डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा : भाषाविज्ञान के साधक प्रोफेसर महावीर सरन जैन आज़ तारीख है – 10 दिसम्बर,2014। पिछला सप्ताह बुलन्दशहर से द...
डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा : भाषाविज्ञान के साधक
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
आज़ तारीख है – 10 दिसम्बर,2014। पिछला सप्ताह बुलन्दशहर से दिल्ली रुकते हुए लखनऊ और लखनऊ से दिल्ली में रुकते हुए बुलन्दशहर आने में व्यतीत हो गया। लखनऊ में 07 दिसम्बर, 2014 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने ‘सम्मान समारोह’ आयोजित किया था। बुलन्दशहर लौटकर एक सप्ताह के बाद जब ‘फेसबुक’ पर गया तो एक टिप्पण डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा के निधन से सम्बंधित था। पूरा टिप्पण न पढ़ सका। मेरा मन इस समाचार को सत्य मानने को तैयार नहीं हुआ। मैंने डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा का मोबाइल नम्बर मिलाया। बेटी संज्ञा की आवाज़ थी। देहावसान की पुष्टि हुई। अधिक बात करने की हिम्मत नहीं हुई। रायपुर के ललित सुरजन से जानकारी प्राप्त हुई कि 04 दिसम्बर को महरोत्रा जी की आत्म-चेतना ने उनके शरीर का साथ छोड़ दिया था।
मेरे आधुनिक भाषाविज्ञान के मित्रों में से डॉ. कैलाश चन्द्र भाटिया और डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा से मेरा संपर्क सन् 1961 से शुरु हुआ। सन् 1961 के मई-जून महीनों में सागर के विश्वविद्यालय के पथरिया हिल्स के नवनिर्मित और निर्माणाधीन परिसर में ‘समर स्कूल ऑफ लिंग्विस्टिक्स’ में मेरी पहली मुलाकात महरोत्रा जी से हुई थी। सम्बंध अंतरंगतर और प्रगाढ़तर होते गए जो इस समय हृदय विदारक मनोदशा के कारक हो रहे हैं।
अर्धशती से अधिक के काल खण्ड की आत्मीय यादों को एक लेख के रूप में कागज़ पर उतारना अथवा लेपटॉप के पर्दे पर टंकित करना कितना कठिन और दुष्कर हो सकता है, उसका अहसास हो रहा है। विगत पचास वर्षों में, मुझे मेरे जिन प्राध्यापकों, सहयोगियों, मित्रों और शिष्यों ने पत्र लिखे, उनमें से चयनित पत्रों का संग्रह पत्र-लेखकों के नाम के क्रम से डॉ. अनूप सिंह ने सम्पादित करके प्रकाशित कराया है। इस संग्रह में 8-10 महानुभावों को छोड़कर अधिकांश लोगों के एक-दो पत्र ही स्थान पा सके हैं। डॉ. अनूप सिंह ने इस संग्रह में डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा के 8 पत्रों को संकलित किया है। मैं अपनी वर्तमान मनोदशा में इन्हीं पत्रों का सहारा लेकर महरोत्रा जी से जुड़ी यादों को शब्दाकार देने का प्रयास करूँगा।
सन् 1955 से लेकर सन् 1960 की अवधि में, भारत के जो भाषाविद अमेरिका में रहकर आधुनिक भाषाविज्ञान की पद्धति और प्रविधि को हृदयंगम करने के बाद भारत लौटे, उनके दिलोदिमाग पर वर्णानात्मक भाषाविज्ञान (Descriptive Linguistics) और संरचनात्मक भाषाविज्ञान (Structural Linguistics) पूरी तरह से आच्छादित था। इन विद्वानों ने ‘समर स्कूल ऑफ लिंग्विस्टिक्स’ में इस बात को बार-बार रेखांकित किया कि किसी भाषा के अध्ययन का साध्य एवं लक्ष्य उसकी विशिष्ट व्यवस्था (system) और संरचना (structure) को विवेचित करना है। सन् 1958 में एम. ए. की कक्षा में हमने भाषा के अध्ययन के लिए उसकी ध्वनियों के उच्चारण, परम्परागत व्याकरण के मॉडल के अनुरूप आधुनिक भाषा के व्याकरणिक रूपों का अध्ययन तथा शब्दों के अर्थ की मीमांसा को ही वांछनीय होना जाना था। मगर अब जो ज्ञान परोसा जा रहा था, वह अनजाना और नया था। उस ज्ञान का सार था कि किसी भाषा की ‘ध्वनियों का उच्चारण’ और उसके ‘शब्दों की अर्थ मीमांसा’ भाषा की व्यवस्था तथा संरचना के केन्द्रवर्ती परिधि के अंदर नहीं आते। वे