उसके नैनों की पगडंडी में बारिश की फुहार रौशन आरा बेगम अनुवाद व प्रस्तुति : दिनकर कुमार ( dinkarkuma...
उसके नैनों की पगडंडी में बारिश की फुहार
रौशन आरा बेगम
अनुवाद व प्रस्तुति : दिनकर कुमार
अनुवादक के दो शब्द
समकालीन असमिया कविता जगत में रौशन आरा बेगम एक जानी-पहचानी कवयित्री हैं, जिन्होंने निरंतर कविता कर्म जारी रखते हुए पाठकों के बीच अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। असम में पत्र-पत्रिकाओं में काफी दिनों से उनकी कविताएं प्रकाशित होती रही हैं और अपनी अलग शैली, प्रतीक और सूक्ष्म अनुभूतियों के चित्रण के कारण लोकप्रिय होती रही है।
प्रस्तुत संकलन के जरिए उनकी प्रतिनिधि कविताओं को हिंदी के पाठकों के समक्ष लाने का प्रयास किया गया है।
भारतीय साहित्य में जब भी असमिया कविता का उल्लेख होता है तो इसकी विशिष्टताओं के रूप में बहुरंगी प्रकृति, विविधतापूर्ण लोक जीवन, विविध रीति-रिवाज, संस्कृति और परंपरा की चर्चा जरूर की जाती है। रौशन आरा बेगम की कविताओं में असम की मिट्टी की सोंधी महम मिलती है। इसके अलावा उनकी कविताओं में नारी अस्मिता के विविध पहलुओं से पाठक का परिचय होता है।
उनकी कविताओं की संवेदनशीलता पाठकों के अंतर्मन का स्पर्श करती है। कहते हैं कि कविता कवि की डायरी होती है। रोशन आरा बेगम की कविताएं भी उनके जीवन की डायरी की तरह हैं जिनमें वे अपने अनुभव, बचपन की स्मृतियों, वर्तमान के मीठे-कड़वे क्षणों का प्रभावशाली तरीकें से व्यक्त करती हैं। मुझे विश्वास है कि हिंदी के पाठकों को इस संकलन की कविताएं पसंद आएंगी।
- दिनकर कुमार
उसके नैनों की पगडंडी में बारिश की फुहार
मिट्टी की दाल-हल्दी से नहलाते हुए भी
मामा की गोद में चढ़कर होम के बगल में बैठते हुए भी
बादल से ढका था आमसान।
कड़कती बिजली वाले आकाश से
आना चाहकर भी
नहीं आई थी
मूसलाधार बारिश
कहारों के कंधे पर डोला को उठाते वक्त भी
डोला के कच्ची राह से बढ़ते रहने पर भी
उतरकर भी ठिठक गई थी बूंदाबांदी
डोला के प्रवेशद्वार तक पहुंचने पर ही
मौसम साफ हुआ था
पता नहीं बारिश कहां भागी थी।
तूफानी रफ्तार से एक दिन अचानक
हवा आगे बढ़ी थी विपरीत दिशा की ओर
डटकर बच्चा उससे लिपट गया था
र्निजनता तोड़कर एक हुदू ने जब
घर उजड़ने की बात बताई
सीने की बारिश उमड़ आई थी आंखों में
उषा किरणों ने जिस दिन राह गंवाई
शिलाएं पिघलकर बह गई थी
घोंसले छोड़कर पंछी छटपटाते हुए उड़ते फिरे थे
