प्रस्तावना "भूपेन्द्र मिश्रा की ग़ज़लें" भाग -२ तथा भाग -१ http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_39.html प्रोफेसर भूपेन्द...
प्रस्तावना "भूपेन्द्र मिश्रा की ग़ज़लें" भाग -२ तथा भाग -१
http://www.rachanakar.org/2014/11/blog-post_39.html
प्रोफेसर भूपेन्द्र मिश्रा “सूफी”
"महफ़िल रहे, साकी रहें , शराब रहें ,
मैं रहूँ, तू रहें और तेरा शबाब रहे,
ये दुनिया रहे न रहे, कोई नहीं,
मेरे में हमेशा तेरा ख्याल रहे।"
दो शब्द
अपनी इन ग़ज़लों के मुताल्लिक मैं खुद क्या कहूँ ? साहित्य और अदब के हलके में इन दिनों इमामों की कमी नहीं हैं जिनमें नामवर और जानवर दोनों शरीक हैं . बेहतर तो यही हैं कि मेरी इन ग़ज़लों के बारे में ये इमाम ही अपने फतवे जारी करें . सूफी तो सूफी है, न वह तो सलमान रुश्दी हो सकता हैं और न तस्लीमा नसरीन। मगर एक बात तयशुदा है। साहित्य और अदब जब मुख्तलिक वादों के इमामों के गिरफ्त में फंस जाते हैं तब साहित्य को कूड़े -कचड़े ढ़ेर बनने में ज्यादा देर नहीं लगती और तब उस साहित्य को पढ़ने की बात कौन कहे , लोग उसकी तरफ से नाक- भौं सिकोड़ लेते हैं और और ऐसी रचनाओं की तरफ से नजर फेर लेते हैं यहाँ तक कि उसे छूना भी नहीं चाहते। इसीलिए मेरी इन ग़ज़लों का रिश्ता पूँजीवाद , समाजवाद ,साम्राज्यवाद , छायावाद , रहस्यवाद ,प्रगतिवाद आदि वादों से दूर - दूर तक का नहीं है। इन ग़ज़लों की अपनी एक दुनिया है जहाँ दिल की आवाज छोड़कर और दूसरी कोई आवाज नहीं गूँजती। मैं बौद्धिक कसरत और दिमागी पहलवानी कर ग़ज़लें लिखने का आदी नहीं हूँ। स्लेट पर लिखी जाने वाली कवितायेँ ग़ज़ल का रूप नहीं ले पाती। हर शायर की अपनी एक दिल की दुनिया होती है जो दल्लाल , दिल्ली , दौलत और दाल की दुनिया कभी नहीं हो सकती , इसीलिए मैंने अपने एक शेर में अर्ज किया है : "तुम्हारी और है दुनिया , हमारी और है दुनिया,
तुम्हें है भूख दौलत की, मुझे दिल की जरुरत है।"
इसीलिए दल्लाल , दिल्ली , दौलत और दल के इमाम इन ग़ज़लों के बारे में क्या फतवा जारी करेंगे मैं नहीं कह सकता मगर इतना जरूर कहूँगा की इन फतवों के डर से किसी ईमानदार शायर की कलम न कभी रुकी है , न रुकी हुई है और न कभी रुकेगी। मैं बार -बार ये कहता हूँ : "जब प्यार किया है तो कभी 'उफ़ ' न करेंगे , बदनाम रहे हैं तो बदनाम रहेंगे। "
इसीलिए हर ग़ज़ल लिखते समय हर शायर को अपनी बात दुनिया के सामने सच्चाई के साथ रख देनी चाहिए और अपने पाठकों और ग्राहकों से कहना चाहिए कि :
"महफ़िल रहे, साकी रहें , शराब रहें ,
मैं रहूँ, तू रहें और तेरा शबाब रहे,
ये दुनिया रहे न रहे, कोई नहीं,
मेरे में हमेशा तेरा ख्याल रहे। "
आइये , अब जाम उठाएँ और इन ग़ज़लों के माध्यम से हम आप सभी ,कुछ पीने -पिलाने का मजा लेते रहें।"रसो वै सः" के अलावा इन ग़ज़लों के लिखे जाने का और कोई दूसरा उद्देश्य नहीं हैं।
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‘मुलाकात एक सूफी से’
.....------ अमीरनाथ मिश्र
सूफी मत और अध्यात्मिक साहित्य की कोई ऐसी सटीक तथा गुनगुनानेवाली पुस्तक प्रकाशित नहीं हो पाई थी और न ही हृदयग्राही एवं भाव विभोर करनेवाली शेरो –शायरी ही , जो न केवल विचारकों , साहित्यकारों अथवा संतों को ही दिशागत मोड़ पर लाये , अपितु संगीत के अभिप्रेरकों में भी नयी जान लाकर खोयी संस्कृति के अध्यात्मवाद को पुनः जीवित कर सकें .
