सुशील यादव का व्यंग्य -

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व्यंग बुरा जो देखन मै चला एक दिन इच्छा हुई चलो अपने से ज्यादा बुरे लोगों को देखा जाय। यह अपने आप में, आस पास के लोगों को परखने की,अन्दर स...

व्यंग

बुरा जो देखन मै चला

एक दिन इच्छा हुई चलो अपने से ज्यादा बुरे लोगों को देखा जाय।

यह अपने आप में, आस पास के लोगों को परखने की,अन्दर से उपजी हुई , एक सात्विक इच्छा भर थी|इसमें न किसी पार्टी की दखल थी न किसी आलाकमान का दबाव .....बस कबीर ताऊ . अचानक याद आ गए।

अगर मै, ये कहता कि “बुरे लोगों को देख लिया जाय” तो मेरी तामसिक प्रवित्ति का रहस्य उदघाटित होता।

”देख लिया जाय में” कहीं न कहीं ,बाकायदा बांह चढाने का स्थायी भाव छुपा होता है,| इस भाव के संग लठैत लिए चलने की परंपरा का, विलंबित ख़याल अपने आप जुड़ जाता है।”देख लिया जाय” में पुरानी रंजिश की बू आती है

 

देखने ~दिखाने के चक्कर में अपना राष्ट्रीय पडौसी ,अरे क्या कहते हैं ,वही काश्मीर के नीचे वाला ज्यादातर लगा रहता है।

समय समय पर उनको जावाब न दो तो,’हुदहुद’ जैसा विकराल तूफान मचाने से वे बाज नहीं आते।

उनके तरफ लावारिस लोगों की फौज , इतने सारे हो गए हैं कि, आए दिन दो चार अपने इलाके में टपकते रहते हैं।

अगर उधर, संस्कार वाले माँ बाप होते, तो पूछते बेटे कहाँ जा रहे हो ?शाम~ रात तक लौटोगे या नहीं ?अगले हफ्ते तुम्हारी सगाई है, ऐसे में यार दोस्तों के साथ ज्यादा भटका मत करो ज़माना खराब है। और हाँ छुरी~ तमंचा वालों के संगत में तो पड़ना मत ,कहे देते हैं।

पुराने जमाने में लोग खाली~खाली बैठे होते थे।

 

उन्हें काम के नाम पर आज जैसी चीजें मुहैया न थी आज के लोगों को टी व्ही देखना, चेटिंग करना,पार्टी के झंडे`~चंदे का इन्तिजाम करना ,रैली के लिए आदमी जुगाडना जैसे कई काम हो गए हैं।शिक्षक और सरकारी मुलाजिमो को मतदाता सूची बनाना ,जनगणना के आंकड़े इक्क्कट्ठे करना ,और न जाने कई ज्ञात~अज्ञात बेगारी के कामो में बिधना पड़ता है।

पहले के लोग सिर्फ गपियाने के और कुछ न जानते थे।

खेती किसानी के बाद बचे समय में वे किस टापिक पर वार्ता करते रहे होंगे पता नहीं ?

न ओबामा, न ओसामा ,न चाइना न पाक की लड़ाई ,न पुल ठेके का घपला .....?न भाई भतीजा को लेकर बहस......... न राजनीतिक विरासत के चर्चे,,न इलेक्शन और न ही कोयला, खनिज,टू जी थ्री जी के बंदरबाट में पैसा कमाने के आरोप ....?

वहां उस जमाने में चर्चा हो तो किस पर .....?

 

लिहाजा ,वे हर सातवे दिन आत्म मंथन के रज्जू को, हाथों ~हथेलियों में लिए अगल बगल में पूछने निकल जाते थे|

ऐ भाई .... मुझमे कोई ऐब है क्या ....? बता न ......?

