उपनाम की उत्पत्ति । किसी ने कहा है कि नाम में क्या रखा है। लेकिन यह मिथ्या है। वास्तव में नाम में बहुत कुछ रखा है। हिंदुस्तान में तो नाम म...
उपनाम की उत्पत्ति।
किसी ने कहा है कि नाम में क्या रखा है। लेकिन यह मिथ्या है। वास्तव में नाम में बहुत कुछ रखा है। हिंदुस्तान में तो नाम में ही इतिहास का डी एन ए जीवित है। ऐसा मुझे तब महसूस हुआ ,जब मैंने लोगों के उपनाम पर गहन दृष्टि डालना शुरू किया था। कर्म प्रधान भारतीय समाज में ,लोगों का व्यवसाय कब उनकी जाति में परिवर्तित हो गई ,यह वास्तव में एक मनोरंजक विषय है।
उनमें से कुछ का वर्णन यहाँ करना सार्थक होगा।
ठक्कुर- देवता का पर्याय {ब्रांहणों [भूसुरों] के लिए भी इसका प्रयोग होता है} अनंत संहिता में इसी अर्थ में यह प्रयुक्त है।
प्रायः विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को ठक्कुर कहते हैं। उच्च वर्ग के क्षत्रिय आदि की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकला है .।
कौल – शाक्तों के वाममार्गी संप्रदाय में कौल एक शाखा है।।इसका आधारभूत साहित्य है कौलोपनिषद तथा परशुराम भार्गव सूत्र। दिव्य ,घोर ,और पशु इन तीन भावों से दिव्य भाव में लीन ब्रम्ह ज्ञानी को कौल कहते हैं।
महानील तंत्र में कथन है कि पशु के मुख से मंत्र प्राप्त कर मनुष्य निश्चय ही पशु रहता है ,वीर से मंत्र पाकर वीर ,और कौल के मुंह से मंत्र पाकर ब्रम्ह ज्ञानी होता है।
उपाध्याय – जिसके पास आकार अध्ययन किया जाता है ,अध्यापक ,वेदपाठक।
नाग – नाग अथवा सर्प पूजा हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। कई जातियों और वंशों ने नाग को अपना धर्म चिन्ह स्वीकार किया है।
नारायण – नारायण अर्थात विष्णु के भक्त या उपासक लोग।
निहंग – सिक्खों कि सिंध शाखा के अकाली ‘निहंग’ भी कहे जाते हैं। वास्तव में यह संस्कृत का ही प्राकृत रूप है,जिसका अर्थ है ,संग अथवा आशक्तिरहित।
त्रिवेदी – तीन वेदों के ज्ञाता। चतुर्वेदी –चार वेदों के ज्ञाता।
कुछ लोग किसी न किसी ऋषि को ही अपना गोत्र मानकर अपने नाम के साथ लगाने लगे हैं। गर्ग ऋषि को अपनाने वाले गर्ग ,पाराशर को मानने वाले।
भार्गव – भृगु के वंशज या गोत्रोत्पन्न।
मण्डल –गोलाकार या कोणकर चक्राशाक्त मतावलंबी रहस्यात्मक यंत्रों तथा मंडलों का प्रयोग करते हैं,जो धातु के पत्रों पर चित्रित या लिखित होते हैं।
महापात्र – महाब्रम्हन भी कहा जाता है ,जो मृतक की शय्या ,वस्त्राभूषण ,तथा एकादशाह का भोजन ग्रहण करते हैं।
माहेश्वर – यह शैव संप्रदाय विशेष की उपाधि है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘महेश्वर’[शिव] का भक्त।
मिश्र-का अर्थ श्रेष्ठ भी होता है।
मुदगल-ऋग्वेद के अनेक भाष्य कारों में एक।
वाजपेय –एक श्रौत यज्ञ ,जो शतपथ ब्रामहन के अनुसार केवल ब्रांहनों या क्षत्रियों द्वारा ही अनुकरणीय है।
वात्स्यायन –वत्स गोत्र और तैत्तिरीय आरण्यक में उद्धृत एक आचार्य।
शांडिल्य- शंड़िल के वंशज।
श्रोत्रिय- श्रुति अथवा वेदअध्ययन करने वाला ब्रांहन।
सारस्वत – सरस्वती देवी या नदी ,या दोनों ,से संबंध रखने वाला ,इस क्षेत्र मेन निवास करने वाले ब्रांहन्न भी सारस्वत कहलाते थे।