उस परिधि के चारों और चक्कर लगाते हैं। वे उस परिधि का बाहर से संस्पर्श करते हैं। भाषा की व्यवस्था में विवेच्य भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (Phonemic System) और व्याकरणिक व्यवस्था (Grammatical System) का अध्ययन करना ही अभीष्ट है। दो भाषाओं में दो ध्वनियाँ समान हो सकती हैं मगर उनका प्रकार्यात्मक मूल्य उनमें समान नहीं होता। विवेच्य भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (Phonemic System) का अध्ययन उस भाषा की ध्वनियों की उस भाषा में वितरणगत स्थितियों को आधार मानकर करना चाहिए। मोटे मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी भाषा की एक ध्वनिमिक इकाई के अंतर्गत उस भाषा की वे ध्वनियाँ समेटी जाती हैं जो परस्पर अविषम वितरण (non-contrastive-distribution) में वितरित होती हैं। जो ध्वनियाँ किसी भाषा में परस्पर विषम अथवा व्यतिरेकी वितरण (contrastive-distribution) में वितरित होती हैं, वे उस भाषा में भिन्न ध्वनिमिकों (phonemes) का निर्माण करती हैं। किसी भाषा की ध्वनियों की वितरण की उपर्युक्त दोनों अवधारणाएँ सन् 1964 तक स्पष्ट हो चुकी थीं। डी. लिट्. की उपाधि के लिए हिन्दी भाषा का वर्णनात्मक अध्ययन करते समय भाषा के ध्वनिगुणिमिक अभिलक्षणों (prosodic features) एवं व्यतिरिक्त अभिलक्षणों (redundant features) के बारे में शंकाएँ मौजूद थीं।
इसी प्रकार रूपग्रामिक खंडन अथवा विश्लेषण (morphemic segmentation) का सिद्धांत था कि किसी भाषा में प्राप्त ऐसे उच्चारों में से, जिनमें कुछ अंश में समान ध्वनिमिकों का क्रम और समान अर्थ हो तथा कुछ अंश में भिन्न ध्वनिनिकों का क्रम और भिन्न अर्थ हो तो ऐसे उच्चारों को समान और भिन्न अंशों के बीच से खंडित कर दो। इस सिद्धांत के अनुसार हिन्दी में उदाहरण के लिए /लड़का, लड़के, लड़की, लड़कियाँ/ जैसे उच्चारों में समान अंश /लड़क्- / है। सिद्धांत का अक्षरशः पालन करते हुए हमने सन् 1960 में एक शोध निबंध लिख डाला। इसका प्रकाशन सन् 1961 में हुआ। विवरण निम्न है –
‘हिन्दी संज्ञा: आकारान्त शब्द - पदग्रामिक विश्लेषण एवं वर्गबंधनः नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मालवीय शती विशेषांक,वर्ष 66, अंक 2-3-4, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी पृ0 462-472 (1961) (उस समय डॉ. उदयनारायण तिवारी जी ’रूपग्रामिक’ के लिए ‘पदग्रामिक’ शब्द का प्रयोग करते थे और इस कारण उसका चलन था। आयोग ने अब ‘रूपात्मक’ अथवा ‘रूपप्रक्रियात्मक’ को मानक माना है।)
इसका पुनर्प्रकाशन ‘हिन्दी के आकारान्त संज्ञा शब्द’ शीर्षक से डॉ. उदयनारायण तिवारी जी की पुस्तक ‘भाषाशास्त्र की रूपरेखा’ में हुआ। ( पृष्ठ 277-285, सन् 1963)।
इसके बाद उस कालखण्ड में हिन्दी के ‘व्याकरण’ अथवा ‘संज्ञा रूपों’ पर जो कार्य सम्पन्न हुए, उनमें इसी पद्धति को अपनाया गया। इस पद्धति से हिन्दी संज्ञा रूपों का अध्ययन करने के कारण उत्पन्न जटिलताओं का आभास मुझे तब हुआ जब मैंने डॉ. अशोक केलकर के निर्देशन में सम्पन्न डॉ. मुरारी लाल उप्रैतिः का शोध प्रबंध पढ़ा। डॉ. उप्रैतिः का शोध प्रबंध सन् 1964 में ‘हिन्दी में प्रत्यय विचार’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। डॉ. उप्रैतिः ने अपनी पुस्तक में हिन्दी संज्ञा पदों का विश्लेषण करते हुए अविकारी कारक, एक वचन, पुल्लिंग संज्ञाओं में से / -आ, -इ, -ई, -उ, -ऊ, / इत्यादि को अविकारी कारक, एक वचन, पुल्लिंग की विभक्ति माना। उदाहरण के लिए, डॉ. उप्रैतिः ने /लड़का, कोड़ा, दस्ताना, भतीजा, बगीचा, गाना, चरवाहा, रुपया/ इत्यादि आकारान्त संज्ञाओं में से /-आ/ को विश्लेषित या खंडित किया और /-आ/ को अविकारी कारक, एक वचन, पुल्लिंग