इसे ही मथते रहते थे।

दस~बीस लोग जब बोल देते की नहीं आपमें कोई ऐब नहीं तो वे आकर तसल्ली से तरकारी में नान वेज खा लेते थे चलो कहने को कुछ तो एब रहे।

बुरा जो देखन मै चला का, निचोड़ निकल आता था ,नानवेज वाला पार्ट, तुम्हे बुरा बनाए दे रहा है| वे स्वीकार करते हुए सो जाते थे ,प्रभु .....! मुझसा बुरा न कोय ....?

हमने विज्ञापन में देखा है, दूध के साथ बोर्नवीटा~हार्लिक्स मिला दो तो दूध की शक्ति बढ़ जाने का दावा होता है।’शक्ति युक्त’ दूध पीने से तंदरुस्ती, और तंदरुस्ती से, अकल बढ़ जाती है।

 

अपने देश में इनकी फेक्टरी जरूरत से ज्यादा हो गई लगती है|इसे पी~पी कर बहुत से अकल वाले पनपने लग गए हैं।

इंनकी बदौलत कहीं~कहीं राजनीतिक लुटिया भी डूबाई जा रही है।ऐसी कुछ फेक्टरी को उनके देश में खोलने में अपने तरफ से सरकारी मुआवजा मिल जावे, तो दोनों तरफ अमन चैन कायम हो जाए।

शक्ति का शक्ति से मिलन ,अकल से अकल की लड़ाई।यानी बराबर की अदावत का इन्तिजाम।खूब जमेगी जब मिल बैठेंगे बिछुड़े यार दो ....|खैर ये सब राष्ट्रीय स्तर के मजाक की बातें हैं।

अपन देशी स्तर के बुरे लोग,यानी कबिरा वाला बुरा आदमी ,

........यानी ‘इन कम्पेरिजन टू मी’ वाले बुरे आदमी की तलाश में थे ?

 

पात्र और स्थान बदल बदल के देखें तो हर जगह ये अपनी उपस्तिथि दर्ज कराये रहते हैं।

मसलन एक छोटे से दफ्तर में रामलाल अदना सा एल डी सी,बच्चों के रफ वर्क के लिए एक तरफ यूज किये कागज़ उठा लाता है ,कभी कभार दो चार आलपिन टूटे बटन की जगह टांक के घर लेता है।बस इतनी सी बात, उसको, उसके नजर से गिराए रहती है।वो अपनी नजर का बुरा आदमी बना रहता है।

वैसे वो, आस पास के माहौल को मुआइअना करने पर पाता है, कि सिन्हा जी पेसील ,रबर शार्पनर की इंडेंट~फरमाइश हर दूसरे तीसरे दिन लगा देता है|

उसके बच्चों को स्टेशनरी की दूकान, उनके इलाके में कहाँ है पता नहीं होता।

मोतीबाबू रजिस्टर ‘रिकास्ट’ करने के नाम पर शुरू के दो पेज लिखते हैं बाद में वहीं पूरा रजिस्टर घर लिए जाते हैं|

बड़े बाबू की तो पूछो मती, यूँ मानो, खाने पीने पचाने के मामले में वे ‘डाइनासोर’ हैं।कब क्या चट कर जाए.....? पता नहीं? वे बिल में जितना मंगवाते हैं, अपना दफ्तर उससे आधे सामानों में बखूबी चल सकता है।

 

मिस्टर कबीर के जमाने में, ये टुच्ची हरकतें करने वाला मुहकमा पैदा नहीं हुआ था|

न ही उन्होंने किसी सरकारी दफ्तर की क्लर्की की थी लिहाजा वे अपने अडौस~ पडौस के लोगों के मनोविज्ञान को समझने में कन्फ्यूज रहे। झकास धुले हुए कपडे पहने लोगो से मिलते रहे।अपनी कम धुलाई वाली कमीज की हीनता में कह गए हों कि मुझसा बुरा न कोय ?

