एक कतरा आसमान - विनीता शुक्ला आज का ये ‘सो काल्ड ख़ास दिन’...महक को वहशत सी हो रही है, सोचकर. अंतस की परतों में जमा लावा, कुछ इस तरह पिघलने...
एक कतरा आसमान
- विनीता शुक्ला
आज का ये ‘सो काल्ड ख़ास दिन’...महक को वहशत सी हो रही है, सोचकर. अंतस की परतों में जमा लावा, कुछ इस तरह पिघलने लगा है; जैसे बर्फ के टुकड़े ‘डीफ्रॉस्ट’ किए जाते हों- माइक्रोवेव में रखकर. सधे हुए तापमान में...जैसे हिम का विगलन; छद्म माहौल में, मन की जकडन भी उसी भाँति टूटती है. हृदय की तरंगे, खुलकर उमग नहीं पातीं. जोर जोर से गाना, नाचना, जोश में चीखना चिल्लाना. कूदना फांदना उनके ‘आभिजात्य’ पर कलंक जैसा है! सब कुछ एक कुशल अभिनय के तहत घटना है. उसे मात्र अभिनय करना है...एक अच्छी पत्नी, एक अच्छी हाउसकीपर होने का.
आज के दिन, उसके बच्चों को; ऊटी बोर्डिंग से, कोयम्बटूर बुला लिया जाता है – उनके पास. पति उस पर प्यार जताने का ‘एहसान’ करते हैं. जैसा कि कभी कभी, उसके मायके के रिश्तेदारों को; इम्प्रेस करने के लिए, या फिर एनिवर्सरी आदि अवसरों पर ‘कंपल्सरी’ हो जाता है. एक थोपी गयी औरत, कुछ लम्हों के लिए ‘सिन्ड्रैला’ बन जाती है. खुशी के चंद पल, भीख की तरह, उसकी झोली में फेंक दिए जाते हैं. पैबन्दों से भरा अस्तित्व, ‘मेकओवर’ के लिए विवश होता है. ब्यूटिशियन का अपॉइंटमेंट, मंहगे बुटीक से मंगाया हुआ परिधान, सौन्दर्य- प्रसाधनों का ढेर...ऐसे मौकों पर, ‘प्रेजेंटेबल’ होना कितना जरूरी है!
मन रहरहकर, अतीत की तरफ भाग रहा है. वो खुशनुमा समय...हिरनी की तरह, कुलांचे भरने वाली एक लडकी; पंख की तरह हल्का, उसका अन्तःकरण- संसार की हर माया से परे! कोई दुःख, कोई संताप, कोई उलझन नहीं. ‘जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान’ यह दर्शन उसके संस्कारों, उसकी जीवन शैली में रचा- बसा था. साधारण मध्यमवर्गीय परिवार, साधारण रहन सहन, साधारण आकांक्षाएं...साधारण सपने...पर इन सबके बीच, उसका असाधारण रंगरूप, छिपाए नहीं छिपता था; एक वयस के बाद तो बिलकुल नहीं! जो बिरादरी, जो समाज, उसकी पहचान के साथ जुड़े थे- वहां शालीनता का दायरा, बड़ा ही सुस्पष्ट, सुपरिभाषित था. स्त्री के लिए, अपने पंख पसारना/ ऊंचाइयों के ख्वाब देखना, मानों पाप ही ठहरा!
पर उसने हिमाकत की! अपनी सोच को, उस दायरे का अतिक्रमण करने दिया...कॉलेज के ‘कल्चरल फेस्ट’ में अपना नाम लिखवाकर; उस कार्यक्रम की, सूत्रधार बनकर. एक नई दुनियां का दरवाजा उसके लिए खुल गया था. साथ हँसते, खेलते, नाचते, कूदते लड़के- लडकियाँ; गीत, संगीत, चहल- पहल और ढेर सी जादुई खिलखिलाहटें!! वह खिलखिलाहटें, उसे कचोटती थीं; उकसाती थीं- ओढ़ी हुई उदासीनता को, उखाड़ फेंकने के लिए; सुप्त उमंगों को, टोहने के लिए. दिल की गांठें खोलकर, कहकहे लगाने के लिए. एक तरफ, खूँटी से बंधी उम्मीदें तो दूसरी तरफ नये, दिलकश मंजर.
