मंतव्य 2 - कुमार रवीन्द्र का संस्मरण : लखनऊ, मेरा शहर

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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)

 

 

भूली बिसरी

लखनऊ, मेरा शहर

कुमार रवीन्द्र

लखनऊ मेरा शहर है। हाँ, आज भी, हालाँकि उससे बिछुड़े हुए आधी सदी से ऊपर हो चुके हैं। मेरे परिचय का अभी भी वह एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। पंजाब-हरियाणा में रहते हुए मुझे पचास साल से ऊपर हो चुके हैं, फिर भी मैं लखनऊवासी ही कहलाता हूँ। हाँ, लखनऊ में ही मेरा जन्म हुआ और बीच के पाँच साल यानी 1947 से 1952 को छोड़कर मैं वहीं पला-बढ़ा-पढ़ा भी, पर मेरा लखनऊ आज के महानगर लखनऊ से बिलकुल अलग है। मेरा लखनऊ वह शहर है, जहाँ न तो इतनी भीड़-भाड़ थी और न ही इतना फैलाव कि उसे नापा न जा सके। मेरा लखनऊ गोमती के पार तो था ही नहीं। गोमती पार केवल आई. टी. कॉलेज और नया बसता हुआ निरालानगर ही थे। कुछ पुराने इलाक़े, मसलन चाँदगंज और अलीगंज थे, पर उन्हें शहर बाहर ही माना जाता था। पच्छिम में आलमबाग तब आखिरी छोर था शहर लखनऊका। उत्तर में ठाकुरगंज और शहादतगंज तक ही शहर का विस्तार था। दक्खिन में राज्यपाल निवास ही अंतिम छोर था। अलीगंज के पुराने और नये हनुमान मन्दिर की बड़ी महिमा थी और वहाँ जेठ के मंगलों विशेष रूप से बड़ा और छोटा मंगल वाले दिनों पर बहुत बड़ा मेला भी लगता था, जिसमें पासपड़ोस के गाँवों, जैसे बख्शी का तालाब आदि के भक्त जन बैलगाड़ियों पर आते थे, जो आज ट्रैफिक की गहमागहमी उस इलाक़े में दिखाई देती है, वह तब कतई नहीं थी।

ईस्वी सन् 1961 से अब तक की अर्द्धशती के लम्बे पंजाब-हरियाणा प्रवास के दौरान भी मैं लखनऊ का ही पुराना बाशिंदा बना रहा हूँ। बचपन में पुराने लखनऊ के यहियागंज महल्ले में स्थित ‘भैयाजी की पाठशाला’ की पढ़ाई और हाथरस से हाई स्कूल पास कर लौटने के बाद लखनऊ के राजकीय महाविद्यालय से इंटरमीडियट और फिर आगे लखनऊ विश्वविद्यालय से बी. ए., एम. ए. (अंग्रेजी साहित्य) करने तक के सभी प्रसंग आज भी मेरी यादों में जाग्रत-जीवंत हैं। 1962 में जो मैं बाहर निकला तो फिर वापस नहीं जा पाया लखनऊ, सिवाय कभी-कभार के मौक़ों के। उस समय का लखनऊ आज भी जिंदा है मेरे भीतर। लखनऊ के गंगा-जमुनी सांस्कृतिक माहौल से मेरा परिचय सही मायनों में तब हुआ, जब मैं हाथरस से हाईस्कूल का इम्तिहान देकर अपने इस शहर में लौटा। हाथरस जाने से पहले मैं उस तहज़ीब को पहचानने लायक समझदार नहीं हुआ था। कॉलेज और यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए मैंने उसके आधुनिक होते स्वरूप को देखा-समझा और साथ ही पुराने गली-महल्लों में साँस लेती लखनऊ की ख़ास तहज़ीब को भी देखा-परखा। ईस्वी सन् 1952 से ईस्वी सन् 1962 तक का दस साल का मेरे व्यक्तित्व निर्माण एवं विकास का सबसे ऊर्वर समय लखनऊ में ही बीता।

