(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश...
(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)
जीवन की राहों में
डायरी : कुछ बेतरतीब ख्याल
अनुपमा सरकार
किस्से-कहानियाँ पढ़ना मुझे हमेशा से बहुत प्रभावित करता रहा। ख़ासकर वे किताबें जिनमें हम इन्सानों के रोज़मर्रा के जीवन का सजीव चित्रण हो। लेखिका होने से कहीं बढ़कर, मैं एक पाठिका हूँ। पढ़ने में जो अभूतपूर्व रस है, वह किसी और क्रिया में है भी तो नहीं। घर बैठे-बैठे ही जाने किन द्वीपोंमहाद्वीपों का भ्रमण करवा देती हैं ये किताबें। कितने नये साक्षात्कार हो जाते हैं, कुछ ही पन्नों में। आख़िर वह सृजन ही क्या जिसमें प्रकृति का रहस्य न हो और वह कल्पना ही क्या जो असलियत का भ्रम न करा दे! इस पसोपेश को एक नयी विधा में ढालने की कोशिश कर रही हूँ इस डायरी के माध्यम से। इसमें वे सारे अनुभव होंगें जो किसी न किसी रूप में मैंने महसूस किये हैं, कभी अभिन्न अंग बनकर तो कभी तटस्थ दर्शक या श्रोता बनकर।
09-09-2014
भादों की आखिरी रात
कभी-कभी यह आसमां बहुत करीब लगता है जैसे बस फर्लांग भर की दूरी हो। हाथ बढ़ाऊँ और तारे तोड़ लाऊँ, पेड़ से पके फल की तरह। कुछ अपनी चुनरी में टांक लूँ और बाकी लैम्प बना गलियारे में सजा लूँ। आख़िर, बचपन का वो जुगनुओं को हाथ में समेट लेने का सपना भी तो पूरा करना है न। और वैसे भी कीट पतंगे बहुत हो चले, इस बिन बरसात की भादों में, शायद तारों की झिलमिलाहट से ही बहल जाएँ। ख़ैर, आसमां की बात छोड़िए, उससे तो अक्सर सामान्य लोगों को भ्रम हो जाता है, जब सूर्यास्त के समय बादलों से ढँका सूरज धीरे-धीरे धरती के आगोश में सिमटता नज़र आता है। पर इस कवि मन का क्या करूँ? इसे तो वह तीस फुट ऊँचा अशोक भी छोटा-सा बच्चा नज़र आता है, जो वायु-संगीत की धुन पर मदमस्त थिरक रहा है। वह बूढ़ा बरगद सफ़ेद दाढ़ी वाले बुज़ुर्ग की याद दिलाता है। बरसों से चुपचाप सारे अनुभव खुद में समेटता, इस उम्मीद में कि कोई डाल तो ऐसी होगी, जिसके हाथों अपनी वसीयत सौंप सुरक्षित महसूस करेगा। वह छोटी सी कोयल, विरह की मारी; हरसिंगार उदास प्रेमिका; पतंग बिन लगाम के सपने और बिखरती चाँदनी गुस्से में बिफरी नज़र आती है। जहाँ देखूँ वहीं नया बिम्ब! फिर सोचती हूँ, ये ऊलजुलूल ख्याल आते ही क्यों हैं इस मन में। कहीं कोई ‘केमिकल लोच्चा’ तो नहीं हो गया! बहरहाल, इस डायरी को सच्चा दोस्त बना लिया है और दर्ज़ करने लगी हूँ इसमें ये अजीबोग़रीब विभ्रम। इस ढलते भादों की आखिरी शाम में खुलकर बरसने देना चाहती हूँ, इन बेतरतीब ख्यालों के बादलों को और देखना चाहती हूँ, इस मन की तंग गलियों में उमड़ते-घुमड़ते इन नौसिखिए ख्वाबों को !!
