" रोज़-सबेरे मैं थोड़ा-सा में जी लेता हूँ, क्योंकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ । " नाच एक तनी हुई रस...
"रोज़-सबेरे मैं थोड़ा-सा में जी लेता हूँ,
क्योंकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।"
नाच
एक तनी हुई रस्सी है जिस पर मैं नाचता हूँ
जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
वह दो खम्भों के बीच है।
रस्सी पर मैं जो नाचता हूँ
वह एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक का नाच है।
दो खम्भों के बीच जिस तनी हुई रस्सी पर मैं नाचता हूँ
उस पर तीखी रोशनी पड़ती है
जिसमें लोग मेरा
नाच देखते हैं
न मुझे देखते हैं जो नाचता है
न खम्भों को जिस पर रस्सी तनी है
न रोशनी को ही जिस में नाच दिखता है ः
लोग सिर्फ़ नाच देखते हैं।
पर मैं जो नाचता हूँ
जो जिस रस्सी पर नाचता हूँ
जो जिन खम्भों के बीच है
जिस पर जो रोशनी पड़ती है
उस रोशनी में उन खम्भों के बीच उस रस्सी पर
असल में मैं नाचता नहीं हूँ।
मैं केवल उस खम्भे से इस खम्भे तक दौड़ता हूँ
कि इस या उस खम्भे से रस्सी खोल दूँ
कि तनाव चुके और ढील में मुझे छुट्टी हो जाये-
पर तनाव ढीलता नहीं
और मैं इस खम्भे से उस खम्भे तक दौड़ता हूँ
पर तनाव वैसा ही बना रहता है।
सब कुछ वैसा ही बना रहता है।
और वही मेरा नाच है जिसे सब देखते हैं
मुझे नहीं
रस्सी को नहीं
खम्भे नहीं
रोशनी नहीं
तनाव भी नहीं
देखते हैं-नाच!
आँगन के पार द्वार खुले
आँगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आँगन
भवन के ओर-छोर
सभी मिले-
उन्हीं में कहीं खो गया भवन ः
कौन द्वारी
कौनी आगारी, न जाने,
पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता ने
किया बार-बार पा-लागन।
असाध्य वीणा
आ गये प्रियंवद! केशकम्बली! गुफा-गेह!
राजा ने आसन दिया। कहा ः
“कृतकृत्य हुआ मैं तात! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन को पूरी होगी।”
लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े। लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उस को, हट गये।
सभी की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
प्रियंवद के चेहरे पर।
“यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
-घने वनों में जहाँ तपस्या करते हैं व्रतचारी-
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम ः
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी तरु से इसे गढ़ा था-
उस के कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कन्धों पर बादल सोते थे,
उस की करि-शुंडों-सी डालें
हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उस के वल्कल के कन्धे खुजलाने आते थे।
और-सुना है- जड़ उस की जा पहुँची थी पाताल लोक,
उस की गन्ध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढ़ा
हठ-साधना यही थी उस साधक की-
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।”
राज रुके, साँस लम्बी ले कर फिर बोले ः
“मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सब की विद्या को गयी अकारथ, दर्प चूर ः
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ्र तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
इसे जब सच्चा स्वरसिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह ः
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन-मात्र प्रतीक्षमाण!”
केशकम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुप-चाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर, प्राण खींच,
कर के प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।
धीरे बोला ः “राजन्! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ-
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीट-तरु!
अभिमंत्रित वीणा!
ध्यान मात्र इन का तो गद्गद विह्नल कर देने वाला है!”
चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।
वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा हो कर पराभूत
झुक गया वाद्य पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा -
नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को।
कौन प्रियंवद है कि दम्भ कर
इस अभिमंत्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
भूल गया था केशकम्बली राज-सभा को ः
कम्बल पर अभिमंत्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिस में साक्षी के आगे था
जीवित वही किरीटी-तरु
जिस की जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिस के कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिस के हिमगिरि कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।
“ओ विशाल तरु!
शत-सह� पल्लवन-पतझरों ने जिस का नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों, कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ-सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा-काकलि
डाली-डाली कँपा गयी․․․
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन ध्वनियों के
वृन्दगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् ः
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे!
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को
किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वयं न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रच गये!
“नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद रखी है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
ओ तरु-तात! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय ः
मैं सुनूँ,
गुनूँ,
विस्मय से भर आँकूँ
तेरे अनुभव का एक-एक अन्तःस्वर,
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय-
गा तू ः
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पाय ः
‘गा तू!
यह वीणा रक्खी है ः तेरा अंग-अपंग!
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित
रसविद्
तू गा ः
मेरे अँधियारे अन्तस में आलोक जगा
स्मृति का,
श्रुति का-
तू गा, तू गा, तू गा, तू गा!