की विभक्ति माना। इस पद्धति का अनुगमन करने के कारण हिन्दी के आकारान्त, इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त, ऊकारान्त इत्यादि सभी स्वरांत शब्दों का प्रातिपदिक (आधार रूप) व्यंजनान्त हो गए। इस पद्धति से विश्लेषण करने से हिन्दी संज्ञा अविकारी कारक, एक वचन, पुल्लिंग रूपिम (morpheme) के ढेर सारे उपरूपों (allomorph) की वितरणगत स्थितियों की विवेचना ध्वन्यात्मक आधार पर करना सम्भव नहीं रह जाता है। वितरणगत स्थिति बताने के लिए हज़ारों लाखों व्यंजनान्त प्रातिपदिकों (आधार रूपों) की लम्बी चौड़ी सूची प्रस्तुत करना अनिवार्य हो जाता है। यह बताने के लिए कि अमुक रूप इस सूची में दिए गए आधार रूपों के बाद वितरित है। इससे व्याकरण लेखन का उद्देश्य ही बाधित हो जाता है।
हिन्दी की संयुक्त क्रियाओं की विवेचना किस स्तर पर करना चाहिए। रूपात्मक (morphological) पर अथवा वाक्यात्मक (syntactic) पर।
इसी प्रकार की समस्याओं के निराकरण के लिए मैंने अपने भाषावैज्ञानिक मित्रों को पत्र लिखे। डॉ. महरोत्रा ने मेरे पत्र का जो उत्तर दिया, वह पाठकों के लिए अध्ययन के लिए प्रस्तुत है।
पत्र (1)
डॉ. रमेश चन्द्र महरोत्रा 4 पथरिया हिल्स
सागर
दिनांक 05- 10 - 1965
प्रिय जैन साहब,
आप मुझसे नाराज तो खूब होगें और मुझे धड़ाधड़ गालियाँ दे डाली होगीं, लेकिन चिट्ठी लिखने के एक महाचोर से आपका सामना हुआ है। मुझे कितनी ही चिठियाँ कोसती रहती हैं, पर मेरी यह घोर खोटी आदत अपनी जगह पर अड़ी पड़ी है। गोया मुझे आप माफ़ करना।
उन प्रश्नों के संबंध में मेरे विचार इस प्रकार हैंः-
1. बलाघात की सशक्त इकाई अपने ध्वनिग्रामिक रूप में सुर के हर स्तर पर मिलती है। उसकी दूसरी इकाई जिसे चाहे अशक्त ध्वनि ग्रामिक कहें, चाहे शून्य ध्वनिग्रामिक, कम से कम चार Predictable मात्राएँ रखती है। वे चारों दीर्घ और ह्रस्व स्वरों तथा अक्षर विन्यास के संयोगों एवं महाप्राणत्व रखने वाले व्यंजनों की स्थिति से प्रभावित होती है। स्पस्ट है कि सुर के विभिन्न धरातलों को बलाघात की दोनों ध्वनिग्रामिक मात्राओं से पृथक रखना होगा।
उच्च सुर पर भी बलाघात की दोनों मात्राएँ प्राप्त होती हैं। यह सही है कि उच्च सुर के साथ बलाघात की अशक्त ध्वनिग्रामिक मात्रा भी ध्वन्यात्मक रूप में पर्याप्त भारी ही दीखती है। यह सब (शायद) इसलिए संभव है कि हिन्दी में बलाघात का सशक्त ध्वनिग्रामीय मात्रा केवल तुलना और अर्थों में विशिष्टता या जोर लाने के लिए प्रयुक्त होती है। अर्थों में विशिष्ट भाव या बल देने के लिए ऊँचे ऊचेँ सुर पर भी बलाघात मारने की जरूरत पड़ सकती है।
2. यदि नान कंट्रास्टिव फीचर और रीडन्डेन्ट फीचर में अंतर दिया जा सकता है, तो शायद यह कि नान कंट्रास्टिव में दो मिलने वाले लक्षणों के बीच विरोध नहीं होता, जैसे हिन्दी में सघोष और अघोष ‘ह्’ के बीच घोषत्व ओर अघोषत्व, जबकि रीडन्डेन्ट में इसलिए विरोध नहीं होता कि एक फीचर मिलता है और दूसरा मिलता ही नहीं, जैसे हिन्दी ‘श’ की अघोषता की तुलना में घोष। यह भेद इस आधार पर किया जा सकता है कि रीडन्डेन्ट में ऐसे भेदों की ओर दृष्टि जाती है, जो बिल्कुल आवश्यक नहीं है। या आवश्यकता से अधिक है। नान कंट्रास्टिव में भेद कम से कम ध्वन्यात्मक रूप में मौजूद तो रहते हैं। इन दोनों का समानार्थी के रूप में भी प्रयोग मिलता है।
3. ठीक है जी। एक दम सुविधा हो जाती है। अविकारी एक वचन संज्ञा में से विभक्ति प्रत्यय न निकाल कर। वरना हिन्दी के अच्छे-खासे रूपों की रेड़ लग जाती है, कट-छट कर और मातृभाषी के मन पर करारी चोट भी पड़ती है। यह तो जिद है स्ट्रक्चरल लिंग्विस्टक की कि लड़का को बेस फार्म नही मानने देते। (जब कि ‘मेन’ को मान डालते हैं) ‘m-n’ को क्यों नहीं मानते?)