ऐसे ही अध्यात्म दर्शन के प्रतिपादक प्रोफेसर भूपेन्द्र मिश्र ‘सूफी’ ( जो जय जीव संस्थान के प्रवर्तक के अलावा साहित्यकार, अर्थशास्त्री एवं प्रेममार्गी के साथ- साथ प्रसंशनीय कवि और शायर भी रहे हैं ) से बहार- ए – ग़ज़ल के प्रकाशन के पूर्व एक साक्षात्कार तब हुआ जब प्रोफेसर भूपेन्द्र मिश्र कुछ सूफी संतों ,साहित्यकारों , विचारकों एवं पत्रकारों से वार्तालाप कर रहे थे. मैं मूकदर्शक बनकर थोड़ी देर तक शान्तचित्त से बैठा रहा पर लोगों के आने -जाने का क्रम बने रहने के बावजूद मैंने ‘सूफी’ जी से अपने साक्षात्कार की बात कही . बेहिचक उन्होंने पूछा की आप क्या जानना चाहते हैं ? मेरे प्रश्नों की झड़ी लगती गई और उनके जबाब मिलते गए .
आप साहित्यकार हैं , कवि हैं , बहार- ए – ग़ज़ल अपने क्यों लिखी ? प्रोफेसर ‘सूफी’ जी ने अपने शुभेच्छुओं के तथाकथित नामों की चर्चा करते हुए कहा की मैंने उन मित्रों की पसंदगी को थोडा ज्यादा सम्मान दिया है जिन्होनें अपने दिल के दर्द को अपनी ग़ज़लों में यह पूछना चाहा है :--
बात हुई ही कहाँ ; बात अभी बाकी हैं ?”
पुनः दुसरे प्रश्न में “क्या आपकी बहार- ए – ग़ज़ल भावी पीढ़ियों के हृदय और मस्तिष्क दोनों को आंदोलित कर सकती हैं ?” के उत्तर में उनकी मान्यता है ----
“ नाजुक बहुत समय है ,खुद को बचाइये।
इस दिल को छोड़ करके ,दिल्ली न जाइये”.
अगले प्रश्न के पूछने पर की क्या “बहार- ए – ग़ज़ल आपके पारिवारिक रिश्ते , सामाजिक रिश्ते , राजनैतिक रिश्ते और अध्यात्मिक रिश्ते के बारे में कुछ उपयोगी होंगी” , तो वे कहते हैं :
“तुम्हारी और हैं दुनिया, हमारी और हैं दुनिया ,
तुम्हें हैं भूख दौलत की, हमें दिल की जरुरत है”.
कुछ लोगों का कहना हैं कि महफ़िल , साकी और शराब के लिए ‘सूफी’ बदनाम हैं तो इन प्रश्नों के जवाब में वे एक शेर कहते हैं ---
“छोड़िये भी बात मेरी ,मैं तो हूँ बदनाम ही ,
पर मचल गए आप भी जलवा –ए- साकी देखकर,
फर्क इतना है कि मैं ,पीता सभी के सामने ,
और डरते आप है ,पाबन्दियों को देखकर”।
आप तो जानते ही हैं कि मैं वाममार्गी रहा हूँ और पंचमकारी साधना में मदिरा , मांस , मत्स्य ,मुद्रा और मैथुन का बड़ा महत्व हैं, लेकिन आपके सवाल के जबाब में मेरा एक सवाल है कि इन पांचों से मुक्त कौन है ? यदि कोई है तो उसका चेहरा तो जरा सामने लाइए . मैं तो समझता हूँ की हवाले और घोटालें में फंसने से पञ्चमकारी होना लाख दर्जे बेहतर हैं.
मेरा अगला सवाल था कि क्या आप सचमुच दुनिया से विरक्त हैं ? यदि हाँ तो कैसे ?