10-09-2014
यह मन कभी-कभी अनजाने ही आप कुछ लोगों के बेहद क़रीब आ जाते हैं। ख़ास जगह बन जाती है उनकी आपकी ज़िंदगी में। और कभी बस यूँ ही किसी से इतने परेशान कि सामने आना दूर की बात, समय- असमय हुआ टकराव भी चुभने लगता है। किस पर मढ़ें दोष? उन अदृश्य तरंगों पर, जो अनचाहे ही मन पर असर कर जाती हैं या उन अनबूझे पूर्व जन्म के कर्मों पर, जो दोस्ती-दुश्मनी-रिश्ते-नातों की अनकही बेड़ियों के आधार हैं। क्या जन्म बार-बार होता है? क्या पिछले जन्म से अगले जन्म का वास्ता है? कभी-कभी सोचती हूँ कि शायद हम परिस्थितियों से ख़ासा प्रभावित होते हैं। हमारे फ़ैसले ठोस सच्चाई पर नहीं, वरन् क्षणिक भावनाओं पर आधारित होते हैं। अचानक हुआ बदलाव अक्सर हमारी संवेदनशीलता को बहुत बढ़ा देता है, कुछ इस हद तक कि छोटी से छोटी बात भी गहरा असर छोड़ जाये। हमारे कोमल मन पर। झकझोर दे दिल की नलियों को। झनझना दे बेसुध आत्मा के सुर-ताल को। सोच-समझ से कहीं परे, अथाह सागर में तड़पती झील की मछली-सा, जल-वायु की प्रचुर मात्रा में भी दम तोड़ने को मज़बूर कर दे इस मन को!
सच, यह मन, एक सरल-सा शब्द, दो अक्षरों का जोड़, जीवन की सबसे अबूझ पहेली बन जाती है। ऋषि-मुनियों के सान्निध्य में ही इस पर काबू पाना मुमकिन होता होगा, इस भीड़-भाड़ वाले शहर में भागदौड़ करते नहीं। या फिर निपट बहाने हैं सभी। हम इन्सान गढ़े ही कुछ ऐसी शैली में गये हैं कि सुविधानुसार तरल पानी से भावों में बह जाते हैं, वाष्प बन गगन में बादलों से लहराने लगते हैं और मौक़ा पाते ही पाषाणी अंदाज़ में सारी अनुभूतियों को नकार देते हैं। समयानुसार पलटवार करने में पूर्णतया सक्षम। क्या सही है और क्या गलत, कौन जाने? आख़िर गोले में खड़े होकर भी आप नाक की सीध में देख सपाट रेखा सा ही अनुभव करते हैं, कोण कहाँ नज़र आते हैं? दृष्टि भ्रम कहते होंगे लोग इसे, हम तो जीवन को टेढ़ी-मेढ़ी जलेबी समझ इसकी मिठास का भरपूर आनंद लेने में विश्वास करने लगे हैं।
11-09-2014
सदाबहार : समानता का रूप
आज आँगन में चहलक़दमी करते नज़र अचानक सदाबहार के पौधे पर चली गयी। पाँच फुट ऊँचा पेड़ बन चुका है, मेरे घर का ये नन्हा मेहमान। शायद खाद ज़्यादा मिल गयी या धूप-पानी ने कुछ ख़ास ख़ातिरदारी कर डाली। खैर, मेरे घर के पौधों की खासियत ही है, पनपते नहीं, फैल जाते हैं। उन बड़े-बड़े गमलों को अपना समझकर, खुश हो लहलहाते हैं। पर, आज इन पौधों की लम्बाई नहीं, बल्कि इनके होने न होने की गहराई पर ही ध्यान था मेरा। जानते हैं, हर सदाबहार का फूल खिला सा लग रहा था। गाढ़े गुलाबी रंग से परिधियों की तरफ़ हल्का होता पाँच पत्तियों का शहज़ादा। अचानक मुझे जाने क्यूँ अपनी ड्राइंग टीचर याद आ गयी। छोटी-सी थी जब उन्होंने कहा था, ‘चार पत्तियों का फूल नहीं होता’। बाल मन बग़ावत कर उठा था, अरे वाह क्यूँ नहीं हो सकता! कभी तो ढूँढ़ ही निकलूँगी ये अजूबा। बनाना भी तो कितना आसान था, सीधी सादी चार लाइनें खींची और आड़ी-टेढ़ी जोड़ डाली। पूरी तरह संतुलित चित्र तैयार, खाका भी आसान, परिणाम भी उम्दा।