4.संयुक्त क्रिया को सिनटेकटिव कंस्ट्रक्सन के स्तर पर ट्रीट किया जाना चाहिए, शब्दात्मक या रूपात्मक पर (पूर्णतः) नहीं।
शेष राम राम।
आपका
डा. रमेशचन्द्र महरोत्रा
यह पत्र केवल एक उदाहरण है। अर्ध-शती के सम्पर्क और मित्रता की अवधि में से कम से कम 35 वर्ष की कालावधि में, हम दोनों जब जहाँ मिले, परस्पर भाषाविज्ञान के अनेक विषयों के अनगिनत सवालों पर विचार विमर्श किया और अधिकांश सवालों और समस्याओं का उचित ‘समाधान’ निकाला। इसके बाद हम दोनों आत्म-संतुष्टि तथा तृप्ति का अनुभव करते थे। उस अनुभव का सुख शब्दातीत है। डॉ. महरोत्रा यात्रा भीरू थे। घर अथवा अपने शहर के बाहर कहीं भी जाना उनको रुचिकर नहीं था। वे सन् 1970 तक तो जबलपुर आते जाते रहे मगर उसके बाद आने में संकोच करते थे। सन् 1969 या 1970 में वे सपरिवार आए थे। संज्ञा की आयु उस समय शायद तीन साल की थी। हम लोग सपरिवार जबलपुर से मण्डला होते हुए कान्हा किसली गए थे और वहाँ के जंगल की प्राकृतिक सुषमा को ‘छका’ था। संज्ञा इतनी बड़ी जरूर हो गई थी कि मेरा हाथ पकड़कर चल पाती थी। इस यात्रा के दौरान हुए एक भाषावैज्ञानिक अनुभव को पाठकों से साझा करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। मानव भाषा का विशेष गुण ‘स्थापन्नता’ अथवा ‘प्रतिस्थापना’ है। बहुत से पक्षी (तोता आदि) मानव भाषा के उच्चार खण्डों को बोलना तो सीख लेते हैं मगर वे उच्चार श्रृंखला में एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द को स्थापन्न नहीं कर पाते अथवा किसी शब्द को अपनी ओर से जोड़ नहीं पाते। श्रीमती महरोत्रा (मेरी संध्या भाभी, वास्तविक नाम उमा) एक पंक्ति बोलती थीं और संज्ञा उसे दोहराती थी। पंक्तियों का क्रम था – (1) संज्ञा रानी (2) बड़ी सयानी (3) भरे कुए से पानी आदि। अन्तिम पंक्ति थी - ‘और संज्ञा महतरानी’। जब संज्ञा इस पंक्ति को दोहराती थी तो हम सब उस पर हँसते थे और मज़ा लेते थे। एक दो बार ऐसा होता रहा। संज्ञा हमारे भाव को देखती रही। अगली बार जब श्रीमती महरोत्रा ने उक्त अन्तिम पंक्ति बोली तो संज्ञा ने बोला - ‘और संज्ञा की माँ महतरानी’। यह सुनकर मेरी, श्रीमती जैन और महरोत्रा जी की हँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी तथा श्रीमती महरोत्रा का चेहरा देखने लायक था। मुझे यात्रा करना उस समय प्रीतिकर लगता था। रायपुर के अनेक मित्रों और परिचितों से मिलना जुलना हो जाता था। सन् 1968 से लेकर सन् 1991 तक (बीच में, सन् 1984 से लेकर सन् 1988 की अवधि को छोड़कर) हर साल कम से कम दो-तीन बार, मेरा जबलपुर से रायपुर जाना होता रहा। मेरे रायपुर के प्रवास की अवधि के दौरान हम दोनों के बीच व्यक्तिगत, पारिवारिक, विभागीय और विषयगत स्तर की सब प्रकार की अनुभूतियों, सम्बंधों, समस्याओं, और अवधारणाओं को लेकर खुला संवाद होता था। एक ही विषय के दो व्यक्ति इतनी लम्बी अवधि तक परस्पर आत्मीय भाव से जुड़े रहें और एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बने रहें – ऐसे उदाहरण विरल है। ऐसे सम्बंध तब विकसित हो पाते हैं, जब अपने हित की कामना की अपेक्षा अपने सहयात्री के हित की कामना अधिक प्रबल रहती है।
सन् 1984 में, भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद ने प्रतिनियुक्ति पर विदेश सेवा के लिए मेरा चयन कर लिया। मैं रोमानिया के बुकारेस्त (बुखारेस्ट) के विश्वविद्यालय में ‘विज़िटिंग प्रोफेसर’ होकर चला गया। हमारे बीच पत्रों का आदान प्रदान होता रहा। मेरे एक पत्र का जो उत्तर महरोत्रा जी ने दिया, वह पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।
पत्र (2)
भाषाविज्ञान विभाग
रविशंकर विश्वविद्यालय
रायपुर
दिनांक 04 – 12 - 1984
प्रिय डॉ. जैन साहब,