उसने फिर हिमाकत की!! खुद को बदलने दिया...अबकी बार, ब्यूटी कांटेस्ट में ‘कूदकर. क्या खबर थी कि ज़िन्दगी ही, पलट जाएगी- इस मोड़ पर. उसकी सहेली ऋतिका ने, उसे ‘कैटवाक’ करना सिखाया, चंद अंग्रेजी जुमलों को, नफासत के साथ ‘परोसना’ भी. कुल मिलाकर बहुत ‘एक्साइटिंग’ था- सब कुछ. फिर वह निर्णायक दिन आया!! कॉलेज के ट्रस्टी का बेटा, उसे एक बार देखकर, देखता ही रह गया; और जब महक के सर पर ‘कॉलेज क्वीन’ का ताज सजा- उस सिरफिरे देवेश की तो ‘छुट्टी’ हो गयी! आनन- फानन विवाह का प्रस्ताव, महक के घर जा पंहुचा.
इतने बड़े घर से रिश्ता आया देख, पिता और भाई तो फूले न समाये किन्तु माँ के दिल में खटका सा होने लगा. एक तो जात- कुजात, उस पर उनके ‘हाई- फाई’ नखरे और रईसी वाले नाज़ोअंदाज़! उनकी सरल- हृदया बेटी- जीवन के बहाव में, सौम्य धारा सी बहने वाली. मुखौटों के जंगल में तो, अपना चेहरा भी, टटोलकर देखना पड़ता है. सोने की बेड़ियाँ पहने संवेदनाएं, आदर्श, मूल्य; औरतें त्रिया चरित्तर की मास्टर और पुरुष नफे- नुकसान के...कारोबार की बारीकियां, उखाड़ पछाड़ और दांव-पेंच!! लेकिन उनका द्रोह, ‘नक्कारखाने में, तूती की आवाज़’ बनकर रह गया. स्वयम उनकी बेटी, परीकथा की नायिका सी, आत्ममुग्ध हुई जा रही थी. जादू की छड़ी फेरकर, कायाकल्प करने वाला राजकुमार, देहरी तक चला आया था !!!
भाग्य और उसका विधान...! धान के बिरवे को, मूल से उखाड़कर, अनजान धरती पर रोपा जाता है. पुनः अपनी जड़ों को पसारना, नई माटी में पैठ बनाना- उसके लिए, सहज नहीं. ऐसा ही कुछ हुआ, महक के साथ भी. ‘सूडो-कल्चर’ के भंवर में, वो उलझती चली गयी. किट्टी पार्टियों में, शराब पीती औरतों को देख, उबकाई सी आती थी. जेठानियाँ- देवरानियाँ, ऊंचे घरानों से ताल्लुक रखती थीं. नई साड़ियाँ, गहने, शौपिंग और पार्लर- जीने का फलसफा, इन्हीं सबमें अटका था. उनके लिए, वह हिकारत का विषय थी. जीना और भी दूभर हो गया- जब कुनबा, अपना व्यापार समेटकर, बंगलौर से कोयम्बटूर, ले आया. माँ- बाप, भाई, बहन, सब बंगलौर में ही छूट गये.