लखनऊ शहर की मेरी शुरूकी स्मृतियाँ पुराने मोहल्ले राजा बाज़ार की हैं, जहाँ की एक गली में हम किराये के एक मकान में रहते थे। वह मकान पुराने ढंग का था- दो पाट-दो आँगनों का। दाख़िल होते ही पहले एक बरोठानुमा कमरा था, जिसे पार करते ही एक बड़ा-सा पहला आँगन था। उस आँगन में दाहिने हाथ की ओर रसोई थी, एक कुआँ था और उसी के साथ नहाने का स्थान भी। बाहर के बरोठा-कमरा के समानांतर एक और पतला-सा बरोठा था, जिसमें संडास-पाखाने का हिस्सा था और बाहर से अलग से एक दरवाज़ा था, जिससे मेहतर सफ़ाई करने के लिए आता था। बायीं ओर बरामदा और उसके पीछे एक बड़ा कमरा था, जिसका इस्तेमाल हम बच्चे ही खेलने आदि के लिए करते थे। उसमें रहता कोई नहीं था। आँगन में ऊपर जाने के लिए जीना था। कमरे के सामने वाले बरामदे से ही कुछ ऊपर चढ़कर पीछे के हिस्से में जाने के लिए दरवाज़ा लगा था। पीछे के हिस्से में भी वैसे ही बरामदा और कमरा था। सामने एक छोटा-सा आँगन था और फिर एक छोटा कमरा था। आँगन में ही एक ओर रसोई थी और दूसरी ओर ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए दोनों ओर की छतों को जोड़ने वाला जीनों का हिस्सा था। ऊपर छत पर मक़ानियत कम थी। हम लोग पीछे के हिस्से में रहते थे। उस छत पर एक कमरा था, जिसमें ही हम लोग सोते थे। वहीं हम भाई-बहन पढ़ते भी थे। उस कमरे में ही अलमारियों में बाबूजी की पुस्तकें आदि रखी थीं। मैंने गीता प्रेस, गोरखपुर से निकलने वाली धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण’ के कितने ही अंकों को उसी कमरे में पढ़ा था। हमारे कमरे के सामने ही दूसरी ओर एक और कमरा था, जिसमें हमारी छोटी बुआ और फूफा रहते थे। बाहर वाले हिस्से की छत पर भी दो कमरे बने हुए थे, जिसमें से एक में हमारे चाचा रहते थे और दूसरे बाहर की ओर के छोटे कमरे में दादी का आवास था। उस कमरे की खिड़की से बाहर गली का नज़ारा लिया जा सकता था। हम अक्सर उस कमरे में जाकर नीचे के दृश्य अवलोकते थे। हमारे घर के सामने एक तीन-मंजिला बड़ी बिल्डिंग थी, जिसके नीचे के हिस्से में लम्बे सड़क अस्तबल बने हुए थे। उन अस्तबलों में से कुछ में राजा बाज़ार के ही रस्तोगी टोले के रईसों की घोड़ा गाड़ी रक्खी जाती थी। उनमें ही उनके साईस भी रहते थे, जो रोज़ सुबह घोड़ों की मालिश आदि करते थे। दादी के कमरे की खिड़की से उस रोचक क्रिया को देखना, उस क्रिया के दौरान घोड़ों का हिनहिनाना सुनना हमें बहुत भाता था। घोड़ों की लीद की बदबू शुरूमें हमें खली, किन्तु धीरे-धीरे हमें उसकी आदत पड़ गयी। उस बिल्डिंग की ऊपर की दो मंज़िलों में कई परिवार रहते थे। सुबह-सुबह अक़्सर उन घरों से आवाज़ें आती थीं-‘बम्बा बंद करो’। सबसे ऊपर की मंज़िल वाले घरों में नीचे नल खुल जाने पर ऊपर पानी नहीं पहुँचता था। कई बार वे आवाज़ें झगड़े का रूप लेकर कर्कश भी हो जाती थीं। उस झगड़े की उत्तेजना तब हमें बड़ी आकर्षक लगती थी। वस्तुतः उन दिनों झगड़े भी कहा-सुनी तक ही सीमित रहते थे। कुछ ही समय के बाद उन्हीं घरों से हँसने की आवाज़ें भी आने लगती थीं। उन दिनों के मनुष्यों के आपसी सम्बंध अधिक सरल और सीधे-सादे होते थे। उनमें कभी-कभी ही आती थी खटास और अक्सर मिठास के प्रसंग बने रहते थे। आम ज़िंदगी की हँसी-ख़ुशी तब तक आज की आर्थिक भागमभाग और आपाधापी की चपेट में नहीं आयी थी। अभाव थे, पर उन अभावों से लोग त्रस्त नहीं होते थे। उन दिनों मनुष्य को निरीह एवं त्रस्त करने के इतने साधन भी नहीं थे। बड़े लोगों की भी जीवन शैली तब इतनी प्रदर्शन-प्रिय नहीं थी। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही उनकी महत्त्वकांक्षाएं सीमित थीं। जो आडंबर और रईस दिखने की ललक आज दिखती है, वह तब नहीं थी। मध्यम वर्ग की दो श्रेणियाँ तब भी थीं, किन्तु उनकी जीवन शैली में इतना अंतर नहीं था।