आपका पत्र पाकर बहुत अच्छा लगा। आप को दीवाली भी मुबारक (रही) हो तथा नया वर्ष भी, जो एकदम पड़ोस में आ चला है। आप की शुभकामनाएँ वास्तव में हमें सुखी बनाए हुए हैं। हम तीनों मस्त हैं। संज्ञा नहाने में , मैं गाने में और संध्या खाने में! भगवान आप को वहाँ और फिर यहाँ दिन-दूनी रात छह गुनी तरक्की दे।
प्रो. रईस अहमद ने अपना दीक्षांत भाषण यहाँ अंगरेजी में ही भेजा था, यद्यपि पढ़ा (बल्कि समझाते हुए अदल-बदल करके बोला) हिंदी-उर्दू में था।
आप जब लौटेंगे तो रोमानियन में पारंगत हो जाएँगे, यह बड़ी खुशी की (और भाषाविज्ञानी होने के नाते गौरव की भी) बात होगी।
हमारे कुलपति जे. एन. यू. प्रोफेसर के रूप में वापस लौट गए। अभी विज्ञान के डीन कार्यभार सँभाले हुए है। नए कुलपति के चयन की प्रक्रिया आरम्भ हो गई है। वि.वि. कार्य परिषद् ने चयन-समित के सदस्य के लिए मध्य प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष श्री बोरा का नाम सुझाया है, जो शिक्षा मंत्री रह चुके हैं।
वहाँ का अध्ययन-शुल्क पढ़ कर ‘‘मज़ा’’ आ गया। (लेकिन बंधुवर वेतन भी तो यहाँ की तुलना में कल्पनातीत भारी भरकम होंगे)
इला जी आजकल क्या ठाठ मना रही हैं? मनु और मीतू भी भावी अनुभवों के वातावरण में आनंदमग्न होंगे। उन्हें सगा स्नेह। जी.पी श्रीवास्तव के परिवार का आप सब को सलाम पहुँचे।
आप के जबलपुरी विभाग के अध्यक्ष एवं महोदय पहले मुझे इंदौर में मिले थे। यू.जी.सी. ने हम ही दो को वहाँ के यू.जी.सी. फेलोशिप की परीक्षाओं के लिए ऑबजर्वर नियुक्त किया था। फिर विगत सप्ताह यहाँ हिंदी की शोध-उपाधि-समिति बैठक में आए थे। मैं डीन की हैसियत से उन के साथ कई घंटे बैठक में था। आप के प्रति उनके उच्छे भाव थे।
आज वि.वि. की क्या सारे प्रदेश की छुट्टी है। बहुत बुरी खबर है। समाचार पत्र की प्रथम (पूर्णपृष्ठीय) खबर है- ‘‘भोपाल में मौत का तांडव, जहरीली गैस ने सैंकड़ों जाने लीं’’ आज प्रदेश व्यापी राजकीय शोक समस्त कार्यालय व शिक्षा-संस्थाएँ बंद रहेंगी। पुराने शहर की कोई दो लाख की आबादी का चप्पा-चप्पा हाहाकार में डूबता-उतराता और मुक्ति के लिए सहारा तलाशता रहा। 400 मर गए और लगभग 2000 जीवन -मौत के बीच संघर्ष कर रहे हैं। कीटनाशक संयंत्र हमेशा के लिए बंद, न्यायिक जाँच के आदेश। शताब्दी की यह भीषणतम दुर्घटना है।
भारतवर्ष में आजकल चुनावों का माहौल चल रहा है। घर-घर और दर-दर यही चर्चा है।
शेष नमस्ते, और शेष फिर, और शेष
मैं
रमेश चन्द्र महरोत्रा
इस पत्र से मेरा यह मत प्रमाणित होता है कि महरोत्रा जी के मन में हमेशा मेरे हित की कामना रहती थी। उनके ही शब्दों में, "भगवान आपको वहाँ (रोमानिया में) और फिर यहाँ (भारत में) दिन-दूनी रात छह गुनी तरक्की दे"।
मैं रोमानिया में सन् 1984 से सन् 1988 तक टिका रहा। भारत लौटने पर भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित ‘देवनागरी लिपि तथा हिंदी की वर्तनी का मानकीकरण‘ शीर्षक पुस्तक में निर्धारित नियमों की जानकारी प्राप्त हुई। मेरे विभाग के एक सहयोगी ने कहा, "सर! अब हमें विभाग की ‘नेम प्लेट’ बदलवानी चाहिए"। कारण - ‘हिन्दी’ लिखना अब अशुद्ध है, गलत है। अब हमें ‘हिंदी’ लिखना होगा। जिंदगी भर तो हम तमाम लोग ‘हिन्दी’ लिखते आए हैं। अनुस्वार कोई एक व्यंजन ध्वनि नहीं है। यह विशेष स्थितियों में पंचमाक्षर ( ङ, ञ, ण, न, म ) को व्यक्त करने के लिए लेखन का तरीका है। संस्कृत शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग य, र, ल, व, श, स, ह के पूर्व नासिक्य व्यंजन को प्रदर्शित करने के लिए तथा संयुक्त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचमाक्षर के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो विकल्प से पंचमाक्षर को प्रदर्शित करने के लिए लेखन का तरीका है। उदाहरण -
