आखिर कब चलेगी इंसानियत की रेल? दोस्तों, भारत की जीवन धारा कही जाने वाली भारतीय रेल जो 150 वर्षों से भी अधिक समय से परिवहन के क्षेत्र में ब...
आखिर कब चलेगी इंसानियत की रेल?
दोस्तों, भारत की जीवन धारा कही जाने वाली भारतीय रेल जो 150 वर्षों से भी अधिक समय से परिवहन के क्षेत्र में बड़ा कीर्तिमान स्थापित कर चुकी है। भारतीय रेल जो मानव जीवन को दूरतम स्थानों से एक साथ मिलाती है। देश में मानव जीवन पर आने वाली आपदाओं से निपटने हेतु राहत सामग्री सुगम और तीव्र गति से पहुंचाती है। इस भारतीय रेल में आपने यात्रा जरूर की होगी और वो भी जनरल बोगी में जहां सुकून से खड़े होना तो दूर की बात है, आप एक पैर पर भी आराम से खड़े नहीं हो सकते हैं। क्यों कि यात्रा का समय वो समय होता है जब सबसे बड़ा इंसानियत का रिश्ता भी सीट पाने की चाह में टूट जाता है।
दोस्तों, घर से ट्रेन में यात्रा करने निकलते वक्त बुजुर्गों ने आपसे जरूर कहा होगा कि बेटा ‘‘अच्छे से जाना‘‘ इसका मतलब यह नहीं कि वक्त दो वक्त के लिए मिलने वाले हमसफर के साथ सीट पाने की चाह में इंसानियत जैसे बड़े रिश्ते को भूल जाते हैं हम, बस याद रहता है तो अपने शरीर का सुख और बुजुर्गों की वो बातें जो घर से निकलते वक्त कहीं थीं। क्या सुख पाने की चाह में इंसानियत के रिश्ते दफन होने लगे हैं? या फिर इंसानियत नाम के रिश्ते को पूरी तरह से हम भूल चुके हैं? या गांव के जमींदार के बैठे होने के अहम में मानवता का गला घोंट चुके हैं हम? या फिर माता-पिता से मिले अपार प्यार के सुख को ही अपने जीवन की परछाईं बना चुके हैं हम ?
ऐसे ही कई तरह के सवाल अपने आप जन्म ले लेते हैं जिनका जवाब आज भी अनुत्तरित है। दोस्तों विद्वानों ने कहा है कि ‘‘आदमी के पास लाख गुण हों अगर उसमें इंसानियत नहीं है तो कुछ भी नहीं है।‘‘ फिर हम क्यों यह भूल गए हैं कि पल-दो-पल के साथ को भी हम इंसानियत के रिश्ते से जोड़कर नहीं देखते हैं। रिश्ते निभाने की हमारी भारतीय संस्कृति की मशाल तो विदेशों में आज भी जल रही है और आगे भी जलती रहेगी। हमारे भारत में मिलने वाले संस्कारों की संस्कृति की पूंजी अमूल्य है। तो फिर क्यों हम क्षणिक सुख पाने की होड़ में मानवता को तार-तार कर इंसानियत जैसे अमूल्य रिश्ते का गला घोंटने पर उतारू रहते हैं।
ट्रेन की जनरल बोगी की कुर्सियां कभी खाली इसलिए नहीं होतीं क्यों कि हम अपने अहम को भी अपने साथ लेकर यात्रा करते हैं और सीट पाने की चाह में आम आदमी को भूलकर धक्का मुक्की करने पर उतारू रहते हैं। आखिर इंसानियत की मशाल जो बुझ चुकी है वह कब जलेगी ? इसका जवाब देने वाला भी कोई नहीं है। ट्रेन के दरवाजे की खिड़की पर पैर रखते ही आपका जो रवैया सामने आता है उसे देखकर इंसानियत का भूत कोसों दूर भाग जाता है। क्या आपके जेहन में जरा भी सहनशीलता नहीं बची? या फिर तकदीर बनाने की दौड़ में आम आदमी को हर मोड़ पर अपने पैरों तले कुचलने की कसम खा बैठे हैं? लम्बी दौड़ की चाहत की आकाक्षांओं के बीच उन रिश्तों को भी भूल गये हैं जो समाज और सामाजिक सरोकार के बीच सिखाए गये थे?
