समर्पण के साथ हुआ, उसका प्रतिफल नाट्य मंचन के दिन मिला। लोगों ने याद किया कि कई बरस बाद यह ऐसा नाटक था जिसमें दर्शक अंत तक बैठे रहे थे। लड़कों को सफ़लता का स्वाद लग गया था। अब यह सिलसिला चलते रहने की उम्मीद थी। अगले रोज़ गाँव में हर तरफ़ नाटक की ही चर्चा थी।
पाठ से प्रस्तुति की यात्रा के कुछ दिलचस्प हिस्सों को याद करना चाहिये। ये हिस्से मंच के नाटक से कई गुना मनोरंजक और शिक्षाप्रद था जिसके दर्शक भी हम थे और भूमिका भी हम ही निभा रहे थे। टीम में शामिल होने के बाद मैंने सबसे पहले उन लोगों को इंट्री करवाई जिनके साथ गाँव में मेरी केमेस्ट्री ठीक थी और वे संभावनाशील युवा थे। नाटक खेलने का कीड़ा उनके मन में था और मौक़े का इंतज़ार कर रहा था। काका यानी कुणाल किशोर विद्यार्थी और रवि ऐसे ही दो लोग थे। दोनों ही लोग नाटकों में छोटी-छोटी भूमिकाएं निभा चुके थे। काका ने बाल कलाकार की भूमिका भी निभाई थी ‘जंगल के दादा’ नाटक में। रवि ‘प्रतिशोध’ में ऐसे दूल्हे की भूमिका में था जिसकी हत्या फेरे के समय ही हो जाती है यानी सेहरे में छुपा चेहरा भी दर्शकों के सामने नहीं आ पाया था। नाटक खेलने की ललक और बढ़ गयी, जब हाथ में रोल मिलने के बावजूद नाटक नहीं हो सका था। अब वहीं नाटक हो रहा था। हीरोइन की भूमिका के लिए सुयोग्य लड़के की तलाश थी। मैंने बिना देर किये, रवि तक यह प्रस्ताव पहुँचाया और वह बिना संकोच के भूमिका निभाने को तैयार हो गया एक शर्त और आशंका के साथ कि इस साल भी नाटक हो पाएगा या नहीं! शर्त यह थी कि लड़की की भूमिका के लिए कोई उसका मज़ाक नहीं उड़ाएगा। और कोई मज़ाक करेगा, तो टीम इसके लिए ज़िम्मेवार होगी। टीम के सदस्य इस बात को गंभीरता से लें, इसके लिए विष्णु जी ने एक ज़ोरदार किरिया धराया यानी सभी को क़सम खिलायी गयी। इसके पीछे भावना यह थी कि अक्सर टीम के सदस्य ही शुरुआत करते हैं और इससे अन्य लोगों को मौक़ा मिलता है। हम देखते आये थे कि जैसे ही कोई लड़का हीरोइन बनता, उसके पीछे कुछ लोग लग जाते थे। हमने ऐसे ही लोगों को चिन्हित कर लिया था और छठ के संझिया घाट के समय जैसे ही ऐसे एक आदमी मे कुछ कहा, टीम के सदस्यों ने जोरदार प्रतिरोध किया। उस आदमी को वहाँ से हटना पड़ा और मजाक उड़ाने वाली परंपरा कुछ बंद हुई।
नायक की भूमिका झंझट यानी एसरारूल हक़ को मिली थी लेकिन रिहर्सल के दूसरे या तीसरे रोज़ ही झंझट ने ईमानदारी से रोल वापस कर दिया कि इतनी बड़ी भूमिका उसे याद करने में दिक्क़त है और उसने एक सैनिक की छोटी भूमिका ले ली। नायक की भूमिका में कुणाल किशोर विद्यार्थी यानी काका की एंट्री हुई। नायक नायिका के बीच के प्रणय दृश्यों का पूर्वाभ्यास रिहर्सल का सबसे रोमांचक हिस्सा था। रिश्ते में चाचा और भतीजा लेकिन भूमिका प्रेमी-प्रेमिका की। असहज स्थिति थी, जिसका मज़ा सभी सदस्य लेते थे। नायिका की भूमिका में रवि में संकोच लेश मात्र