(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश...
(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)
मील का पत्थर
सात साल पहले अप्रैल, सन् 2007 में यह संस्मरण एक संपादक के इसरार पर लिखा
गया था, पर भरपूर उत्साह व आश्वासन के बावजूद वे इसे छापने का साहस नहीं कर सके।
इसके चार साल बाद राजेंद्र यादव जी ने जब इस संस्मरण के बारे में सुना, तो इसे बहुत
उत्साहपूर्वक ‘हंस’ के लिए मँगवाया, पर उन्हें इसमें वह बेबाकी नहीं मिली, जो वे चाहते
थे। बहरहाल अब यह ‘मंतव्य’ के पाठकों के लिए दिया जा रहा है। अगले अंक में सुधा जी राजेंद्र यादव पर भी एक संस्मरण लिखेंगी
कमलेश्वर : कुछ ग्रे शेड्स : ज़ूम इन
सुधा अरोड़ा
किसी महान व्यक्ति का आप गायन सुनते हैं, उसकी रची हुई धुनें आपके कानों में झंकार पैदा करती हैं, उसकी उंगलियों के छूने से निकलती किसी वाद्य यंत्र की सुरीली तान से आप मुतस्सिर होते हैं, उसके स्वर का उतार-चढ़ाव आपको भीतर तक आप्लावित कर देता है। आप किसी महान लेखक की रचनाएं पढ़ते हैं, गुनते हैं, उसके लिखे हुए शब्द आपके लिए एक खूबसूरत छायालोक की सृष्टि करते हैं। आपके लिए उसका ओहदा किसी देवता से कम नहीं होता। आप उसे पूजने लगते हैं। अपने इस पूज्य देवता को आप मुग्ध-मोहित भाव से देखते हैं, उसका साथ आपको सम्मोहित करता है, आप उस महान कलाकार का साथ पाना चाहते हैं, उससे अंतरंग होकर आप गर्वान्वित महसूस करते हैं, उसकी वक्तृत्व कला आपको मंत्रमुग्ध अवस्था में पहुँचा देती है। उसका उठना-बैठना, चलना-फिरना, हँसना-बोलना- गरज़ यह कि उसकी हर क्रिया आपको चमत्कृत करती है। पर जैसे-जैसे आप उसके नज़दीक आते हैं, आपको उसकी दैवीय छवि में स्याह परछाइयाँ दीखने लगती हैं।
यह वैसा ही है जैसे किसी तस्वीर को आप दूर से देखें, तो वह बहुत सुहावनी जान पड़ती है पर जैसेजैसे आप ज़ूम इन करते हैं, पास से देखने पर उसमें पड़े सारे दाग़-धब्बे, झाइयाँ और झुर्रियाँ आपकी खूबसूरती निरखने वाली आँखों को क्लेश देती हैं। ‘दूर के ढोल सुहावने’ या ‘हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती’ जैसे मुहावरे यूँ ही नहीं बने। इनकी पर्याप्त अर्थवत्ता हम अपनी दैनंदिन चर्या में देख पाते हैं। हमारी भारतीय परम्परा में हर व्यक्ति मरने के बाद महान हो जाता है। जैसे सफलता हर गुनाह को ढँक लेती है, हर व्यक्ति की मौत के साथ ही उसकी बदकारियों और दुर्गुणों की भी अन्त्येष्टि कर दी जाती है और उसके पीछे रह जाते हैं- सिर्फ़ उसकी महानता के कुछ चमकदार स्फुलिंग। कंजूस आदमी की दरियादिली के क़िस्से बखान किये जाते हैं, चरित्रहीन आदमी की बीवी उसकी वफ़ादारी के कसीदे पढ़ने लगती है, घोर अहंकारी व्यक्ति भी विनम्रता की प्रतिमूर्ति दिखाई देने लगता है। मीडियॉकर साहित्यकार भी मृत्यु के बाद तात्कालिक रूप से ही सही, ग़ज़ब का क़िस्सागो और महान रचनाओं का जन्मदाता घोषित कर दिया जाता है।
अक्सर हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति अच्छा इन्सान न हो, तो यह संभव ही नहीं कि वह बेहतरीन रचनाकार हो सके, लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही बड़ा सच है कि हर आदमी सिर्फ़ अच्छा या बुरा नहीं होता। वह सिर्फ़ काला या सिर्फ़ सफ़ेद हो ही नहीं सकता। हरेक व्यक्ति में कुछ ग्रे शेड्स होते ही हैं, किसी में ज्यादा, किसी में कम। और यह भी एक बड़ा सच है कि अपने जीवनकाल के जिस काल खंड में एक रचनाकार सादा और ईमानदार होता है, अपने लेखकीय जीवन की महत्वपूर्ण और कालजयी रचनाएं वह उन्हीं दिनों रच रहा होता है।
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कमलेश्वर जी मेरे प्रिय रचनाकारों में से रहे। ख़ासतौर पर उनकी हर कहानी के कथ्य के अनुरूप गढ़ी गयी नपी-तुली सधी हुई भाषा उन कहानियों को बार-बार पढ़ने पर मज़बूर करती थी। शायद इसीलिए जब मधुकर सिंह के सम्पादन में कमलेश्वर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में लिखने के लिए कहा गया तो मैंने कहानियों पर लिखने का ही चुनाव किया। उनके लेखकीय शुरुआती जीवन की रचनाओं की आज भी मैं कायल हूँ।
सन् 1979 के बाद यानी सात-आठ बरसों के अंतरंग पारिवारिक साथ के बाद से कमलेश्वर जी से हमारा अबोला रहा। 28 साल का वक़्फ़ा कम नहीं होता। एक पूरी उम्र गुज़र जाती है इस बीच। हमारी छोटी बिटिया गुंजन इस बीच पैदा हुई, बड़ी हुई और उसकी शादी भी हो गयी। बड़ी बिटिया गरिमा को खूब लड़ियाने और दुलारने वाले कमलेश्वर जी ने गुंजन को कभी नहीं देखा। जैसा कि किसी ने लिखा भी है कि कमलेश्वर किसी के प्रति मन में गाँठ नहीं पालते थे। यह शायद सच भी रहा हो क्योंकि कमलेश्वर जी ने अबोले की इस दीवार को तोड़ने की कई बार कोशिश की, पर दीवार को बरकरार रखने का आग्रह हमारी ओर से था, उनकी ओर से नहीं। इसकी एक सीधी सी वजह यह थी कि कमलेश्वर जी को अपना गॉडफादर और मसीहा मानने का खामियाज़ा भी हमने भुगता था, उन्होंने नहीं। इस जुड़ाव से भावनात्मक दोहन हमारा हुआ था, उनका नहीं। आर्थिक नुकसान भी हमने उठाया था, उन्होंने नहीं। ‘कथा यात्रा’ के परचम तले इस्तेमाल भी हमारा किया गया था। हमने कमलेश्वर जी के निकट होने का कोई फ़ायदा कभी नहीं उठाया। उनके द्वारा प्रचारित झूठ ने जितना गहरा सदमा हमें पहुँचाया था, उतना हमारे अबोले ने उन्हें तकलीफ़ नहीं दी। हमारा तो लेखन और लेखक दोनों से मोहभंग हो गया था, जबकि उनके प्रभामंडल से आक्रांत युवा रचनाकारों या फिल्मों में अपनी ज़मीन तलाशने वाले नये कलमनवीसों का घेरा हमेशा की तरह उनके इर्द-गिर्द बना रहा। जितेंद्र भाटिया और सुधा अरोड़ा की खाली की हुई जगह को भरने के लिए आने वाले नामों की कमी नहीं थी। किसी बड़े रचनाकार को हमने अपने जीवन में दखल देने ही नहीं दिया बल्कि लेखन से गहरे जुड़ाव के बावजूद लेखकों से एक दूरी हमेशा बनाये रखी। उन्होंने मुंबई छोड़ते हुए अगर कुछ खोया था, तो हम जैसे चंद एक बेहद ईमानदार दोस्त। कमलेश्वर जी द्वारा खोये हुए उन दोस्तों की सूची में सबसे ऊपर हम दोनों का और सुदीप का नाम था, यह कमलेश्वर भाई साब बहुत अच्छी तरह जानते थे। उन्हें ‘भाई साब’ कहने वाले लोगों की एक लंबी कतार थी, पर उन्हें भाई साब कहकर बेहद निस्वार्थ भाव से हमने जो इज़्ज़त और जो रुतबा दिया था, जिस तरह हुक़्मअदायगी की थी, वैसा शायद ही किसी और ने किया हो। हमारे उनसे छूटने के बाद उन्होंने भी संभवतः इस शून्य को महसूस ज़रूर किया होगा और उसी छटपटाहट में उन्होंने हमारे मुंबई दुबारा आते ही सीधे स्वयं जितेन्द्र से सम्पर्क साधकर उस लम्बे अन्तराल को भरने की एक ईमानदार कोशिश भी की थी, पर जितेन्द्र के लिए उनका दिया हुआ सदमा इतना संज़ीदा था कि उनकी वह कोशिश नाकाम साबित हुई।
