मुक्तिबोध की कहानी ' पक्षी और दीमक ' का भावबोध साहित्य में स्वप्न और कल्पना के साथ यथार्थ का संफुटन रचना और रचनाकार को समृद्ध ...
मुक्तिबोध की कहानी 'पक्षी और दीमक' का भावबोध
साहित्य में स्वप्न और कल्पना के साथ यथार्थ का संफुटन रचना और रचनाकार को समृद्ध करता है। कथा-साहित्य की सुदीर्घ परंपरा में कहानी सबसे प्राचीन और विकसित विधा है। कहानी की वाचिक परंपरा मनुष्य के साथ ही प्रारंभ हो जाती है परंतु कहानी के लिपिबद्ध स्वरूप आधुनिक काल की देन हैं। आधुनिक काल में अनेक रचनाकारों ने कहानी विधा को संपन्न करने में रचनात्मक योगदान दिया है। हिंदी साहित्य में गजानन माधव मुक्तिबोध शीर्ष रचनाकारों में गिने जाते हैं, परंतु यह उपलब्धि मुक्तिबोध को काव्य संसार के कारण हासिल हुई है।मुक्तिबोध के काव्य साहित्य का इतना अधिक अन्वेषण, विश्लेषण हुआ कि उनके रचना संसार का गद्य पक्ष उपेक्षित रह गया और मुक्तिबोध कवि के रूप में पहचाने जाने लगे। मुक्तिबोध की गद्य रचनाओं में कहानी, डायरी,निबंध,समीक्षा/आलोचना आदि विधाएँ शामिल हैं। काठ का सपना, सतह से उठता आदमी,एक साहित्यिक की डायरी, भारत:इतिहास और संस्कृति,कामायनी एक पुनर्विचार,नई कविता का आत्मसंघर्ष एवं अन्य निबंध, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र आदि प्रमुख गद्य कृतियाँ हैं।
मुक्तिबोध की कहानियों को पढ़ने पर ज्ञात होता है कि लेखक अपनी समसामयिक स्थितियों का यथार्थ चित्रण करता हुआ बुद्धिजीवियों को नए संवेग के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है और उनकी कहानियाँ लोक कल्याण हेतु दिशा-निर्देशक की भूमिका में आ जाती हैं। कहानियों के भावबोध में मुक्तिबोध के काव्य चिंतन की स्पष्ट छाप देखने को मिलती है। तारसप्तक की भूमिका की में मुक्तिबोध की स्वीकारोक्ति है जिससे उनकी अभिलाषाएँ, साहित्यिक विचार, रचनात्मक प्रक्रिया का स्वरूप, तत्व तथा सामाजिक चिंतन अधिक उजागर होते हैं। उनके अनुसार ''मैं कलाकार की स्थानांतरगामी प्रवृत्ति '(माइग्रेशन इंन्स्टिकट) पर बहुत जोर देता हूँ। आज के वैविध्यमय,उलझन से भरे, रंग-बिरंगे जीवन को यदि देखना है तो अपने वैयक्तिक क्षेत्र से एक बार तो उड़कर जाना ही होगा।बिना उसके इस विशाल जीवन समुद्र की परिसीमा,उसके तट प्रदेशों के भू-खंड आँखों से ओट ही रह जाएँगे।कला का केंद्र व्यक्ति है पर उसी केंद्र को अब दिशा व्यापी करने की आवश्यकता है फिर युग-संधिकाल में कार्यकर्ता उत्पन्न होते हैं,कलाकार नहीं, इस धारणा को वास्तविकताके द्वारा गलत साबित करना ही पडेगा।-----जीवनके इस वैविध्यमय विकास-स्रोत को देखने के लिए इन भिन्न-भिन्न काव्य रूपों को यहाँ तक कि नाट्य तत्व को कविता में स्थान देने की आवश्यकता है।मैं चाहता हूँ कि इस दिशा में मेरे प्रयोग हों।'' यही कारण है कि मुक्तिबोध समाज सापेक्ष साहित्य सृजन को वरीयता देते हैं।