पर, बहुत सारी बातों की तरह मेरा यह संतुलित भ्रम भी ज्यादा दिन नहीं टिका। शायद, संतुलन या समरूपता नाम की कोई चीज़ ढूँढना या बचाये रखना आसान भी नहीं। भटकाव बहुत है ज़िन्दगी में। लकीर की सीध में चलना असंभव ही नहीं, बेकार भी। टेढ़ी-मेढ़ी डगर अपनानी ही पड़ती है। दिल रो रहा हो, तो भी चेहरे पर मुस्कान सजानी पड़ती है।
प्रकृति भी यही दर्शाती है। बहुत तलाशा मैंने, पर हर पत्ता बराबर नहीं दिखा- न अशोक का, न पीपल का। तुलसी के बीजों में भी रही विविधता। गुलाब के कांटे तक नहीं उगते एक दूज़े के सामानांतर, फिर खिलते गुलाब की पंखुड़ियों का तो कहना ही क्या। आज सदाबहार की उन पाँच पत्तियों से स्मरण हो आया कि हर बात ‘सम’ पर नहीं रूकती, ‘विषम’ से भी गुज़रना पड़ता है मन को। समन्वयता ज़रूरी है, समानता नहीं। हाँ, पर चार पत्तियों का फूल होता है, देखा है हमने गूगल पर। आख़िर, अपवाद तो हैं ही दुनिया में, हम सरीखे कुछ !
12-09-2014
खुशी : क्या है तू
यह खुशी भी न, बड़ी मनचली है। जितना इसे हासिल करने की कोशिश करो, उतनी ही तेज़ी से दौड़ जाती है। आपको हँसी की वजह देने के बजाय आप पर खिलखिलाती, मज़ाक उड़ाती-सी नज़र आती है। जानती है न कि इन्सान भोले मन से मज़बूर है। दुखों की लाठी टेकता, टकटकी लगाये हर पल, इसका इंतज़ार करता रहेगा। पर ज़रा गौर से सोचिए तो सही कि यह खुशी आख़िर इतना इठलाती क्यों है। इसीलिए तो कि दुख की सहेली है। बेचारे गम न हों, तो दुनिया से इसकी हस्ती ही मिट जाये। हर पल सुकून से जी लिया, तो क्या खाक कद्र होगी इस क्षणभंगुर चितचोर की। तिस पर यह अकड़ कि आएंगी, तो खुद के जाने का डर भी साथ लाएंगी। मतलब जो दो पल मिले हैं हँसी-खुशी, वो भी ये सोच ही गँवा बैठो कि देवी जी रूठने वाली तो नहीं। हद है कलयुग की। पाप-पुण्य का बहीखाता तो ऊपर वाला जाने, हम तो ईर्ष्या, द्वेष, खुशी, गम के गणित में ही उलझे बैठे हैं। कभी एक पलड़ा भारी होता है, कभी दूसरा और बेचारा मन, दोनों के बीच भाग-भाग कर संतुलन बनाये रखने की नाहक कोशिश करता रहता है। आख़िर, जो इक दूजे से इतने अलग हों, उनमें समन्वय बैठे भी कैसे?
पर, कुछ भी कहिए, खता इस मन की भी नहीं, है तो ये खुशी प्यारी सी ही। जब मुस्कुराती हुई जीवन में कदम रखती है, तो स्वर्ग का अहसास होने लगता है। बेसुरा भी तरन्नुम में गाने लगता है। समां मदहोश और ज़ुबां खामोश हो जाती है। वैसे भी हँसते हुए के साथ जग हँसता है। रोते हुए को ढाँढस बँधा चुपचाप पतली गली से निकल लेता है। आख़िर, इन्फेक्शन तो है ही सुख-दुख भी। जाने कौन सा वायरस कल इसे डँस ले। सो जब तक है, जी लेते हैं, इस खुशनुमा माहौल में। रोने के लिए कंधा ढूँढ़ने से कहीं आसान है, ठहाके मारकर मस्ती करते हुए, ये चार दिन बिता देना। तुमने सुन लिया न खुशी!