“हाँ, मुझे स्मरण है ः
बदली-कौंध-पत्तियों पर वर्षा-बूँदों की पट-पट।
घनी रात में महुए का चुप-चाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलराते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरे में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गडरिये की अनमनी बाँसुरी
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन।
ओस-बूँद की ढरकन इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते मानो
हरसिंगार का फूल बन गयी।
भरे शरद के तल, लहरियों की सरसर ध्वनि।
कूँजों का क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
पंखयुक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनों में गन्ध-अन्ध उन्मद पतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार-पुकारों की यति में
स्मृति की साँय-साँय।
“हाँ, मुझे स्मरण है ः
दूर पहाड़ों से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानो चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की,
रेतीले कगार का गिरना छप्-छड़ाप।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।
ओले की कर्री चपत।
जमे पाले से तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घाम में धीरे-धीरे रिसना।
हिम तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुप-चाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूँज-
काँपती मन्द्र गूँज-अनुगूँज-साँस खोयी-सी, धीरे-धीरे नीरव।
“मुझे स्मरण है
हरी तलहटी में, छोटे पेड़ों की ओट, ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाविध आतुर तृप्त पुकारें ः
गर्जन, घुर्घुर चीख, भूँक, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप।
थाप दादुर की चकित छलाँगों की।
पंथी के घोड़े की टाप अधीर।
अचंचल धीर धाप भैंसों के भारी खुर की।
“मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस बूँद को -
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्या झूमती करती है गुँजार -
उस लम्बे बिलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी
स्पर्शहीन झरती है -
मानो नभ में तरल-नयन ठिठकी
निःसंख्य सवत्सा युवती माताओं के आशीर्वाद -
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।
“मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजडि़त करता है मुझ को।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझ को मुझ से सोख -
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ।․․․
मुझे स्मरण है -
पर मुझ को मैं भूल गया हूँ। सुनता हूँ मैं -
पर मैं मुझ से परे, शब्द में लीयमान।
“मैं नहीं, नहीं! मैं कहीं नहीं!
ओ रे तरु! ओ वन!
ओ स्वर-सम्भार!
नादमय स्मृति!
ओ रस-प्लावन!
मुझे क्षमा कर - भूल अकिंचनता को मेरी -
मुझे ओट दे - ढँक ले - छा ले -
ओ शरण्य!
मेरे गूँगेपन को तेरे सोय स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले!
आ, मुझे भुला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा -
अपने खग-कुल को मुखरित कर
अपनी छाया में पले मृगों की चौकडि़यों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छन्दयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे!
तू गा, तू गा -
तू सन्निधि पा-तू खो
तू आ- तू हो- तू गा! तू गा!”
राजा जागे।
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था -
काँपी थीं उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानों जाग उठी थी वीणा ः
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे-धीरे-धीरे
डाल रहा था जाल हेम-तारों का।
सहसा वीणा झनझना उठी
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघलती ज्वाला-सी झलक गयी -
रोमांच एक बिजली-सा सब के तन में दौड़ गया।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिस में सोता है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय।
डूब गये सब एक साथ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।
राजा ने अलग सुना ः
जय देवी यशःकाय
वरमाला लिये
गाती थी मंगल-गीत,
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,
राजमुकुट सहसा हल्का हो आया था मानो हो फूल सिरिस का।
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झर गये, निखर आया था जीवन-काँचन।
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा।
रानी ने अलग सुना ः
छँटती बदली में एक कौंध कह गयी -
तुम्हारे ये मणि-माणक, कंठहार, पट वस्त्र,
मेखला-किंकिणि -
सब अंधकार के कण हैं ये। आलोक एक है
प्यार अनन्य! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को
थिरक उसी की छाती पर, उस में छिप कर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी।
सब ने भी अलग-अलग संगीत सुना।
इस को
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का -
उस को
आतंक-मुक्ति का आश्वासन ः
इस को
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक -
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सौंधी खुदबुद।
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी।
एक किसी को जाल फँसी मछली की तड़पन -
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिडि़या की।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल, ग्राहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ
चौथे को मन्दिर की तालयुक्त घंटा-ध्वनि,
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठे को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक।
बटिया पर चमरौंधे की रुँधी चाप सातवें के लिए -
और आठवें को कुलिया की कटी मेड़ से बहते जल की छुलछुल।
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की -
उसे युद्ध का ढोल ः
इसे संझा गोधूलि की लघु टुन-टुन
इसे प्रलय का डमरु-नाद।
इस को जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उस को महाजृम्भ विकराल काल!
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे -
हो रहे वशंवद, स्तब्ध ः
इयत्ता सब की अलग-अलग जागी,
सन्धीत हुई,
पा गयी विलग।
वीणा फिर मूक हो गयी।
“साधु! साधु!”
राजा सिंहासन से उतरे-
रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,
जनता विह्नल कह उठी, “धन्य!
हे स्वरजित्! धन्य! धन्य! धन्य!”
संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक-मानो
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाय, दीप से दुलराती-
उठ खड़ा हुआ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला ः
“श्रेय नहीं कुछ मेरा ः
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में -
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब-कुछ को सौंप दिया था।
सुना आप ने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था ः
वह तो सब-कुछ की तथता थी।
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय,
जो शब्दहीन
सब में गाता है।”
नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। ले कर कम्बल
गेह-गुफा को चला गया।
उठ गयी सभा। सब अपने-अपने काम लगे।
युग पलट गया।
प्रिय पाठक! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई।
संध्या-संकल्प
यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिमिरमयी को ः
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।
क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इसलिए साँझ को नश्वरता से नहीं बाँधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म ः
यह लोकालय में
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
;अनुभव के सोपान!द्ध
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव-
इतना-भर मेरा एकांत निजी है-
मेरा अर्जित ः
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग-सत्य!
मैं तुम्हें।
ऐसे तो हैं अनेक
जिन के द्वारा
मैं जिया गया,
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।
आह, यह विस्मय!
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतःप्रेरित
मैंने संकल्प किया।
चुप-चाप
चुप-चाप चुप-चाप
झरने का स्वर
हम में भर जाय,
चुप-चाप चुप-चाप
शरद की चाँदनी
झील की लहरों पर तिर आय,
चुप-चाप चुप-चाप
जीवन का रहस्य
जो कहा न जाय, हमारी
ठहरी आँखों में गहराय,
चुप-चाप चुप-चाप
हम पुलकित विराट में डूबें
पर विराट हम में मिल जाय-
चुप-चाप चुप-चाऽऽप․․․
सोन-मछली
हम निहारते रूप,
काँच के पीछे
हाँप रही है मछली।
रूप-तृषा भी
;और काँच के पीछेद्ध
है जिजीविषा।
धूप
सूप-सूप भर
धूप-कनक
यह सूने नभ में गयी बिखर।
चौंधाया
बीन रहा है
उसे अकेला एक कुरर।
पहाड़ी यात्रा
मेरे घोड़े की टाप
चौखट जड़ती जाती है
आगे के नदी-व्योम, घाटी-पर्वत के आस-पास ः
मैं एक चित्र में
लिखा गया-सा आगे बढ़ता जाता हूँ।
खुल गयी नाव
खुल गयी नाव
घिर आयी संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे।
धुँधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मँडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।
तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे।
योगफल
सुखा मिला ः
उसे हम कह न सके।
दुख हुआ ः
उसे हम सह न सके।
संस्पर्श वृहत् का उतरा सुरसरि-सा ः
हम बह न सके।
यों बीत गया सब ः हम मरे नहीं, पर हाय! कदाचित!
जीवित भी हम रह न सके।
सर्जना के क्षण
एक क्षण-भर और
रहने दो मुझे अभिभूत ः
फिर जहाँ मैंने सँजो कर और भी सब रखी हैं
ज्योतिः शिखाएँ
वहीं तुम भी चली जाना
शांत तेजोरूप।
एक क्षण-भर और ः
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते।
बूँद स्वाती की भले हो
बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिस से फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में
बरस पर बरस बीतें
एक मुक्ता-रूप को पकते।
शब्द और सत्य
यह नहीं कि मैंने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता हैः
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है ः
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उनके अनदेखे
उसमें सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ?
कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है ः
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ -
दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।
औद्यौगिक बस्ती
पहाडि़यों से घिरी हुई इस छोटी-सी घाटी में
ये मुँहझौंसी चिमनियाँ बराबर
धुआँ उगलती जाती हैं।
भीतर जलते लाल धातु के साथ
कमकरों की दुःसाध्य विषमताएँ भी
तप्त उबलती जाती हैं।
बँधी लीक पर रेलें लादे माल
चिहुँकती और रँभाती अफराये डाँगर-सी
ठिलती चलती जाती हैं।
उद्यम की कड़ी-कड़ी में बँधते जाते मुक्तिकाम
मानव की आशाएँ ही पल-पल
उस को छलती जाती है।
रात में गाँव
झींगुरों की लोरियाँ
सुला गयी थीं गाँव को,
झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं
धीमे-धीमे
उजली कपासी धूम-डोरियाँ।
हवाई यात्रा ः ऊँची उड़ान
यह ऊपर आकाश नहीं, है
रूपहीन आलोक मात्र। हम अचल-पंख
तिरते जाते हैं
भार-मुक्त।
नीचे यह ताजी धुनी रुई की उजली
बादल-सेज बिछी है
स्वप्न-मसृण
या यहाँ हमीं अपना सपना हैं?
लेकिन उतरो ः
इसी झीनी चादर में है जो घुटन, भेद कर आओ ः
दीखीं क्या वे दूर लकीरें
धुँधली छायाएँ- कुछ काली, कुछ चमकीली,
मुग्धकरी कुछ, कुछ लहरीली?
होती मूर्त्त्ा महानगरी है
संसृति के अवतंस मनुज की कृति वह
अविश्राम उद्यम की कीर्ति-पताका!
उतरो थोड़ा और
घनी कुछ हो आने दो
रासायनिक धुन्ध के इस चीकट कम्बल की नयी घुटन कोः
मानव का समूह-जीवन इस झिल्ली में ही पनप रहा है!