मुक्तिबोध की कहानी 'पक्षी और दीमक' समाज के यथार्थ की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है। मुक्तिबोध के रचनाक्रम का समाज अनेक विद्रूपताओं से ग्रसित रहा और यही विद्रूपताएँ लेखक के मानस को विचलित-आलोडि़त करती रहीं। सामजिक विषमताओं से लेखक का परिचय जितना घनीभूत है, अपने साहित्य द्वारा सह्रदय पाठक को भी उन्होंने यथार्थ की इसी भूमि से परिचित कराने का प्रयास किया है। समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का यथार्थ चित्रण मुक्तिबोध की 'पक्षी और दीमक' कहानी में मिलता है। इस कहानी में उन्होंने फेंटसी के माध्यम से भ्रष्टाचार, युगीन यथार्थ की गहराई, बुद्धिजीवियों की संघर्षशीलता की जगह समझौता-परस्ती की मानसिकता की छानबीन कर मुक्तिबोध ने मानव चरित्र को सुदृढ़ कर अपने भविष्य को संवारने के लिए मूर्त रूप में अभिव्यक्ति दी है। समाज में व्याप्त आत्मसुख की प्रवृत्ति के कारण व्याप्त होने वाली निष्क्रियता को मुक्तिबोध 'पक्षी और दीमक' कहानी में प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त करते हैं।अधिक सुख बटोरने की चाहत में एक पक्षी गाड़ीवाले को अपना एक-एक पंख देता जात है और बदले में भोज्य के रूप में दो दीमक आसानी से प्राप्त करता है। एक दिन पक्षी के सारे पंख गाड़ीवान के पास पहुँच जाते हैं और पक्षी पंख विहीन हो जाता है और उड़ने की स्वतंत्रता खो देता है। अंत में एक बिल्ली उसे अपना ग्रास बना लेती है। पक्षी का असली सुख आत्मसंतुष्टि और कर्म पर विश्वास ही ऐसे साधन थे जो आधुनिक बुद्धिजीवी के ढुलमुल चरित्र को दृढ़ बना सकते थे।प्रतीकात्मकता के आधार पर देखें तो हम पाते हैं कि मुक्तिबोध ने इस कहानी में अंग्रेज व्यापारियों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था को कब्जाने की साजिश को व्याख्यायित किया है। जहाँ दीमक बेचनेवाला अंग्रेज है तो दीमक खरीदने वाला पक्षी भारतीय मानसिकता का प्रतिनिधि। यहाँ तक कि जब बुद्धिजीवी को जगाने वाले कारक मौजूद रह कर आगाह करते हैं तो भी वह आलस्य में ही रहता है और तब तक नहीं समझ पाता जब तक कि उसका सब कुछ नहीं लुट जाता। 'एक दिन उसके पिता ने पंख देते देख लिया।उसने उसे समझाने की कोशिश की कि बेटे, दीमकें हमारा स्वाभाविक आहारनहीं है,और उनके लिए अपने पंख तो हरगिज ही नहीं दिए जा सकते। '(मुक्तिबोध रचनावली -तीन पृ-149) पक्षी का पिता उसे समझाता है कि उसके द्वारा किया जाने वाला कृत्य उचित नहीं है।वह पिता की चेतावनी को नजरंदाज कर देता है। बाद में पक्षी को पछतावा होता है और वह उड़ने की शक्ति खोने के कारण मैदान से दीमकें एकत्रित करता है।जब गाड़ीवान आता है तो पक्षी कहता है '' देखो मैंने कितनी सारी दीमकें जमा कर ली हैं। ''तो गाड़ीवाला कितनी बेरुखी से जबाव देता है '' तो मैं क्या करूँ।'' तो पक्षी गिडगिडाता है और कहता है ''ये मेरी दीमकें ले लो और मेरे पंख मुझे वापस कर दो।'' गाड़ीवाला कहता है ''बेवकूफ,मैं दीमक के बदले पंख लेता हूँ ,पंख के बदले दीमक नहीं।''(मुक्तिबोध रचनावली-तीन, पृ-150)अत: यह आख्यान मुक्तिबोध के अंधेरे से उजाले की ओर मानव को ले जाने की अवधारणा को पुष्ट करता है।
सरकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने के पीछे व्याप्त भ्रष्टाचार के कुचक्र का यथार्थ चित्रण भी 'पक्षी और दीमक' कहानी में बेबाक ढ़ंग से किया गया है। सरकारी अनुदान प्राप्त करने के लिए संस्थाओं और सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्ट तंत्र का लेखाजोखा कहानी में चित्रित है। '' इसलिए कि माली साल की आखिरी तारीख को अब सिर्फ दो या तीन दिन बचे हैं। सरकारी ग्रांट अभी मंजूर नहीं हो पा रही है, कागजात अभी वित्त-विभाग में ही अटके पडे हैं।ऑफिसों के बाहर,गलियारों के दूर किसी कोने में, पेशाबघर के पास या होटलों के कोनों में क्लर्कों की मुट्ठियाँ गरम की जा रही हैं ताकि ग्रांट मंजूर हो और जल्दी मिल जाए। (मुक्तिबोध रचनावली -तीन पृ-144) मुक्तिबोध काले कारनामे को दस कहानी में उठाते हैं यह आज की परिस्थितियों में भी प्रासंगिक हैं।इसी प्रकार सरकारी कार्यालयों में सामान की खरीदारी में भी घालमेल होता है। समाज में यह घालमेल जीवन का हिस्सा है। सरकारी कार्यालयों की खरीदारी में सामान न खरीद कर सिर्फ समान के भुगतान की व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का यथार्थ चित्रण तथा साथ ही यदि सामान की भौतिक जाँच- पड़ताल की नौबत आती है तो कुछ समय के लिए सामान को उपलब्ध कराने का षडयंत्र भी होता है। मुक्तिबोध ने इन बातों को कहानी में स्थान दिया है। 'वह कहता है जा रहा है -''सूक्ष्मदर्शी यंत्र ?सूक्ष्मदर्शी यंत्र कहाँ है ?है तो । ये हैं । देखिए। 'क्लर्क कहता है। रजिस्टर बताता है । सब कहते हैं- हैं हैं । ये हैं। लेकिन कहाँ हैं ? यह तो सब लिखित रूप में हैं, वस्तु रूप में कहाँ हैं ! झूठी रसीद लिखने का कमीशन विक्रेता को, शेष रकम जेब में। सरकार से पूरी रकम वसूल।----- किसी खास जाँच के ऐन मौके पर किसी दूसरे शहर की ----संस्था से उधार लेकर, सूक्ष्मदर्शी यंत्र हाजिर। सब चीजें मौजूद हैं। आइए अब देख जाइए। हाँ यह तो हैं सब सामने। लेकिन, जाँच ख्त्म होने पर सब गायब, सब अंतर्धान। कैसा जादू है । खर्चे का आँकडा खूब फुला कर रखिए सरकार के पास कागजात भेज दीजिए । खास मौकों पर आफिसों के धुंधले गलियारों और होटलों के कोनों में मुट्ठियां गरम कीजिए ।'' (मुक्तिबोध रचनावली -तीन पृ-145)
देश की राजनैतिक स्थितियां-परिस्थियां आत्म संतोष का केंद्र बन गई है और व्यक्ति मौका परस्त होकर सिर्फ अपने ही बारे में सोचता है इसकी बानगी इस कहानी में मैदान को समतल करने के प्रकरण में श्यामला द्वारा पूछे जाने पर मिलती है -''अब मैं उसे 'उतना' का क्या मतलब बताऊं । साफ है कि उस भगवे खद्दर कुरते वाले से मैं दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता। मैं उसके प्रतिबफादार रहूँगा क्योंकि मैं उसका आदमी हूँ । व्यक्ति निष्ठा भी कोई चीज है, उसके कारण ही मैं विश्वास योग्य माना गया हूँ इसलिए मैं कई महत्वपूर्ण कमेटियों का सदस्य हूँ । (मुक्तिबोध रचनावली -तीन पृ-144)