समय काफी ताकतवर है। वह आपका सबसे बड़ा शिक्षक है। यह बताना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा कि एक साल में मुझे मेरे व्यक्तिगत जीवन ने ठोक-पीटकर जो कुछ सिखाया, उसने कमलेश्वर जी के बारे में 28 सालों से चट्टान की तरह बनी मेरी ठोस धारणा में एक तरेड़-दरार डालने का काम किया। दरअसल मैं गंभीरता से सोच रही थी कि अगली बार दिल्ली जाऊँगी, तो सूरजकुंड जाकर भाईसाब और भाभी से मिलूँगी। अफ़सोस कि मैं वह मौक़ा चूक गयी। 27 जनवरी को कमलेश्वर जी के जाने की ख़बर ने मुझे बहुत बड़ा आघात पहुँचाया।
कमलेश्वर जी पर लिखने की शुरुआत करते हुए इस भूमिका को बाँधने का यह अर्थ कतई नहीं कि कमलेश्वर जी जैसे अदम्य ऊर्जा और अद्भुत वक्तृत्व कला वाले एक बड़े रचनाकार के सिर्फ़ उस अंधेरे काले पक्ष का मैं बखान करने जा रही हूँ जिसे आमतौर पर मृत्यु के बाद आंकना सौजन्यतावश वर्जित मान लिया गया है।
पहली बार मैंने अपने प्रिय कथाकारों में से एक- कमलेश्वर जी को कलकत्ता में 1965 के कथा समारोह में श्री शिक्षायतन कॉलेज (जहाँ मैं छात्रा थी) के ऑडिटोरियम में दर्शक दीर्घा से देखा। तब तक मेरी दो कहानियाँ और ‘अंधेरे बंद कमरे’ उपन्यास पर मोहन राकेश के नाम एक जिज्ञासा पत्र ही प्रकाशित हुआ था। श्रोताओं को अपने भाषण के साथ बहा ले जाने की अद्भुत कला के धनी थे वे। उस कथा समारोह में बेहद सधी हुई, नपी-तुली भाषा में बोलने वाले वे सबसे प्रभावी वक्ता थे। मोहन राकेश और कमलेश्वर- दोनों कथाकारों ने अज्ञेय-जैनेन्द्र और पिछली पीढ़ी के नाम दुनाली तान रखी थी पर जहाँ मोहन राकेश बोलते-बोलते तमतमा जाते थे और एक बार तो मंच पर से माइक समेत मेज़ उलटने-उलटने को हुआ था जिसे संयोजक ने संभाला, वहीं कमलेश्वर जी बड़े संयत लहज़े में मुस्कुराते हुए, अपना आक्रामक रुख निभा ले गये और श्रोताओं की तालियों का ज़खीरा भी कमलेश्वर जी के ही हाथ लगा। यादव-राकेश-कमलेश्वर की तिकड़ी में भाषण कला से सबको ध्वस्त करने में कमलेश्वर जी का जवाब नहीं था।
कमलेश्वर जी से दूसरी मुलाक़ात अगले साल 1967 में शरद देवड़ा सम्पादित ‘अणिमा’ के कार्यालय में हुई, जहाँ वे कुछ स्थानीय साहित्यकारों की आपसी रंज़िश को सुलझाने के लिए आये थे। 1966 में मेरी एक कहानी ‘सारिका’ में और एक ‘धर्मयुग’ में छप चुकी थी। वह मेरी ओर कनखियों से देख रहे थे। कुशाग्र बुद्धि और मेधावी व्यक्ति को पहचान देने वाली उनकी आँखें बहुत तीखी और पैनी थीं। व्यक्ति को भीतर तक भेदकर रख देने वाली। जब मेरा उनसे परिचय करवाया गया, उन्होंने भौंहें चढ़ाकर कहा- ‘‘अच्छा तो आप हैं सुधा अरोड़ा।’’ मेरे हाथ-पैर ठंडे होने लगे। मेरे सफ़ेद पड़ते चेहरे को भाँपकर उन्होंने फौरन बात को संभाला- ‘‘दो-तीन कहानियाँ पढ़ी हैं मैंने। हटकर हैं। सारिका में भेजो।’’
तब मुझे नहीं मालूम था कि कमलेश्वर जी सारिका में सम्पादक होकर जाने वाले हैं। खैर ,कहानी मैंने लिखी और भेजी- ‘आग’ जो जनवरी 1968 में छपी।
कलकत्ता का एक और वाकया याद आ रहा है। राजेन्द्र यादव मेरे पापा के परम मित्र थे। घर में साहित्य चर्चा अक्सर हुआ करती थी। कमलेश्वर जी के बारे में इतनी बातें होती थीं कि एक बार हमेशा की तरह जब पिकनिक पर बाहर जाने का कार्यक्रम बन रहा था, तो मेरा छोटा भाई, जो आठ साल का था, ज़िद पर अड़ गया कि हम कमलेश्वर जाएंगे। उसे लग रहा था कि भुवनेश्वर, दक्षिणेश्वर की तरह कमलेश्वर भी किसी शहर का नाम है। उसे सबने बहुत समझाया, पर उसे लगता कि उसे टाला जा रहा है और उसे उसके माँ-पापा कमलेश्वर घुमाने नहीं ले जाना चाहते। हमलोग हँस रहे थे, तो वह और चिढ़े जा रहा था। इस घटना को धर्मयुग में भेजा गया और ‘कमलेश्वर जो एक शहर का नाम है’ शीर्षक से यह घटना छपी भी।
1970 में जितेंद्र भाटिया ने आई. आई. टी. में समांतर सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें कमलेश्वर जी के नेतृत्व में एक युवा पीढ़ी को मंच दिया गया। 1971 अक्टूबर में जब कमलेश्वर जी को अपने प्रिय शागिर्द जितेंद्र भाटिया के साथ मेरी शादी का निमंत्रण मिला- वे विदेश में थे। जब मैं शादी के बाद मुंबई पहुँची, कमलेश्वर जी का बेहद स्नेहिल, एक बड़ा खूबसूरत सा ख़त हमारा इंतज़ार कर रहा था। ऐसी मोतियों-सी जड़ी हुई लिखावट और बेहद आत्मीयता से भीगा-सा पत्र। हम दोनों ने कई-कई बार उस पत्र को पढ़ा और एहतियात से तहा कर रख दिया। आज भी वह काग़ज़ों में कहीं संभाल कर रखा हुआ है। आई.आई.टी. में तब पी. एचडी. के छात्रों को स्टाफ क्वार्टर्स अलॉट नहीं होते थे, सो हम आई. आई.टी. के जूनियर स्कूल के शिक्षकों के एक एच.टू. क्वार्टर में रहते थे। बेरंग, प्लास्टर उखड़ी दीवारों का एक छोटा सा कमरा, एक तंग रसोई और छोटा-सा बाथरुम। कमरे में एक दीवान, दो कुर्सियाँ और एक छोटा-सा डायनिंग टेबल था- जो खाने और लिखने-पढ़ने दोनों के काम आता। एक दिन जितेन्द्र ने बताया कि कमलेश्वर दोपहर को गोभी के पराठे खाने आ रहे हैं। मैं इस क़दर उत्साहित हुई कि जितेन्द्र के आठ बजे इंस्टीट्यूट के लिए रवाना होते ही मैं फूलगोभी कस करने बैठी और चार घंटे बैठकर चाकू से फूलगोभी कुतरती रही। मुझे तब तक यह नहीं पता था कि फूलगोभी के पराठे बनाने का एक आसान तरीका फूलगोभी को कद्दूकस कर दोनों हथेलियों में दबाकर निचोड़ देना है। कमलेश्वर जी दोपहर के खाने पर शाम के चार बजे आये और मैंने उन्हें गोभी के पराठे खिलाये। उनका घर पर आना, कभी भी अकेले नहीं होता था, उनके साथ दो-एक लोग हमेशा पीछे लहराते रिबन की तरह घर में दाखिल हो ही जाते और हम भी कमलेश्वर जी के आने के नाम से ही दो-चार मित्रों को बुला लेते क्योंकि कमलेश्वर जी को सिर्फ़ दो लोगों के बीच लाकर बिठा देना, उनकी प्रतिभा और वक्तृता का अपमान लगता था। वहाँ के छात्रों में भी कमलेश्वर जी के प्रशंसकों की कमी नहीं थी। उनके प्रभामण्डल का प्रकाश वृत्त जहाँ तक पहुँच सके, वहाँ तक देखने वाली आँखें और सुनने वाले कानों की उपस्थिति अनिवार्य थी।