13-09-2014
एक बर्फीला एहसास
चहलक़दमी करते-करते ख्याल भी सैर पर निकल जाते हैं। दिल्ली की धूल-धक्कड़ भरी, व्यस्त, रंगहीन ज़िंदगी को पीछे छोड़ जाने-अनजाने आज मेरा मन बर्फीली वादियों में उलझ गया। सालों बीत गये उस अप्रैल की ठंडक भरी सुबह को, जब मैंने पहली बार कश्मीर में बर्फ को छुआ था। यूँ तो बचपन में गयी थी और भूल भी चुकी थी। पर कल मम्मी से उन दिनों की बातें करते हुए मन में गुदगुदी सी हुई थी। माँ का मन तो अब भी मखमली सफ़ेद चादर पर मछली सी मचलती छोटी बच्ची को ही सच माने बैठा है। उन्होंने जिया न हर पल, बच्चों के बचपन को अपनी ज़िंदगी का अटूट हिस्सा बनाकर। पर, अपनी याद्दाश्त का क्या करें, लाख आंखें बंद कर उन खूबसूरत दिनों की याद ताज़ा करने की कोशिश कर ली, स्मृति पटल पर कोरा कागज़ ही उभरता है, रंग-बिरंगी तस्वीरें नहीं। शायद कहीं पिछली तहों में दब कर रह गयी वे यादें। या शायद शिशु मन इतना अबोध था कि परिवेश का अंतर समझ ही नहीं पाया। आख़िर, यही तो ख़ासियत है बच्चों की, अपने आसपास के वातावरण में कुछ यूँ रम जाते हैं कि बदलाव कोई अमिट छाप नहीं छोड़ पाता। कच्ची मटकी-सा होता है बाल मन झुकने-मुड़ने में। काश! ये मन कभी बड़ा होता ही नहीं! खट्टे-मीठे पलों को बस जी भर जी लेता और आगे बढ़ पाता!
14-09-2014
दिल दहल गया आज
बुदबुदाते होंठों से जाने कौन से शब्द उकेरता, वह लगातार उसे घूरे जा रहा था। हाथ में पत्थर लिए आक्रामक मुद्रा में उसका सिर फोड़ने को बिलकुल तैयार। निरीह जानवर टकटकी बाँधे उसे देखता, इस बात से बिलकुल अनजान कि वह इन्सान विश्वास पात्र नहीं। उस आदमी का अपने दिलोदिमाग पर संतुलन नहीं। वह तो छूटते ही मार सकता है पत्थर, छुरा, तलवार भी। हालांकि ऐसा कर तो कोई भी सकता है। बस, लोक-लाज की चिंता व कानून की जकड़ संभाल लेती है! वरना देर ही कितनी लगती है इन्सान को शैतान बनने में। बस एक भीड़ का जुटना, कड़क आवाज़ में किसी का चिल्लाना और आपके अन्दर के जानवर को जगाना ही काफी है। सेकंडों में इन्सानियत भूला दी जाती है। खून का उबाल उसे लाल से काला बना देता है। एक घोर अन्धकार की ओर प्रेरित करता है और आदमी भूल जाता है की किसी बेक़सूर को मारने से न कभी कोई क्रांति आयी है, न किसी का भला हुआ है। केवल सियासतें पलटी जाती हैं। आम इन्सान जहाँ है, वही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। अपने क्षणिक क्रोध की ज्वाला में खुद को ही जलाता। ख़ैर, शुक्र है, इन्सान एक-दूसरे को समझ पायें हों या नहीं, जानवर हमें बखूबी समझते हैं। भगवान द्वारा दी गयी छठी इंद्री का पूर्ण सदुपयोग करते हैं। पागल अपने ध्येय में सफल होता, उससे पहले ही कुत्ता अपनी जान बचा कर भाग गया और मैंने राहत की सांस ली। हाँ, पर वो समझदार जाते-जाते जता गया, आत्म सुरक्षा के लिए लड़ना ही नहीं, झुकना भी सीखना पड़ता है कभीकभी। जब बस न चले, तो चुपचाप पतली गली से सरक जाने में ही भलाई है जनाब!!