वैसे भी उनकी सामर्थ्य कहाँ थी– मंहगे उपहार लेकर, बेटी के ससुराल, जाने की. वो तो बेटी ही कभी – कभार आ जाती थी, घर वालों से नजर बचाकर. अब वह भी बंद हो गया. इस बार तो जैसे, धान का बिरवा, अपनी जड़ों से ही कट गया था! कोयम्बटूर में उनकी नई कपड़ा- मिल, नये असाइनमेंट्स और बिजनेस मीटिंग्स के बीच, उसका देवेश, कहीं गुम हो गया था. नामी होटलों में होने वाली, बड़ी बड़ी बिजनेस डील्स, दारू पार्टियाँ और...! शराब के साथ, शायद शबाब भी, परोसते रहे होंगे!! कुछ बात तो थी...जो देवेश को, उससे दूर कर रही थी. पैसे में, कुछ नशा ही ऐसा होता है! घर के दूसरे मर्दों की तरह वह भी, सुंदर औरतों से घिरा रहने लगा. कंपनी की सुंदर रिसेप्शनिस्ट, सुंदर सेक्रेट्री और देर रात के जश्नों में- सुंदर वेट्रेसेस!!!
जब होश आया, बहुत देर हो चली थी... महक की गोद में, जुड़वां बेटों को डालकर- जा चुका था देवेश. उस ने पल्ला झाड लिया; बेटों से, उससे और पतिधर्म से भी!! वह पहले ही अकेली थी; अब तो और भी अकेली हो गयी. बच्चों का मुख देखकर जीती थी; उनकी मुस्कराहटों में, अपना दर्द भुलाने की कोशिश करती. किन्तु, यह सुख भी जाता रहा! बेटों को बोर्डिंग भेज दिया गया. उस ‘सो कॉल्ड हाई सोसाइटी’ का हिस्सा जो थे...मैनर्स और एटिकेट्स सीखना; जरूरी था, उनके लिए.
महक ने ठंडी सांस ली. अतीत की धूसरित पगडंडियों में, भटककर वह लौट आई थी- अपनी उदासियों के बीच, सुधियों की धूल को लपेटे हुए. सहसा देवेश की आवाज़ सुनाई दी, “सॉरी डिअर, बच्चे नहीं आ सकेंगे...सम बिग इवेंट, इज गोइंग टु टेक प्लेस; आई मीन- देयर इन द स्कूल- प्रिंसिपल ने एलाऊ नहीं किया” ये सुनकर वह, पहले तो चौंकी; फिर सपाट नजरों से, उसे देखती रही. देवेश कुछ असहज हो गया था. संभलकर बोला- “एक और बैड न्यूज़ है... एक इम्पॉर्टेन्ट क्लाइंट के साथ, मीटिंग रखनी पड़ी...आल ऑफ़ सडेन” आगे वह कह न सका. पति को, उसके असमंजस से उबारते हुए, महक ने कहा, “इट्स ओके फॉर मी... नो प्रॉब्लम”
देवेश मन ही मन उछल पड़ा; जैसे किसी बवाल से छूट गया हो! पर प्रकट में कहा, “बट यू कैरी ऑन; मैं भाभियों से कहकर, शाम की पार्टी फिक्स करवा दूंगा” “नो नीड टु डू देट” महक के स्वर में गजब की दृढ़ता थी; कहीं न कहीं, अवहेलना भी! इतनी ऐंठ!! कोई और दिन होता तो वह दिखा देता कि...लेकिन आज महक का जन्मदिन था और वो- उसका पति. उदार बनते हुए बोला, “तो जाओ- बाहर जाकर शौपिंग करो, घूमो फिरो, मौज करो” कहते हुए उसने, नोटों की मोटी गड्डी निकली और सामने रखकर, चला गया. महक का मन किया कि उस गड्डी को, पटककर दे मारे पर कुछ सोचकर, उसे पर्स में रख लिया. ‘जिसके एहसास तक, गिरवी रख लिए गये हों- कुछ तो मुआवज़े में, मिले ही उसको!’