उसके बाद बम्बई में घर की किल्लत के चलते मुझे बार-बार कलकत्ता जाना पड़ता। कभी आई. आई. टी. के किसी मित्र के घर, कभी किसी प्रोफेसर के यहाँ पेइंग गेस्ट...आख़िर कमलेश्वर जी ने सारिका में अपने एक सहयोगी आनंदप्रकाश सिंह का चेम्बूर में शेल कॉलोनी का एक कमरे का एक फ्लैट हमें ग्यारह महीने की लीज़ पर लेकर दिया और बम्बई में हमारी घर की समस्या का समाधान हो गया, जो सुरसा की तरह मुँह बाये हमारी सारी रचनात्मकता और संवेदना को लील जाने को तैयार खड़ी थी। वहाँ भी पाँच महीने बाद ही घर खाली कर देने का नोटिस दरवाज़े पर टंगा मिला।
कमलेश्वर जी का घर वॉर्डन रोड में था। उनके घर शंकर सागर में उनके पूरे परिवार से अंतरंग संबंध बने। गायत्री भाभी में वे सारी खूबियाँ थीं, जो सामाजिक परिदृश्य पर एक महान और प्रतिष्ठित व्यक्तित्व की पत्नी में होनी चाहिए। वे एक कुशल गृहिणी, समर्पित और एकनिष्ठ पत्नी और ममतामयी माँ थीं। ऐसा नहीं कि एक भारतीय पत्नी के लिए ये दुर्लभ गुण हैं पर जैसा कि मैंने एकबार मन्नू दी (मन्नू भंडारी) के संदर्भ में लिखा था कि कलाकार की पत्नी होना अंगारों भरी डगर पर नंगे पांव चलने जैसा है, गायत्री भाभी इसकी मिसाल थीं। उन्होंने इसे अक्षरशः सच कर दिखाया क्योंकि कमलेश्वर जी ने एक बार नहीं, कई बार उन्हें अंगारों भरी डगर पर नंगे पांव चलाया और गायत्री भाभी, अपने आंसुओं को पीछे धकेलते हुए, चेहरे पर एक शिकन लाये बिना, ओढ़ी हुई मुस्कान लेकर, बिना शिकवा-शिकायत के सब बखूबी झेल ले गयीं। कमलेश्वर जी के हर गलत-सही, जायज़-नाजायज़ काम में उन्होंने न सिर्फ़ शाब्दिक अर्थों में उनके कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर एक सुरक्षा कवच की तरह उनके सामने खड़ी हो गयीं। (मुझे लगता है, कमलेश्वर जी पर संस्मरण लिखने के बजाए मैं गायत्री भाभी पर ज्यादा प्रामाणिकता और गहराई से लिख सकती हूँ। उनका सौम्य व्यक्तित्व सबको प्रभावित करता था। शायद ही किसी ने उन्हें कभी किसी पर नाराज़ होते देखा हो।) कहा जाता है कि ईश्वर दाम्पत्य टिकाये रखने के दो विपरीत सांचे गढ़ता है। एक पक्ष आग बरसाने वाले टेम्परामेंट का हो, तो दूसरा उसका पूरक बनकर एकदम ठंडी बौछार का काम करता है। गायत्री भाभी अपने पति के हर अतिरेक का सही सांचे में ढला हुआ विलोम थीं। वैसे भी औसत हिन्दुस्तानी औरत के लचीलेपन की मिसाल पूरे विश्व में ढूंढे नहीं मिलेगी।
1975 में हमने सात बंगला, वर्सोवा में सी-क्रेस्ट में एक बेडरुम का एक छोटा-सा फ्लैट लिया जो अब हमारा स्थायी निवास था। इत्तफाक़ से उन्हीं दिनों टी. एन. मोहन, जो दूरदर्शन के हिन्दी विभाग में एक प्रोड्यूसर थे, हिन्दी कहानियों पर आधारित फिल्मों का कार्यक्रम कर रहे थे। केकू गाँधी के बंगले पर (जो आज शाहरुख खान का बंगला ‘मन्नत’ है) मेरी कहानी ‘युद्धविराम’(‘दिशांतर’ नाम से जिस पर लघु फिल्म बनी थी) की शूटिंग हुई थी और जितेन्द्र की कहानी ‘रक्तजीवी’ जिस पर दो घंटे की फीचर फिल्म बनी थी, की शूटिंग वर्सोवा के आगे फैले जंगल में हुई थी। हमारे सात बंगला वाले घर में आतेआते वर्सोवा का वह शांत इलाका कमलेश्वर जी को इतना पसंद आया कि उन्होंने पराग अपार्टमेंट्स वर्सोवा में घर ले लिया था और जब कभी वह वीक एंड बिताने पराग अपार्टमेंट्स में आते तो शनिवार की रात हमारे यहाँ जमावड़ा होता।
अक्सर कमलेश्वर जी देर रात 10 बजे आते और उनके आने के पहले ही चार-छह लोग उनका इंतज़ार कर रहे होते। कई बार गायत्री भाभी भी घर से एक-दो डिश बनवाकर ले आतीं और फिर शुरू होता- पीने का दौर। रात एक बजे से मैं आग्रह शुरू करती कि अब खाना लगवा दिया जाये। ‘बस, थोड़ी देर और ’ ....और रात दो-अढ़ाई से लेकर चार बजे तक कभी भी खाना परोसने का आदेश होता। गायत्री भाभी बिटिया मानू को लेकर पराग में जाकर सो जातीं और मैं सबके खाने के इतज़ार में टंगी रहती। फिल्म्स डिवीज़न के निदेशक चंद्रशेखर नायर जहाँ तीसरे-चौथे पेग में ही आपा खो बैठते थे और युवा कथाकार हृदय लानी तो हमारे चौथे माले से छलांग लगाने पर उतारुहो जाते थे, वहीं कमलेश्वर जी को मैंने कभी शराब के कितने भी पेग पीने के बाद भी अपना संतुलन खोते नहीं देखा। बस, वे जब पूरी तरह खुमार में होते, खुली आवाज़ में सबकी- ख़ास तौर पर औरतों की कलई खोलने जमकर बैठ जाते जिनमें सबसे दिलचस्प वाकया वॉर्डन रोड में पास ही रहने वाले उनके समकालीन लेखक मित्र की दूसरी पत्नी होतीं -उनके पहरावे से लेकर, उनकी बातों और उनके मैनरिज़्म की, उनके संवादों की कमलेश्वर जी वो मिमिक्री करते कि हम सब हँसते-हँसते दोहरे-तिहरे हो जाते। पीने के बाद वे ‘भाभी’ उनका प्रिय विषय होतीं। वे बहुत बढ़िया अभिनेता थे और किस्से सुनाने में तो उनका कोई सानी नहीं था। उनके पास देशविदेश की रोमांचक फ़र्स्टहैंड गाथाएं थीं, गाँव-क़स्बों के किस्से थे और सबसे बढ़कर विलक्षण विस्मयकारी मंत्रमुग्ध कर देने वाली भाषा और बेलौस ठहाके-यानी कमलेश्वर जी का बैठक में होना भर एक सकारात्मक ऊर्जा (पॉज़िटिव एनर्जी) का प्रवाह करने के लिए पर्याप्त था।
शुरू-शुरू में तो अपने घर में यह जमावड़ा बहुत अच्छा लगता क्योंकि तरह-तरह के लोगों से परिचय होता, पर कुछ दिनों के बाद ही मैं बेतरह ऊबने लगी। हमारी ज़िन्दगी में व्यक्तिगत नाम का कोई ‘स्पेस’ नहीं था। सोमवार से शुक्रवार और शनिवार आधा दिन जितेन्द्र अपने ऑफ़िस के काम में व्यस्त रहते और शनिवार-रविवार कमलेश्वर जी की भेंट चढ़ जाता। उसमें भी देर रात तक खाना गरम कर के देने का इंतज़ार करना बेहद तकलीफ़देह लगता। गरिमा के लिए यह अच्छी-ख़ासी कवायद हो जाती। वह मेरे बिना सोती नहीं और रात में दो-तीन बार बिस्तर से उठकर बैठक में चली आती। गायत्री भाभी के लिए तो यह रोज़ की दिनचर्या थी। कई बार जब हम वॉर्डन रोड में होते, वे मुझे नींद से उठातीं कि खाना लग गया है। अपने स्टडी में गुलज़ार साहब के साथ कमलेश्वर जी ‘आंधी’ फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम कर रहे होते और हमलोग उनके उठने के इंतज़ार में बैठे रहते क्योंकि वे हमें सात बंगला छोड़ते हुए वर्सोवा के अपने पराग अपार्टमेंट्स में जाते। रात के तीन बजे भी गायत्री भाभी रसोई में गरम-गरम फुल्के सेंकने और कबाब बनाने को मुस्तैद दिखाई देतीं। तब भी जब उन्हें सुबह-सुबह उठकर मानू को स्कूल भेजना होता।