ग्लिमप्सेस ऑफ वर्ल्ड हिस्टरी में पंडित नेहरू ने लिखा है “हजरत मुहम्मद को मदीना में मदद करने वाले अंसार{मदद गार} कहलाए ,और उनके वंशज आज भी अंसारी कहलाते हैं।
मोर को पालने वाले मौर्य कहलाते थे।
गौड़ – बंगाल का पुराना नाम है ,गौड़ देश के निवासी ,ब्रांहणों का एक वर्ग कहलाने लगा।
शेष – मुंबई के नापित{नाई} जाति अपने को शेष {अनंत शेष} का वंशज बताते हैं। कई जातियाँ और वंश अपने को नागवंशी कहते हैं ,और नागों की पूजा करते हैं।
हूण- हूण एक हुमक्कड़ जाति के लोग थे ,जो बाहर से आए थे। पंजाबियों में अभी भी हूण उपनाम देखने को मिलता है।
खन्ना –पंजाब के एक गाँव का नाम है ,वहाँ के निवासी इस का प्रयोग करते हैं।
मालवीय –मालवा के होने के कारण पंडित मदन मोहन मालवीय ने इसे अपना उपनाम बना लिया।
झुञ्झूनु के निवासी झुञ्झुन वाला हो गए।
नेहरू –नहर के किनारे रहने के कारण नेहरू नाम पड़ गया।
गंध {सुगंधित पदार्थ} बेचने वाला गांधी।
कपड़ा का व्यापारी कापड़िया कहलाता है।
सेंध मारने का औज़ार बनाने वाला संधावा {ऐसा मैंने हाल में ही एक पंजाबी कहानी में पढ़ा है}
इसी प्रकार राजतंत्र के समय के बहुत सारे पद जाति वाचक बन गए ,खजाना का काम देखने वाला खजांची कहलाया ,और दीवान का पद सम्हालने वाला दीवान।
चित्रा गुप्त के वंशज जो विभिन्न भागों में रोजी रोटी के लिए चले गए ,उनके उपनाम भी भिन्न हो गए ,श्रावस्ती से निकालने वाले श्रीवास्तव ,और मथुरा वाले माथुर {कायस्थों में}
वैद्य का काम करने वाले वैद्य कहलाते रहे।
इस विषय पर और भी तलाश जारी है ,और समय पर इसे पूरा किया जा सकेगा ऐसा उम्मीद भी है ,मगर
यह वास्तव मे कितना महत्व पूर्ण तथ्य है कि प्राचीन काल में ,या मध्य काल में या किसी भी इस वैज्ञानिक [?] काल से पहले के समय में ,उपनाम से न केवल लोगों के वृति का पता चलता था ,बल्कि उनके मूल का भी पता चल जाता था।
अलवार – दक्षिण भारत की उपासक परंपरा से ज्ञात होता है कि अति प्राचीन काल से उस प्रांत में हरी भक्ति का प्रचार था। ये अलवार श्री वैष्णव संप्रदाय के शिक्षक माने जाते हैं।
आंगिरस –यह आंगिरस परिवार की उपाधि है जिसे बहुत से आचार्यों ने ग्रहण किया है।
गिरि- गिरि अथवा पर्वत हिन्दू धर्म में बड़े पवित्र माने गए हैं।
दास –ऋग्वेद में दस्यु के सदृश दासों को भी देवों का शत्रु कहा गया है। मनुस्मृति के अनुसार सात प्रकार के दास होते थे ,युद्ध में बंदी बनाया हुआ ,जीविका के लिए स्वयं समर्पित ,अपने घर में दास से उत्पन्न ,क्रय किया हुआ ,दान में प्राप्त ,उत्तराधिकार में प्राप्त ,और विधि से दंडित।
दीक्षित –यज्ञानुष्ठान की दीक्षा लेने वाला।
पंडित- यह एक विरुद है। पंडित का प्रयोग सर्व प्रथम उपनिषदों में हुआ है। यह विरुद ब्रांहनों और अन्य वर्गों के विद्वानों के नाम के पूर्व लगाने की प्रथा थी।
पुरी- आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित दस नामी सन्यासियों की एक शाखा। कुछ विद्वानों के विचार से ईश्वरपुरी जैसे वैष्णव संतों द्वारा जगन्नाथपुरी में अधिकांश भजन साधन किया गया था ,इसलिए उनका उपनाम पुरी प्रसिद्ध हो गया।