उतरो
थोड़ा और
धरा पर।
हाँ, वह देखा?
लगते ही आघात ठोस धरती का
धमनी में भारी हो आया मानव-रक्त और कानों में
गूँजा सन्नाटा स्मृति का!
उतरो थोड़ा और ः
साँस ले गहरी
अपने उड़न-खटोले की खिड़की को खोलो
और पैर रक्खो मिट्टी पर ः
खड़ा मिलेगा
वहाँ सामने तुम को
अनपेक्षित प्रतिरूप तुम्हारा
नर, जिस की अनझिप आँखों में नारायण की व्यथा भरी है!
उड़ चल, हारिल
उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका।
ऊषा जाग उठी प्राची में-
कैसी बाट, भरोसा किन का!
शक्ति रहे तेरे हाथों में-
छुट न जाय यह चाह सृजन की,
शक्ति रहे तेरे हाथों में-
रुक न जाय यह गति जीवन की!
ऊपर-ऊपर-ऊपर-ऊपर
बढ़ा चीरता चल दिङ्मंडल ः
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!
तिनका? तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन -
तिनका? तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पन्दन!
काँप न, यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है,
रुक न, यदपि उपहास जगत् का
तुझ को पथ से हेर रहा हैऋ
तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है,
तू था सृष्टि, किन्तु स्रष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है!
मिट्टी निश्चय है यथार्थ, पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?
आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज-दंड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!
मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं हैऋ
जीवन-साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!
तिनका पथ की धूल, स्वयं तू
है अनन्त की पावन धूली -
किन्तु आज तू ने नभ-पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!
ऊषा जाग उठी प्राची में -
आवाहन यह नूतन दिन का ः
उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!
मैं वह धनु हूँ
मैं वह धनु हूँ, जिसे साधने
में प्रत्यंचा टूट गयी है।
स्खलित हुआ है बाण, यदपि ध्वनि
दिग्दिगन्त में फूट गयी है -
प्रलय-स्वर है वह, या है बस
मेरी लज्जाजनक पराजय,
या कि सफलता! कौन कहेगा
क्या उस में है विधि का आशय!
क्या मेरे कर्मों का संचय
मुझ को चिन्ता छूट गयी है -
मैं बस जानूँ, मैं धनु हूँ, जिस
की प्रत्यंचा टूट गयी है!
सम्राज्ञी का नैवेद्य-दान1
हे महाबुद्ध!
मैं मन्दिर में आयी हूँ
रीते हाथ ः
फूल मैं ला न सकी।
औरों का संग्रह
तेरे योग्य न होता।
और जो मुझे सुनाती
जीवन के विह्नल सुख-क्षण का गीत -
खोलती रूप-जगत के द्वार, जहाँ
तेरी करुणा
बुनती रहती है
भव के सपनों, क्षण के आनन्दों के
रहःसूत्र अविराम -
उस भोली मुग्धा को
कँपती
डाली से विलगा न सकी।
जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,
जो फल जहाँ है,
जो भी सुख
जिस भी डाली पर
हुआ पल्लवित, पुलकित,
मैं उसे वहीं पर
अक्षत, अनाघ्रात, अस्पृष्ट, अनाविल,
हे महाबुद्ध!
अर्पित करती हूँ तुझे।
वहीं-वहीं प्रत्येक भरे प्याला जीवन का,
वहीं-वहीं नैवेद्य चढ़ा
अपने सुन्दर आनन्द-निमिष का,
तेरा हो
हे विगतागत के, वर्तमान के पद्मकोश!
हे महाबुद्ध।
पानी बरसा
ओ पिया, पानी बरसा!
घास हरी हुलसानी
मानिक के झूमर-सी झूमी मधुमालती
झर पड़े जीते पीत अमलतास
चातकी की वेदना बिरानी।
बादलों का हाशिया है आस-पास
बीच लिखी पाँत काली बिजली की
कूँजों की डार - कि असाढ़ की निशानी!
ओ पिया, पानी!
मेरा हिया हरसा।
खड़ खड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।
देखने को आँखें, घेरने को बाँहें,
पुरानी कहानी!
ओठ को ओठ, वक्ष को वक्ष -
ओ पिया, पानी!
मेरा जिया तरसा।
ओ पिया, पानी बरसा!
पराजय है याद
भोर बेला- नदी तट की घंटियों का नाद।
चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
नहीं, मुझको नहीं अपने दर्द का अभियान-
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद!
दूर्वाचल
पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।
मैंने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-पुनः आऊँगा।
;भले ही बरस दिन-अनगिन युगों के बाद!द्ध
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
‘अरे यायावर, रहेगा याद?'
साँप
साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ- ;उत्तर दोगे?द्ध
तब कैसे सीखा डँसना -
विष कहाँ पाया?
