भाईजी की मूर्ति / प्रमोद यादव बरसों पहले की बात है, मेरे शहर में एक ठिगने गोल-मटोल सज्जन हुआ करते और दुर्भाग्य से वे आज भी हुआ करते हैं.. ...
भाईजी की मूर्ति / प्रमोद यादव
बरसों पहले की बात है, मेरे शहर में एक ठिगने गोल-मटोल सज्जन हुआ करते और दुर्भाग्य से वे आज भी हुआ करते हैं.. ‘दुर्भाग्य ‘ इसलिए कि इन सज्जन को अपने मरने के बाद की कुछ ज्यादा ही चिंता थी लेकिन आज तलक वे ‘तड़क’ नहीं पाए. मरने के बाद का सारा इंतजाम किये बैठे हैं पर मौत है कि पास ही नहीं फटकती. मजाल है कि भाईजी कभी बीमार पड़े हों..पिछले पन्द्रह सालों से देख रहा हूँ- क्या होली, क्या दिवाली, क्या क्रिसमस, क्या मुहर्रम, क्या गरमी-सर्दी और क्या पतझर क्या बरसात.....सब गुजर जाते हैं.. पर मजाल है कि उन्हें एक छींक भी आये.. पूरा शहर जब पीलिया की चपेट में था तब भी उनके चेहरे पर लाली थी. जब भी उन्हें पाया,तंदुरुस्त पाया,अपने लाज के मुहाने पर पालथी मारे हँसते मुस्कुराते पाया.
तो किस्सा ये है कि एक दिन भाईजी ने पूरे शहर में एकाएक खलबली मचा दी. उनका लाज और वे, दोनों चर्चा के विषय बने थे. हुआ यूँ था कि लाज के प्रवेश-द्वार पर उन्होंने खुद की एक भव्य विशालकाय संगमरमर की मूर्ति लगवा रखी थी. मूर्ति आधी थी(पासपोर्ट साइज़ वाली) पर बात पूरी कहती थी. हू-ब-हू भाईजी लगते. वही भारी-भारी घनी मूंछें, बड़ी-बड़ी उल्लू जैसी पनीली आँखें, गोल-मटोल फ़ुटबाल-सा सिर और उस पर गाँधी टोपी... मूर्ति देखने वालों की भीड़ उमड़े पड़ रही थी. उत्सुकतावश मैं भी लाज पहुंचा. हंगामे-सा माहौल था वहाँ...लोग चार-चार,पांच-पांच की टोली में आसपास बिखरे, कहकहे लगाते ,लुत्फ़ उठाते बार-बार कभी भाईजी को तो कभी उनकी मूर्ति को निहार रहे थे और भाईजी थे कि हमेशा की तरह गेट पर पालथी मारे भीड़ देख मंद-मंद मुस्कुराते, मोटी- मोटी मूछों को ऐंठ रहे थे, मानों कह रहे हों- ‘ लो बादशाहों, इस गरीब शहर के लिए मैंने एक अदद मूर्ति तो बनवा दी अब सही जगह पर लगवाना तुम्हारा काम.‘
उन दिनों पूरे शहर में केवल एक अदद मूर्ति खड़ी थी- गांधीजी की मूर्ति. उसे भी न मालूम कैसे शहर के एक नामी डाक्टर ने अपने स्वर्गीय बाप की स्मृति में बनवाया था. मैं आज तक समझ नहीं पाया कि डाक्टर ने बाप की याद में गाँधी की मूर्ति क्यों बनवाया? बाप की ही बनवा लेता, खर्च तो उतना ही बैठता. भाईजी की मूर्ति देखने के बाद वे जरुर अपनी गलती और मूर्खता पर पछताए होंगे.