भी नहीं था, वही नायक की भूमिका में काका की शरीर भाषा में ही संकोच था। रिहर्सल के दौरान कभी भी नहीं लगा कि वह अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पाएगा। रवि भी चिंतित था कि उन दोनों का दृश्य अच्छी तरह से नहीं हो पाएगा। मर्दानग़ी की ललकार के साथ तमाम उपक्रम फेल हो गये थे। एक दिन रिहर्सल में पुन्नु काका ने यह भी कह दिया कि ‘अईसन कर दुनु के रोल बदल दा, हई ससुरा त बड़ी मऊगा बा, उ सटता आ इ पीछे हट ताड़े’... बात हँसी में उड़ गयी लेकिन यह समझना उस समय मेरे लिए आसान नहीं था कि भूमिका में भी एक-दूसरे जेंडर का अनुभव करते ही हमारी गतिविधियाँ कैसे बदल जाती हैं। वैसे मंचन के दिन काका पर पता नहीं कौन सा जादू हुआ, उन्होंने अपनी ऊर्जा का दौ सौ प्रतिशत इस्तेमाल किया और सभी को चौंकाया। रवि की तैयारी तो पहले दिन से ज़बरदस्त थी। उसने लड़की की आंतरिक निर्वाह के साथ अपनी बाह्य सज्जा को भी खूबसूरती से संपन्न किया था।
एक दिलचस्प व्यक्ति थे जोबैर भाई, जो मेजर साहब की भूमिका कर रहे थे। रिहर्सल के दौरान सैनिकों को ललकारते-ललकारते अपनी ‘तशरीफ़’ खुज़लाने लगते थे। खुजली करने वाले उनके हाथ पर न जाने कितने डंडे पड़े लेकिन वह हाथ अपनी आदत से मज़बूर रहा। अंत में उसे पिस्तौल दे दी गयी और वह उसे लहरा-लहरा कर संवाद बोलते थे। नाटक के सभी कलाकारों को अपनी कास्ट्युम का इंतज़ाम स्वयं करना था लेकिन जोबैर भाई ने यह नहीं किया और सबसे वरिष्ठ अभिनेता होने का मनुहार कर और मेजर के रोल की गरिमा का उल्लेख कर सबसे अच्छी और प्रेस की गयी वर्दी अपने नाम की। बेचारा वर्दी लाने वाला अभिनेता देखता रह गया।
नाटक के दृश्य में आतंकवादी पिता को छोड़कर एक पूरे परिवार की हत्या कर देते हैं, इसके बाद पिता का विलाप होता है। पिता की भूमिका कर रहे सस्सिता काका जब विलाप करते थे, तो सारे पात्र हँसने लगते और यह रोज़ होता। रिहर्सल के एक महीने में कलाकारों ने यह नियम बना लिया कि इस दृश्य के पहले वे मड़ई से निकल जाते और बाहर आकर हँसते ताकि उनका रोने का टेम्परामेंट ना बिगड़े। इस करूण दृश्य को हास्य में बदलने का श्रेय अभिनय के निर्देशक त्रिविक्रम जी का था। वह इस विलाप को इतना नाटकीय अभ्यास बना दे रहे थे जो दयनीयता से हास्य में बदल जाता था। इस तरीके को छोड़ने के लिए भी वह तैयार नहीं थे।
गाँव के नाटकों के सामने एक बड़ी समस्या उच्चारण की रहती है। पजियरवा के बुजुर्ग रंगकर्मी अपने गाँव के नाटक को इसी कारण श्रेष्ठ समझते कि अन्य गाँव के नाटकों की तरह यहाँ उच्चारण दोष कम था। उनका निर्देश होता ‘हमनी के गाँव के नाटक में इतिहाश ना होला, इतिहास होला, ऐसे उच्चारण में गड़बड़ी ना’ लेकिन भोजपुरी का सतत अभ्यास हिन्दी अभिनय के दौरान बाधा बन जाता। और हर साल कुछ शब्दों और लहज़ों की गड़बड़ी रह जाती थी। अधिकांश कलाकारों का पहला नाटक था, तैयारी थी और डर भी था, इसलिए इस बार का उच्चारण बस दो ही शब्दों में भटक जाता। ये शब्द थे पाकिस्तान जिसे सभी ‘पकिस्तान’ कहते और आतंकवादी जिसे सभी ‘आन्तकवादी’ कहते।