पुरोहित –पुरोहित को पुरोधा भी कहते हैं। इसका प्रथम कार्य किसी राजा या सम्पन्न परिवार का यज्ञ या धार्मिक कार्य सम्पन्न करना होता था।
गोस्वामी – एक धार्मिक व्यक्ति ,जिसने अपनी इंद्रिय पर विजय प्राप्त कर ली हो ,वही वास्तव में गोस्वामी है। गौण रूप से गोस्वामी {गोसाईं} उन गृहस्थों को भी कहते हैं ,जो पुनः विवाह कर लेने वाले विरक्त साधू संतों के वंशज हैं।
वैसे तो प्राचीन धर्म ग्रन्थों के अनुसार सभी ब्रामहन शर्मा {शर्मन्ह} कहलाते हैं मगर उनके उपनाम समय और काल के अनुसार बदलते रहे।
बंगाल के ब्रांहनों के उपनाम वंश या गोत्र पर होता था। लेकिन कुछ नाम आलंकारिक या उपाधि स्वरूप भी होता है ,जैसे चक्रवर्ती ,या भट्टाचार्य।
उड़ीसा में बहुत से नाम काम और जाति सूचक है। आचार्य ,कर ,सबत ,पति ,मिश्र,मूँड, साहू ,द्विवेदी ,त्रिवेदी ,सारंगी ,रथ ,पंडा
सत्पथी ,बेहेरा,पाणिग्रही ,मुनि आदि।
महाराष्ट्र में उपनाम की भरमार है और जरा जरा सा शब्दों के हेर फेर करने से पहचान ही बदल जाती है। वैसे वहाँ पर अत्री ,भारद्वाज ,गर्ग ,कश्यप ,कौंडिल,कौशिक ,जमदग्नि ,शांडिल्य, सावंक ,और वशिष्ठ ,इन 15 ऋषियों के वंशज का उपनाम भोले ,डांगे,करुलकर ,पिंपुटकर ,भटलेकर ,देवधेकर ,भड्साव्ले,तेरेदेसाई ,निंबार्क ,वीरकर ,घोंडसे ,जोशी ,जूनेकर ,मूले,पडवाले ,शितपऔर सोबलकर है। वहाँ भी बहुत से उपनाम उनके मूल निवास स्थान को दर्शाता है। कर्म जो बाद मे पहचान बन गई जैसे माली का उपनाम –अम्बेकर ,अनालंग ,भुजबल ,बोरादे,चौधरी ,हज़ारे ,शिंदे ,लोखण्डे ,मूलेआदि ,यहाँ पर बहुत दुविधा दिखाई पड़ती है यह अपने आप मे एक गहन शोध का सुंदर विषय हैक्योंकि कुछ जातियाँ देशस्थ हैं ,कुछ बाहर से भी आए हैं।
बहुत से उपनाम सुनकर ही पता चल जाता है कि वे देश के किस हिस्से का प्रतिनिधित्व करतेहैं।
जैसे ,लूथरा ,बत्रा ,खत्री ,सूद ,जिंदल ,कपूर ,सचदेव ,चड्ढा ,जौहर ,मल्होत्रा आदि पंजाब के कहलाते हैं।
मलिक,दहिया ,देशवाल ,शौकीन ,बलहारा दवास ,खर्ब आदि हरियाणा के होते हैं।
पाठक ,झा ,सिन्हा ,शाही ,पासवान ,आदि बिहार के होते हैं।एक जगह मैंने देखा कि पासबान का अर्थ चौकीदारी या रखवाली करने वाला होता है।
सिंह ,शर्मा ,चौधरी कहीं के भी हो सकते हैं।
असम में बरुआ ,चौधरी ,दत्ता। लोग गोत्र को भी अपना उपनाम बनाते हैं। अहोम समुदाय के लोग प्राचीन काल के अहोम राजाओं द्वारा दी गई उपाधिओं को भी अपना उपनाम बनाते रहे हैं ,जैसे सैकिया सौ सिपाहियों का कमांडर होता था ,इसी प्रकार एक हजार से ऊपर सैनिक का कमांडर हजारिका होता था।
इसी तरह मंडल शब्द की उत्पत्ति मोरोल से हुई है जिसको गाँव का प्रमुख कहा जाता था। मंडल का संबंध अफ्रीका के मंडेला से भी बताया जाता है।
पेशे ,उपाधियाँ ,मूल स्थान आदि शब्द उपनाम मे प्रायः देश के हर भाग में जुड़ गया था।
गोष्टीपति जो एक पद था ,बाद में घोसाल बना। घोस्ठो – घोस- गोप –सदगोप-यादव ये सभी ग्वाले का काम करते थे।
मुखोती ,संस्कृत में मुखोपध्याय बना जो अंगरेजी में मुखर्जी हुआ। गांगल जो संस्कृत में गंगोपाध्याय ,अंगरेजी में गांगुली कहलाने लगा।
बंदो घाटी के निवासी बरुज्जीए ,जो संस्कृत में बंदोपाध्याय और अंगरेजी में बनर्जी हो गए।