कला एवं साहित्य में बाल्यकाल से ही रूचि होने के कारण मैं लखनऊ के उस ऊर्वर कालखंड का गवाह बन सका, जब साहित्य के क्षेत्र में वहाँ अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा एवं यशपाल जैसे प्रतिष्ठित हिन्दी के उपन्यासकार उपस्थित थे। नागर जी एवं भगवती बाबू के व्यक्तिगत सम्पर्क में आने का सौभाग्य भी मुझे मिला। ‘आत्मजयी’ जैसी कालजयी रचना के रचयिता एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त आज के अत्यंत प्रतिष्ठित कवि श्री कुँवर नारायण भी तब लखनऊ के ही निवासी थे। हज़रतगंज में उनका कार का शोरूम था। चित्रकला के क्षेत्र में लखनऊ के आर्ट्स कॉलेज में उस समय बंगाल स्कूल का बोलबाला था और श्री असित हल्दर और श्री सुधीर खास्तगीर जैसे अखिल भारतीय ख्याति के चित्रकार वहाँ उपस्थित थे। आर्ट्स कॉलेज के अलावा हज़रतगंज में योगी की आर्ट गैलरी थी, जिसमें योगी नाम के प्रसिद्ध चित्रकार चित्रकला सिखाते थे। लाल बारादरी में उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी की कला दीर्घा में समय-समय पर चित्रकला प्रदर्शनियाँ लगती रहती थीं। छात्र जीवन में इन सबसे जुड़ाव के माध्यम से लखनऊ के कला माहौल के सम्पर्क में मैं आया, किन्तु अपनी पारम्परिक शिक्षा के चलते मैं बहुत दूर तक उस क्षेत्र में नहीं बढ़ सका। हाँ, लखनऊ विश्वविद्यालय की कला-प्रदर्शनियों में मेरी जलरंग कृतियाँ भी प्रदर्शित होती रहीं। सन् 1952 और 1953 के प्रथम और द्वितीय अखिल भारतीय युवा महोत्सवों में, जिनका आयोजन दिल्ली में हुआ था, मेरे चित्र भी लखनऊ विश्वविद्यालय की अन्य प्रविष्टियों के साथ भेजे गये थे। बी.ए. में पढ़ते समय कुछ महीनों के लिए मैंने आर्ट्स कॉलेज की हॉबी क्लासेज़ ज्वाइन भी की थीं। मेरे इंटर पास कर लेने के बाद बाबूजी की तो इच्छा थी कि मैं आर्ट्स कॉलेज में फाइन आर्ट्स का पाँच साल का कोर्स करके आर्टिस्ट बन जाऊँ, किन्तु मेरे मन में इंटर में पढ़ते समय से एक डिग्री कॉलेज के लेक्चरार होने का सपना समाया हुआ था। अस्तु, मेरे लिए चित्रकला सिर्फ़ एक शौक़ ही बन कर रह गयी। चित्रकला का यह शौक़ बाद में कविता की ओर मुझे ले गया। मेरी कविता में चित्र-बिम्ब इसीलिए अधिक