भाईजी की मूर्ति और भाईजी को देखने वालों की भीड़ दिन-ब-दिन बढती जा रही थी. लाज में ठहरनेवालों को इस मूर्ति ने काफी तकलीफ में डाल दिया था...गेट से आना-जाना मुश्किल हो गया था. भाईजी के बेटों की हालत तो सबसे ज्यादा खराब थी. यार-दोस्त उन्हें चिढाते, बाप की नासमझी,बेवकूफी पर ताना मारते, मजाक करते, कहकहे लगाते. पर बेटे बेचारे तो बेटे ही थे, बाप से काफी डरते, कुछ भी कहने से हिचकते. तनिक भी विरोध न कर पाते. पहले ही दिन जब बड़े बेटे ने विरोध दर्ज कर बाप को ( भाईजी को ) समझाया कि जीते जी अपनी मूर्ति लगाना अच्छी बात नहीं तो भाईजी तमक गए थे- ‘मूर्ति तेरी है क्या?...नहीं, तुमने बनवाई क्या?.... नहीं, ये लाज जहाँ लगी है, तेरा है क्या?..... नहीं...जब कुछ भी तेरा नहीं तो तुझे कुछ बोलने का भी हक़ नहीं....समझे ? ‘
उनके दोनों बेटों ने उन्हें काफी समझाया कि मूर्ति बनवा ली, अच्छा किया लेकिन इसे अभी न लगवायें, गेट से हटवा दें पर भाईजी टस से मस न हुए. बेटों ने यहाँ तक कहा कि इस तरह अपनी मूर्ति बनवाकर आप हम तीनों पर अविश्वास जता रहें...लोग हमें क्या-क्या नहीं सुना रहे ...सब हम पर हंसते और कहते हैं कि देखो.. भाईजी को अपने बेटों पर विश्वास नहीं, इसलिए मूर्ति एडवांस में बनवा ली..
बेटों के विरोध का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा. उलटे वे तर्क देते कि जब एक आदमी जीतेजी अपनी फोटो घर, दुकान,दफ्तर में टांग सकता है , उन्हें कोई कुछ नहीं कहता.. मैंने जीतेजी अपनी मूर्ति बनवा कर लगा ली तो क्या गुनाह कर दिया ? .मैंने तो एक तरह से तुम लोगों का और शहरवासिओं का एक काम हल्का कर दिया - अपनी मूर्ति बनवाकर...अब तुम्हारा काम रह गया है- सटीक जगह पर इसे लगाना.
बड़े बेटे ने तर्क दिया- ‘ वो तो ठीक है बापजी...पर आपका काम अभी अधूरा है..क्या आपको यह भी बताना पड़ेगा कि मूर्ति लगवाने के लिए आदमी का स्वर्गीय होना पहली अनिवार्यता है. ‘
भाईजी चिढ गए, गुस्से से बोले- ‘ अपने बाप के विषय में ऐसी बाते कहते तुम्हे शर्म नहीं आती? ‘
छोटे बेटे ने जवाब दिया- ‘शर्म की क्या बात है बापजी..आपको अपनी मूर्ति बनवाते शर्म आई क्या? हम लोगों को तो अब लाज में घुसते शर्म आती है..किसी तरह घुस भी जाते हैं तो निकलते शर्म आती है..लोग अजीब-अजीब नज़रों से घूरते हैं, तरह-तरह के सवाल करते हैं.. हम पर हंसते और कहते हैं- देखो.. ये हैं भाईजी की औलाद.. जो जीतेजी बाप की मूर्ति लाज में लगा रखी है.... कोई-कोई ये भी कहते हैं- च्च.. च्च... च्च...आज के बाप भी कितने स्वार्थी होते हैं...अपनी अकेले की बनवा ले आये..बच्चों ने क्या बिगाड़ा था? उनकी भी बनवा लाते..थोक में थोडा सस्ता भी पड़ जाता ‘
भाईजी की तनी भृकुटियां एकाएक सामान्य हो गयी. मुस्कुराते हुए बोले- ‘ तो बच्चू, यूं कहो न कि तुम्हारी मूर्ति नहीं बनवाई इसलिए जल-भुन रहे हो..ठीक है..अगली बार कलकत्ता गया तो देखूंगा‘
बेटे सिर थामकर बैठ गए. उन्हें समझाने में सारी ऊर्जा चूक गयी. दोनों बेटे अब लाज का काम छोड़ दिन-रात यही मीटिंग करते कि गेट से मूर्ति किस तरह हटाई जाए ताकि हंगामा थमे ..पर. भीड़ थी कि कम होने का नाम नहीं ले रही थी. अखबारवालों ने भी काफी छापा... भाईजी की फोटो, मूर्ति की फोटो, लाज की फोटो, भीड़ की फोटो....और भाईजी रोज कटिंग काट-काट कर इकट्ठी करते रहे- मानों सर्टिफिकेट्स हों. इधर बेटे झल्लाते और उधर अखबार में फोटो देख वे गदगद होते.