15-09-2014
ड्रैगन फ्लाई
आज हमने ड्रैगन फ्लाई को सोते देखा। अब आप कहेंगे, इसमें नया क्या किया? सोते तो सभी हैं। घोड़े खड़े-खड़े, इन्सान पड़े-पड़े। पर नहीं, यह कुछ अलग ही अंदाज़ था। शाम गहरा चुकी थी। स्याह आसमां बिन चाँद-तारे सूना सा लग रहा था और एक अज़ीब सी घुटन थी वातावरण में। हम इन सबको अनदेखा करते टहलने का प्रयास कर रहे थे। यकायक नज़र तुलसी के पौधे पर अटक गयी। उसकी टहनी झुकी हुई थी, मानो किसी ने तोड़ कर चिपका भर दी हो। हमसे रहा नहीं गया। पौधों से ख़ासा प्रेम है।
मुड़ना-तुड़ना सहन न होता हमसे। बस आगे बढ़े कि सीधी कर दें टहनी। पर हाथ लगाने से पहले ही वो डाल का टुकड़ा तो उड़ चला। बड़े से डैने फैलाए, डबडबाई आँखों से प्राण बचाये। फिर तो लाइन ही लग गयी। पाँच-छह एक साथ भनभनाने लगी, जैसे किसी जादूगर की टोपी में से निकल आयी हों अचानक। हमने तो बस एक को छूने की कोशिश भर की थी, पर जान का जोख़िम तो सहन होता नहीं न किसी से भी। हम अलग हैरान थे कि अब तक तो एक नहीं दिखती थी और अब इतनी सारी। फिर याद आई पालो कोल्हो की वह कहानी कि होता सब कुछ हमारे आस-पास ही है, बस अनदेखा अबूझसा रहता है, जब तक पहली बार ध्यान आकर्षित नहीं होता, कुछ अहसासों सरीखा, उन्हें समझना भी कब आसान रहा? वैसे यह पढ़ने के बाद हमारे कान खड़े हो गये थे और हम अदृश्य पक्षों के प्रति बेहद सचेत। उसी दिन पहली बार सुना था शब्द ‘फलाना’ ...बस फिर तो पूछिए ही मत, पूरा दिन फलाना ढिमकाना ही गूँजता रहा हमारे चारों ओर। कुछ खड़क सिंह की खिड़कियों से ही खड़क गये थे, हम भी उस रोज़। पर बहरहाल, इन इत्मीनान से सोती ड्रैगन फ्लाईज़ को देख मन को बहुत शांति मिली। कोई तो है जो चैन की नींद ले पाता है। सपने नहीं दिये न ईश्वर ने इन्हें, वरना वज़न से दब ही जातीं बेचारी। सच, बहुत भारी होते हैं सपने। तभी तो इनके टूटने पर फूट-फूट कर रोते हैं हम कि बोझ उतर जाये और मन फूल सा हल्का हो जाये। हे प्रकृति, तूने हमें क्या-क्या दे डाला, बस पंख देना ही भूल गयी।
16-09-2014
थोड़ा और इंतज़ार ‘जब अंधकार हद से गुज़र जाये, सवेरा नज़दीक होता है’, बड़े-बूढ़ों ने कहा था। कभी आज़माया नहीं। उठ ही नहीं पायी, कभी इतनी सुबह। चैन की नींद सोती रही न हमेशा। पर जब रात आँखों-आँखों में गुज़रने लगे, तो ऐसी सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास करने का मन करने लगता है। राहत-सी मिलती है न यह सोच कर कि मंज़िल बस क़रीब ही है। वैसे समय और दूरी में कुछ ज़्यादा अंतर नहीं। अंत हमेशा दूर