मवेशी घर की गाएं रंभाने लगी थी
बत्तख-मुर्गे बाड़ का बंधन तोड़कर
निकल जाना चाहते थे
वज्रपात से आहत होने की तरह ठिठक गई थी वह
माथे का अभिमानी लाल सूरज
जिस दिन डूब गया था असमय ही
मूसलाधार आने वाली बारिश की फुहार
उस दिन से उसके नैनों की पगडंडी पर
कुटुंब को गंवा कर तेजी से उतरी
उस बारिश में भीगी थी वह
उसके संग भीगी थी खेतों की हरियाली
सुदूर पहाड़ का नीलापन और
पेड़-पौधे, नदी-झरना, फूल-तितली के संग
एक उन्मुक्त निष्पाप हंसी
(2010)
हौसला
उत्साहहीन क्यों बनी हो
छलांग मार कर खाई पार करो
उसी जगह सूरज गिरता है
नदी रहती है इसीलिए सीने से लगा लेती है
मुड़कर मत देखना
अंधेरे में बुझ गए हैं दिए
आकाश के आंखें खोलने पर बटोरना फूल
बूढ़े-बुजुर्गों को चर्चा करते सुना है
इस बार बाढ़ धो डालेगी खेती
उत्साहहीन क्यों बनी हो
छलांग मार कर खाई पार करो
आग में जलकर ही सोना बनकर दमकोगी
फिसलने पर ही साहस बटोरोगी
गहराई से ढूंढ़ते ही ऊपर नहीं आती रोशनी
उस दिन थी पूर्णिमा
रात भर आसमान में चमकता रहा था चांद,
आसमान की आंखों में भरी जवानी का ख्वाब।
मीनाकारी की हुई तारों की चादर की
लंबी घूंघट तानकर
हास्नाहाना की महक के साथ खुशबूदार बिछौने पर
मानो बैठी हो दुल्हन सज-धजकर।
किनारे तक पहुंचने के लिए तैरते हुए सागर ने
प्रचंड चंचलता की लहरें पैदा कर
व्यर्थ ही टक्कर मारी थी किनारे को,
आसमान जो है पहुंच से दूर!
हवा के सर्द हाथ को फैला कर
छूना चाहा था आसमान का शरीर।
नीलिम सलिलराशि चांदनी में दमक रही थी।
रात जितनी गहरी हुई थी उतना मधुर हुआ था प्रेम।
प्रेम के नीलेपन में आसमान और सागर के
एकाकार होने तक
किनारे बालूचर में बैठा रहा था कवि,
उस दिन पूर्णिमा की रात।
(2010)
भयावह
सांप की तरह कच्ची राह से
मेरे तेज कदम
एक हाथ में मां का दिया हुआ दीपक थामकर
दूसरे हाथ से बच्चे को सीने से लगाकर
चांद भी नजर नहीं आता आकाश में
घुप्प अंधेरे में राह को राह नहीं सूझती
दूर कहीं गीदड़ की पुकार और झिंगुर की आवाज
लंबे पैरों वाले की कुछ बूंदें गिरी थी बदन पर
बांस की झुरमुट के बगल से गुजरते हुए दोनों
गड्ढे में भूत की बड़ी-बड़ी आंखें
नाच रही थीं
कलेजे को चीर कर लहू की धार निकल कर आ गई थी
मेरी आंखों में
(2011)
अरिन्दम ज्योति तुम शंकरदेव
अरिन्दम ज्योति तुम,
पन्द्रहवीं शताब्दी के समाज वैज्ञानिक।
टूटे प्राणों में झांककर
उम्मीद के बीज बोकर
सिखाई सुंदर की आरती।
हे दीप्ति मेरे सखा!