कवर्ग के पूर्व | अंग, कंघा | ं = ङ |
चवर्ग के पूर्व | अंचल, पंजा | ं = ञ |
टवर्ग के पूर्व | अंडा, घंटा | ं = ण |
तवर्ग के पूर्व | अंत, बंद | ं = न |
पवर्ग के पूर्व | अंबा, कंबल | ं = म |
हिन्दी में परम्परागत दृष्टि से तवर्ग एवं पवर्ग के पूर्व नासिक्य व्यंजन ध्वनि [ न्, म्, ] को अनुस्वार [ं] की अपेक्षा नासिक्य व्यंजन से लिखने की प्रथा रही है। सिद्धांत उपर्युक्त स्थितियों में, दोनों प्रकार से लिखा जा सकता है। मगर कुछ शब्दों में नासिक्य व्यंजन के प्रयोग का चलन अधिक रहा है। उदाहरण के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के दशकों तक मार्गदर्शक डॉ. नगेन्द्र अपने नाम को 'नगेंद्र' रूप में न लिखकर 'नगेन्द्र' ही लिखते रहे। विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग के नामपट्ट में भी 'हिंदी' रूप की नहीं अपितु 'हिन्दी' रूप का ही चलन रहा है। मेरे सहयोगी ने निदेशालय द्वारा बनाए गए अन्य नियमों की भी जानकारी दी। मैंने पूरी जानकारी पाने के लिए महरोत्रा जी को पत्र लिखा। महरोत्रा जी से प्राप्त जानकारी के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।
पत्र (3)
रायपुर
दिनांक 21-10-1990
डॉ. जी,
नमस्कार
आप का तार भी मिला था, पत्र भी मिला। धन्यवाद और आभार, संज्ञा और उसकी कन्या की ओर से भी आप सब को प्रणाम। आजकल ये दोनों यहीं हैं।
भाषाई प्रयोगों में व्यवहार की शिथिलता को अराजकता की ओर मुड़ने से ‘अनुशासन’ ही रोक पाता है। ‘मिलती’ अनेकरूपता है, पर ‘वांछित’ एकरूपता है। यदि हम विकल्पों को अल्पातिअल्प नहीं करेंगे, तो हमारा ‘आदर्श’ कुछ नहीं रहेगा।
अलग-अलग भागों में ‘देशानुरंजित’ अलग रूप अलग बात है, पर देश भर में, उदाहरण 6 के 6 रूप (छे, छै, छह, छः, छय, छ) ‘मानक हिन्दी’ के स्तर को घटाते हैं।
नाप-तोल को ‘मानक’ कहा ही तब जाता है, जब बाट और इंच-टेप नपे-तुले हों, कम-ज्यादा न हों, चार बजकर छप्पन मिनट को ‘शुद्ध् रूप में’ पाँच बजे नहीं कहा जा सकता।
मुद्रण, टंकण की सुविध हेतु ‘क्क’ आदि चुन लिए गए हैं अब। - - - आप के ‘गड्.गा’ को भी ‘अशुद्ध्’ नहीं, बासी, कहा जाएगा, जैसे कि ‘संज्ञा’ के लए ‘सञ्ज्ञा’।
यदि ‘जाएगा’ और ‘जायेगा’ दोनों को ढील दी तो ‘जायगा’ ‘जावेगा’ वाले भी आरक्षण चाहेंगे।
यह कथन कि दो मूल रूपों से बने शब्दों में ‘क्’ अधिक मान्य माना जाता है, ‘वृहत् पारिभाषिक शब्द-संग्रह’ में ही उखड़ गया है, जैसे ‘वाक्पटुता, वाक्प्रपंच’। - - - - । ‘हलंत’ के ‘अंत’ पर ध्यान देने से स्थिति स्पष्ट है कि, उदाहरणार्थ, ‘वक्ता’ का ‘क्’ हलंत नहीं है, जबकि ‘वाक्-क्रिया’ का ‘क्’ हलंत है ;यानी अंत में है, यानी समास-चिह्न के पहले है।
इला भाभी चंद्र को नमस्ते और स्नेह, मीतू-मनु को स्नेह और प्यार।
आपका
रमेश चन्द्र महरोत्रा
मैंने महरोत्रा जी से प्राप्त पत्र के कुछ अंशों को ही प्रस्तुत किया है। मानकीकरण अपनी जगह ठीक है। मगर यूरोप के 18 देशों की यात्राओं से मुझे यह ज्ञान प्राप्त हो गया था कि भविष्य में हमें ‘भाषा के मानकीकरण’ की अपेक्षा ‘भाषा के आधुनिकीकरण’ पर अधिक ध्यान देना होगा। मैंने पुनः दूसरा पत्र लिखा। महरोत्रा जी से प्राप्त पत्र के अंश निम्न है। (पूरा पत्र इस कारण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके हाथ से लिखे हुए बहुत से शब्दों की वर्तनी को यूनिकोड में टाइप नहीं किया जा सकता)।
पत्र (4)
रायुपर
12.2.1991
प्रिय जैन साहब,
कार्ड भी मिला और पत्र भी। धन्यवाद और स्नेह और नमस्ते और वगैरह।
मैं 21 दिन तक एक चिकित्सालय में भरती होकर अपनी ‘सर्विसिंग’ करवा आया।
सब झगड़ा पुराने-नए का है। कुछ ‘गङ्गा’, कुछ ‘गंगा’। हमारी जेब से क्या जाता है?