इतिहास की हवा
झरोखे में से बहती हवा का एक झोंका
इतराता आता है
और इतिहास के पन्नों को उड़ाता हुआ चला जाता है।
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी
झरोखे से झरी हुई
बिल्लौर-सी जम जाती है।
जमी हुई चाँदनी के झलमलाते ताजमहल के नीचे
बागडि़यों के झोंपड़ों के छप्पर उभर आते हैं
जिनके खर के आरी-सरीखे किनारे मानों आँखों की कोरों को चीर जाते हैं -
और छप्पर की छत पर बैठी एक भैंस पागुर कर रही है।
इतिहास के पन्नों पर पगुराती हुई भैंस की आँखों में
इतिहास के और पन्ने हैं
और उन में इतराती हुई बहकी हवाओं के दूसरे झोंके।
बागडि़यों के झोंपड़ों से झाँकते हैं जाने कितने चापहीन एकलव्य ः
भैंस की आँखें मानो द्रोण की मिट्टी की मूरतें हैं।
ताजमहल के शिल्पियों के हाथ कटवा दिये गये थे,
द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अँगूठा माँग लिया था,
अभिनव द्रोण किन्तु कहता है ः
‘वत्स, वीर,
धरो चाप, साधो तीर,
धरती को विद्ध करो -
अमृत-सा कूप जल यहीं फूट निकले!'
और फिर चुपके से एकलव्य के नये कुएँ में भाँग डाल देता है।
;एकलव्य एक है
और आज आस्था भी उस में क्या जाने कम हो -
क्या जाने वह अँगूठा भी दे न दे -
पर कुएँ का पानी तो सारा समाज पियेगा!द्ध
असंख्य झोंपडि़यों से असंख्य बागडि़ये एकलव्य
आते हैं, कमान तानते हैं, तीर साधते हैं,
कुएँ से पानी पीते हैं,
और फिर कहते हैं ः ‘धन्य, धन्य, गुरुदेव,
आपने अँगूठा नहीं माँगा जो ः
पितरों को नहीं तो हम क्या दिखाते?
लीजिए ः हमारे संस्कार हम देते हैं,
पुरखों के झोंपड़ों में आग हम लगाते हैं,
घर-घर का भेद हम लाते हैं।
अपने को पराया-नहीं, आप का! - बनाते हैं,
तनु हमें छोडि़ए, मन आप लीजिए,
आत्मा तो होती ही नहीं, धनु हमें दीजिए।
दिग्बोध हम मिटा देंगे, दिग्विजय आप कीजिए।'
द्रोणाचार्य आँखों में भाँग भर
झोंपड़े से ऊँचा उठाते हैं वरद कर,
भैंस भाँग खाती है
और सारे एकलव्य
उसकी आँखों में समा जाते हैं।
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
बिल्लौर-सी जम जाती है ः
बिल्लौर-सी, जिस में पहाड़ी झील का अपलक पानी है,
नभ की ओर उठी हिमालय की अपलक गीली आँख का
जिस में मुनिवृन्द तपस्या में रत हैं
और उन की पोष्य राज-हंसावलियाँ अविराम
नीर-क्षीर विविक्त करती विचरती हैं।
नहीं नहीं नहीं! ये हंसावलियाँ नहीं, ये ब्रह्मपुत्र को मछलियाँ हैं
जिन्हें चीनी सिपाहियों ने डायनामाइट लगा कर सन्न कर दिया है ः
ये हजारों मछलियों की चिट्टी-चिट्टी पेटियाँ हैं जो धीरे-धीरे
प्राणहीन होकर फूल जायेंगी
क्योंकि सिपाहियों को एक-आध मछली की भूख थी!
नहीं नहीं नहीं! ये हजारों मछलियों की हजारों उलटी हुई चिट्टी पेटियाँ
बिकिनी से बह कर आयी हुई प्रशान्त सागर की सम्पदा है
जिसे अमरीकियों ने विस्फोटित अणु की विकिरित शक्ति से दूषित कर दिया है!
ये हंसावलियाँ
नीर-क्षीर नहीं
अन्तहीन सागर में विष-वमन कर रही है!
भैंस की आँखें
पहाड़ी झील का अपलक पानी
हंसावलियाँ
मछलियाँ
इतिहास के धुँधुआते छप्परों और उड़ते हुए पन्नों पर
टाँके गये बिम्ब, प्रतीक, रूपक, संकेत!
क्योंकि ये झुंड के झुंड चिट्टे-चिट्टे गाले
वास्तव में हमारे उन किशोर शिक्षार्थी बालकों के विश्वास-भरे
चमकते चेहरों की
सहसा विजडि़त हो गयी आँखें हैं
जिनके नैतिक मान हमने आधुनिकता के विस्फोट में उड़ा दिये
और जिनके शिक्षा-�ोत हमने वशातीत विषों से दूषित कर दिये हैं।
क्या यह फूटा अणु
हमारा व्यक्तित्व है
हमारी आत्मा
हमारी इयत्ता है?