प्रेम से जगत को बांधा,
एकता के धागे से दिलों को जोड़ा,
जाति-कुल की दीवार तोड़कर,
ऊंच-नीच को भूलाकर,
धरणी पर प्रचारित किया
एक शरण हरिनाम धर्म भक्ति।
मछुआरे-शिल्पकार चरवाहे
लोहार-कुम्हार-बुनकर
किसान-ग्वाले-महावत
सबके सब श्रमजीवी
एकत्रित होकर आगे बढ़े।
काल चेतना को जाग्रत कर
नृत्य को रचा,
नाट्य की रचना हुई
आौर कितने सारे मधुर गीत-वाद्य,
अनेकता के काले बादलों को हटाकर
वर्णमय संस्कृति की हुई उलपब्धि।
असम में भगवत धर्म का प्रचार करने वाले शंकरदेव को ‘महात्मा’ और ‘महापुरुष’ की उपाधियों से अलंकृत कर आज भी स्मरण किया जाता है। उन्होंने जिस वैष्णव धर्म का प्रवर्तन किया था, वह ‘महापुरुषीय धर्म’ कहलाता है। श्रीमंत शंकरदेव असमिया भाषा के अत्यंत प्रसिद्ध कवि, नाटककार तथा हिन्दू समाजसुधारक थे।
(2009)
केवल कुछ समय (1)
केवल कुछ समय के हेरफेर से
उसके हाथ में ही रह गया था
उसको देने के लिए लाया गया गुलदस्ता।
रुकी हुई रेलगाड़ी ने एक सीटी बजाकर
यात्रा की पूर्व सूचना दे भी दी मगर
घटने वाली दुर्घटना से खुद को
बचा नहीं पाया था वह।
आंखों से आंखें हटाए बगैर
क्या बढ़ा दिया था अनजाने में ही
खुली खिड़की से
उसने प्रसारित कर दी थी बांहें।
बढ़ाए गए गुलदस्ते तक
पहुंच नहीं पाई थी वह
रेलगाड़ी की खिड़की से निकाला गया हाथ
खुला ही रह गया था
सफर के लिए तैयार रेल गाड़ी
बढ़ गई थी रफ्तार
उसकी आंखों में देखते हुए भी
जो बात एक बार भी सोच नहीं पाया था
वही बात हुई थी सच।
कोई नहीं जानता था इस तरह जुदाई होगी,
विच्छेद की आग दोनों को झकझोर डालेगी।
केवल कुछ समय ही है क्या काफी
किसी को विदा करने के लिए
किसी को सीने से लगाने के लिए
अथवा किसी के सीने में बिखेर देने के लिए
प्यार के बीज!
(2010)
केवल कुछ समय (2)
प्लेटफार्म के शोर-शराबे में खो गई थी
मूंगफली बेचने वाली लड़की
चाय बेचने वाले आदमी को भी
फिर किसी ने नहीं देखा था
जिस तरह रेलगाड़ी के पहिए के नीचे गिरकर
मर जाने वाले की बात भी
भूल गए थे लोग
केवल कुछ समय बाद
खाली सीने को पोछकर आह भरने वाला
स्टेशन तैयार हुआ था
एक दूसरी रेलगाड़ी के आगमन के लिए
एक उत्सव मुखर परिवेश के साथ स्टेशन
दमक उठा था केवल कुछ समय बाद
यांत्रिकता की लहर में खो जाने के लिए
एकत्रित होते हैं हजारों लोग
जरुरत केवल कुछ समय की
केवल कुछ समय मिलते ही
एक संदेह क्रिया कर सकती है मस्तिष्क में
विश्वास की मृत्यु भी हो सकती है
अविश्वास के अंकुर उग सकते हैं
अंकुरों को पेड़ों में तब्दील होने के लिए
या हत्या, लुंठन, विस्फोट के
अधकच्चे फलों को पुष्ट होने के लिए भी
जरूरत केवल कुछ समय की
केवल कुछ समय में एक देश, एक जाति को
एक बम नष्ट कर सकता है।
प्रेमी जोड़े को जुदा कर सकता है।
विच्छेद की चिनगारी
सुलगाने के लिए भी जरूरत
केवल कुछ समय की।
(2010)
तुम्हारे खामोश रहने पर
तुम्हारे खामोश रहने पर दीमक चट कर जाता है