रेल की जनरल बोगी की कहानी हर रोज आपके दिल और दिमाग को छू कर निकल जाती है। और अपने स्टेशन पर उतरते ही वो कहानी भूल भी जाती है। पर इस बीच घटी उन घटनाओं पर जोर किसी का नहीं चलता है। क्यों कि एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच का समय वह समय है जहां इंसानियत के तार-तार होने की भनक एक दूसरे को धकेलते हुए निकल जाती है। और इस बीच बस याद रह जाते तो बस सफर के वो यादगार लम्हे जिनमें कुछ पल के लिए पास बैठे हमसफर यात्रियों से हुए वार्तालाप के बीच उनके प्रति चाहत की आकांक्षा। दोस्तों जनरल बोगी की यात्रा करते समय आपको यह अहसास जरूर होता होगा कि हमारे देश की सभ्य संस्कृति का गला घोंटने वाले लोगों की कमी इस देश में नहीं है। कारण साफ है कि इंसानियत की मशाल अब पूरी तरह से बुझ चुकी है। जिसके अंधेरे का फायदा हर शख्स उठाने की कोशिश में लगा हुआ है। चाहे व्यक्ति से व्यक्ति के आपसी मतभेद हों या लालच की वो दीवार जिसे तोड़ना कभी किसी ने मुनासिब नहीं समझा। इससे तो भूखे और जरूरतमंदों की वो इंसानियत काबिले तारीफ है जो जनरल बोगी के दरवाजे पर पैर रखते ही अपने बैठने का इंतजाम उस भीड़ से अलग कर लेते हैं जहां पर इंसानियत की मशाल नहीं जलती है।
भूखे ओर जरूरतमंदों की यात्रा उनके लिए यादगार इसलिए होती है क्यों उन्हें न तो सीट पाने की ललक होती है और ना ही घर से बड़े आदमी होने का अहम। ट्रेन की जनरल बोगी में सीट मिले या ना मिले पर उनकी यात्रा इसलिये सुखदायी होती है क्यों कि उनके पास रखने और सम्हालने के लिए कुछ नहीं होता है। बस होती है तो उनके पास इंसानियत जिस पर हम लोगों की नजर भी नहीं पढ़ती। दोस्तों एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन पर रूकती ट्रेन हमें थकावट का एहसास जरूर कराती है, पर ट्रेन की जनरल बोगी की जमीन पर बैठे वो शक्स नींद और थकान को जीत चुके होते हैं।
भूल से यदि ये शख्स खाली सीट पर बैठ भी जाते हों तो माने पहाड़ टूट जाता है। वे लोग यह भूल जाते है। कि आखिर ये भी तो इंसान हैं। जिन्हें खाली सीट पर बैठने पर तमाम तरह की बातों की यातनाऐं तत्काल दे देते हैं। आखिर ट्रेन में यात्रा करने वालों का जमीर खो चुका है? या इंसान के रूप में हम लोग इंसान के दुश्मन बन बैठे है? आखिर क्यों ? दोस्तों मुझे याद है केरला एक्सप्रेस की त्रिवेन्द्रम की यात्रा जब में अपने दो दोस्तों के साथ ग्वालियर से त्रिवेन्द्रम रेलवे की परीक्षा देने जा रहा था।, हम लोगों के पास रेलवे का सैकेण्ड क्लास का पास तो था ही । पर सीट आरक्षित नहीं थी। इस कारण हम लोग केरला एक्सप्रेस की जनरल बोगी में सवार हो गये। और बोगी में बैठने की जगह तलाश करते-करते लगभग 72 घण्टे की यात्रा करने के बाद भी सीट नहीं मिली। जिस पर बैठने की हिम्मत करते उसी सीट पर पहले से बैठे शख्स द्वारा सीट पर अधिकार जताते हुऐ हम लोगों को डाट दिया जाता था। लम्बी दूरी की यात्रा की वजह से हम अपना इंसानियत का रूप खोना नहीं चाहते थे। और ट्रेन की वो जनरल बोगी की यात्रा आज तक याद है। जनरल बोगी की वो जमीन भी हमें आज भी याद जिसमें सोते लुढ़कते हुऐ यात्रा पूरी की । यात्रा के दौरान कई दम्पत्तियों का तो वो रूप देखा जिसे देखकर इंसानियत का रिश्ता तार-तार होते नजर आता था। कोई भूल से अगर उनकी सीट पर बैठने की हिमाकत कर देता तो मानों पहाड टूट जाता था। इतनी खरी खोटी सुनाते हमने देखा उनको कि मानो सीट नहीं उनके घर में रहने की किसी ने हिम्मत कर डाली हो। यहां भी इंसानियत की तस्वीर कुछ और ही नजर आती थी।