1972 से 1977 तक के पाँच वर्ष कमलेश्वर जी के साथ हमारे अन्तरंग वर्ष थे। जितेन्द्र के फ्रेंड - फिलॉसफर-गाइड-हीरो कमलेश्वर जी ही थे। वे हर लिहाज़ से हमारे गॉडफ़ादर थे। किसी भी काम को करवाने के लिए उनकी उंगलियों का एक इंगित ही काफी था। कमलेश्वर जी की फ़रमाबरदारी के लिए जितेन्द्र पूरी तरह बिछे हुए थे-इस हद तक कि जितेन्द्र जब ‘कथा यात्रा’ के दफ़्तर जाते, तो जम्मू से आया स्वर्ण कुमार और नमित किशोर कपूर, जिसने ‘रक्तजीवी’ में हीरो का किरदार निभाया था, कभीकभी मज़ाक में कहते कि जितेन्द्र आपकी सौत के पास गये हैं। हमारी बिटिया गरिमा भी इन लोगों से खूब हिल गई थी और बच्चों को अपने वश में करने की खूबी कमलेश्वर जी में थी। उनके घर आते ही वह खूब उमगकर मिलती। खूब सक्रिय समय था वह।
कमलेश्वर जी के आग्रह पर ही मैंने कलकत्ता से लौटते ही ‘सारिका’ के लिए ‘दमनचक्र’ कहानी लिखी जो कई सालों से मेरे मन में घुमड़ रही थी, पर कमलेश्वर जी का उस विशेष अंक के लिए दबाव न होता, तो बहुत-सी दूसरी कहानियों की तरह यह भी ठंडे बस्ते में चली गयी होती। कमलेश्वर जी नये लेखकों के लिए ज़बरदस्त प्रेरणा स्रोत थे। सभी भाषाओं में नये युवा लेखकों की एक पूरी पीढ़ी उन्होंने ‘सारिका’ के माध्यम से खड़ी की।
उन्हीं दिनों कमलेश्वर जी का ‘परिक्रमा’ धारावाहिक शुरू होते ही दूरदर्शन पर छा गया था। बातों के तो वे बेताज बादशाह थे ही। बिना किसी पूर्व तैयारी के वे सीधे सेट पर पहुँच जाते और सहभागियों को भी अपनी उपस्थिति और बेलौस आत्मीय व्यवहार से विश्वास में ले लेते। उनके कार्यक्रम इतने सहज और स्वाभाविक होते कि दर्शक फ़िल्में और छायागीत-चित्रहार छोड़कर ‘परिक्रमा’ देखते। उनका शुद्ध हिन्दी भाषा बोलने का अंदाज़ बेहद मोहक था और दूरदर्शन पर पहली बार ऐसी समृद्ध हिन्दी भाषा से दर्शकों का परिचय हुआ था। ‘परिक्रमा’ की लोकप्रियता देखते हुए हिन्दुस्तान लीवर में अच्छी-ख़ासी तनखा पाता हुआ, जितेन्द्र का एक सहकर्मी अपनी नौकरी छोड़कर तीन सौ रुपये में कमलेश्वर जी के साथ ‘परिक्रमा’ कार्यक्रम में सहायक बन गया। इसका बहुत बड़ा खामियाज़ा उसे तब भुगतना पड़ा, जब वह कमलेश्वर जी का असिस्टेंट बनकर रह गया और बाद में तो उसे सौ दो सौ रुपये निकलवाने के लिए भी दंड पेलना पड़ता। कमलेश्वर जी के पास अपनी कविताओं की डायरियाँ लिये आती एक रईस मारवाड़ी महिला, जो अपनी रचनात्मक सनक के चलते अपने पति को छोड़ने को तैयार थी, इस कुमार के चक्कर में पड़ गयी। उसके रईस पति ने ही अपनी पत्नी को तलाक के साथ जुहू में एक फ्लैट उसके नाम कर उसकी शादी इस कुमार से करवा दी और खुद एक सिंधी औरत से शादी कर ली। इन दोनों ने अपनी ज़िन्दगी का वो हश्र किया कि 1993-94 में जब मैं ‘हेल्प’ से जुड़ी, ‘हेल्प’ के सभी कार्यकर्ता कहते कि इतना उलझा हुआ केस हमने पहले कभी नहीं देखा- जो न एक दूसरे को छोड़ने को तैयार हैं, न सलीके से साथ रहने को। हिन्दुस्तान लीवर की नौकरी छोड़कर उस कुमार की ज़िंदगी जो पटरी पर से उतरी, फिर कभी लीक पर नहीं लौटी।
कमलेश्वर जी की शोहरत और फिल्मों में उनकी डिमांड का ग्राफ़ तेज़ी से उठान पर था, तभी ‘सारिका’ को दिल्ली शिफ्ट करने की योजना बैनेट कोलमैन ग्रुप की ओर से सामने आयी। कमलेश्वर जी जिस तरह फिल्मों और दूरदर्शन कार्यक्रम में एक ‘स्टार’ का ओहदा पा रहे थे, ‘सारिका’ के लिए दिल्ली जाने का मतलब था- अपने इस फिल्म और दूरदर्शन के प्रभामंडल से बाहर निकलना और दिल्ली न जाकर इस्तीफ़ा देने का अर्थ था-वॉर्डन रोड के ‘शंकर सागर’,जहाँ वे रहते थे, उस पॉश फ्लैट का हाथ से निकल जाना। ‘समांतर’ आंदोलन के जन्मदाता, सभी भाषाओं की युवा पीढ़ी के अगुआ कर्णधार, ‘आम आदमी’ के मसीहा अपनी सफलता के चरम पर थे, जब उन्हें दिल्ली जाने और ‘सरिका’ छोड़ देने में से किसी एक को चुनना था। दूरदर्शन के ‘परिक्रमा’ या फिल्मों से उन्हें जो शोहरत मिली थी, उसकी नींव में ‘सारिका’ पत्रिका और टाइम्स ऑफ इंडिया का मज़बूत आधार था जो कमलेश्वर जी को लड़खड़ाता दिखाई दे रहा था। दूसरी ओर फिल्मों से मिला आर्थिक आधार इतना चुम्बकीय था कि कमलेश्वर जी उसे हाथ से छूटने देना नहीं चाहते थे। ‘सारिका’ के दिल्ली स्थानांतरण के बाद कमलेश्वर जी के साथ ‘कथा यात्रा’ नाम से एक मासिक पत्रिका की एक बेहद महत्त्वाकांक्षी योजना बनी । कमलेश्वर जी ने जानकी कुटीर, जुहू में एक फ्लैट ले लिया था जहाँ ‘कथा यात्रा’ का काम होने वाला था। जितेन्द्र पेशे से इंजीनियर थे, पर लीक से हटकर एक पत्रिका निकालने का अरसे से उनका एक सपना था। इस सपने को वह ‘कथा यात्रा’ में साकार होता देखना चाहते थे, सो उन्होंने अपने आपको इसमें पूरी तरह झोंक दिया। जितेन्द्र के सिर पर पत्रिका का जुनून सवार था। इस जुनून में उनके भागीदार थे- लाजपत राय, देवेश ठाकुर, साजिद रशीद, आत्माराम और मातादीन खरवार। बतौर जितेंद्र भाटिया की पत्नी मेरा वहाँ होना एक अनिवार्यता थी क्योंकि मेरी सहमति या अनुमति की ज़रूरत ही नहीं थी। जहाँ जितेन्द्र थे, वहाँ ग़ैरज़रूरी तौर पर ही सही, पर मैं थी। मेरी अपनी न कोई पहचान थी, न इच्छा-अनिच्छा। पैसे की किल्लत थी सो अलग। मित्रों ने दो-दो हजार रुपये दिये। पत्रिका पहले अंक से ही काफी लोकप्रिय रही और सिर्फ़ मध्य प्रदेश में इसके सौ से ऊपर एजेंट थे। और इसके साथ ही सौ-सौ रुपये भेजने वाले असंख्य ग्राहक। जितेन्द्र घर से अपना इकलौता स्टडी टेबल और टाइपराइटर भी ले गये। सुबह सात बजे से तीन बजे की शिफ्ट की नौकरी करते और घर लौटकर आधा घंटा भी मुश्किल से रुकते और फिर भागते- जानकी कुटीर, जुहू में ‘कथा यात्रा’ के दफ़्तर। उसके बाद घर लौटने का कोई समय नहीं होता। अक्सर साज़िद रशीद, जो पत्रिका का ले आउट संभालते थे, के साथ जितेन्द्र रात-रात भर वहीं रहते और सुबह छह बजे लौटकर नहा-धोकर एक प्याला चाय पीकर फिर अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर चले जाते।