सुनहले वक्त को,
स्निग्धता गंवाकर फटेहाल हो जाता है चांद;
नदी भूल जाती है अपनी द्वंदमय गति,
राह छोड़कर कहीं और उड़ती है गो-पथ की धूल।
तुम्हारे बोलते ही
स्याह मेघ से ढका हुआ आसमान
रोना भूल जाता है,
पत्थर का पहाड़ हरा हो जाता है,
अधखिली कलियां मुस्कराने लगती हैं।
एक चंद्रताप की तरह घेरकर
समेट लेते हो तुम
मेरे समस्त प्रेम-अप्रेम का चित्र,
तुमसे बांटती हूं अलिखित इतिहास,
वर्तमान को टुकड़ों-टुकड़ों में गूंथकर
भविष्य का भूगोल चित्रित करती हूं,
भूस्खलन की चपेट में गायब हुए
प्रत्येक गांव-शहर-नगर को संवार देती हूं।
उस दिन कौन-सा वार कौन सी तारीख थी नहीं जानती
महासभा में दमक रहा था एक बिंदु
जुटे हुए लोगों के बीच आकर्षण का एक केंद्र,
दुर्वार गति शक्ति के साथ मानो एक उज्ज्वल नक्षत्र;
धो देने के लिए कूड़े का समस्त कीचड़-पत्थर-रेत।
(2011)
चांद को झपटकर
चांद को झपटकर पल-पल चमक कर
नीली नदी फेन-गाद के साथ जब बह जाती है;
आकाश के सितारे
टूट कर एक-एक कर पानी में खो जाते हैं।
चांद की चीख से सोए हुए पेड़ जाग जाते हैं,
डाली के पंछी बच्चों को
पंख के नीचे छिपाते हैं;
तैरना सिखाया नहीं जा सकता सितारों को
पानी में मछलियां उछलती हैं।
बर्फ की तरह सर्द सीने को दबोचकर
देखता रहता है बूढ़ा पहाड़
गुमसुम मन से एक आह
प्यार से लिपट जाती है,
अंधेरे को धकेल कर रोशनी के आने की
राह देखते हुए
वे सभी थककर सो जाते हैं।
सवेरे हरियाली चबा जाने वाले कीड़े को और
कोई पहचान नहीं पाता।
(2011)
दिल एक उजड़ा गुलशन
छोटा ही सही मगर मेरा था
एक हरा-भरा गुलशन
उनके पास भी था एक रंगीन मन।
दिल के बदले दिल ढूंढ़कर सजाया था
गुलशन की सुबह-शाम को।
कटार हाथ में लेकर ही मानो वह आए थे पगथली में,
नासमझ बच्चे की तरह फूलों-कलियों को तोड़ा था,
खूंटा तोड़कर भागी गाय-बकरी की तरह पेड़-पौधे उजाड़े थे।
क्योें मैं जानकर भी जान नहीं पाई
मेरे ख्वाबों के गुलशन में वह कौन हैं।
सितारों से भरपूर आकाश में दमकते हुए
नहीं हैं वह पूर्णिमा के चांद।
आह, फूल-तारे-गान की लहर से भरपूर
मेरा छोटा पोखर!
और निदान की बांसुरी का मधुर सुर।
टूटे पाल वाली नाव की पुकार सुनने के लिए मैं क्या
पतवार गंवाने वाला और कोई मांझी,
बीच सागर में डूबते-उतरते मेरी तरह तन्हा,
जिसका दिल एक उजड़ा गुलशन।
(2010)
दूर जाने के बाद से ही
दूर जाने के बाद से ही उतर आने वाला अंधेरा
टटोलता फिर रहा है रोशनी की राह।
करीब आने में कितनी देर
दूर जाने वाला सूरज!
यही नहीं समझकर, विषाद से बौरा उठी
कमर तक बिखर गए बाल।
बारिश बनकर गिरने पर
बादल नदी बनकर बहता है,
नदी के ऊपर धुंध हमेशा घनी होती है।
सरल रेखा से गुजरते हुए भी
चीटिंयों का झुंड राह के निशान गंवाता है।
नाजुक उंगिलयां
व्यर्थ ही सरोवर के पानी फूल तोड़ती हैं!
हे भोले-भाले दिल!
सही राह से ही वे आगे चले गए।
वे तो काराबंदी नहीं थे,
न थे कोई अपराधी ही!