बुरा देखने की मेरी दृष्टि व्यापक कभी नहीं बनी|

अपनी संगत धासू लोगों के साथ न होना इसका बड़ा कारण रहा ।

आज जमाने में धासू होने का मतलब किसी गाव का मुखिया हो जाना ,सरपंच चुन जाना ,मुनिस्पेलटी इलेक्शन में पार्षद बन जाना या शहरी इलाके में टपोरी गिरी करना से लगाया जा सकता है।

 

ये लोग फंड मेनेजमेंट का फंडा बखूबी जानते हैं।

किस काम में फंड है कहाँ नहीं .....ये काम की घोषणा के साथ ही केल्कुलेट कर लेते हैं।हर काम के लिए ये ‘अपने बुरे आदमी’ का इन्तिजाम रखे होते हैं।इनको अपने से ज्यादा बुरा आदमी देखने के लिए अपने घर की देहरी भी नहीं लांघनी पड़ती,|

उलटे ये जहाँ से गुजरते हैं बुरा आदमी इनके कदमो में लोट~लोट जाता है ,हुजुर हमे भूल गए का .....?कोई खता भई का हमसे ? ,जो हमसे काम नइ करवाने का मन बनाए फिर रहे हैं ...?

लो बुरे की सोचो, बुरा हाजिर।

देश के लिए ,तात्कालिक सेवा लो,और भूल जाओ कि तुम कभी बुरा ढूढने भी निकले थे।

छोटी~छोटी विसंगतियों पर लोग न जाने कैसे लम्बी लम्बी बहस कर लेते हैं ?

ताज्जुब होता है।

 

५० पैसे डीजल घट गया ,अखबारों में सुर्खियाँ ..|चमचे ...!.सरकार की नेक नियती के कसीदे पढने में देर नहीं लगाते।

सरकार की पीठ थपथपाने वाले ,चेनल के माध्यम से कयास लगाने लग जाते हैं| इससे हमारी इकानामी पर जबरदस्त असर पड़ेगा ,सब्जी के रेट परिवहन सस्ता होने पर गिरेगा ,रेलभाड़ा में कमी आयेगी ,सेंसेक्स में कमी देखेगी ,प्लाट के रेट सस्ते होंगे..... ,यानी हवाई किले के हजार मंसूबे ,जिसे जो सूझता है बाँध देते हैं।

उन्हें इकानामिक्स का एक भी सिद्धांत का पता नहीं होता।कामन सेन्स वाले सिद्धांत भी कोसो दूर होते है।भाईसा, ... होता तो ये है कि एक बार जिन चीजों के दाम आसमान छू लिए , वे धरती पर लौटने की बजाय त्रिशंकु हो के उपर ही उपर रहते हैं।

कोई माई का लाल या ‘माइक पकड़ा हुआ लाल’ भी उसे वापस नहीं ला सकता।अब ऐसे नासमझों को क्या अक्ल दें ...?माथा ठोक लेते हैं।

हम समझे बैठे थे तीन बार मेट्रिक फेल होंने से हमारे दिमाग की बत्तियां गुल हैं ,हमी निपट देहाती ,ढपोरशंख बुरे केटेगरी के हैं।

मगर यहाँ तो लगता है ‘दिमाग वालों’ का पूरा ‘पावर हाउस’ ही उड़ा हुआ है....?

 

आज के युग में खुद पे इल्जाम लगाने का न फैशन है, न रिवाज , अत: दावे के साथ हम खुद नहीं कहते.......

बुरा जो देखन मै चला,............,बुरा न मिलिया कोय ,जो दिल खोजा आपनो, मुझसा बुरा न कोय ........

***

 

सुशील यादव

२०२ श्रीम सृष्ठी,

सन फार्मा रोड. अटलादरा

वडोदरा ३९००२२

susyadav7@gmail.com

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रचनाकार: सुशील यादव का व्यंग्य -
सुशील यादव का व्यंग्य -
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