इस बीच कमलेश्वर जी का क्लोज़ अप धीरे-धीरे मेरा उनसे मोहभंग कर रहा था। वह लेखक कम और फिल्मी हस्ती ज्यादा लगते थे। ‘सारिका’ छोड़ने के बाद साहित्य से जुड़े रहने का एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म था-‘कथायात्रा’.....और जिसके लिए कमलेश्वर जी के पास ज़रा भी वक़्त नहीं था।
सारा समय वह अपने फिल्मी लोगों से फोन पर जुटे रहते। ‘कथायात्रा’ का वह ऑफ़िस फिल्मी लोगों से मिलने का और कमलेश्वर जी के फिल्मी करियर के फलने-फूलने का अड्डा बनता जा रहा था। कमलेश्वर जी के फिल्मी रंग-ढंग और ऐय्याशियाँ किसी से छिपी नहीं थीं- बाद में तो खुद भी उन्होंने उनका खुलासा अपने संस्मरणों में किया है। ‘सारिका’ से उनका फिल्मी दफ़्तर शिफ्ट होकर ‘कथायात्रा’ में आ गया था। हमारे मित्र मज़ाक करते कि ‘कथायात्रा’ की ओखल में जितेन्द्र भाटिया का सिर और कमलेश्वर का मूसल है। मैं खीझकर जितेन्द्र को समझाने की कोशिश करती कि आप सब का यहाँ इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि कमलेश्वर जी अपने पर विशुद्ध फिल्मी लेखक का ठप्पा लगने नहीं देना चाहते थे। ‘सारिका’ जैसी साहित्यिक पत्रिका के संपादक होने का प्रभामण्डल वह छोड़ नहीं पा रहे थे। उसकी खानापूरी वे ‘कथायात्रा’ से करना चाह रहे थे।
कई बार शाम को मैं अपनी साढ़े चार साल की बेटी गरिमा का हाथ थामे जितेन्द्र का रात का टिफिन लेकर वर्सोवा से 255 नं. की बस लेकर जुहू जाती और पत्रिका के काम में हाथ बँटाती, ‘बस, अभी चलता हूँ’ कहते-कहते वे रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे मुझसे गरिमा को वापस लेकर लौट जाने को कहते और मैं उस सुनसान इलाक़े में लगभग खाली बस में बिटिया के साथ वर्सोवा के अकेले घर में वापस आ जाती और रात भर बालकनी में टंगी रहकर आत्महंता मनःस्थिति से गुजरती। जितेन्द्र को समझाने की कोशिश करती तो वह भड़क जाते और मुझे लताड़ने लगते। अपने ‘गॉडफादर’ के ख़िलाफ़ एक वाक्य सुनना उन्हें गवारा नहीं था।
बहरहाल,‘कथायात्रा’ में हम दोनों के अलावा बाकी सभी लोग साजिद रशीद, आत्माराम, देवेश ठाकुर, लाजपत राय जहाँ दिन-रात एक करके पत्रिका की सामग्री, ले आउट, बिक्री, एजेंट के मसलों पर दिनरात एक कर रहे होते, कमलेश्वर जी का फिल्मी कारोबार फिल्मी तरीक़े से आगे बढ़ रहा था। उनकी पोशाक बदल गयी थी- बुश्शर्ट या कुरते की जगह वह सिल्क का डिज़ाइनर कुरता और चमकदार रेशमी तहमद पहन कर सभी की आँखों में किरकिरी पैदा करते।
एक शाम हम वहाँ पहुँचे, तो पता चला, कमलेश्वर जी ने एक ऑफ़िस का सेकंड हैंड फर्नीचर चौदह हज़ार रुपये में खरीद लिया है-तीस साल पहले के वे चौदह हज़ार आज के चारेक लाख के बराबर तो होंगे ही। कहाँ हम दरी पर बैठकर काम करने में खुश थे और एक सहकारिता का भाव महसूस करते थे, वहां गद्दीदार रेक्सिन की रिवॉल्विंग एक्जीक्यूटिव कुर्सियों और काँच लगी मेज़ों ने पूरी जगह पर कब्ज़ा कर उसे आलीशान फ़िल्मी दफ़्तर में तब्दील कर दिया था। यह हमारे आम आदमी के मसीहा और आम आदमी से जुड़ी पत्रिका ‘कथायात्रा’ का कैरीकेचर रच रहा था।
अब तो वहाँ युद्ध का सा माहौल बन गया। देवेश ठाकुर, लाजपत राय, जितेंद्र भाटिया, सुधा अरोड़ा ने अपनी गाढ़ी कमाई से पैसे जोड़-जोड़ कर पत्रिका में लगाये थे और ‘कथायात्रा’ के दो अंक प्रकाशित होकर पर्याप्त चर्चित हो चुके थे पर कमलेश्वर जी की प्राथमिकताएं बदल गयी थीं। ‘कथायात्रा’ उनके लिए ‘सारिका’ के बाद पत्रकारिता जगत में प्रतिष्ठा का एक स्टॉप गैप भर बनकर रह गयी थी।
कुर्सी-मेज़ से मतभेदों की शुरुआत हुई और सामग्री तक पहुँची, जहाँ प्रधान संपादक-कमलेश्वर, संपादक-जितेन्द्र भाटिया के कंधे पर बंदूक रख गोलियाँ दाग रहे थे और अपने दोस्तों से पुराने हिसाब चुका रहे थे। फर्नीचर की ख़रीदारी के बाद सब लोग उन्हें ‘सेठजी’ कहने लगे थे। इस खिताब की शुरुआत आत्माराम ने की थी और बाद में चेन्नई के हमारे परम आदरणीय अग्रज श्री रा. शौरिराजन भी कमलेश्वर जी को इसी नाम से बुलाने लगे थे।
1978-79 का यह वह समय था जब कमलेश्वर जी अपनी सफलता के चरम पर थे। सावन कुमार, बी. आर. चोपड़ा, गुलज़ार जैसे बड़े निर्माता-निर्देशक उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटते थे, पर बड़े फिल्म निर्देशकों के कारण उनके आस-पास फिल्मी बालाएं भी पूरी सज-धज के साथ उनके चक्कर काटती रहतीं। इन्हीं में से एक थीं मेघना (बदला हुआ नाम)। पहली बार जब ‘कथायात्रा’ के दफ़्तर में कमलेश्वर जी उसे साथ लेकर आये, तो उन्होंने परिचय करवाया कि यह मेघना हैं, मेरे साथ ‘परिक्रमा’ में काम करती हैं और मुझ पर उर्दू में पी. एच. डी. कर रही हैं।
मेघना के चेहरे पर मेकअप की हमेशा इतनी मोटी तह जमी रहती थी कि उसका असली चेहरा देख पाना मुश्किल था। दूसरा, वह इत्र से सराबोर रहती। जिस कमरे में एक बार आकर वह फूलदान सजाकर निकल जाती, खूशबू का तर झोंका हमारे सर में दर्द पैदा कर देता। वह उर्दू साहित्य की पी. एच. डी. की छात्रा कम और किसी फाइव स्टार होटल की रिसेप्शनिस्ट अधिक लगती थी। वह उस बदले हुए महँगे फर्नीचर का ही एक हिस्सा मालूम होती थी।
धीरे-धीरे मेघना का ‘कथायात्रा’ के दफ़्तर की साज़-सज्जा में दख़ल बढ़ता गया। वह कमलेश्वर जी के आने से पहले ही हाज़िर रहती और उनके आने पर बिल्कुल अटेन्शन की मुद्रा में आ जाती और वहाँ काम कर रहे दो कर्मचारियों को अपदस्थ कर चाय का कप भी ‘साहब’ के कमरे में खुद पहुँचाने जाती, जूते भी उठाकर एक तरफ रखती। रसोई और ‘साहब’ के कमरे में उसका पत्नीनुमा दख़ल हम सब को बेतरह अखर रहा था। कभी-कभी गायत्री भाभी दफ़्तर आ जातीं, तो कमलेश्वर जी बुरी तरह खीझने लगते। दिलीप और नवीन (कमलेश्वर जी के वफ़ादार सेवक) जब उनके सामने ‘मेघना जी’ कहते, तो उन्हें अगले दिन मेघना की शिकायत पर आदेश मिलता कि उन्हें ‘मेघना जी’ नहीं, ‘मैडम’ कहो। ये सारी स्थितियाँ हमारे मन में जबरदस्त आक्रोश पैदा कर रही थीं।
मेघना की गतिविधियों ने कार्यालय में वैसे ही काफी ऊधम मचा रखा था। एक टग ऑफ़ वॉर की सी स्थिति आ गयी थी-एक ओर ‘कथायात्रा’ का पूरा स्टाफ़ था- जिसमें दिलीप और नवीन भी शामिल थे, दूसरी ओर कमलेश्वर, मेघना और उनकी फिल्मी चमक-दमक।
