10 दिसम्बर मानव अधिकार दिवस पर विशेष बंद आँख -कान का मानवाधिकार मानव तस्करी समाज की वीभत्स तस्वीर ..... राष्ट्रीय मानव अधिकार का ता...
10 दिसम्बर मानव अधिकार दिवस पर विशेष
बंद आँख-कान का मानवाधिकार
मानव तस्करी समाज की वीभत्स तस्वीर .....
राष्ट्रीय मानव अधिकार का तात्पर्य सभी नागरिकों को संविधान में दिये गये अधिकारों के उपयोग के हक से लगाया जाता है। इन अधिकारों का हनन किये जाने पर मानवाधिकार आयोग में अपील की जा सकती है। बावजूद इसके विडंबना है कि सरकार के एक सर्वे रिपोर्ट के आकड़े हमें चौंकाते हुए मानव अधिकार आयोग के लिए चुनौतियाँ पेश कर रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार हमारे संस्कृति प्रधान देश में लगभग तीस लाख सेक्स वर्कर हैं जिसमें लगभग चालीस प्रतिशत बच्चे है। यह बेहद शर्मनाक बात है कि एक करोड़ से अधिक महिलाएँ और बच्चे अपना जीवन वेश्यालयों में काट रहें है। इतना ही नहीं छोटी बच्चियों से लेकर युवतियों तक को तस्करी के माध्यम से एक प्रदेश दूसरे प्रदेश में भेजकर दासी के रूप के रूप में रखा जा रहा है। शरीर को तार-तार करने वाला शारीरिक शोषण, बलात्कार, कठोर प्रताड़ना, अंग-भंग कर भिक्षा प्रवृति में झोंकना और नियमित शोषण जैसे मामलों ने मानवाधिकार की प्रासंगिकता पर प्रश्न वाचक चिन्ह लगा रहे हैं। सीमापार से तस्करी के सर्वाधिक मामले सामने आ रहे हैं। बंग्लादेश और नेपाल की गरीबी के चलते उन्ही देशों से महिलाओं की तस्करी कर उन्हें अच्छा वेतन देने के नाम पर दलालों के हाथों बेचा जा रहा है।
महिलाओं एवं बच्चों की लगातार बढ़ रही तस्करी और अपहरण के मामलों ने जहाँ हमारे देश की सरकारों की नींद उड़ा रखी हैं, वहीं दूसरी ओर सार्क देशों सहित संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस संबंध में गंभीरता का परिचय नहीं दे रहे हैं। सार्क देशों भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, भूटान, म्यांमार और मालदीव में महिलाओं और बच्चों की बढ़ती तस्करी व शोषण को रोकने गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं। इन्हीं सरकारी प्रयासों के चलते तस्करी की शिकार महिलाओं और बच्चों को छुड़ाने के बाद उन्हें रोजगार के अवसर, प्रशिक्षण, एच.आई.व्ही, एड्स के इलाज के लिए राष्ट्रीय महिला कोष से धन खर्च किया जा रहा है। मानव तस्करी के शिकार लोग न तो अपने अधिकारों के प्रति सजग होते हैं और न ही आर्थिक रूप से सक्षम। ऐसे असहाय और निर्धन लोगों को शोषण से बचाना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। महिलाओं और बच्चों का अवैध व्यापार एक अपराध है, जो सीमाओं की बाधाओं के बिना होता है । सरकारी एजेन्सियों पर पुलिस चौकी, जिला, राज्य, देश आदि की बंदिशें है। यही भौगोलिक प्रतिबंध, महिलाओं और बच्चों के अधिकारों का संरक्षण करने और अवैध व्यापार को रोकने में बड़ी बाधा है। हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 23 के तहत मानवों के अवैध व्यापार पर प्रतिबंध लगाया गया है। महिलाओं और बच्चों के अवैध व्यापार की रोकथाम के लिए आर्थिक और सामाजिक शक्ति प्रदान करना इस अपराध को रोकने एवं नियंत्रण के क्षेत्र में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। साथ ही सरकार की विभिन्न नीतियों, तथा परियोजनाओं में तालमेल सकारात्मक परिणाम दे सकता है।
अवैध व्यापार की रोकथाम करने से लेकर किसी भी विषय में जन- सामान्य का सहयोग प्राप्त करने में मीडिया की भूमिका अहम होती है। जनमत इकठ्ठा करने और दूर -दराज तक मीडिया की पहुंच सामाजिक परिवर्तन का शक्तिशाली हथियार मानी जा सकती है। मानव अधिकारों से संबंधित समस्या के निराकरण में मीडिया को सतत् रूप से शामिल करने की जरूरत है। मीडिया प्रचार को उचित दृष्टिकोण अपनाने और यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि पीड़ितों और इससे मुक्त कराये गये पीड़ितों के अधिकारों का हनन न हो। अवैध व्यापार में लिप्त व्यक्ति भावनात्मक दबाव में होता है। पीड़ित व्यक्ति को परामर्श की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी स्थिति में प्रशिक्षित परामर्शदाताओं की आवश्यकता महसूस होती है। यह अच्छा कदम हो सकता है कि ऐसे कर्मी प्रत्येक पुलिस चौकी में कल्याण विभाग और एजेन्सियों, जैसे केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के नेटवर्किग में उपलब्ध हों। प्रायः अवैध व्यापार के पहले इसके दौरान और बाद में अधिकार के हनन के मामले प्रकाश में आते रहे हैं। स्वयं पुलिस का मानना है कि अवैध व्यापार संबंधी अपराधी की रिपोर्ट नहीं की जाती है,अथवा बहुत कम मामलों में शिकायतें प्राप्त होती हैं। कानून के द्वारा ऐसे अवैध व्यापार पर कड़ायी किये जाने के मार्ग में मौजूदा व्यवस्था गंभीर चूक के साथ सामने आ रही है।