उसने एक हल्के रंग की सारी पहनी और मोंगरे का गजरा, वेणी में उलझा लिया. नेचुरल शेड की लिपस्टिक लगाकर, जब आईने के सामने खडी हुई तो खुद को पहचान न सकी. शीशे में झलक रहा अक्स, यादों को छेड़ गया; उन दिनों- जब सादगी भी, गजब ढाती थी! महक ने ठंडी सांस ली और ड्राईवर को बुलवा भेजा. कुछ ही पलों में, उसकी चमचमाती हुई मर्सडीज़, हवा से बातें कर रही थी. “पेरूर मन्दिर की तरफ ले लो” उसने कहा और भागती हुई राहों को तकने लगी. सहसा कानफोडू हॉर्न के साथ, मंदिर का भव्य स्तूप, दिखाई दिया. पेरुर मंदिर का अप्रतिम शिल्प, उसे सदा ही लुभाता रहा. ईश- प्रतिमाओं से तादात्म्य बनाकर, वह वहां, चित्रलिखित सी खडी थी. मानों देवप्रांगण की नृत्यांगना; मृदंगम’ पर चोट पड़ने की प्रतीक्षा में हो. हवा में गहराती हुई सुगंधियाँ, अंतस को भेदने लगी थीं.
“महक...!” अपने नाम का संबोधन सुनकर वो चौंकी. उसने अपने सर को झटक दिया. यह कैसा भ्रम था??! किन्तु वह संबोधन, स्वर- लहरियों में तैरकर, पुनः उसके कानों से टकरा गया... नहीं ये कोई भ्रम नहीं था! मुड़कर देखा तो ऋतिका को मुस्कराते हुए पाया. उत्तेजना में, उसकी चीख ही निकल पड़ती; पर किसी तरह, खुद को संभाला. निःशब्द, हाथ में हाथ लिए, दोनों सखियों ने मंदिर की परिक्रमा की. भगवान के दर्शन पहले ही कर लिए थे, सो सीधे बाहर निकल आयीं.
“ऋतु” महक ने, चुप्पी तोड़ते हुए पूछा, “तू यहाँ घूमने आई है?” सुनते ही ऋतिका, ठठाकर हंस पड़ी, “तुझे क्या लगता है मोनी?!” महक चुप रही. बरसों बाद, किसी ने उसे ‘मोनी’ कहा था. भला सा लग रहा था- ‘पेट– नेम’ से पुकारा जाना. “यू डफर!! पराये शहर में कोई औरत, अकेले घूमने आएगी?!” वह फिर हंसी और अपनी विस्मित सखी से बोली, “अरे बाबा, मेरे हसबैंड का यहीं ट्रान्सफर हो गया है...आर्मी में हैं ना!..आज हमारी एनीवर्सरी थी. ये ऑफिस टूर पर बाहर गये हैं. मैंने सोचा; अकेले कोई सेलिब्रेशन तो हो नहीं सकता. क्यों ना मंदिर में, हाथ जोड़ आऊं.”
“ओह” महक ने अस्फुट स्वर में कहा, “हैप्पी एनीवर्सरी” बदले में ऋतु ने, उसे प्यार से थपथपाया. तभी अचानक, ऋतिका को कुछ याद आया. रोमांच के उद्वेग में, वह पूछ बैठी, “टुडे इज योर बर्थडे टू...ऍम आई राइट?!” महक ने मुस्कराकर, उसका अनुमोदन किया. न जाने क्यों ऋतु को लगा कि उस मुस्कान में, ढेर सी कशिश थी- एक नामालूम सी तड़प...अनकही, अनसुनी! फिर भी, उसने सहज होने का प्रयत्न किया, “लेट अस... सेलिब्रेट टुगेदर”
“व्हाई नॉट...पर कहाँ चलें?”