आख़िर झटके से डोरी टूट ही गयी। जितेन्द्र का तबादला हो गया और उन्होंने कलकत्ता की एक सरकारी कम्पनी में नौकरी ले ली। उनके जाने के बाद दो बार कमलेश्वर जी से मेरी अच्छी-ख़ासी झड़प हुई। वह जितेन्द्र के नाम से ‘मियां की दौड़’ में अपने पुरानी रंजिश निकाल रहे थे और मैंने उनसे ‘कथायात्रा’ में से अपना नाम हटा देने को कहा। जितेन्द्र मुंबई से जा चुके थे और मैं भी अपना सामान सहेजने की तैयारी में थी।
इस बात को लेकर और फिर फर्नीचर के मसले पर मैंने उन्हें काफी खरी-खोटी सुनाई। वे पहले मुझे प्रेम से समझाते रहे, पर मेरे अड़े रहने बाक़ायदा आँखों में आंसू लाकर उन्होंने ऐसा अभिनय किया कि मैं चुप रह गयी। आत्माराम इस झगड़े का गवाह था। वह दरवाज़े पर खड़ा सब सुन रहा था। मैंने क्याक्या कहा, मैं भूल चुकी हूँ पर वह बाद में अक्सर याद दिलाता कि मैं गुस्से में क्या कुछ बोल गयी थी।
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इस बीच गायत्री भाभी भीषण तनाव से गुज़र रही थीं और उनका चेहरा उनकी तकलीफ़ बिना उनके कहे भी उजागर करता था। कमलेश्वर जी अक्सर दस-पंद्रह दिन के लिए गायब हो जाते। भाभी को अपना सूटकेस तैयार करने के लिए कहते। भाभी कपड़े तहाकर रखती जातीं और रोती जातीं।
तभी हमें अपना घर बोरिया-बिस्तर समेटकर निकलना था, तो मैं कमलेश्वर जी के घर वॉर्डन मिलने के लिये गयी और उनसे अपने चार हज़ार वापस माँगे। कमलेश्वर जी ने हाथ झाड़ दिये। वॉर्डन रोड के घर से निकलते हुए जब वे मुझे बाहर तक छोड़ने आये, तो मैंने कमलेश्वर जी से कहा कि आप यह न समझें कि किसी को आपकी कारगुज़ारियों के बारे में नहीं मालूम। मेघना के बारे में हम सबको मालूम है और आप गायत्री भाभी के साथ जो कर रहे हैं, ठीक नहीं कर रहे हैं। उन्होंने मेरी हिमाक़त पर मुझे जलती आँखों से देखा, पर बोले कुछ नहीं।
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बहरहाल, जितेन्द्र को अपनी नौकरी से तबादले के ऑर्डर आ गये और वह हल्दिया चले गये। अपने धराशायी सपनों को लादकर हल्दिया से हम कलकत्ता चले गये। ‘कथायात्रा’ की तो रीढ़ जितेन्द्र ही थे,
उनके जाने के बाद ‘कथायात्रा’ का एक कृशकाय-सा अंक निकला और ‘कथायात्रा’ का क्रियाकर्म संपन्न हो गया।
कलकत्ता गये अभी छह महीने भी नहीं हुए थे कि कई मित्रों ने कमलेश्वर का एक छपा हुआ सर्क्यूलर, जिसमें आर्थिक पक्ष का दारोमदार जितेन्द्र को ठहराया गया था, अपनी टिप्पणियों के साथ डाक से भिजवाया। कमलेश्वर की मानसिकता का पर्दाफ़ाश करते हुए रा. शौरिराजन से लेकर लाजपत राय के ख़तों का पुलिंदा आज भी रखा हुआ है, जिसे एस. पी. सिंह और शिशिर गुप्त ‘रविवार’ की कवर स्टोरी में देने जा रहे थे। पर जितेन्द्र ने उन्हें रोक लिया कि ओछेपन का जवाब उन्हीं के स्तर पर आकर दिया जाये, यह ज़रूरी नहीं। जैसा उनका स्वभाव है, वह चुप रहे, कभी किसी को सफ़ाई देने की उन्होंने ज़रूरत नहीं समझी, पर यह बहुत बड़ा सदमा था और वह पहले से ज्यादा खामोश हो गये थे। अपने ‘गॉडफादर’ के असली चेहरे ने साहित्य और साहित्यकारों, दोनों से उनका एकबारगी मोहभंग करवा दिया था। कलकत्ता जाकर हम दोनों साहित्यकारों की दुनिया से बिलकुल कटकर अपने में सिमट गये थे। ‘कथायात्रा’ का यह हादसा हमारी ज़िंदगी में न हुआ होता, तो जितेन्द्र अपने इंजीनियरिंग के पेशे को छोड़कर पूरी तरह संपादक-लेखक हो गये होते। इस हादसे ने उनके करियर की दिशा ही बदल दी। ‘कथायात्रा’ के इस एक साल ने और उसके बाद के झटके ने हम दोनों की रचनात्मकता को पूरी तरह सोख लिया था। कलकत्ता पहुँचकर मैंने एक कहानी लिखी- ‘बोलो, भ्रष्टाचार की जय!’ जो ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में 1982 में छपी थी। यह कहानी कमलेश्वर जी के चरित्र पर आधारित थी। उन्हें क़रीब से जानने वाले लोग इसमें उनका चेहरा पहचान सकते थे, पर इसमें उनके सारे संवाद कल्पित थे। बाद में जितेन्द्र ने भी एक कहानी लिखी ‘दुभाषिया’ जो ‘हंस’ में छपी!
कलकत्ता जाने के बाद अचानक हमें रा. शौरिराजन ने मद्रास से कमलेश्वर का भेजा एक सर्क्युलर भिजवाया और उसी के साथ ‘सेठजी’ के नाम भर्त्सना से पूर्ण विशेषण। यह खत आज भी मेरे ड्राअर में चूहे का आधा कुतरा हुआ पड़ा है। लाजपत राय, देवेश ठाकुर, साजिद रशीद, मातादीन खरवार-सभी ने कमलेश्वर जी की इस हरक़त की भरपूर निन्दा की।
कुछ समय बाद मुंबई से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्रिका ‘ईव्ह्स वीकली’ ने मेघना की फोटो के साथ एक कवर स्टोरी प्रकाशित की थी जिसमें कमलेश्वर जी की फोटो के नीचे कैप्शन था, ‘‘गॉड विथ द फीट ऑफ क्ले’’ और इसके साथ एक संपादकीय टिप्पणी थी। मेघना के साथ उनकी मॉरीशस यात्रा और कमलेश्वर जी के हूबहू नाक-नक्श से मिलते-जुलते एक बच्चे के नामकरण संस्कार की रस्मों की तस्वीरें थीं। मन्नू दी (मन्नू भंडारी) ने जैसे ही सुना, तो हँस कर बोलीं- ‘‘संगीत क्षेत्र में रविशंकर की तरह, साहित्य में कमलेश्वर के भी दिक्-दिगंत में बच्चे पल रहे हैं।’’ माना कि नामी-गिरामी कलाकारों के सौ गुनाह माफ़ हैं पर कलाकारों की ऐसी करतूतों पर हम महिलाओं को क्या हँसने और तंज करने का भी अधिकार नहीं है? इस घटना के तीन-चार साल बाद कमलेश्वर जी ने कुछ कॉमन मित्रों के माध्यम से कहलवाया कि हम बीती बातों को भूल जायें और संवाद कायम करें। सुभाष पंत ने भी कमलेश्वर जी की तरफ़ से यह संदेशा भिजवाया पर हमारी तरफ़ से कोई रेस्पांस उन्हें नहीं मिला।
सन् 1991 में हम कलकत्ता से फिर मुंबई आ गये। उन्हीं दिनों कमलेश्वर की आत्मकथा का धारावाहिक प्रकाशन मुंबई के ‘सबरंग- जनसत्ता’ और इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गंगा जमुना’ में हो रहा था- उसके शीर्षक पढ़कर ही जुगुप्सा जगती थी। ‘सबरंग जनसत्ता’ के फीचर संपादक धीरेंद्र अस्थाना और ‘गंगा जमुना’ के संपादक रवीन्द्र कालिया उन पर चटखारेदार शीर्षक चस्पां कर रहे थे- ‘संगमरमरी बदन का वह भव्य ताजमहल...’ ‘सवाल ग्यारह चुंबनों का’ ‘औरत के पोर-पोर में कैमरे लगे होते हैं...’ ‘वासना के महाद्वार पर पहली दस्तक’ ‘औरतों के तिलिस्म और लथपथ शाम’ ‘वह वासनाओं का पाताल ...’ ‘उफ! औरतों का माफिया...’ ‘वे चंदनवनों से लिपटी प्रेयसियां...!’