बागची – बागचा गाँव के निवासी हुए।
भादुर गाँव वाले भादुडी ,लोहोरी गाँव के निवासी लाहीड़ी,और मोहित गाँव वाले मोईत्रा।
सन्याल -सेन लाल गाँव के निवासी कहलाए।
कश्मीरी उपनाम ,आग़ा ,दफ्तरी ,काज़ी ,दरबारी ,दुर्रानी ,वज़ीर ,जुत्सी,सोपौरी,राज़दान टिकु,,जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों में प्रचलित है।
राणा ,पटेल ,श्रौफ ,सोनी ,मेहता ,जानी ,मोदी ,देसाई ,पारेख ,मिस्त्री ,भंसाली गुजरात के। वहाँ भी बहुत से व्यापारिक समुदायों का उपनाम उनके व्यवसाय पर आधारित है।
देशपांडे ,कुलकर्णी ,वानखेड़ ,कदम ,पाटिल आदि से महाराष्ट्र का आभास होता है। कहा जाता है कि मराठियों का अंत का नाम और मूल ऐसा दस्तावेज़ है जो सौ वर्ष से पुराना इतिहास की दास्तान कहती है।
कोंकणी नाम –माल्या ,केरकर आदि है। कोंकण के अधिकांश उपनाम पुर्तगाली से आया है। जैसे –फर्नांडीस ,पेरेरा ,शूजा,आदि।
बहुत से रोमन कैथोलिक ब्रामहन जाति धर्मांतरण से पहले का अपना मौलिक उपनाम प्रयोग करते हैं जैसे –शेनोय ,नायक ,पाई ,शेट ,प्रभु ,भट आदि।
आंध्रप्रदेश और तेलंगाना मे रेड्डी ,राजू ,चौधरी ,कुमार ,बाबू ,आदि सामान्य है। जिन परिवारों का नाम पल्ले या पल्ली से समाप्त होता है , वहाँ पर सम्राट अशोक से पहले का जैन समय का द्योतक हैं।
प्रेगाड़े {जैसे कन्नड में हेगड़े }का मतलब मंत्री या वैदिक कर्म पूरा करने वाला होता है।
कर्नाटक में ,राव ,पाटिल ,गौड़ा ,अडिया शेट्टी जैसे उपनाम प्रचलित हैं ,वहीं केरल में मेनन ,नायर ,नाम्बियार ,कुरूप ,पणिकर,आदि हैं।
दक्षिण भारत में लोग अपने पैतृक गौव या शहर का नाम जोड़ लेते हैं ,महिलाएं पिता का नाम।
उधर नाम इस प्रकार से लिखा जाता है ,पिता का नाम +माता का नाम + दिया हुआ नाम ,या गाँव का नाम +पिता का नाम +दिया हुआ नाम। पहले तमिलनाडु में माता का नाम लिखना अनिवार्य नहीं था ,मगर अब यह अनिवार्य कर दिया गया है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जातिवाद को दूर करने के लिए वहाँ के लोग उपनाम नहीं लगाते। खैर,ये सब शोध का विषय है ,जिसका वर्णन यहाँ पर उचित नहीं दिखता।
कुछ उपनाम शिक्षा की उपाधि पर भी निर्भर करता है ,जैसे शास्त्री ,आचार्य , वेदालंकार आदि।
कुछ सुल्तानों ,सम्राटों ने अपने को कुछ अलग नाम से संबोधित करवाया ,जैसे प्रियदर्शी अशोक , शाहजहाँ ,आदि .।
मल्लिका ए तरन्नुम की उपाधि नूरजहाँ {गायिका} को किसी पत्रिका वाले ने दे दिया था। रवींद्र नाथ को अंगरेजों ने टैगोर की उपाधि दे दी थी। मगर ये उपनाम नहीं है ,मात्र व्यक्ति विशेष का अलंकार है मगर टैगोर उनका पारिवारिक नाम बन गया है।
अपने साहित्यिक उपनाम को भी कभी कभी परिवार का उपनाम बना लिया जाता है ,जैसे हरिवंश राय बच्चन ने किया।
वस्तुतः नाम या उपनाम का अध्ययन करना भारतीय इतिहास के महासमन्दर में गोता लगाना है। हर आदमी अपना अतीत जानना चाहता है ,और इससे बढ़ कर और कौन सा दस्तावेज़ हो सकता है भला। तभी तो मौरिशश ,सूरी नाम ,फ़िजी आदि गए लोगों के संतति इसी उपनाम की पुंछ पकड़ कर अपने मूल तक पहुँचने में सफल हुए हैं।
कामिनी कामायनी ॥
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