मिलते हैं। उस समय नगर में कविता का माहौल भी थोड़ा-बहुत मौज़ूद था- मुझे याद है हिन्दी के आज के प्रतिष्ठित ‘नयी कविता’ के कवि श्री कैलाश वाजपेयी उन्हीं दिनों लखनऊ विश्वद्यालय में एक शोध छात्र थे और कवि सम्मेलनों के मंच से बड़े ही मधुर कंठ से गीतों का पाठ किया करते थे। कवि सम्मेलनों के माध्यम से जो मेरा कविता संस्कार हुआ, उसमें लखनऊ की सुश्री स्नेहलता ‘स्नेह’ एवं सुमित्रा कुमारी सिन्हा का भी अंश-योगदान रहा। अमीनाबाद में आदित्य भवन वाले तिराहे पर एक हिन्द स्टूडियो उन दिनों हुआ करता था। उसी के साथ एक तंग-सी चायशाला थी ‘कंचना’, जिसमें उस समय के कई उभरते युवा गीत कवि रोज़ शाम को बैठते थे और अपनी सद्यःरचित कविताओं का पाठ करते थे। उन दिनों एक गीतकार थे दिवाकर जी, जिनकी अपने गीतों एवं स्वर-मधुर पाठ के लिए विशेष ख्याति थी। ‘कंचना’ समूह के वे अघोषित मुखिया थे। हिन्द स्टूडियो के रमेश जी भी कविताई करते थे और वे भी अपने स्टूडियो से फुरसत के क्षणों में उन सांध्यकालीन गीतपर्वों में शामिल हो जाते थे। कभीकभार विष्णु कुमार त्रिपाठी ‘राकेश’ भी उन बैठकों में आ पहुँचते थे। ‘कंचना’ की उन्हीं बैठकों में से किसी में एक बार श्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी भी आये थे, ऐसा मुझे याद पड़ता है। मैं उस समय तक कविता की ओर उन्मुख नहीं हुआ था। अस्तु, जब कभी साँझ समय मैं हिन्द स्टूडियो फोटो आदि खिंचाने के लिए जाता था, तो ‘कंचना’ के उस बहुत ही सँकरे-घुटनभरे वातावरण में कविता और वह भी गीत कविता की उपस्थित के बारे में सोचकर चकित और आशंकित दोनों ही होता था। ‘कंचना’ की इन बैठकों का हिन्दी गीत के विकास में जो योगदान रहा, उसकी चर्चा क़तई नहीं हो पायी। अब तो ‘कंचना’ का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है। वह छोटी-सी खोलीनुमा चायशाला कितने ही नये रचे गीतों की साक्षी रही होगी और बाद में उन गीतों की क्या नियति रही, इसे समझने-बताने की आज किसी को फुरसत भी नहीं है। लखनऊशहर ही आज कविता किंवा साहित्य-प्रसंग से बाहर हो चुका है। साहित्य का भी केंद्रीकरण हो चुका है और उसका आज एकमात्र केंद्र सत्ता-प्रतिष्ठानों से सज्जित राजधानी दिल्ली है।