इन शीर्षकों के तहत छपे कथ्य में क्या ब्यौरे होंगे, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं है। ‘जनसत्ता सबरंग’ में तो पाठकों के प्रतिरोध के कारण इस पर बीच में ही विराम लगाना पड़ा, पर जितना छपा वह साहित्य के नाम पर अच्छा-ख़ासा धब्बा था।
एक दिन जितेन्द्र ने ऑफ़िस से लौटकर कहा, ‘‘आज पता है किसका फ़ोन आया था?’’ मेरे पूछने से पहले ही ठंडे स्वर में बोले,‘‘कमलेश्वर जी का। उन्होंने कहा कि हम दोनों मुंबई आये हुए हैं, सन् एंड सी में ठहरे हैं, सम्पर्क नं. नोट कर लो।’’ मैंने यूं ही पूछा, ‘‘नम्बर नोट किया या नहीं?’’ उन्होंने एक चिट थमा दी। मैंने कहा, ‘‘चलो, कल मिल आते हैं। गायत्री भाभी से मिले बरसों हो गये।’’ गायत्री भाभी हम दोनों की बड़ी प्रिय थीं। जितेन्द्र ने कहा, ‘‘तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं नहीं जाऊँगा।’’
अगले दिन मैं ‘सन एंड सी’ गयी। गायत्री भाभी से बहुत दिनों बाद मिलकर और उनके चेहरे पर पुरानी चमक वापस देखकर मुझे अच्छा लग रहा था। तभी वहाँ कमलेश्वर जी का फोन आया। भाभी ने बड़े उत्साह से बताया कि सुधा आयी हैं मिलने। कमलेश्वर जी ने दस मिनट रुकने को कहा। वे जब आये, इधर-उधर की बातें करते रहे, गरिमा के बारे में पूछा, फिर कहा, ‘‘जितेन्द्र नहीं आये?’’ मैंने कहा, ‘‘वह आज किसी ज़रूरी काम में फंस गये।’’
कमलेश्वर जी को इंतज़ार जितेन्द्र का ही था। बस, इसके बाद सम्पर्क जुड़ने का कोई सूत्र बाकी नहीं बचा ।
1993 में मैंने एक महिला संगठन ‘हेल्प’ ज्वॉयन किया। सन् 2004 में जब मैंने कथादेश में ‘औरत की दुनिया’ लिखना शुरू किया, तो रिंकी भट्टाचार्य के आत्मकथांश का हिन्दी पाठक विशेषकर पाठिकाओं ने भरपूर स्वागत किया। उन दिनों अपनी पत्रकार मित्र निर्मला डोसी की मदद से मैंने मेघना को ढूँढ निकालने की भरपूर कोशिश की, ताकि कमलेश्वर के हाथों उसके ‘शोषण’ की कथा कह सकूँ। बहरहाल, उसकी बहन ने हमेशा कहा कि मेघना मुंबई से बाहर है। वह कोई बयान देने को तैयार नहीं हुई। एक बार डॉ. इंदु विश्नोई ने बताया कि वे लोकल ट्रेन की फर्स्ट क्लास श्रेणी से यात्रा कर रही थीं कि उन्हें एक महिला ने कहा, ‘‘आपको कहीं देखा है। आपका नाम क्या है?’’ इंदु जी ने अपना नाम बताया और उसका नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘मेघना कमलेश्वर।’’ इंदु जी सकते में आ गयीं और चुप रहीं। अपने जानकी कुटीर वाले फ्लैट में भी उन्होंने ‘मेघना सक्सेना’ का नेम प्लेट लगा रखा था।
आज पन्द्रह साल बाद स्त्री संगठनों के अपने अनुभवों के साथ इस आत्मस्वीकृति (कन्फेशन) के लिए मैं तैयार हूँ कि हम नारीवादी कार्यकर्ताएं अपनी धारणाओं में कितनी रिजिड और पूर्वाग्रह ग्रस्त होती हैं। किसी भी सम्बन्ध में हमेशा पुरुषों में ही हमें दोष दिखाई देता है। शोषण का ज़िम्मेदार हम आँखें मूंदकर पुरुषों को मान बैठते हैं और स्त्रियाँ हमेशा हमें निरीह, कातर, शोषित, दलित, दमित जीव जान पड़ती हैं, जबकि हमेशा यह सच नहीं होता।
गायत्री भाभी कहा करती थीं, ‘‘सुधा, ‘ये’ इतने सीधे हैं कि कोई भी इन्हें बहका-फुसलाकर कुछ भी करवा ले।’’ तब मुझे लगता था कि भाभी अपने पति की करतूतों पर परदा डालने के लिए एक आदर्श भारतीय नारी का रोल अदा कर रही हैं। पर अब मैं अपने कुछ कड़वे अनुभवों के बाद यह ज़रूर कह सकती हूँ कि गायत्री भाभी का कहना गलत नहीं था। सचमुच, इस प्रजाति की भी औरतें बाक़ायदा अपने पूरे छल-छद्म के साथ प्रतिष्ठित समाज में एक शिकारी की आँख लेकर डटी होती हैं। जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है- न मान-सम्मान, न धन, न प्रतिष्ठा- वे जाने-माने प्रतिष्ठित और पैसे से समृद्ध पुरुषों की कमज़ोरी का भरपूर फ़ायदा उठाती हैं। समाज की नामी-गिरामी सम्मानित हस्तियों की ‘रखैल’ बनने में भी इनका सम्मान है। ये औरतें अकेली ही अपने आप में एक पूरा घर तोड़ू दस्ता होती हैं। कमलेश्वर जी अपनी अधेड़ होती उम्र में ऐसी ही एक महिला की शतरंजी चालों का शिकार हो गये जिसका ख़ामियाजा उन्हें उस वक़्त के कई नायाब दोस्त खोकर और अपनी गाढ़ी कमाई का मुंबई के जुहू इलाक़े का एक फ़्लैट देकर ही चुकाना पड़ा। उसके बाद तो ऐसी औरतें भी नज़र आयीं, जिनके सामने दस रेशमाएं पानी भरें। आज साहित्यिक समाज में भी ऐसी औरतें बेरोक-टोक अपने शिकार कर रही हैं, बहुतों की चहेती हैं। अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रही हैं और पुरुष वर्ग इनके हाथों लुटने-पिटने को तत्पर है। पर इससे प्रबुद्ध और समझदार पुरुष वर्ग का अपराध कम नहीं हो जाता।
इसी के परिप्रक्ष्य में देखती हूँ, तो पैसे को लेकर भी उन दिनों हर एक के साथ- यहाँ तक कि अपने नौकरों दिलीप और नवीन के साथ भी - की गयी उनकी कंजूसी के मनोवैज्ञानिक कारण समझ में आते हैं। कमलेश्वर जी एक छोटे क़स्बे मैनपुरी के एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार से थे। गायत्री भाभी अपने मुश्किल दिनों के बारे में अक्सर बताया करती थीं कि कैसे अख़बारों की रद्दी बेच-बेच कर वे देसी घी का डिब्बा खरीदती थीं क्योंकि कमलेश्वर जी को दाल में घी डालकर खाना पसंद था। ऐसी तंगहाली में जिसने दिन काटे हों, उसे अचानक अपनी बेवकूफी की वजह से एक फ़ाहश औरत के नाम अपनी मेहनत की कमाई का एक अच्छा-ख़ासा बड़ा हिस्सा कर देना पड़े, तो उसकी बौखलाहट स्वाभाविक है। तब वह हर संभव जगहों से उसकी भरपाई की कोशिश करेगा, फिर चाहे वह उसके विश्वासपात्र सहकर्मी और सहयोगी ही क्यों न हो।
वह समय कमलेश्वर जी के जीवन काल का सफलतम समय था- जब वह शोहरत की बुलंदियों पर थे और चारित्रिक पतन की दृष्टि से उनके जीवन का निकृष्टतम समय-जब उन्होंने अपने अधिकांश मित्रों को खो दिया। औरत और शोहरत-दोनों ने उनकी आँखों पर एक काला परदा डाल रखा था। गाायत्री भाभी सूखकर हड्डियों का ढाँचा रह गयी थीं और हार-थक कर अपने भाई के घर बी.ए.आर.सी. के फ्लैट में चली गयी थीं-इस निर्णय के साथ कि वे अपनी पढ़ाई का काम पूरा करेंगी और फिर नौकरी करेंगी। संभवतः समय रहते कमलेश्वर जी ने अपनी ग़लती पहचान ली और उनका घर बिखरने से बच गया। सन् 2007 में कमलेश्वर जी की समकालीन बहुचर्चित रचनाकार मन्नू भंडारी की किताब ‘एक कहानी यह भी’ प्रकाशित हुई जिसमें मन्नू जी ने बग़ैर कमलेश्वर जी का नाम लिये(जबकि मन्नू जी बाकायदा कमलेश्वर जी का नाम लेकर ये बातें लिख सकती थीं क्योंकि इन सब संबंधों का खुलासा न सिर्फ कमलेश्वर जी ने अपनी किताब में बल्कि गायत्री कमलेश्वर ने भी ‘मेरे हमसफ़र’ शीर्षक अपनी किताब में किया है) उनके बारे में कुछ तथ्यों को बयान किया है- ‘‘कुछ साल पहले की ही तो बात है, मेरे अपने ही एक लेखक मित्र खम ठोक-ठोक कर कह रहे थे ‘‘मन्नू, इसमें कोई शक नहीं कि मैं कई औरतों के साथ सोया हूँ, पर आज? आज तो बस, मेरे लिए जो भी है, मेरी पत्नी ही है(उन्होंने नाम लिया था) आज तो यही मेरी मित्र है, प्रेमिका है, प्रेयसी है।’’ और उन्होंने पास बैठी पत्नी को बाँहों में भर लिया। पत्नी निहाल! और मैं सोच रही थी कि जो पत्नी आज आपको अपनी सब कुछ दिखाई दे रही है .....