(2011)
जड़ता से ही गति की यात्रा
व्यस्त राजपथ के वे उद्दीप्त सूर्य,
मिट्टी की सुगंध वाले जीवन जहाज के
एक सुनिपुण नाविक।
अधपके-अधकच्चे सुनहरे बालों के साथ
शालीन सूरत वाला ऊंचा लाल-गोरा शख्स।
मेरा हाथ थामकर तुम ले जा रहे हो,
लड़खड़ाते हुए एक शिशु के कदमों से
प्राचीन अरण्य के बीच से
तुम्हारा हाथ थामकर मैं जा रही हूं।
गोरैए की तरह
घोंसला बनाना सिखाते हो तुम,
आकाश के चांद-सूरज-तारे को
आंखों में प्रतिफलित करने का हौसला देते हो,
हरे घासवान में सृष्टि कर आदिपाठ
दोहराने के लिए भी कहते हो।
प्रांतर-गिरिपथ पार कर, पहाड़-पर्वत चढ़कर
कंचनजंघा की ऊंची चोटी के सीने में
प्राप्ति का हरा पताका लहराने की तमन्ना के साथ
तुम्हारे करीब आने के दिन से ही
मेरी लहू की नदी में रंगीन लहरें,
मन के भीतर तुम्हारी बोली का मधुर शहद।
तुमने कहा था, अगर ढूंढ़ना आता हो
कातिक के खेत में भी अगहन का पका धान मुस्कराता है,
वैशाख न होने पर भी कोयल-केतकी
पेड़ की डाली पर गीत गाती है,
तीखी धूप में भी ठंडी हवा शरीर को ठंडक देती है,
और दिखाया था ढूंढ़ने पर किस तरह
मरुभूमि भी दे सकती है मरुद्यान की ठंडी छाया।
तुमने मेरे भीतर प्रवाहित की है
शेली की फल्गुधारा,
कीट्स के विचारों से पहचान करवाई है,
मेरी उंगलियों से टपकाई है लोर्का की संजीवनी सुधा,
चेतना से अवचेतना तक फैलाई है
नेरूदा की स्वप्नगाथा,
तुमने ठीक ही कहा था,
जड़ता से ही शुरू होती है गति की यात्रा।
मेरे उजाले का हाथ
अधपके आम की तरह थे
मेरे हाथ,
तुममें से किसी ने गौर नहीं किया था,
चूंकि, तुम सबके हाथ थे उजाले के।
मैं भौचक होकर उन हाथों को देखती थी,
सीखना चाहती थी, किस तरह अंधेरे को धकेलकर
उजाला दबोच लेता है हाथों को
और याद करने की कोशिश की थी वह मंत्र
जिसे दोहराने से मेरा भी साथ नहीं छोड़ेगा उजाला।
उजाला कहां से आता है ऐसा
एक दिन वृद्ध आकाश से पूछा था
उसने कहा हवा की दिशा में बढ़ जाओ।
दस दिशाओं में हवा के साथ दौड़कर
दस खोटे सिक्के बटोर लाई थी
ताबीज की तरह पेट-गले में पहन भी लिया था,
फिर भी उगा नहीं था उजाले का हाथ।
एक दिन किसी ने कहा आग से कहकर देखो,
मगर सावधान, कहीं झुलस मत जाना।
किस तरह सुनूं भला वह सब
पेट में ही हाथ-पैर छिपाने वाली बातें।
अन्य एक ने एक दिन कहा,
तुम्हें उजाले का हाथ क्यों चाहिए
अंधेरे हाथ से ही जगत को जब जीत सकती हो!
मेरी चाह और लगन को
देखकर ही शायद
तुमने बढ़ा दिया था अपना हाथ,
चुंबकीय पदार्थ पर चुंबक के आवेश की तरह
उजाले के लघु कण ने न्यूक्लियस के साथ
मेरे हाथ में एक घरौंदा बनाया,
और एक दिन पहले वाले हाथ की जगह
सबकी नजरों से बचकर रोशन हुआ एक उजाले का हाथ।
नए सिरे से उग आए
मेरे हाथ की उज्ज्वलता को देखकर
तुम्हें भी अचरज हुआ था,
अपने हाथों की रोशनी से मापकर तुमने
मेरे हाथ को एक बार चूमा था
और कई उजाले के हाथ पाने के लिए अब
तुम्हारी प्रतिमा के सामने
मैं रोज एकलव्य की तरह ध्यान लगाती हूं
मेरा अंगूठा मांगने वाले गुरुदक्षिणा के तौर पर
नहीं हो सकते तुम द्रोणाचार्य मैं जानती हूं।
