विजय वर्मा अभावों के दिन दिन सुहाने थे कितने अभावों के दिन , आत्मीयता भरे उन स्वभावों के दिन। माना कि इतनी समृद्धि नहीं थी , प...
विजय वर्मा
अभावों के दिन
दिन सुहाने थे कितने
अभावों के दिन ,
आत्मीयता भरे उन
स्वभावों के दिन।
माना कि इतनी
समृद्धि नहीं थी ,
पर दिलों में किसी के
कुटिल बुद्धि नहीं थी,
हाँ ! सच है पास बड़ी
कोई उपलब्धि नहीं थी
पर बेफिक्री के थे वे
अपने गाँवों के दिन।
दिन सुहाने थे कितने
अभावों के दिन।
झमाझम बरसता
बारिश का पानी ,
उसे घेरकर ,रोक
लेने की नादानी ,
तैराते हुए रंग-बिरंगे
कागज़ के नॉंवों के दिन।
दिन सुहाने थे कितने
अभावों के दिन।
सुहानी -सी सुबह
रोज़मर्रा की बातें ,
कभी की फाकामस्ती
पर न किसी को बताते ,
चन्दन-सी चाँदनी
गर्म हवाओं के दिन।
गिरते पीपल के पत्तें
नीम-छाँवों के दिन।
दिन सुहाने थे कितने
अभावों के दिन।
पूरे मोहल्ले के बच्चें
थे प्यारे सभी को ,
बिना भेदभाव के थे
दुलारे सभी को।
कभी उनका लड़ पड़ना
कभी खुद मान जाना ,
रोज़ लगते,रोज़ सूखते
घावों के दिन।
दिन सुहाने थे कितने
अभावों के दिन।
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.lab]
vijayvermavijay560@gmail.com
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राम शरण महर्जन
मजबूरियां
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मजबूरियां
मरने भी नहीं देता
गोटी बनाता |१|
आत्मीय रिश्ता
भीख मांगे जुबान
कैसा ये बिंदी |२|
दिल काँपता
पास है तो अपना
उडूं तो कैसे ? |३|
आँख मोड़ता
बडोंका बड़े मुखौटा
गलेका फंदा |४|
सदा की जल्दी
कुछ भी ना बदला
चूहे की दौड़ |५ |
किसी से आस
वक्त रुकता नहीं
बिगड़ा काम |६ |
--.
कल का घाव
गहरी निद्रा
ठंडी हवा के स्पर्श
बिखरते सपने
रात है बाकी
चलते बनें निद्रा
आँख खोले स्मृतियाँ
उठ न सका
सन्नाटा में कैद
सूरज के प्रतीक्षा
मुश्किल घड़ी
इंतज़ार करना
जीवन संवारना
खुल्ला आकाश
अनगिनत रास्ता
दुविधाग्रस्त मन
कल का घाव
रास्ता खोला अपना
निपटा अड़चनें
शांति का श्वास
प्रयासोंका अंजाम
उल्लास भरे दिन |
राम शरण महर्जन
कीर्तिपुर, काठमांडू
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मीनाक्षी भालेराव
जिस्म से तो
तूने हमें
इन्सान
बना दिया ।
पर वफ़ादार
तुमने
कुत्ते को बना
दिया
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भूपेन्द्र मिश्रा
तुलसी
जन्मे तुलसी , हुलसी हुलसी।
घर -घर में गमक उठे तुलसी।
रत्ना तुलसी संपर्क हुआ ,
मणिकांचन का संयोग हुआ।
लेकिन पत्नी चित्कार उठी ,
बनना हैं तुमको महाकवि।
इस नारी तन में क्या रखा ,
जा रामायण की गाथा गा।
तुलसी पर इसका असर हुआ ,
दुनिया से वह मुख मोड़ चला।
अँधेरे में चमकी बिजली ,
बरसा बदल, बरसी बदली।
काशी ,प्रयाग ,उत्तर, दक्षिण ,
रामायण कहाँ नहीं चमकी।
सावन हीं था जो हँसा गया ,
सावन ही था जो रुला गया ।
जो सावन बन कर आया था ,
सावन ही बन कर चला गया ।
अँधेरे में चमकी बिजली ,
कैसे मैं कथा कहूँ इसकी ।
मूल्य
मूल्यों के चलते मूल्य सारे नष्ट हैं .
भावों के चलते भाव हमसे रूष्ट हैं .
हैं नहीं मुद्रा तो क्या मुद्रा बने ,
अर्थ ने चौपट किया सब अर्थ हैं .
यह नहीं जनतन्त्र है यह महाजनतन्त्र है .
लाभ, चोरी ,घूस , तिकड़म ,
बेईमानी ,छल , कपट का ही यह षड्यंत्र हैं .
एक मुद्रा सर्वासिद्धियंत्र हैं .