कभी सोचा भी है कि जब आप अपनी प्रेमिकाओं के साथ मस्ती भरी रातें गुज़ारा करते थे....उसकी रातें कैसे आंसुओं में डूबी गुज़रती होंगी? नहीं, उस समय आपको ऐसी असुविधाजनक बातें भला क्यों याद आतीं.... उस समय तो आपके लिए पत्नी का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा होगा। पर आज- उम्र के इस पड़ाव पर- आपको उसकी ज़रूरत है, तो केवल अपनी देखभाल के लिए... अपनी सेवा-शश्रूषा के लिए, क्योंकि आप बीमार रहने लगे हैं, तो अचानक वह आपकी सब कुछ हो गयी।’’ (मन्नू भंडारी- एक कहानी यह भी : पृष्ठ 186-187) ‘‘हमारे यहाँ कुछ व्रत-उपवास ऐसे हैं जिनको करने के बाद स्त्री अपने पति के पैर छूने जाती है और पति महाशय, गाँव-देहात के सामान्य-साधारण की बात तो छोड़ ही दें, शहर के पढ़े-लिखे, आधुनिकता का तमगा लटकाये, स्त्री-पुरुषों की बराबरी का ढोल पीटनेवाले लोग भी उस समय शुद्ध ‘पति परमेश्वर’ बने आराम से अपने पैर आगे बढ़ा देते हैं। क्या पुरुष मात्र का सामन्ती अहं इस बात से तुष्ट नहीं होता कि स्त्री उसके चरणों का स्पर्श करे... उसके चरणों में लोटे? कभी कोई इनके आचरण पर टिप्पणी करे तो तुरुप के पत्ते की तरह यह तर्क तो हमेशा उनके हाथ में रहता ही है- अरे, हमें तो खुद ही यह सब बिल्कुल पसंद नहीं, पर क्या करें, पत्नी की खुशी के लिए, उसके सन्तोष के लिए करना पड़ता है। पत्नी के सुख और संतोष की दावेदारी करनेवाले ऐसे ही लोगों में से दो-एक को तो मैंने अपनी पत्नी को मारते भी देखा है। कुछ पत्नियाँ अपने शरीर पर प्रहार झेलती हैं, तो कुछ अपनी भावनाओं पर, जैसे झेलनाभोगना, तो पत्नियों की नियति ही हो!’’ (मन्नू भंडारी-एक कहानी यह भी : पृष्ठ-116)
मन्नूजी की इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहूँ तो एक पढ़ी-लिखी, समझदार औरत का प्रगतिशील पति का अहं भी इस बात से तुष्ट होता है कि उसकी पत्नी ने उसकी सलामती के लिए करवाचौथ का व्रत रखा है और एक विदूषी महिला को अपने चरणों में डाल रखा है। वह भी अपनी पत्नी के साथ-साथ चाँद के समय से न निकलने को लेकर अपनी परेशानी और खीझ जाहिर करता है। हर औसत हिन्दी फिल्म में होली-दीवाली की तरह करवाचौथ के व्रत का त्यौहार अपने शादी के लाल जोड़े, मांग टीके और मंगलसूत्र पहने गुड़िया-सी सजी-धजी औरतें, हाथ में थाल और चलनी से दिखते चांद में, अपने प्रेमी पति की तस्वीर का अच्छा-ख़ासा रंग-बिरंगा कोलाज रचती हैं जो आज के उपभोक्ता बाज़ार में ख़ासा बिकाऊ है।
करवाचौथ के गानों की सी डी तैयार होती हैं। सरगी की ख़ास मट्ठियों और दूध में डालकर खाने वाली फेनियों से मिठाई की दूकानें अंटी पड़ी होती हैं। एक तथाकथित आधुनिक ट्विस्ट इसमें यह दिया गया है कि आज बराबरी के अधिकार पर मुहर लगाने वाला आधुनिक पति (‘बागबान’ में अमिताभ बच्चन अपनी पत्नी हेमा मालिनी के लिए और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में शाहरुख खान अपनी होने वाली पत्नी काजोल के लिए) भी निर्जला व्रत रखते हैं। यह कितना व्यवहार में आ पाया है, उसे मापने का कोई आंकड़ा नहीं है। होना यह चाहिए कि पति या तो खुद पत्नी के साथ निर्जला व्रत रखें और जानें कि चाँद निकलने तक निर्जला व्रत रखकर पत्नी की क्या दुर्दशा होती है या पत्नियों को भी इस फ़िजूल का स्वांग धरने से रोकें।
अभी तक का मेरा अनुभव यही बताता है कि अगर रचनाकार के ग्रे शेड्स उसके व्यक्तित्व पर हावी हो रहे होते हैं या वह किसी मानसिक तनाव से उबर पाने में असमर्थ होता है, तो वह उन दिनों अपने रचनाकर्म की सबसे कमज़ोर रचनाएं दे रहा होता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण धर्मवीर भारती हैं, जिन्होंने अपने जीवन की तमाम उत्कृष्ट रचनाएं ‘धर्मयुग’ में संपादक के रूप में आने से पहले ही लिख लीं-चाहे वह ‘अंधा युग’ हो या ‘सूरज का सातवां घोड़ा’, ‘ठेले पर हिमालय हो’ या ‘गुलकी बन्नो’, ‘गुनाहों का देवता हो’ या ‘बंद गली का आखिरी मकान’। उनकी आख़िरी बड़ी रचनात्मक कृति ‘कनुप्रिया’ थी, पर वह बम्बई आने से पहले और दूसरी औरत के साथ घर बसाने से पहले इलाहाबाद में ही लिख ली गयी थी। अपनी पहली प्रेमिका पत्नी ‘कुंतो’ (‘ठेले पर हिमालय’ में जिसका बार-बार ज़िक्र आता है) को भीषण यातना देने के बाद वे कोई बड़ी रचना नहीं लिख पाये। असामाजिक और अनैतिक होने की मशक्कत ने उनकी रचनात्मक ऊर्जा को पूरी तरह सोख लिया। आज जिन ख़तों को ‘प्रेम के ताजमहल’ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, भारती जी ज़िन्दा होते, तो उन्हें पढ़कर शर्मिन्दा ही होते। इन प्रेम पत्रों के बाद उनकी कलम की स्याही सूख गयी-जयप्रकाश नारायण पर ‘मुनादी’ जैसी एकाध कविताओं को अपवाद मानकर छोड़ दिया जाये तो। कोई बड़ी किताब वह नहीं लिख पाये- बेशक हम इसके लिए ‘धर्मयुग’ की सम्पादकी को दोषी ठहरा लें पर सम्पादन की ज़िम्मेदारी और समय की कमी के अलावा इसके कारण इतर भी थे और वे ज्यादा तर्कसम्मत थे। कमलेश्वर जी भी उन दिनों-‘अमानुष’, ‘पति,पत्नी और वो’, ‘द बर्निंग ट्रेन’ जैसी कुछ सामान्य सी फिल्में ही दे पाये। दिल्ली जाने के बाद भी अपने संस्मरण लिखने तक वे अपने इस अतीत से उबर नहीं पाये। फिल्मों और धारावाहिकों के साथ-साथ, घर तोड़ू दस्ते से अपना सम्पर्क पूरी तरह काटने के बाद ही, वे ‘दैनिक जागरण’ में साप्ताहिक कॉलम और ‘कितने पाकिस्तान’ जैसा उपन्यास लिख पाये। हालांकि साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलने और कई भाषाओं में उसका अनुवाद होने के बावजूद ‘कितने पाकिस्तान’ मुझे कमलेश्वर जी की क़िस्सागोई का ही एक सधा हुआ नमूना लगता है और बहुत पहले की लिखी हुई उनकी कहानियाँ आज भी इस उपन्यास से कहीं ज्यादा समृद्ध लगती हैं।
यह हम जानते और मानते हैं कि हर कामयाब पुरुष के पीछे किसी औरत का हाथ होता है। कमलेश्वर जी ने अपने तीसरे दर्ज़े के संस्मरणों को जीने, लिखने और छपवाने के बावजूद जो प्रतिष्ठा अर्ज़ित की, सिर उठाकर साहित्यिक सम्मेलनों के मंच से व्याख्यान देकर जो वाहवाही बटोरी, अपने भरे-पूरे परिवार- नाती-पोतों के बीच जिस स्नेह प्रेम से सराबोर संतुष्ट जीवन बिताकर गये, उसकी तह में बहुत बड़ा योगदान गायत्री भाभी का रहा। आज कमलेश्वर जी नहीं हैं। होते तो मैं सचमुच उनसे मिलती और अपनी बदली हुई धारणाओं के बारे में ज़रूर उन्हें बताती। ज़िन्दगी की नायाब किताब बहुत बड़ी है। यह हमें मरते दम तक नये तज़ुर्बों, नये अनुभवों और हादसों से दो-चार करवाती है और बताती है कि अन्तिम सत्य कोई नहीं होता, इसलिए अपनी धारणाओं को हमेशा लचीला रखना चाहिए। हर हादसा पहले आपको सज़ा देता है, उसके बाद सबक और फिर ताकत! हो सकता है, आज जो लिखा है, कल मुझे गलत लगने लगे और व्यक्ति को आंकने के कुछ नये मानदंड मेरे हाथ लगें। ज़िन्दगी कभी भी आपको अपनी सख़्त से सख़्त धारणा के परखच्चे उड़ाने पर मज़बूर कर सकती है।
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हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई-400 076.
सुधा अरोड़ा जी के सुन्दर संस्मरण प्रस्तुति हेतु आभार!
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