इस पर वे अपनी कविता की पंक्तियाँ दुहराते हैं :---
"जो हैं विभक्त , वह कभी भक्त नहीं हो सकता ,
अनुरक्त कभी क्या है विरक्त हो सकता " .
इसलिए तो सही बात यह है कि मैं विरक्त होने के बदले अनुरक्त हूँ और जिस तरह मक़बूल फ़िदा हुसैन , माधुरी दीक्षित पर फ़िदा हैं उससे ज्यादा मैं भी किसी के ऊपर फ़िदा हूँ। मैं पूछता हूँ की वह कौन हैं ? उनका सीधा जवाब आता है "यह न पूछिये कि वह कौन है ? यह मेरा बिल्कुल निजी मामला है। " इतना ही समझ लीजिये कि जिन्दगी के किसी नाजुक मोड़ पर किसी से मुहब्बत हुई थी और वो आज तक जिन्दा है और बरकरार है। इसीलिए तो :---
“दिल बेकरार क्यों है ?
ये इंतजार क्यों है ?
मालूम हैं मुझे कि आना नहीँ तुम्हें है,
फिर भी समझ न आता वादे हजार क्यूँ हैं”.
इसीलिए तो ये बेकरारी ,ये तड़पन , ये छटपटाहट , यह ब्याकुलता या पानी के बिना मछली की सी तड़प ग़ज़ल गोई की जान होती है. जान से भी ज्यादा उसकी रूह होती है। उस छटपटाहट के बिना ग़ज़ल कहाँ ? तब तो :----
“हँसती हुई कहानी शायर तेरा न चाहे,
गर चाहिये ग़ज़ल तो मीठा सा दर्द दे दो।
जलवा ये हुस्न लेकर मैं क्या करुँगा, बोलो,
खूने जिगर जो मानो कतरा ए इश्क दे दो”.
पुनः अगले प्रश्न के पूछे जाने पर कि "क्या बहार-ए -ग़ज़ल सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सकती है " में वे कहते हैं :--
" दिल्ली का नशा अब तो सब पे सवार है,
उतरेगा ये नशा भी जल्दी ही देख लेना।
दल्लाल, दिल्ली, दौलत, दल कुछ नहीं रहेंगे,
आयेगा वक्त वो भी जल्दी ही देख लेना”।
और वे कहते हैं कि क्या यह कुरीतियों के ख़त्म करने का संकेत और संकल्प नहीं हैं ?
अपने दूसरे प्रश्न के पूछने पर कि आप अपने नाम के अंत में 'सूफी' क्यों जोड़ते हैं ? जबाब आता हैं की उमर ख़य्याम मेरे सबसे प्रिय कवि रहे हैं और उन्हीं के नक़्शे -कदम पर चलकर मैं भी अपने नाम के अंत में 'सूफी' जोड़ता हूँ। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए की 'सूफी' होने में और 'सूफी' कवि होने में अंतर हैं। मैं एक सूफी संत और साधक नहीं हूँ मगर एक सूफी कवि बनना चाहता हूँ और सूफी कहलाना पसंद करता हूँ।
मेरा अगला सवाल है कि क्या बहार -ए -ग़ज़ल में ऐसा कुछ है जो नयी पीढ़ी को प्रेरणा दे सके और हर कहीं फैले अँधेरे और सन्नाटे में रौशनी का काम कर सके। इसके जवाब में 'सूफी' कहते हैं कि जो काम बुद्ध , महावीर , जीसस , मुहम्मद और महात्मा गांधी नहीं कर सके वो काम 'बहार -ए -ग़ज़ल' कैसे कर सकेगी ? जहाँ तक अपनी बात हैं तो इतना कह सकूंगा कि :---
“आ चुका हूँ तंग इस बदबू भरे माहौल से ,
ला दो जरा कही से खुशबू गुलाब की ,
‘सूफ़ी’ गुलाब है तेरे बागे – बहिश्त का ,
जिसे पाया न हँस- हँस के ,उसे रो –रो के पाया है” ।
अंत में मैं पूछता हूँ कि देश –दुनिया के लिए आपका कोई पैगाम ? बड़ी सहज स्वाभाविक हंसी के साथ वे कहते हैं :--
“महफ़िल रहे , साकी रहे , शराब रहे ,
मैं रहूँ, तू रहे और तेरा शवाब रहे,
ये दुनिया रहे न रहे कोई बात नहीं ,
मेरे दिल में हमेशां तेरा ख्याल रहे”.
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