नाटक की दो भूमिकाओं के लिए अभिनेता तैयार नहीं हो रहे थे। यह भूमिका थी नायिका के पिता और भाई की। नायिका के भाई की भूमिका जितेश जी को दी गयी थी लेकिन वह मुझे केंद्रीय भूमिका मिलने के कारण नाराज थे और दल से हट गये। उनके अनुसार, मैं इस लायक नहीं था। पिता की भूमिका करने के लिए कोई तैयार नहीं था। नायिका के भाई और पिता की भूमिका कौन करे? आख़िरकार खलनायक की मुख्य भूमिका कर रहे प्रेम भाई और मैंने पिता और भाई की भूमिका को निभाया। प्रेम अनुभवी कलाकार थे और दोनों चरित्रों को दो स्तर पर जी गये। मैं गाँव के नाटक में पहली बार था। नायिका के भाई की छोटी-सी नकारात्मक भूमिका सैनिक की बड़ी भूमिका से लोकप्रिय हुई। टोले की कुछ बहनों ने मुझे कोसा भी क्योंकि मैं मंच पर अपनी बहन को पीट रहा था। भूमिकाओं की अनिश्चितता और अदला-बदली नाटक मंचन से एक दिन पहले तक जारी रही, जब हास्य भूमिका में एक कलाकार ने अपनी असमर्थता जता दी और हमें अभिनेश बाबा के पास जाना पड़ा। अभिनेश बाबा वरिष्ठ अनुभवी कलाकारों में से थे। इनकी एक मुख्य विशेषता थी कि पद में बड़े और उम्र में कम होने के कारण ये हर वर्ग के साथ फिट हो जाते थे, युवाओं के साथ विशेष। मेरी मान्यता है कि पजिअरवा के स्टेज पर इनकी अभिनय क्षमता का वैसा दोहन नहीं हुआ और इन्हें हास्य भूमिकाओं में सीमित कर दिया गया। ‘अरावली का शेर’ नाटक में इनके द्वारा निभाई हिजड़े की भूमिका को जिसमें उनका संवाद था, ‘‘ना मैं हिंदू हूँ ना मुसलमान हूँ, मैं तो कुछ भी नहीं हूँ...’’ आज भी गाँव के दर्शक याद करते हैं। इनकी विशेषता भी थी की अपनी अधिकांश भूमिकाएं इन्हें मंचन के एक या दो दिन पहले मिलती थी, जिनका वे सफलता से निर्वाह करते। इस बार भी एक दिन पहले मिली भूमिका को इन्होंने किया और मंचन के दौरान ही लौंडा से सांठ-गांठ करके तुरंत-फुरत क्लाइमेक्स सीन में एक गाने और नाचने का दृश्य रख लिया, जिसके बाद खलनायक पकड़ा जाता है। यह दृश्य भी खूब बन पड़ा था।
गाँव के नाटकों के संचालन के दौरान गाँव को समझने, लोगों को डील करने और अपने को परिपक्व बनाने का मौक़ा मिला। मेरे रंगकर्म में तमाम सतहीपन के बावजूद ‘आतंकवाद को मिटा डालो उर्फ़ कश्मीर हमारा है’ नाटक का महत्त्व सबसे ऊपर है। हम मंच बनाना, पर्दा टाँगना, मेकअप करना कुछ भी नहीं जानते थे। नाटक करने की सोचना और करने की बीच कितनी तरह की बाधाएं आती हैं, हम यह भी नहीं जानते थे। इसके बावजूद वह नाटक कुल मिलाकर सफल रहा और अगले साल हम फ़िर एक और नाटक के लिए तैयार थे। तमाम बकवास नाटकों में से एक कम बकवास नाटक चुना गया, ‘पोंछ दो सिंदूर थाम लो बंदूक’। इसकी कहानी फिर कभी...
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