ही लगता है। क्षितिज भी तो भ्रमित ही करता है न। धरती आसमां के मिलन का झूठा अहसास दिलाता। जो है ही नहीं, उसका स्वप्निल उद्गार करता। कुछ यूँ डूब जाता है इन्सान, जो नहीं है, उसे पाने में जैसे मृगतृष्णा की तरफ़ हौले-हौले बढ़ता कोई आशावादी। अंत में निराशा तो हाथ लगेगी ही। यह बात अलग है कि रेगिस्तान के बीचोंबीच मरूउद्यान का स्वप्न भी साकार हो जाता है। सही समय और जगह पर। ठीक उसी तरह जैसे पहाड़ की चोटी पर पहुँच विजय यथार्थ हो जाती है। सफ़र पूर्ण व फल की प्राप्ति। कुछ समय और रखते हैं इस आशा को जीवित कि इंतज़ार बस ख़त्म होने को है और नयी शुरुआत होने को। कल क्या होगा कौन जाने पर आज तो उम्मीद करने में ही भलाई है।
17-09-2014
बैटरी रिक्शा
कभी-कभी ज़िंदगी के छोटे-मोटे व्यावहारिक पाठ हमें किताबें, विद्यालय या अपने नहीं बल्कि नितांत अज़नबी पढ़ा जाते हैं। आज सुबह बैटरी रिक्शा में मेट्रो जाते समय मुझे इस बात का अचानक ही अहसास हुआ। हुआ कुछ यूँ कि मेरा रिक्शेवाला मस्ती में हवा से बातें करता, तेज़ रफ्तार से अपनी राह चले जा रहा था। सुबह का वक़्त, खाली रास्ता और प्रचंड गरमी दिखाने से पूर्व, हल्की ठंडक के मूड में हौले से चमकता सूरज, परफेक्ट ही समय था खुश रहने का। पर तभी दूसरी ओर से एक और बैटरी रिक्शेवाला आता दिखाई दिया। कुछ घबराया-सा रांग साइड से गाड़ी घुमाता। दोनों रिक्शे क़रीब आये, शायद एक दूसरे को जानते थे। कौन जाने एक ही गाँव के हों या फिर एक ही रस्ते के राहगीर थे, इसलिए दुआसलाम का रिश्ता था दोनों में। बहरहाल, दूसरे भाई ने इशारों में मेरे वाले को कुछ समझाया। सुनते ही बेफ़िक्री से उड़ान भरते भलेमानस के चेहरे का रंग फाख़्ता हो गया। इशारों ने कुछ अनजान भाषा के शब्दों का रूप अख़्तियार कर लिया। मैं बहुत ध्यान से दोनों की बातें सुनने की कोशिश कर रही थी। ऐसे लग रहा था मानो मेरे सामने पुरानी हिन्दी फिल्म का वह सीन दोहराया जा रहा था जिसमें काले चश्मे लगाये दो गैंगस्टर एक सुनसान जगह पर अपनी गाड़ी एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी करते हैं, एक हाथ में थामा ब्रीफकेस दूसरे के साथ एक्सचेंज करते हैं और आगे बढ़ जाते हैं अपनी राह पर। पर यह न तो किसी फिल्म का सेट था और न ही मेरे सामने खलनायक ही खड़े थे। यहाँ तो मेहनत-मज़दूरी से जीवन यापन करने वाले दो गरीब इन्सान थे। सो मुझसे पूछे बिना रहा ही न गया। पता चला कि आजकल बैटरी रिक्शा को कोर्ट आर्डर के तहत चलाना मना है। मुझे तो यह बात भी आज ही मालूम हुई और यकायक