मैं यहियागंज की कूचा-कायस्थान नाम की जिस गली में 1952 से 1962 तक रहा और बाद में भी 1967 में अपने पिता द्वारा थोड़ी दूर पर स्थित कुंडरी रकाबगंज में मकान बनवा लेने तक आता-जाता रहा, उसके नुक्कड़ पर एक परचून की दूकान थी, जिस पर अपने भाइयों के साथ बैठते थे पुष्पेंदु जी, जो ग्राहकों के लिए किराने के सामान की पुड़िया बाँधने के साथ-साथ गीत भी लिखते जाते थे। उनमें काफी प्रतिभा थी और शायद सही माहौल मिलने पर वे हिन्दी के एक प्रतिष्ठित कवि होते, किन्तु कुछ पारिवारिक समस्याएँ और कुछ उनका स्वास्थ्य, वे लखनऊ के कविता-प्रसंग से लगभग अनजाने ही अकाल तिरोहित हो गये। मैंने उनकी कविताओं को उनके मुख से सुना भी था और पढ़ा भी था। वे कवि सम्मेलन के कवि नहीं थे और बड़ी ही धीमी आवाज़ में अपनी रचनाएँ सुनाते थे- कुछ अस्वस्थता के कारण और कुछ अति-संकोची स्वभाव की वज़ह से। इलाहाबाद बैंक में उन्हीं दिनों दो भाई थे जो हमारे बाबूजी और चाचा के सहकर्मी थे- श्री रमाशंकर लाल सक्सेना एवं श्री गिरिजा शंकर लाल सक्सेना जो क्रमशः ‘मंजु’ और ‘स्वतंत्र’ उपनामों से कविताई करते थे। उनसे और उनकी रचनाओं से भी मेरा परिचय हुआ। लखनऊ के तब के कान्यकुब्ज कॉलेज में श्री लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’ जी थे, जिनका शुमार हिन्दी के प्रतिष्ठित ललित गीतकारों में होता था। हास्य कवि भुशुण्ड जी और अवधी भाषा के कवि रमई काका की भी धूम थी। उन दिनों मुझसे कुछ वर्ष पहले अंग्रेजी में ही एम.ए. करके नगर के विद्यान्त कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर पद पर कार्यरत श्री विष्णु कुमार त्रिपाठी ‘राकेश’ जी का नाम उभरते गीतकारों में लिया जाने लगा था। कवि सम्मेलनों में मधुर कंठ से गीत पढ़ने के कारण उनकी विशेष चर्चा होती थी। वैसे वे एक गम्भीर चिंतक कवि थे और कवि सम्मेलन के अतिरिक्त सम्मोह से वे यदि अपने को बचा पाते, तो सम्भवतः कालांतर में वे अपने परम मित्र इलाहाबाद के प्रतिष्ठित नवगीतकार उमाकांत मालवीय की तरह ही गीतकविता के क्षेत्र में अपना स्थायी स्थान अवश्य बना लेते।