;3द्ध
झरोखे में से बहकी हवा का एक झोंका
इतराता हुआ आता है
और इतिहास के पन्नों को उड़ाता बिखेरता चला जाता है।
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी
झरोखे से झरती हुई
जम जाती है ः वह एक स्फटिक का मुकुर है
जिसमें मैं अपना चेहरा देख सकता हूँ।
मेरे चेहरे में बागडि़यों के झोपड़ों से झाँकता है एकलव्य,
द्रोणाचार्य अभिसन्धि करते हैं
मुनियों की व्याजहीन आँखों में
पोष्य राज-हंस-माला नीर-क्षीर करती है
लाख-लाख मछलियाँ पेटियाँ उलट कर दम तोड़ देती हैं ः
मेरे चेहरे में भोले बालकों का भवितव्य का विश्वास है।
स्फटिक के मुकुर में मैं अपना चेहरा देख सकता हूँ ः
लेकिन क्या वह चेहरा माँगा हुआ चेहरा है
और क्या मुझे लौटा देना होगा?
क्या जीवन-पिंड और कीड़े-मकौड़े, केचुए-केंकड़े,
विषैले-वनैले हिं� जन्तु से मानव तक की विकास-परम्परा
माँगी हुई है और मुझे लौटा देनी होगी?
क्या यह भोले बालकों के भवितव्य का विश्वास माँगा हुआ विश्वास है?
क्या यह इतिहास माँगा हुआ इतिहास है
क्या यह विवेक का मुकुर भी माँगा हुआ मुकुर है
और क्या यह मुझे लौटा देना होगा
इससे पहले कि वह टूट जाय?
मुकुर उत्तर नहीं देता ः
न दे, मुकुर उत्तरदायी नहीं है
इतिहास उत्तर नहीं देता, इतिहास भी उत्तरदायी नहीं है ः
परम्परा भी उत्तरदायी नहीं है
पर झरोखे में से इतराता आता हुआ
बहकी हवा का झोंका पूछता है ः
मैं, क्या मैं भी उत्तरदायी नहीं हूँ?
इतिहास के प्रति
चेहरे के प्रति
परम्परा के प्रति
बालकों के भवितव्य के भोले विश्वास के प्रति
क्या मैं उत्तरदायी नहीं हूँ?
कतनी पूनो
छिटक रही है चाँदनी,
मदमाती, उन्मादिनी,
कलगी-मौर सजाव ले
कास हुए हैं बावले,
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गयी फलाँगती -
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती!
कुहरा झीना और महीन,
झर-झर पड़े अकासनीमऋ
उजली-लालिम मालती
गन्ध के डोरे डालतीऋ
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की -
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुई चकोर की!
क्वाँर की बयार
इतराया यह और ज्वार का
क्वाँर की बयार चली,
शशि गगन पार हँसे न हँसे -
शेफाली आँसू ढार चली!
नभ में रवहीन दीन -
बगुलों की डार चलीऋ
मन की सब अनकही रही -
पर मैं बात हार चली!
सरस्वती -पुत्र
मन्दिर के भीतर वे सब धुले पुँछे, उघड़े-अवलिप्त,
खुले गले से
मुखर स्वरों में
अति-प्रगल्भ
गाते जाते थे राम-नाम।
भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन जल्पक,
निर्बोध, अयाने, नाटे
पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
बाहर वह
खोया-पाया, मैला-उजला
दिन-दिन होता जाता वयस्क,
दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
सुस्पष्ट देखता जाता थाऋ
पहचान रहा था रूप,
पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
पर दिन-दिन अधिकाधिक कहलाता थाऋ
दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।
जितना तुम्हारा सच है
1
कहा सागर ने ः चुप रहो!
मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ, अपनी मर्यादा तुम सहो।
जिसे बाँध तुम नहीं सकते
उसमें अखिन्न मन बहो।
मौन भी अभिव्यंजना है ः जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
कहा नदी ने भी ः नहीं, मत बोलो,
तुम्हारी आँखों की ज्योति से अधिक है चौंध जिस रूप की
उस का अवगुण्ठन मत खोलो
दीठ से टोह कर नहीं, मन के उन्मेष से
उसे जानो ः उसे पकड़ो मत, उसी के हो लो,
कहा आकाश ने भी ः नहीं, शब्द मत चाहो
दाता की स्पद्धार् हो जहाँ, मन होता है मँगते का।
दे सकते हैं वही जो चुप, झुक कर ले लेते हैं।
आकांक्षा इतनी है, साधना भी लाये हो?
तुम नहीं व्याप सकते, तुम में जो व्यापा है
उसी को निबाहो।
2
यही कहा पर्वत ने, यही घन वन ने,
यही बोला झरना, यों कहा सुमन ने,
तितलियाँ, पतंगे, मोर और हिरने,
यही बोले सारस, ताल, खेत, कुएँ, झरने।
नगर के राजपथ, चौबारे, अटारियाँ,
चीखती चिल्लाती हुई दौड़ती जनाकुल गाडि़याँ।
अग जग एकमत! मैं भी सहमत हूँ।
मौन, नत हूँ।
तब कहता है फूल ः अरे, तुम मेरे हो।
वन कहता है ः वाह, तुम मेरे मित्र हो।
नदी का उलाहना है ः अरे, तुम मेरे हो।
वन कहता है ः वाह, तुम मेरे मित्र हो।
नदी का उलाहना है ः मुझे भूल जाओगे?