देश की जीवन धारा कई जाने वाली इस धारा पर अधिकार जमाने का हक हमें आखिर किसने दिया है ? कागज के एक टुकड़े को हम ठीक से पढ़ भी नहीं पाये हैं और खाली मिली सीट पर अधिकार जमाने के इरादे कर बैठते हैं हम आखिर क्यों? देश के बड़े-बड़े स्टेशनों की बात की जाये तो जनरल बोगी की सीट आज भी बिकती नजर आती है, चाहे मुम्बई शहर का स्टेशन हो या दिल्ली शहर का स्टेशन या फिर जगन्नाथ पुरी का स्टेशन या देश के अन्य बड़े शहरों के स्टेशन जहां से बड़ी भीड़ को लेकर ट्रेन चलती हैं। वहां का नजारा देखते ही बनता है। कभी कुलियों द्वारा जनरल बोगी की सीट बेच दी जाती है तो कभी वहां के लोकल असामाजिक लोगों के द्वारा जनरल बोगी की सीट बेचने का घिनौना खेल खेला जाता है। तारीफ तो हम लोगों की भी करनी होगी हम लोग भी जनरल बोगी की सीट में अधिकार जताने की चाह में चन्द रूपये देकर अपने बाप की सीट समझ लेते हैं, और जनरल डिब्बे की सीट पर चारों खाने चित्त होकर आराम फरमाते नजर आते हैं। भूल से भी कोई जरूरतमंद हमारे चन्द रूपये देकर खरीदी गई सीट पर बैठ जाता है तो फिर हम भी शुरू हो जाते हैं और इंसानियत के रिश्ते को भूलकर नफरत की दीवार को अपना माई-बाप बना लेते हैं।
आखिर क्यों ? क्या हम लोगों का भारतीय रेल में यात्रा करने वाले पैसेंजरों से कोई रिश्ता नहीं है। या फिर अधिकार सम्पन्न समाज में रहते-रहते हम लोग रिश्ते की मर्यादाओं को पीछे छोड़ चुके हैं? दूसरे इंसान की इंसानियत को समझने की ताकत तो है हम में पर हम अपने खुद की जिंदादिली को समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रहें हैं? जनरल बोगी की यात्रा सुखदायी होने की संभावना के बीच हम लोग इंसानियत का गला घोंटने की कसम खा बैठे हैं। देश की एकता और अखण्डता को एक सूत्र में पिरोने वाली भारतीय रेल को अपनी क्षणिक सुख भरी ललक के लिए बदनामी का कफन पहनाने की कोशिश में क्यों रहते है हम लोग? यह समझ के परे है।
राष्ट्र की जीवन धारा को एकता और अखण्डता के सूत्र में बहने से क्यों रोक रहे है हम लोग । एक दूसरे के प्रति सद्भावना की तस्वीर को पल झपकते बदल लेने की होशियारी आखिर कहां से आई है हममें इसका भी जवाब हम लोगों के पास नहीं है। भारतीय रेल जो पैसेंजर की सुखमयी यात्रा के लिए वचनबद्ध है, और हर समय प्रयासरत भी है। तो फिर हम कौन होते हैं पैसेंजर की यात्रा में खलल पैदा करने वाले। घण्टे दो घण्टे के लिए दोस्त बनके तो देखो कोई किसी खुशी में शामिल होने के लिए जा रहा है तो कोई किसी के गम में शामिल होने के लिए जा रहा है। और इस बीच आपकी तेज तर्रार आवाज यात्रियों के जेहन में घर कर जाती है। जिसे सुनने और समझने वाला उस समय कोई नहीं होता। भले ही भारतीय रेल दूरतम स्थानों से मानव जीवन को जोड़ती हो या सरकार ने देश में बुलेट ट्रेन चलाने का सपना देखा हो। पर वह समय कब आयेगा जब यात्रा करते समय एक दूसरे से जुड़ते हुए लोग नजर आएंगे। और सीट पाने की चाह को घर की चारदीवारी के बीच छोड़कर इंसानियत की रेल में इंसानों के साथ सुकून की यात्रा करते नजर आएंगे।
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अनिल कुमार पारा,
9893986339
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