“चल, पहले कार में चल” शानदार कार की, मखमली सीट पर बैठते हुए, ऋतु को हीनता ने जकड़ लिया. महक का विवाह क्या हुआ; उनके सारे सम्पर्क सूत्र, दरक गये. ‘उसके ससुरालवालों की नाक बहुत ऊंची है’- ऐसा सुना था. फिर तो मोनी से, बात तक न हुई . मोनी उसे इस तरह मिलेगी, कभी सोचा न था. गाडी दौड़ी जा रही थी- अनजान दिशाओं में. ऋतिका का मन, कहीं और भाग रहा था; विगत और वर्तमान का मेल नहीं. ऐसे में संवाद भी बौने पड़ जाते हैं- कोई सेतु बनाती हैं तो मात्र स्मृतियाँ. नितांत भिन्न परिवेश में, जीने वाली दो स्त्रियाँ, कब तक साथ चल सकेंगी??? न जाने महक ने ड्राईवर को क्या निर्देश दिया था... न जाने उन्हें वह, कहाँ लिए जा रहा था...!
तभी झटका खाकर, कार कहीं रुकी और विचारों का रेला टूट गया. अरे यह तो एक ‘पॉश’ सा ढाबा था. ढाबे का लुक लिए, एक सडकछाप किन्तु ‘स्टाइलिश’ होटल...ऋतु का अचरच भांपकर, महक ने कहा, “यहाँ पानीपूरी और चाट के स्टाल को, अक्सर आते जाते हुए देखती थी; लेकिन साथ, इनकी कोई भाभी या बहन रहती; इसी से...!!” बात को खोलकर कहने की जरूरत न थी. बड़े लोगों के छोटे दिल और उन दिलों की तंगखयाली! चाट- पकौड़ी के, तीखे चटकारे, उन्हें स्टूडेंट- लाइफ की याद दिला गये. मिर्च से आंखें और नाक बहने लगे थे. एक दूसरे को देखकर, बेसाख्ता उनकी हंसी फूट पड़ी. हँसते हँसते आंसू निकल आये. एक अरसे के बाद, महक इतना हंसी थी; इतना दिल खोलकर हंसी थी. ऋतिका चहक उठी, “देट वाज़ ग्रेट मोनी! तुम्हारी ये ट्रीट, मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूलूंगी...अब एक ट्रीट मेरी तरफ से भी...”
“कम ऑन ऋतु, डोंट बी सो फॉर्मल...! ट्रीट तूने दी या मैंने- बात तो एक ही है”
“नहीं मोनी! तुझे इसी वक़्त मेरे घर चलना पड़ेगा. वहां हमारी बिटिया ने, अपने नन्हे हाथों से, केक और मफिन्स बनाकर रखे होंगे- एज टुडे, इज ए वैरी स्पेशल डे फॉर अस- यू नो...” ऋतु का प्यार भरा आग्रह, महक ठुकरा न सकी. गाड़ी फिर से चल पड़ी. लेकिन इस बार, गाड़ी के साथ साथ, मानों मन को भी ‘गियर’ लग गये थे. उमंगो की उड़ान में, उड़ा जा रहा था वह! ऋतिका की सुंदर- सलोनी बेटी, घर के दरवाजे पर ही मिली- स्वागत को तैयार. “ये है मेरी हंसा. और हंसा ये महक आंटी...तुझे बताया था ना!” कहने की देर थी और हंसा ने लपककर उसके पैर छू लिए. वह गदगद हो उठी. कितने सुंदर संस्कार!