और भीड़ भरे राजपथ का ः बड़े तुम विचित्र हो!
सभी के अस्पष्ट समवेत को
अर्थ देता कहता है नभ ः मैंने प्राण तुम्हें दिये हैं,
आकार तुम्हें दिया है, स्वयं भले में शून्य हूँ।
हम सब सबकुछ, अपना, तुम्हारा, दोनों दे रहे हैं तुमको
अनुक्षणऋ
अरे ओ क्षुद्र मन!
और तुम हमको एक अपनी वाणी भी
सौंप नहीं सकते?
सौंपता हूँ।
घर
1
मेरा घर
दो दरवाज़ों को जोड़ता
एक घेरा है
मेरा घर
दो दरवाज़ों के बीच है
उसमें
किधर से भी झाँको
तुम दरवाज़े से बाहर देख रहे होगे
तुम्हें पार का दृश्य दीख जायेगा
घर नहीं दीखेगा।
मैं ही मेरा घर हूँ।
मेरे घर में कोई नहीं रहता।
मैं भी क्या
मेरे घर में रहता हूँ
मेरे घर में
जिधर से भी झाँको․․․
2
तुम्हारा घर
वहाँ है
जहाँ सड़क समाप्त होती है
पर मुझे जब
सड़क पर चलते ही जाना है
तब वह समाप्त कहाँ होती है?
तुम्हारा घर․․․
3
दूसरों के घर
भीतर की ओर खुलते हैं।
रहस्यों की ओर
जिन रहस्यों को वे खोलते नहीं
शहरों में होते हैं
दूसरों के घर
दूसरों के घरों में
दूसरों के घर
दूसरों के घर हैं।
4
घर
हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं
घर की बातें
सबकी अपनी हैं
घर की बातें
कोई किसी से नहीं करता
जिनकी बातें होती हैं
वे घर नहीं हैं।
5
घर
मेरा कोई है नहीं
घर मुझे चाहिएऋ
घर के भीतर प्रकाश हो
इसकी भी मुझे चिन्ता नहीं हैऋ
प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो
इसी की मुझे तलाश है।
ऐसा कोई घर आपने देखा है?
हमने पौधे से कहा
हम ने पौधे से कहा
मित्र, हमें फूल दो।
उस की फुनगी में चिनगियां दो फूटीं
डाली से उस ने फुलझड़ी छोड़ दीः
हम मुग्ध देखते रहे
कि कब कली फूटे-
कि कायश्री उस की समीरण में झूम गयी,
हमें जान पड़ा, कहीं गन्ध की फुहारें झर रही हैं
और देखा सहसाः
लच्छा-सा डोंडियों का
गुच्छा एक फूल का।
हम मुग्ध ताका किये।
किन्तु हम जो देखते थे
क्या वह निर्माण था?
गुच्छे हम नोच लें
परन्तु
वही क्या सृष्टि है?
मिट्टी के नीचे
जहां एक बुदबुदाता अन्धकार था
कीड़े आंख-ओट कुलबुलाते थे,
रिसता था जिसकी नस-नस में
मैल किस-किस का और कब-कब का
;काल की तो सीमा नहीं
देश की अगर हो
हम नहीं जानतेः
और मैल दोनों का�
सीमाहीन काल का, व्यासहीन देश का�
माटी में रिसता है, मिसता है,
सोखता ही रहता हैद्ध�
मिट्टी के नीचे
बुदबुदाते अन्धकार में
पौधे की जड़ क्रियमाण थीः
पौधे का हाथ? आंख?
जीभ? त्वचा?
पौधे का बोध? प्राण?
चेतना?
मिट्टी के नीचे क्रियामाण थी
पौधे की जड़ः
सृष्टि-शक्ति
आद्य मातृका।
ऊपर वह हँसता-सिहरता था
और हम देख-देख खिलते
विहरते थे
किन्तु वह अनुपल, अनुक्षण
और, और गहरे
टोहता था बुदबुदाते उस अन्धकार मेःं
सड़ा दे दो
गला दे दो
पचा दे दो
कचरा दो राख दो अशुच दो उच्छिष्ट दो�
वह तो है सृजन-रत
उसे सब रस है।
उसे सब रस है
और इस हेतु ;हम जानें या न जानें यहद्ध
हमें सारे फूल हैं,
घास-फूस, डाल-पात,
लता-क्षुप
औषधि-वनस्पति, द्रुमाली,
रूप-सत्य, रस-सत्य, गन्ध-सत्य,
रूप-शिव।
मित्र, हमें फूल दोष्�
हम ने पौधे से कहा।
हम ने फिर कवि से भी कहा ः
बन्धु, हमें काव्य दो।
किन्तु तुम ;नभचारी!द्ध मिट्टी की ओर मत देखना,
किन्तु तुम ;गतिशील!द्ध जड़ें मत छोड़ना,
किन्तु तुम ;प्रकाश-सुत!द्ध टोहना न कभी अन्धकार को
किन्तु तुम ;रससिद्ध!द्ध कर्दम से नाता मत जोड़ना,
किन्तु तुम ;ओ स्वयम्भू!द्ध पुष्टि की अपेक्षा मत रखना!