शहरवासियों का यह मनोरंजक कार्यक्रम अपनी चरम सीमा पर था कि एकाएक फिर एक बार खलबली मची. पूरे शहरवासियों के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी..सब उदास- निराश से थे..खबर थी कि भाईजी की मूर्ति चोरी हो गयी...उन्हें ‘ अटेक ‘ आ गया. वे तुरंत समझ गए कि यह नालायक बेटों की ही करतूत होगी. बहुत ही नाजुक हालत में उन्हें अस्पताल लाया गया. बेटे करीब थे और भाईजी मरणासन्न ....फिर भी हकला- हकला कर बोल रहे थे- ‘ कमीनों.. आखिर तुम लोगों ने मुझे मार ही डाला...अब तो खुश हो ना?... मेरे पास वक्त बहुत कम है...काम की बात कहूँ ...बताओ मरने के बाद मेरी मूर्ति कहाँ लगवाओगे? वैसे गाँधी चौक के पहले बोथराजी की दुकान वाला चौक थोडा गुलजार चौक है, वहीँ किसी मंत्री को बुलाकर भव्य समारोह कर लगवा लेना...’
‘बापजी...चुप भी रहिये...डाक्टरों ने बोलने से मना किया है..आपकी हालत अच्छी नहीं...यूँ ही बोलते रहे तो सचमुच....’
‘हाँ... सचमुच..अब जीकर भी क्या करूँगा... हाय..मेरी मूर्ति...उसी में तो मेरी जान थी...कितने प्यार से बनवाया था...आह....आह....’ भाई जी कराहते हुए लुढ़क गए..
‘डाक्टर.... डाक्टर...’ बेटों ने चिल्लाया. डाक्टर दौड़े..नब्ज देखे. तभी पुलिस के तीन जवान धडधडाते घुस आये- बोले- ‘भाईजी .. भाईजी...आपकी मूर्ति मिल गयी..हमने चोरों को गिरफ्तार कर लिया है..’
सुनना भर था कि भाईजी ऐसे उठ खड़े हुए जैसे उन्हें कुछ हुआ ही ना था- ‘ कहाँ है मेरी मूर्ति?...मेरी जान...’ इधर भाईजी का उठना हुआ और उधर बेटों का गिरना. दोनों बेटे माथे पर हाथ धर धम्म से बैठ गए.
आज भी भाईजी जीवित हैं ... मूर्ति भी सलामत है..लेकिन अब लाज के गेट पर नहीं, घर के भीतर कहीं सेट है.. भाईजी को इंतज़ार है मौत का... मूर्ति को इंतज़ार है चौक का और बेटों को इंतज़ार है इस पागलपन के चक्कर से उबरने का.. .और तीनों पन्द्रह साल से जहाँ के तहाँ हैं..कुछ भी नहीं बदल रहा.
कुल मिलाकर ये प्यारा शहर एक अदद मूर्ति से वंचित रह गया है.
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प्रमोद यादव
गया नगर, दुर्ग , छत्तीसगढ़
आपकी लिखी रचना शनिवार 06 दिसम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमाननीया यशोदा जी, 'नई पुरानी हलचल में रचना लिंक करने का शुक्रिया...प्रमोद यादव
जवाब देंहटाएंVery Good Creation...
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