काश! अपने बच्चों को भी ये संस्कार दे पाती...आभासी दुनिया के, बनावटी पंजों से छुडाकर, उन्हें अपने पास बुला सकती!! सलीके के नाम पर, छुरी कांटे से खाना, चॉप- स्टिक्स का इस्तेमाल सीख रहे हैं. अभिवादन में- ‘हाई- बाय’...डाइनिंग टेबल की वह प्रेयर- “ओ माय गॉड, ब्लेस माय फ़ूड...आई ईट...ब्लेस मी” लेकिन उनकी जड़ें कहाँ हैं? कहाँ है वो परंपरा, जिसके तहत परिवार के लोग रसोईं में, नीचे बैठकर खाते थे. सुबह शाम- वह सम्मिलित आरती, कर्पूर की सुवास, मन्त्रों की गूँज. “व्हाट यार?! किस सोच में पड़ गयी हो???” ऋतु के प्रश्न ने, उसकी तन्द्रा को भंग कर दिया. “नही कुछ नहीं...” महक ने, सामान्य होते हुए कहा, “तेरा घर और तेरी बेटी भी, तेरे जैसे सुंदर है... मैं तो खो सी गयी - इस संसार में”
“चल किसी और को बना” ऋतु ने उसे धौल जमाया, “याद किसी की आती है ...मन को बड़ा सताती है- क्यों? है ना??” अपने भाव छिपाने को, मोनी खिड़की के पास सट गयी; इतनी निस्पंद कि धडकन तक सुनाई न दे! उसे अन्यमनस्क पाकर, ऋतिका ने बात बदल दी,“ हंसा बेटा, जल्दी से अपनी स्वीट्स लाकर, आंटी को खिलाओ” फिर बेटी की मदद करने, भीतर चली गयी. जब हंसा चाय और स्नैक्स लेकर आई, महक खुद पर काबू पा चुकी थी, “अरे वाह क्या बढियां चीज़ें बनाई हैं! जी करता है- तुम्हारे हाथ चूम लूँ!!” कहते कहते, उसने बच्ची को चिमटा लिया, “अब तो बार बार आना पड़ेगा- ये स्वाद चखने के लिए.”
“यू आर मोस्ट वेलकम आंटी” हंसा के चेहरे पर, ढेरों गुलाब खिल उठे. पुरानी यादें ताजा करते हुए, ऋतु ने, लोकगीत का कैसेट चला दिया, “लागा कमरिया का झटका, बलम कलकत्ता पहुँच गये” गीत की धुन पर थिरकते हुए, उसने मोनी को भी खींच लिया. दोनों नाच के ‘हुरदंग’ में डूब गयीं. बीच में बिटिया ने भी, एकाध ठुमका लगा लिया. फिर तो हंस- हंसकर, बुरा हाल हुआ उनका. “पता है बेटा, आंटी ने ये अपनी बुआजी से सीखा था. फैमिली फंक्शंस में वे, कभी कभी नाचती थीं- लेकिन बस औरतों के सामने...ऐसे कितने ही, लोकनृत्य आते हैं इनको, हमारे कल्चरल- फेस्ट में इन्होने...”
“बस कर ऋतु” महक ने उसे, बीच में ही रोक दिया; पर हंसा मचलने लगी, “यू नो आंटी... ममा अपनी दूसरी फ्रेंड्स के साथ, हॉबी कोर्सेज चलाती हैं. क्यों ना आप भी, उन्हें ज्वाइन कर लो...ऐट लीस्ट कभी कभी. “जरूर बिटिया” महक ने प्रेम से, उसका हाथ दबाया. घड़ी की सुइयां, बहुत आगे सरक गयी थीं; सो वहां से निकलना पड़ा- जल्दी. दृष्टिपथ से ओझल होने तक, दोनों माँ- बेटी, हाथ हिलाकर उसे विदा कर रही थीं. घर में देवेश, उसके इंतज़ार में था- उसके लिए, हीरों का हार, सहेजे हुए. “ओह लगता है, हमारी मलिका ने, आज बाज़ार ही लूट लिया! खूब शौपिंग की होगी!!” महक के चेहरे का, गाम्भीर्य देखकर, वह अचकचाया, “नेक्स्ट टाइम से कोशिश रहेगी कि कोई और ‘इंगेजमेंट’ न हो...”
पत्नी की आँखों को, पढ़ न सका वह मतिमूढ़; जो कह रही थीं, “थैंक्स देवेश, मुझे अकेला छोड़ने के लिए...थैंक्स कि आज, कोई नकाब, ओढना नहीं पड़ा... भीड़ में अकेलापन, ढोना न पड़ा. मैंने नहीं बटोरी- झूठी वाहवाही...दिखावटी मेहमानों की, दिखावटी मुबारकबाद!! थैंक्स इन सबसे दूर रखने के लिए. कम से कम, आज के दिन; एक कतरा आसमान मेरी मुट्ठी में था. थैंक्स देवेश...थैंक्स ए लॉट!!!