बैटरी रिक्शा के अचानक सड़कों पर कम होने का राज़ भी समझ में आने लगा। ख़ैर, मैंने भाई को डाँट लगाई कि जब मना है, तो गाड़ी लेकर सड़क पर उतरे ही क्यों, उसने अपने गरीब होने का रोना थोड़ी देर को दिखाया और मेरा मन जो इस अनोखे फैसले से पूरी तरह सहमत था भी नहीं, जल्द ही पसीज गया। दूसरा भैया अभी भी परेशान ही था और उसकी गाड़ी में बैठा पैसेंजर दुविधा में। कुछ ही दूरी पर एक पुलिसकर्मी तैनात था और गाड़ी ज़ब्त होने की आशंका से वह मोड़ से ही वापिस आ गया था। और मेरे वाले रिक्शा को भी यही परामर्श दे रहा था। पर ये भैया आज़ाद पंछी था, डर नाम की चिड़िया से कोसों दूर। उसने एक बार मोड़ के पार देखा और बेफ़िक्री से बोला, अपनी सवारी भी मुझे दे दो। दूसरे भैया ने भौंचक्की नज़रों से सरसरी तौर पर इसे देखा और सवारी को यहाँ भेजकर राहत की साँस ले, अपना रास्ता नापा। अब मेरे मन में भी अज़ब सी खलबली मची थी। चाहे-अनचाहे मैं भी एक गैर कानूनी कृत्य की मूक गवाह थी। पर सच कहूँ तो उस समय मेरे मन में जल्दी से गंतव्य पर पहुँचने की इच्छा ही सर्वोपरि थी, कोई व्यवस्था-नियम नहीं। और कुछ हद तक यह उत्सुकता भी कि आगे होगा क्या। यह भाई सही-सलामत मंज़िल पर पहुँचाएगा भी या यूँ ही पुलिस के चक्कर में उलझकर दफ़्तर के लिए लेट करवा देगा। अब ज़्यादा पैदल चलने की आदत भी तो नहीं रही। क्या मेरे सामने रिश्वत का आदान-प्रदान होगा और आँखें चुराता कानून बेशर्मी से पेश आएगा या फिर कर्त्तव्य पर अडिग खड़े सिपाही के सामने गरीब पिट जाएगा और मुझ आराम पसंद को एक किलोमीटर का पैदल मार्च करना होगा। मन की गति तो होती ही तेज़ है और मेरे वाला तो ख़ैर वैसे भी खुद को सुपर सोनिक जेट से कम नहीं समझता, तो कुछ ही पलों में हज़ारों बातें सोच बैठा। पर कमाल देखिए, ज्यों ही रिक्शा मुड़ा, सामने अधेड़ उम्र का वर्दीधारी जवान बाइक को स्टैंड पर लगाये, ऊबे हुए चेहरे के साथ सड़क किनारे खड़ा था और मेरा रिक्शे वाला अपनी सामान्य गति से मुख पर अविचल भाव लिए उसके बिलकुल क़रीब से बेफ़िक्री से निकल गया, जैसे कुछ पता ही न हो। मेट्रो स्टेशन पर भाई ने ठसक से गाड़ी लगाई, मुझसे और दूसरी सवारी से किराया वसूला और चल पड़ा मतवाला-सा अपनी राह। हल्की सी मुस्कान तैर रही थी मेरे चेहरे पर। एक ओर इसका बेफ़िक्र मूड और दूसरी तरफ डरकर अपनी राह बदल लेने वाले भैया का चेहरा। सही-गलत छोड़िए, हम तो यह समझने में जुटे थे कि आत्मविश्वास से बढ़कर कोई दूसरी पूँजी है नहीं यहाँ। सौ झूठ माफ हैं अगर बोलने वाले में दम हो!