मेरा कविता के क्षेत्र में आना इत्तिफाक से ही एम.ए. में पढ़ते समय एक मित्र के लिए अंग्रेज़ी में कुछ ‘लव कपलेट्स’ के लेखन से हुआ। कुछ समय तक अंग्रेजी में सानेट्स आदि लिखने के बाद मैं लगभग पूरी तरह हिन्दी कविता की ओर मुड़ गया। आज कवि के रूप में मेरी अखिल भारतीय और कुछ हद तक अंतर्राष्ट्रीय पहचान हिन्दी कविता के कारण ही है। हालाँकि शुरूके दौर में मुझे अंतर्राष्ट्रीय पहचान अंग्रेजी की कविताओं से ही मिली और मेरा अंग्रेजी कविताओं का संकलन ‘दि सैप इज़ स्टिल ग्रीन’ का प्रकाशन प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान ‘रायटर्स वर्कशॉप’ से हुआ।

लखनऊ विश्वविद्यालय में मैंने ईस्वी सन् 1954 में प्रवेश लिया। उस समय आचार्य जुगुल किशोर उसके उपकुलपति थे। उत्तर प्रदेश के उस समय के राज्यपाल प्रसिद्ध गाँधीवादी चिंतक एवं गुजराती भाषा के प्रतिष्ठित उपन्यासकार एवं भारतीय विद्याभवन के संस्थापक श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कुलपति थे और श्री चन्द्रभानु गुप्त, जो राज्य के वित्त मंत्री थे, विश्वविद्यालय के ट्रेजरार थे। डॉ. संपूर्णानंद, जिनकी ख्याति एक निबन्धकार-लेखक के रूप में भी थी, उन दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर थे। हिन्दी के एक अन्य प्रतिष्ठित निबन्धकार श्री कमलापति त्रिपाठी भी मंत्रिमंडल के सदस्य थे। लखनऊविश्वविद्यालय से अपने लगभग सात वर्षों के जुड़ाव के दौरान मुझे कई राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को देखनेसुनने का सुअवसर मिला। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरूअक्सर ही वहाँ आ जाते थे। शुरूके वर्षों में उत्तर प्रदेश का देश की राजनीति में महती योगदान रहा। इस नाते नेहरूजी का वहाँ आनाजाना लगा ही रहता था और वे जब कभी लखनऊ आते थे, विश्वविद्यालय आना, चाहे वह कुछ मिनट के ही लिए हो, नहीं भूलते थे। वे हम युवाजनों के आदर्श पुरुष थे और सम्भवतः इसी कारण उन्हें भी हम लोगों के बीच आना अच्छा लगता था। एक बार की एक रोचक घटना, जो मुझे अभी तक याद है, का उल्लेख यहाँ करना मैं ज़रूरी समझता हूँ। हुआ यों कि नेहरूजी आये, पर केवल दो मिनट के लिये। आर्ट्स ब्लॉक के सामने का हॉकी ग्राउंड विद्यार्थियों से खचाखच भरा हुआ था। उसके एक सिरे पर स्थित फी-काउंटर्स वाली बिल्डिंग के बाहर बने जीने पर एक बार में दो-दो सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वे ऊपर की छत पर पलक झपकते पहुँचे और तीन-चार बार ‘जय हिन्द’ के नारे लगवाकर तेजी से उतरकर अपनी कार की ओर बढ़ चले, किन्तु कार तो छात्रों के हुजूम से घिरी हुई थी। नेहरूजी ने छात्रों से उन्हें जाने देने के लिए अपील की, किन्तु हम सब छात्र उनके इस अति-संक्षिप्त सम्पर्क से असंतुष्ट होने के कारण उन्हें रास्ता देने को तैयार नहीं थे। कार एक पेड़ के नीचे खड़ी थी, जिसकी एक डाल कार की छत के बिलकुल पास तक लटकी हुई थी। नेहरूजी कार की बोनट पर चढ़कर उसकी छत पर पहुँचे और उस डाल को पकड़कर चार-पाँच बार उन्होंने ‘मंकी जंप’ किये और हँसते हुए बोले-‘‘हाँ, साथियों, अब तो खुश हो तुम लोग? अब तो जाने दो न, दोस्तों!’’ हम सब उनकी जय-जयकार करने लगे और कार को जाने दिया। अपने उस महान नेता की छवि आज भी मेरी आँखों के सामने है और मैं सोच रहा हूँ कि क्या आज के किसी नेता में यह आम जन से सीधे जुड़ने-जुड़ पाने की क्षमता या इच्छा है? वार्षिक दीक्षांत समारोह के अवसर पर मेरे सामने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. कृष्णा मेनन, आचार्य कृपलानी जैसी विभूतियाँ आती रहीं और हमें उनसे रू-ब-रूहोने का मौका मिलता रहा। तब न तो इतने ख़तरे थे और न ही नेताओं की सुरक्षा आदि के कड़े प्रबंध ही। तबके नेता भी शायद जन सामान्य से अपने को न तो श्रेष्ठ समझते थे और न ही ऐसा करने में अपनी तौहीन। आज की जो सामंतवादी दृष्टि उनमें दिखाई देती है, वह स्वतंत्रता के उस उन्मेष काल में सम्भवतः थी ही नहीं।