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नाम- विनीता शुक्ला
शिक्षा – बी. एस. सी., बी. एड. (कानपुर विश्वविद्यालय)
परास्नातक- फल संरक्षण एवं तकनीक (एफ. पी. सी. आई., लखनऊ)
अतिरिक्त योग्यता- कम्प्यूटर एप्लीकेशंस में ऑनर्स डिप्लोमा (एन. आई. आई. टी., लखनऊ)
कार्य अनुभव-
१- सेंट फ्रांसिस, अनपरा में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य
२- आकाशवाणी कोच्चि के लिए अनुवाद कार्य
सम्प्रति- सदस्य, अभिव्यक्ति साहित्यिक संस्था, लखनऊ
प्रकाशित रचनाएँ-
१- प्रथम कथा संग्रह’ अपने अपने मरुस्थल’( सन २००६) के लिए उ. प्र. हिंदी संस्थान के ‘पं. बद्री प्रसाद शिंगलू पुरस्कार’ से सम्मानित
२- ‘अभिव्यक्ति’ के कथा संकलनों ‘पत्तियों से छनती धूप’(सन २००४), ‘परिक्रमा’(सन २००७), ‘आरोह’(सन २००९) तथा प्रवाह(सन २०१०) में कहानियां प्रकाशित
३- लखनऊ से निकलने वाली पत्रिकाओं ‘नामान्तर’(अप्रैल २००५) एवं राष्ट्रधर्म (फरवरी २००७)में कहानियां प्रकाशित
४- झांसी से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘राष्ट्रबोध’ के ‘०७-०१-०५’ तथा ‘०४-०४-०५’ के अंकों में रचनाएँ प्रकाशित
५- द्वितीय कथा संकलन ‘नागफनी’ का, मार्च २०१० में, लोकार्पण सम्पन्न
६- ‘वनिता’ के अप्रैल २०१० के अंक में कहानी प्रकाशित
७- ‘मेरी सहेली’ के एक्स्ट्रा इशू, २०१० में कहानी ‘पराभव’ प्रकाशित
८- कहानी ‘पराभव’ के लिए सांत्वना पुरस्कार
९- २६-१-‘१२ को हिंदी साहित्य सम्मेलन ‘तेजपुर’ में लोकार्पित पत्रिका ‘उषा ज्योति’ में कविता प्रकाशित
१०- ‘ओपन बुक्स ऑनलाइन’ में सितम्बर माह(२०१२) की, सर्वश्रेष्ठ रचना का पुरस्कार
११- ‘मेरी सहेली’ पत्रिका के अक्टूबर(२०१२) एवं जनवरी (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
१२- ‘दैनिक जागरण’ में, नियमित (जागरण जंक्शन वाले) ब्लॉगों का प्रकाशन
१३- ‘गृहशोभा’ के जून प्रथम(२०१३) अंक में कहानी प्रकाशित
१४- ‘वनिता’ के जून(२०१३) और दिसम्बर (२०१३) अंकों में कहानियाँ प्रकाशित
१५- बोधि- प्रकाशन की ‘उत्पल’ पत्रिका के नवम्बर(२०१३) अंक में कविता प्रकाशित
१६- -जागरण सखी’ के मार्च(२०१४) के अंक में कहानी प्रकाशित
१८-तेजपुर की वार्षिक पत्रिका ‘उषा ज्योति’(२०१४) में हास्य रचना प्रकाशित
१९- ‘गृहशोभा’ के दिसम्बर ‘प्रथम’ अंक में कहानी प्रकाशित
संपर्क - vinitashukla.kochi@gmail.com
वाह ....कभी किसीको मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता ...कहीं ज़मीं तो कहीं आसमान नहीं मिलता ......बखूबी उकेरा है इस एहसास को .........
जवाब देंहटाएंआभार सरस जी!
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