यह तत्कालीन समसामयिक स्थितियाँ भी यहाँ राजनेताओं की कृपा से उनके कृपापात्र विभिन्न कमेटियों में नामित हो जाते हैं और सदैव ही कृपा को उतारने के एवज में उनके सभी उल्टे-सीधे कामों में हामी भरते हैं और उनके लाभ में मनोयोग से लगे रहते हैं। ये स्थितियां वहीं हैं जो तब थी और आज भी हैं। मुक्तिबोध ने दूरदर्शिता से उक्त तथ्यों को उठाया था कि जन जागरण से इस काले कारनामों की दूर किया जा सके पर इनकी जड़ें इतनी गहरे ही हैं कि ये नित नई कोपलों से अपना आभामंडल फैलाते रहते हैं।
समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के काले कारनामों से व्यक्ति त्रस्त हो जाता है।वह उस वातावरण से मुक्ति चाहता है और जब वह आत्मावलोकन करता है तो पाता है कि वह इतना कुरूप, अप्राकृतिक हो गया है और यही आत्मबोध उसे वातावरण से मुक्ति के लिए अग्रसर करता है । मुक्तिबोध ने इसी भावनात्मक प्रवाह को इस कहानी में प्रस्तुत किया है- ''आइने में मेरी सूरत दिखाई देती है । भयानक है वह सूरत सारे अनुपात बिगड़ गए हैं ।नाक डेढ गज लम्बी और कितनी मोटी हो गई है । चेहरा बेहद लंबा और सिकुड गया है, आंखे खड्डेदार। कान नदारद ।मैं भूत जैसा अप्राकृतिक रूप। मैं अपने चेहरे की उस विद्रूपता को मुग्ध भाव से कुतुहल से और आश्चर्य से देख रहा हूँ। एकटक ------ वह गटर है आत्मालोचन, दुख और ग्लानि का । और सहसा, मुँह से हाय निकल पडती है । उस भगवे खद्दर कुरते वाले से मेरा छुटकारा कब होगा, कब होगा। और तब लगता है कि इस सारे जाल में बुराई की इस अनेक चक्रों वाली दैत्याकार मशीनों में न जाने कब से फँसा पड़ा हूँ।पैर भिंच गए हैं। पसलियाँ चूर हो गई हैं, चीख निकल नहीं पाती, आवाज हलक में फंसकर रह गयी है।(मुक्तिबोध रचनावली -तीन पृ-146)
भ्रष्टाचारियों और शोषक वर्ग अपने काले कारनामों से विषैले हो जाते हैं और वे सांप की प्रजाति के बन जाते हैं । अत: उनका खात्मा करना ही एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए ।तभी तो मुक्तिबोध श्यामला के इस कथन में अपनी सहमति दर्शाते हैं कि 'जहां साप देखो मार डालो।'
इस प्रकार हम पाते है कि 'पक्षी और दीमक' कहानी की भावात्मक भूमि स्पष्ट करती है कि भोग, शक्ति, दंभ, स्वार्थपरक, भ्रष्टाचार आदि सीमा पार जाकर ब्रह्मराक्षस की भांति व्यवस्था को जर्जर बना रही है । यह कहानी विकास योजनाओं के खोखलेपन और भ्रष्टाचार की परत दर परत खोलती जाती है।कहानी में मुहावरेदार भाषा के प्रयोग से भाषा में प्रवाह और काव्यात्मकता दिखाई देती है।अत: कहा जा सकता है कि 'पक्षी और दीमक' कहानी का भावबोध की प्रासंगिकता आज के परिप्रेक्ष्य में उतनी ही है जितनी उसके प्रकाशन के समय थी।
डॉ दीपक पांडेय
केंद्रीय हिंदी निदेशालय
पश्चिमी खंड-7,रामकृष्ण पुरम
नई दिल्ली 110066 मो 09810722080
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