यह नहीं जनतन्त्र है यह महाजनतन्त्र है .
मुहब्बत
जिसने भी की मुहब्बत, रोया जरूर होगा।
वो याद में किसी के खोया जरूर होगा।
दीवार के सहारे , घुटनों में सिर छिपाकर ,
वो ख्याल में किसी के खोया जरुर होगा।
आँखों में आंसुओं के ,आने के बाद उसने,
धीरे से उसको उसने ,पोंछा जरुर होगा।
जिसने भी की मुहब्बत, रोया जरूर होगा।
वो याद में किसी के खोया जरूर होगा।
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मूल्य
मूल्यों के चलते मूल्य सारे नष्ट हैं .
भावों के चलते भाव हमसे रूष्ट हैं .
हैं नहीं मुद्रा तो क्या मुद्रा बने ,
अर्थ ने चौपट किया सब अर्थ हैं .
यह नहीं जनतन्त्र है यह महाजनतन्त्र है .
लाभ, चोरी ,घूस , तिकड़म ,
बेईमानी ,छल , कपट का ही यह षड्यंत्र हैं .
एक मुद्रा सर्वासिद्धियंत्र हैं .
यह नहीं जनतन्त्र है यह महाजनतन्त्र है .
प्रोफेसर भूपेन्द्र मिश्रा “सूफी”
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रामदीन
‘‘अर्द्धसत्य''
‘बिगड़े बाबा'
देश की धरती बाबा उगले, बन गये इच्छाधारी हैं
कोई लिए कमांडो घूमें, कोई जेडप्लस धारी है।
शानो शौकत कदम चूमती, ये तो बहुत हसीन हैं,
सप्लायर बन जाते बाबा, क्योंकि बहुत रसलीन हैं।
भले बुरे की सुध नाही है, बाबा ये रंगीन हैं,
अस्त्र शस्त्र, अय्याशी, कपटी जुर्म सभी संगीन हैं।
साधक और साधिका सब तो बाबा पर कुर्बान हैं,
सरे आम जनता लुटती है नजर आ रहे दिन में तारे,
भीड़ हजारों की संग इनके, लख ललचायें नेता सारे।
सीमा पर जब देश का सैनिक जान निछावर करता हैं,
तब भोली जनता के सम्मुख यह पाखंड दिखाता हैं।
कोई न शासन इनको छूता, जब तक पानी सिर चढ़ जाता,
काल भुजंगों के इन फन को क्यों न बिलों में कुचला जाता?
रामदीन
जे-431, इन्द्रलोक कालोनी,
कृष्णानगर कानपुर रोड लखनऊ
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धर्मेन्द्र निर्मल
सावधान!
मानवता
दुबकी बैठी है कमरे में
लाचारी की कुण्डी लगा
द्वार
खटखटा रही गरीबी
काँपते हाथों
हो गयी सूनी गलियाँ
राहतों की
गश्त लगाती है
ऊँची सेंडल पहनें
मौत मँहगाई की
आम सभा आयोजित करती/रोज
कहीं न कहीं
धरने पर बैठती
बीमारियॉ
चीथते चौराहे पर
चील कौअे सत्य शव
पता नहीं
पाप या पुण्य से
मॉग रहा मौत या जिंदगी
मगर गिड़गिड़ा रहा है धर्म कुछ
स्वार्थी श्रध्दालुओं की भीड़ बेकाबू
सीखते सीखते तैरना
तरने तारने लगे
बारहों मास कुंभ मेले में
झूठ भ्रष्टाचार फरेब संगम पर
इठला रहा है भय
अपनी अशेष जवानी पर
हो चुका पसीना श्रम पर मेहरबान
जब से टॉगा है दरवाजे पर
सुविधाओं ने बोर्ड
''कुत्ते से सावधान''
भीड़
ये भीड़ है बाबू, नासमझ भीड़
भीड़ जानती हैं
सिर्फ पत्थर को पूजना
पत्थर से मारना
पत्थर हो जाना
और, पत्थर पर नाम खुदवाना
चीखोगे, चिल्लाओगे नहीं सुनने वाले
समझाना चाहोगे नहीं बूझने वाले
चुपचाप चलोगे नहीं गुनने वाले
हाँ, पागल कहकर पत्थर जरूर मारेंगे
तुम चाहते हो
आदमी, आदमी बना रहे
मेरी मानो ! बैठ जाओ कहीं भी
पत्थर होकर।
धर्मेन्द्र निर्मल
ग्राम पोस्ट कुरूद
भिलाईनगर दुर्ग छ.ग. 490024
सुन्दर कवितायेँ उभरते सक्षम कवि
जवाब देंहटाएंकथाकार निश्चित तौर पर भविष्य
उज्जवल है कविताओं का बधाई