18-09-2014
कलम : एक नशा
यह कलम भी अज़ब नशा है, हाथ में एक बार पकड़ ली तो छूटे नहीं छूटती। न समय देखती है, न जगह, बस ज़िद पकड़ लेती है सरपट भागने की। पहले पहल तो लेखक पूरी तरह प्रधान होता है। छोटी से छोटी बात को एक सही अंदाज़ में लिखने की कोशिश करता है। अपनी एक अलग विधा, एक अलग पहचान बनाने की फिराक में रहता है। हर कृति में उसका व्यक्तित्व या यूँ कहे कि वह ख़ास इमेज़ जो वह बनाना चाहता है, उसकी झलक दिखे, इसका हर संभव प्रयास करता है। परिणाम यह कि काफ़ी सजग हो कर लिखी जाती हैं पहली कुछ रचनाएँ। शायद इसलिए कभी-कभी वे सबसे उत्कृष्ट मानी जाती हैं, तो कभी-कभी सबसे हीन। दरअसल जैसे-जैसे आप लिखते जाते हैं, भावनाएँ उभरने लगती हैं, अंदर की आवाज़ साफ़ सुनाई देने लगती है और खुद पर ज़बरदस्ती किया गया कंट्रोल हटने लगता है। आप वह लिखने लगते हैं जो दरअसल कहीं आपके अंदर काफी समय से छुपा बैठा था। वे सब ऊटपटांग बातें जो इस दुनिया में बेकार समझकर आपने कहीं बहुत अंदर दफन कर दी थीं, कलम का सबल संबल पा जीवंत हो उठती हैं। सांस लेने लगती हैं, साकार हो उठती हैं। और तब नज़र आने लगती है अंदर की प्रतिभा, रूप मिलने लगता है सच्ची संवेदनाओं को। अब बारी आती है यह देखने की कि आपकी ये सच्ची संवेदनाएं असल में कितनी प्रभावी हैं और आपके पाठकों पर कितना असर रखती हैं। कलम पर से आपका आधिपत्य तो छूट चुका होता है, आप केवल निमित्त मात्र रह जाते हैं भावनाओं के आदान- प्रदान में। एक मन द्वारा अनुभव किये गये संस्मरणों को दूसरे मन तक पहुँचाने का मात्र एक ज़रिया। यदि इन संवेदनाओं में दम होगा, तो वे स्वयं बोलेंगी, ढूँढ ही लेंगी अपना रास्ता। अन्यथा कोशिश कहीं बीच में ही दम तोड़ देगी। इसलिए तो यदि केवल आपके प्रारंभिक लेखों को ही वाहवाही मिलती है, तो विनम्र हो अपनाएँ उस प्रशंसा को। आपके संयत लेखन का परिणाम है यह। असल परीक्षा तो अभी बाकी है। जैसे-जैसे मन के तार खुलेंगे। वीणा के सुर बदलने लगेंगे। आपकी सोची-समझी सरगम को भूल, यह कलम कोई नया ही नगमा गाने लगेगी, जिसे शायद आप पहले-पहल अपने दिमाग की कसौटी पर खरा उतरता भी न पायें। वही दूसरी तरफ़, कभी-कभी आपकी शुरुआती नियंत्रित रचनाओं पर अच्छी प्रतिक्रियाएं नहीं मिलतीं। शायद पाठक भांप लेते हैं आपकी झेंप को कि कैसे आप खुद ही अपनी भावनाओं पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहे हैं, भाग रहे हैं अपने अंतर से, अपने अनुभवों से खिसिया रहे हैं। और ऐसी दबी-सहमी शख्सियत से कोई खाक प्रभावित हो पाएगा। पर एक बार स्वतंत्र विचरण दिया नहीं आपने सच्ची भावनाओं को कि काली रोशनाई सुनहरी हो चमकने लगती है। निष्कर्ष बस यही कि बिना सोच-विचार मज़बूती से थाम लीजिए कलम को हाथ में। पूर्ण विश्वास कीजिए उसकी शक्ति पर, बहने दीजिए भीतर के लावे को कागज़ की पगडंडियों पर...। वैसे मुझे भी नहीं पता, मैं ये क्यों लिख रही हूँ। भई, गुलाम हो चली इस मनचली कलम की, जहाँ भागती है, हमें दौड़ना पड़ता है संग-संग, ऊबड़-खाबड़ राहों पर ठोकरें खाते, पर मज़ा आ रहा है।
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मायापुरी, नई दिल्ली-110064
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