भारत वर्ष में हो रहे संगीन अपराधों के आगे मानवाधिकारों की बातें करना बेमानी प्रतीत होती है। हिन्दुस्तान में कश्मीर से कन्याकुमारी तक औसतन दो दर्जन दिल दहला देने वाले अमानवीय कृत्य प्रतिमाह सामने आ रहे हैं। ऐसे मामलों में महिलाओं और व्यक्तियों के साथ किया जाने वाला दुष्कृत्य शामिल नहीं है। दहेज- प्रताड़ना से लेकर कार्य स्थलों पर किया जाने वाला असामाजिक कृत्य और सास-श्वसुर पति की क्रुरता की शिकार विवाहित महिलाओं की दयनीय स्थिति से उत्पन्न चित्र हमें सांस्कृतिक परिवेश वाले भारत वर्ष की वास्तविक स्थिति से दूर कहीं अंधेर कोठी में ला खड़ा करता है। अब तो शिक्षा के संस्थान भी बच्चियों और युवतियों के लिए पूर्णतः सुखद एवं सुरक्षित नहीं रह गये हैं। घरों में बर्तन, पोछा करने वाली अविवाहित युवतियों से लेकर भिक्षावृत्ति को जीवन यापन का आधार बनाने वाली छोटी बच्चियां भी मानवीय समाज में रहने वाले दरिन्दों की नापाक नजरों से नहीं बच पा रही हैं। आत्महत्या के बहुत से मामले दुष्कृत्य के बाद समाज में मुंह न दिखा सकने की सोच के साथ पीड़िताओं द्वारा स्पष्ट रूप से सामने लाये जा रहे हैं। कुछ तो ऐसे मामले भी दिखायी दे रहे हैं, जो मौत के बाद पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में शारीरिक शोषण के रूप में भयानक कहानी का रूप अख्तियार कर हमारे रोंगटे खड़े कर रहे हैं ।
मानवाधिकार हनन की सबसे अधिक शिकायतें जेलों से प्राप्त हो रही हैं, जहाँ प्रतिदिन लगभग 7 लोग पुलीस अभिरक्षा में ही दम तोड़ देते है। देखा जाये तो पूरे विश्व में मानवाधिकारों का खुले आम हनन हो रहा है। इसका मुख्य कारण सत्ता के प्रति बढ़ता लोभ, सामाजिक अव्यवस्था, आर्थिक संरचना और सांस्कृतिक मान्यताओं की रूढिवादिता ही है। विश्व के अधिकांश देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति भी सोचनीय है। इस मामले में हमारे देश का कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में अहम भूमिका अदा कर रहा है। हमारे देश में समान अधिकार कानून ने मानवाधिकार आयोग को काफी सुदृढ़ता प्रदान की है। कुछ राजनैतिक तथा धार्मिक मुद्दों के कारण भी मानवाधिकारों का हनन होता रहा है।
गुमशुदा बच्चों की बढ़ती संख्या के कारण विगत महीनों सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश के तहत ऐसे मामलों को गंभीरता से लेते हुए गुम हुए बच्चों की पता-साजी के लिए पुलीस प्रशासन को आड़े हाथों लिया है। बच्चों को गायब करने वाले आरोपियों द्वारा अपने फायदे के लिए उन्हें बंधक बनाकर रखना और कारखानों सहित अन्य खतरनाक कामों में लगाये जाने के कार्य को सुप्रीम कोर्ट ने बाल- अपराध के तहत मानते हुए पुलिस प्रशासन को सतर्क रहने कहा है। बहुत से बाल अपराध मामले स्वयं पुलिस द्वारा ही दबा दिये जाते है। लगभग डेढ़ माह पूर्व मुंबई से रायपुर आ रही एक नाबालिग युवती की छेड़छाड की घटना को माना पुलिस ने दबाए रखा। एयरलाइंस की फ्लाइट में हुई उक्त शर्मनाक घटना को पुलिस ने गंभीरता से क्यों नहीं लिया? इस पर सवाल उठाये गये हैं। हल्ला मचने के बाद पुलिस ने डेढ़ माह बाद आरोपी को पकड़ा और अदालत में पेश किया । अदालत ने मामले की सुनवाई के बाद आरोपी को जेल भेज दिया। इन सारे मामलों में पुलिस सहित आमजनों की गंभीरता न दिखना सामाजिक रूप से उचित नहीं कही जा सकती है। अनदेखी की स्थिति में पीड़ित पक्ष द्वारा मानवाधिकार का दरवाजा खटखटाना न्याय की अंतिम कोशिश ही कहा जा सकता है।
प्रस्तुतकर्ता
(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
आदरणीय डा. सूर्यकांत मिश्रा नमस्कार आपका लेख बहुत अच्छा लगा अगर अनुमति हो तो इसे पत्रिका में प्रकाशित करने की अनुमति चाहता हू अगर अनुमातिहाई तो mprasad0786@gmail.com मेल कर दे
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