‘वाङ्मिति’ के तीन अंक निकल चुके हैं।
उसके सब-कुछ डॉ. कर हैं, मैं कुछ नहीं। उस बारे में मैंने बात की थी। उसमें बड़ा लेख छापना नहीं ‘पुसाएगा’। वैसे भी बेचारी कृशकाय है, खर्च ‘कर’ करते हैं।
इलाजी को स्नेहाभिवादन। ऋचा और मनु को सला-वाले-कूँ।
मेरा आशय यह था हुजूर कि हलंत तभी लगेगा, जब वह अंतिम वर्ण के साथ होगा, अर्थात् यदि, उदाहरणार्थ,‘वाक्प्रपंच’ और ‘वाक्पटुता’ लिख रहे हैं, तब भी ठीक है, क्योंकि ‘क्’ मध्य में है, और यदि ‘वाक्-पटुता’ और ‘वाक्-प्रपंच’ लिखें, तब भी ठीक है, क्योंकि ‘क’ अंत में है ;यहां ‘हलंत’ है। - - - - - ।
शेष कुशल-मंगल की चाह में,
आपका
रमेश चन्द्र महरोत्रा
सन् 1992 में, मेरी नियुक्ति केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक पद पर हो गई। मैंने महरोत्रा जी से संस्थान के विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेने और सहयोग देने के लिए समय समय पर मुख्यालय आगरा और संस्थान के केन्द्रों के शहरों में आने का आग्रह किया। महरोत्रा जी का उत्तर, "बाहर की यात्राएँ करना बंद कर दिया है। सभी विश्वविद्यालयों एवं संस्थाओं का कार्य करना भी बंद कर दिया है। आपके संस्थान का काम प्रेम और निष्ठा के साथ करता रहूँगा"। प्राप्त पत्र प्रस्तुत है।
पत्र (5)
डा. रमेशचन्द्र महरोत्रा
रायपुर
दिनांक 26-01-1996
प्रिय डॉ.जैन साहब,
आप ने पोस्ट अॅम.ए. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान उच्च डिप्लोमा 1995 का एक लघु शोधप्रबंध मेरे पास मूल्यांकन हेतु भिजवाया है। इधर साढ़े चार वर्षों से एक मात्र आप का संस्थान ही मैंने शेष छोड़ा है, जिसके ऐसे प्रत्येक कार्य को मैं प्रेम और निष्ठा के साथ करता आ रहा हूँ ; शेष सभी जगहों के कार्य मना कर दिए हैं। खैर यह तो आप को पत्र लिखने का बहाना ढूँढा है मैंने, असल में मेरा मन हो रहा है कि कुछ अन्य बातें लिख कर हलका हो लूँ।
मेरी ‘मानक हिंदी-लेखन-नियमावली’ के बारे में मुझे बहुत जगहों से बहुत अच्छी -अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिली हैं। कई स्थानों -व्यक्तियों से माँग भी आई। 1-2, 1-2 की ही नहीं, 10, 20 और 25 प्रतियों की भी। भाटिया साहब ने तो अपनी आगामी पुस्तक में इसे यथावत छापने के लिए अनुमति मांगी है। (जरूरी नहीं है कि इस के चालीस के चालीस नियम सब मानें पर - - - बात यहाँ पर ही छोड़ दें)। इधर हमारे ‘विधवा-विवाह-प्रचार-जनसूचना-पत्रक’ की प्रति भी मिली होगी।
इसी माह मेरी एक और पुस्तक ‘टेढ़ी बात’ (सौ लघुलेखों का संकलन) आई है, दुर्ग-इलाहाबाद से। मेरी दो-दर्जन में से दो तिहाई से अधिक किताबें हिंदी पर हिंदी में ही हैं। आप से क्या छिपा है। मुझे बधाई। आपकी।
‘लिंग्विस्टिक्स एंड लिंग्विस्टिक्स - स्टडीज़ इन ऑनर ऑफ् रमेश चन्द्र महरोत्रा’ लगभग पूरी हो गई है, जिसमें आप का लेख ‘हिंदी-उर्दू का सवाल तथा पाकिस्तानी राजदूत से मुलाकात’ 16 पृष्ठों में है (पृष्ठ 311 से 326 तक), लेकिन संपादक वगैरह सब-कुछ राव साहब अपने बेटे की शादी में ऑस्ट्रेलिया तीन माह के लिए चले गए हैं। यदि फल लटके नहीं तो पके कैसे!