गहरे न जाना कहीं
आंचल बचाना सदा,
दामन हमेशा पाक रखना,
पंकज-सा पंक में
कंज-पत्र में सलिल-सा
तुहिन की बूंद में प्रकम्प हेम-शिरा-सा
असम्पृक्त रहना।
धाक रखना
लाज रखना नाम रखना
नाक रखना।
बन्धु, हमें काव्य दो,
सुन्दर दो, शिव दो, सार-सत्य दो
किन्तु किन्तु
किन्तु किन्तु
किन्तु किन्तु�
हम ने कवि से कहा।
तुम सोये
तुम सोये
नींद में
अधमुँदे हाथ
सहसा हुए
कँपने को
कँपने में
और जकड़े
मानो किसी
अपने को
पकड़े
कौन दीखा
सपने में
कहाँ खोये
तुम किस के साथ
अधमुँदे हाथ
नींद में
तुम सोये।
चाँदनी जी लो
शरद चाँदनी
बरसी
अँजुरी भर कर पी लो
ऊँघ रहे हैं तारे
सिहरी सरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते
अनझिप
क्षण में
तुम भी जी लो।
सींच रही है ओस
हमारे गाने
घने कुहासे में
झिपते
चेहरे पहचाने
खम्भों पर बत्तियाँ
खड़ी हैं, सीठी
ठिठक गये हैं मानों
पल-छिन
आने-जाने
उठी ललक
हिय उमगा
अनकहनी
अलसानी
जगी लालसा
मीठी,
खड़े रही ढिंग
गहो हाथ
पाहुन मन-भाने,
ओ प्रिय रही साथ
भर-भर कर अँजुरी
पी लो
बरसी
शरद चाँदनी
मेरा
अन्तः स्पन्दन
तुम भी क्षण-क्षण जी लो!
खुल गयी नाव
खुल गयी नाव
घिर आयी संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे।
धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मँडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।
तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपी
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे।
कई नगर थे जो हमें
कई नगर थे
जो हमें देखने थे।
जिन के बारे में पहले पुस्तकों में पढ़कर
उन्हें परिचित बना लिया था
और फिर अखबारों में पढ़ कर
जिन से फिर अनजान हो गये थे।
पर वे सब शहर�
सुन्दर, मनोरम, पहचाने
पराये, आतंक-भरे�
रात की उड़ान में
अनदेखे पार हो गये।
कहाँ हैं वे नगर? वे हैं भी?
हवाई अड्डों से निकलते यात्रियों के चेहरों में
उन की छायाएँ हैं ः
वह ः जिस के टोप और अख़बार के बीच से भव दीखता है�
इस की आँखों में एक नगर की मुर्दा आबादी हैऋ
यह�जो अनिच्छुक धीरे हाथों से
अपना झोला
दिखाने के लिए खोल रहा है,
उस की उँगलियों के गट्टों में
और एक नगर के खँडहर हैं।
और यह�जिस की आँखें
सब की आँखों से टकराती हैं, पर जिस की दीठ
किसी से मिलती नहीं, उस का चेहरा
और एक किलेबन्द शहर का पहरे-घिरा परकोटा है।
सूर्यास्त
धूप
�माँ की हँसी के प्रतिबिम्ब-सी शिशु-वदन पर �
हुई भासित
नये चीड़ों से कँटीली पार की गिरि-�ाृंखला पर ः
गीति ः
मन पर वेदना के बिना
तर्कातीत, बस स्वीकार से ही सिहर कर
बोला ः
‘नहीं, फिर आना नहीं होगा।'
साँझ-सबेरे
रोज़-सबेरे मैं थोड़ा-सा में जी लेता हूँ�
क्योंकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।
--
सचमुच अद्भुत विद्वत्ता से भरपूर उनकी कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे एक पहाड़ी नदी अपने पूरे यौवन से निर्झर कल कल करती बह रही है मात्राओं परग्राफों सरीखे कृत्तिम बंधनों से मुक्त.. हाँ कविता सही मानो में इसे ही कहते हैं उनकी कविताएँ लम्बी और रेपीटीसीसनो के बावजूद जीवंत है. उनकी वीणा वाली कविता को पढने के लिए बहुत धीरज चाहिये पर वोह ही सर्वश्रेष्ट भी है कवि को मेरा शत शत प्रणाम और नमन
जवाब देंहटाएंअसाध्य वीणा : जीवन को जित जीवंत करती बहुत ही सुन्दर रचना | बधाई
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