लखनऊ का अमीनाबाद मध्यवर्ग का मुख्य बाज़ार था उन दिनों। शहर के समृद्ध और संभ्रात वर्ग का चहेता बाज़ार था हज़रतगंज। अमीनाबाद के मुक़ाबले वहाँ की दूकानें अधिक सजी-सँवरी किन्तु महँगी थीं। अंग्रेजों के ज़माने में उस बाज़ार में, सुनते हैं आम हिन्दुस्तानी को, विशेष रूप से शाम के वक़्त, जाने की भी इज़ाज़त नहीं थी। ख़रीद-फ़रोख़्त करने या चहलक़दमी के लिए जाने का तो कोई सवाल नहीं था। पर आज़ादी के बाद हज़रतगंज की लगभग आज की नाप के अनुसार चौथाई किलोमीटर की मुख्य सड़क शाम के समय विश्वविद्यालय के छात्रों और प्रोफेसरों की चहलक़दमी का प्रमुख स्थल बन गयी। हम छात्रों की भाषा में उसे ‘गंजिंग’ नाम दिया गया था। लालबाग़ की ओर से आने वाली सड़क जैसे ही हज़रतगंज के तिराहे से टकराती है, वहीं से शुरूहोती थी ‘गंजिंग’ और इलाहाबाद बैंक वाले चौराहे तक चलती थी। उस पर इस सिरे पर स्थित था लखनऊ का अंग्रेजो के समय का प्रसिद्ध मेफेयर थियेटर, जिसमें अभी भी इंग्लिश मूवीज़ ही लगती थीं और उसी ज़माने की राम अडवाणी की प्रसिद्ध बुक शॉप। उनके ठीक सामने थे नये-नये खुले रॉयल कैफे और विद्या भवन नाम की पुस्तकों की दूकान। बीच के प्रोमेनेड पर स्थित था एक दोमंज़िला सिनेमा कॉम्प्लेक्स और कृष्णा रेस्टोरेंट। उसी नुक्कड़ पर उन दिनों थी शहर की सबसे बड़ी पुस्तकों की दूकान-युनिवर्सल बुक डिपो। सामने था कपूर बार और वाइन शॉप, जिसमें

शहर के सबसे उच्च वर्ग के लोग ही शाम ढलने के बाद शराबनोशी के लिए आया करते थे। उसी तरफ़ आगे बढ़ने पर चौधरी की चाट-कम-मिठाई शॉप और फलों-मेवों की दो ‘हाई-फाई’ दूकानें थीं। इलाहाबाद बैंक के सामने वाले नुक्कड़ पर था ब्रिटिश बुक डिपो, सड़क के दूसरे सिरे पर था इंडियन कॉफ़ी हाउस, जो छात्रों-प्रोफेसरों-लेखकों-राजनेताओं की प्रिय बैठक स्थली था। उस ज़माने में बड़े-बड़े राजनेता भी वहाँ आकर बैठा करते थे। ज़माना अच्छा था- न तो नेताओं को अपनी सुरक्षा का इतना भय था और न ही उनमें वह दर्प आया था, जिसके चलते आज नेता लोग अपने को आम जन से अलग और श्रेष्ठ समझने लगे हैं। छद्म-प्रपंच तब भी शायद रहे होंगे, किन्तु तब आम जन से नेतृत्व अलग-थलग नहीं था। एक विद्यार्थी के रूप में मैं कई बार मुख्यमंत्री निवास गया, किन्तु न तो मेरी कहीं चेकिंग हुई और न ही मुझे वहाँ पहुँचने में कोई परेशानी ही। हाँ, तो कॉफ़ी हॉउस में कितनी देर आप बैठ सकते हैं इस पर भी कोई प्रतिबन्ध नहीं था। एक कप कॉफ़ी लेकर आप घंटों बैठकबाज़ी कर सकते थे। आज वह सब इतिहास ही चुका है। अबके ‘सर्वाइवल’ के लिए संघर्ष करते और मोबाइल एवं कम्प्यूटर की संस्कृति वाले युवा वर्ग को न तो इतनी फुर्सत है कि वह चहलक़दमी जैसी फ़िजूल की क्रिया में अपना वक़्त ज़ाया करे और न ही शहर का वह माहौल रह गया है। जब किसी भी सड़क पर चहलक़दमी की जा सके। कारों-टेम्पो-ऑटो की चिल्लपों और उनके द्वारा उपजायी भागदौड़ की मनःस्थिति - यही है आज के हज़रतगंज की पहचान। लखनऊ भी तो वह नहीं रहा। गोमती नदी सिकुड़ी-सिमटी पुलों के नीचे से डरी-सहमी बहती है। उसके पार लखनऊ यूनिवर्सिटी का पुराना कैम्पस अब अज़नबी-सा लगता है। उसके पार नया लखनऊ फैलता ही चला गया है- बाराबंकी-हरदोई-सीतापुर रोड्स पर। पच्छिम में लखनऊ का विस्तार कानपुर रोड पर बंथरा तक जा चुका है। रायबरेली रोड पर स्थित मोहनलालगंज एक प्रकार से लखनऊ का ही हिस्सा बन चुका है। लखनऊ का पी. जी. आई. यानी संजय गांधी पोस्टग्रैज़ुएट इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइन्सेज़ वही तो स्थित है। कभी जेल रोड शहर बाहर मानी जाती थी। अब वह शहर का हिस्सा है। इतने सारे बदलाव और मैं उन्हें संजोने-समेटने में अक्षम। आज के पराये लखनऊ में मैं अब ख़ुद को भी एक अज़नबी ही पाता हूँ।