आप घोरातिघोर रूप से दायित्वग्रस्त और व्यस्त होंगे, लेकिन यही तो आप की तरक्की और सफलता का मूलमंत्र है। कृपया और अधिक बड़े हों, इस शुभकामना और इला-मीतू-मनू को स्नेह नमन के साथ,
आपका
रमेश चन्द्र महरोत्रा
‘निःशुल्क विधवा-विवाह-केन्द्र’ की स्थापना और मृत्यु के उपरांत ‘श्रीमती महरोत्रा सहित अपने शरीर के अंग-प्रत्यंग का दान’ उनकी समाज-सेवा की भावना के जीते जागते दस्तावेज़ हैं। महरोत्रा जी अपने जीवन की प्रत्येक घटना से मुझे अवगत कराते रहते थे। यह उनका स्वभाव हो गया था। छोटे से पोस्ट कॉर्ड में ‘गागर में सागर’ भर देते थे।
पत्र (6)
डगनिया,
रायपुर-492013
दिनांक 21-04-1997
प्रिय डॉ. जैन साहब,
मीतू/ऋचा जी सुखी होंगी अपने श्रीमान जी के साथ।
इला ओर मनु मस्त होंगे,
आप स्वस्थ होंगे,
संस्थान सानंद होगा।
मेरे एक-दो हाल-चाल-
बिलासपुर में मार्च में एक समारोह में मुझे ‘छत्तीसगढ-विभूति-अलंकरण’से सम्मानित किया गया। दूसरी विभूति सचमुच विभूति हैं-85-वर्षीय लोक नायक, जिन्होंने दरजनों लोकनाटिकाएँ मंचित करवाई हैं (तीजनबाई आदि उन्हीं की देन हैं)। वे दुर्ग के हैं।
मेरा ‘दो शब्द’ स्तंभ आप शायद जानते हैं, जो रायपुर-बिलासपुर- जबलपुर-सतना-भोपाल से निकलने वाले ‘देशबन्धु’ में दस वर्ष से छप रहा है, कल उसका 494 वाँ लेख छपा। एक-एक लेख में औसतन 10 शब्दों की ऐसी-की-तैसी होती है। 500वें की याद में मोटा हो रहा हूँ।
गोया भगवान की कृपा है और मैं अपनी गृहलक्ष्मी सहित अति संतुष्ट हूँ। अन्य बातें न जाने कितनी हैं, पर पोस्टकार्ड धमका रहा है कि जल्दी नमस्ते करो।
आप सब के लिए हम सब की ओर से जो-जो शुभ हो, वह सब,
आपका
रमेश चन्द्र महरोत्रा
पत्र (7)
डा. रमेशचन्द्र महरोत्रा
रायपुर
दिनांक 22-02-1999
प्रिय डॉ. जैन साहब,
आपका पत्र (1-26/99) इतना अच्छा लगा कि यह पोस्टकार्ड खुद-ब-खुद रैक से निकल कर मेज पर आकर बिछ गया।
आपकी शुभकामनाओं और बधाइयों ने स्मृतियों के कितने ही बगीचे खड़े कर दिए।
भगवान ने जो पद और सम्मान आप को दिया है, बहुत ही कम विद्वानों को मिल पाता है। सच्चा परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता।
हम लोगों की प्रार्थना है कि आप सपरिवार स्वस्थ ओर समृद्ध रहें तथा आप के सुखों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो।
पुनश्चः आप ने जीवन में ‘संतुष्टि’ और संतृप्ति’ बहुत अच्छे शब्दों का प्रयोग किया है। एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि 12 वर्षों से छपते चले आ रहे मेरे स्तंभ ‘दो शब्द’ का 579वाँ लेख पिछले रविवार को छपा था ‘देशबन्धु’ में, जो एक साथ रायपुर-बिलासपुर-जबलपुर-भोपाल-सतना- शहडोल से प्रकाशित होता है। ऐसी कई बातों से जीवन सार्थक लगता है। आप जैसे अच्छे लोगों की सद् भावनाएँ मिलती रहती हैं, और भला क्या चाहिए !
आपका
रमेश चन्द्र महरोत्रा
मैं 31 जनवरी, 2001 को सेवानिवृत्त हो गया और तदुपरांत बुलन्दशहर आकर बस गया। मैंने महरोत्रा जी को सेवानिवृत्त होने की सूचना तथा बुलन्दशहर के पते से अवगत कराया। इसका जो उत्तर मिला उसे यथावत प्रस्तुत कर रहा हूँ। मैं अब कोई टिप्पण नहीं करूँगा। इस पत्र के साथ ही इस स्मृति लेख को विराम दूँगा। डॉ. महरोत्रा जी के मन में मेरे प्रति कितना स्नेह एवं अपनत्व-भाव था, पत्र को पढ़कर, इसका आकलन करने के लिए, पाठक स्वतंत्र हैं। इस क्षण महरोत्रा जी से जुड़ी यादों की अबाध और अविराम आत्मीयता का अहसास मेरी अपनी धरोहर है।
पत्र (8)
डगनिया,
रायपुर-492013
दिनांक 13-03-2001
प्रिय डॉ. जैन साहब,
अभी आपकी सेवानिवृति का सूचनापत्र मिला। भगवान आप को आगे भी पूर्ववत् यशस्वी जीवन व्यतीत करवाएँगे। क्योंकि आप में ‘योग्यता, निष्ठा, कर्मठता’ तीनों गुण विद्यमान हैं।
आप ने भी जनाब, हम लोगों के प्रति कम आत्मीयता नहीं बरती है। बहुमूल्य और सदा याद रहने वाली मीठी-मीठी।
स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने के लिए बधाई।
आपका
रमेश चन्द्र महरोत्रा
महरोत्रा जी का जीवन सादगी, ईमानदारी, मानवीय सद् प्रवृत्तियों की खुली किताब थी। उनके विचार, रचनाएँ और यश-गाथाएँ अमिट हैं, अटूट हैं, अनश्य हैं, अमर हैं।
पत्थरों पर कदमों के निशां बना देते हैं।
कौन किस शान से गुज़रा, इसका पता देते हैं।।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर – 203001
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