पर करूँ तो क्या करूँ? मुझे लखनऊ से अलग हुए एक पूरी उम्र बीत चुकी है, किन्तु पता नहीं क्यों वह आज भी मेरे भीतर साँसें लेता रहता है। लखनऊ से जब मैं जालन्धर गया, तभी शायद वह मेरे अंतर्मन में भितरा गया। उन्हीं दिनों गुरुदत्त की प्रसिद्ध फिल्म ‘चौदहवीं का चाँद’ लगी थी और मेरे रोमांटिक युवा मन में उसके पूरी तरह लखनवी माहौल और अंदाज़ जैसे समा गये थे। उसके बाद कई वर्षों तक मेरा अंतर्मन लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन के पहुँचने से काफी पहले से उस फिल्म के टाइटिल सांग ‘यह लखनऊकी सरजमीं...यह लखनऊ की सरजमीं’ गाने लगता था। अब भी मैं लखनऊ जाता हूँ, उस गीत की स्वर-लहरियाँ मन के किसी कोने में अपने अस्तित्व की टेर से मुझे जगाती तो हैं, पर अहसास धुँधले पड़ गये हैं और लय-सुरों की वह मिठास अब यादों के किन्हीं दूर के गलियारों में दफ़्न हो गयी है। लखनऊ भी तो बहुत बदल गया है। चारबाग का वह स्टेशन, जहाँ शुरूमें ताँगे और इक्के के घोड़ों की दुलकी चाल के साथ बजते उनके गलों में पड़े घुंघरुओं के संगीत के साथ ताँगे-इक्के वालों की नफ़ीस बोलीबानी गूँजती थी, आज टैक्सी-ऑटो वालों की कर्कश अनर्गल चिल्लाहट से शर्मिंदा-घबराया सा लगता है। चौबीसों घंटे चलने वाले ट्रैफिक के भीड़-भड़क्का और कनफोड़ू शोर में यादों में बसी लखनऊ की तहज़ीब को मैं खोजने की नाकाम कोशिश करता हूँ, पर आज की आपाधापी और बिना बात की जल्दबाज़ी जैसे उसे मुँह चिढ़ाती है।

क्षितिज 310, अर्बन एस्टेट-2, हिसार-125005

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: मंतव्य 2 - कुमार रवीन्द्र का संस्मरण : लखनऊ, मेरा शहर
मंतव्य 2 - कुमार रवीन्द्र का संस्मरण : लखनऊ, मेरा शहर
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