उड़ाकर ले जाती है हवा
उड़ाकर ले जाती है हवा
कभी पतंग की तरह
कभी सूखे पत्ते की तरह
हवा के बहने तक नदी है नदी
खेत हैं खेत
वहीं हम उपजते हैं
और वहीं मिट जाते हैं
कहीं कीड़े का रेशा
कहीं एक अदृश्य हाथ
लपेट कर लाता है समय
और सिमट जाती है उड़ान।
कौन बजाता है बांसुरी अपराह्न में बालूचर में बैठकर
खींच लाता है सीने में वृक्ष के नाम पर फूस-नरकट
मुझ पर भरोसा करने लगे हो
मैं अगर रात को दिन कहूं या दिन को रात कहूं
तुम मानने लगे हो
मैं समझ गई, तुम मुझ पर भरोसा करने लगे हो
जिस भरोसे से पंछी बंजारे बनते हैं
मछलियां पानी में रहती हैं
फूलों पर तितलियां मंडराती फिरती हैं
तुम सोचते हो, यह भरोसा
तुम्हारे पद पथ पर बिखेर देगा सुगंधित फूल
सांसों में सितारे मुस्कराएंगे
रुलाई में मोती झरेंगे
इन्द्रधनुष से आलोड़ित होगा यात्रा का पथ
वर्षा में मेंढकों के टर्राने से
जो भरोसा जागता है
सुबह-शाम पंछियों के कलरव में
जो भरोसा प्राण पाता है
जो उगता है सूर्य की किरण की चमक में
जो बहता है रात की चांदनी की दमक में
जो कच्चू के पत्ते के पानी की तरह तुम्हारा रंग नहीं देखता
जो घड़ियाल के आंसू की तरह तुम्हें चकित नहीं करता
जिस भरोसे से आकाश रंगीन होता है फागुन में
कांस का फूल हिलता-डुलता है आश्विन में
कोहरा उतरता है जाड़े में
पसीना झिलमिलाता है गर्मी में
जिस भरोसे से आज भी आकाश का सीना नीला
सागर का पानी खारा
पहाड़ का मंजर हरा
सितारों में रोशनी
क्या वह भरोसा मनुष्य की आंखों में प्रतिफलित होता है
जिस विश्वास को ढूंढ़ पाए हो मानवी सीने में
अपनी तस्वीर बनाओ
अपनी तस्वीर बनाओ, तूलिका से रंग भरो
कभी जलचित्र में, कभी तेल चित्र में
कैनवस पर कैद करो समय को।
जीवन बहुत छोटी!
खुद से बाते करने का समय बहुत कम।
रास्ता लंबा, साथ लेकर जाओगे क्या?
तुम्हारे साथ तुम, मेरे साथ मैं।
बनाओ, बनाते रहो
कभी आंखें, कभी होठ,
कभी तलवा।
कौन जानता है किधर बह जाए किसकी गति!
एक बार गुजर जाएगा समय
लौटने पर भी पहचान नहीं पाओगे
अमृत कहते-कहते कहीं जहर न बन जाए
तुम्हारे हाथ का मदिरा का प्याला।
रूपहला चांद
रूपहला चांद
कोहरे की सीढ़ियों से आगे
बढ़ रहा है
टार्च लेकर राह दिखा दो
सितारों को
जाड़े ने जकड़ रखा है।
प्यार से पिघलकर
खड़ा पहाड़
सागर संग एकाकार हो गया है
जब तक पूरब में
पौ नहीं फट जाता
रात ज्यादा से ज्यादा
ओस निगल रही है
चाय बागान की हसीना
उसके दोनों हाथों में किसने रच दिए
करौंदे रंग के गीत!
चाय के पौधों के बीच तितली के अंदाज में
उड़ती फिरती है वह,
मिट्टी की देह में खुशबू गुनगुनाकर धूप बनना चाहती है,
बारिश बनना चाहती है।
पत्थर के सीने में जन्म उसका, तराशा हुआ बदन,
हाथ की मुद्रा से उड़ा देती है नन्हीं-नन्हीं हरियाली।
उसे देखने ही पत्थर गीत गाते हैं,
पेड़-पौधे सीटियां बजाते हैं,
अनजानी हवा उड़ाकर लाती है मुट्ठी भर फागुन,
शिरीष के शरीर में सुलग उठती है आग।
उसके दो हाथों के एक कली दो पत्ते
मुझे मुझसे छीनकर ले जाते हैं,
चाय बागान की हसीना सोनारू वृक्ष बनकर
उगती है मेरे सीने में।
सेमल वृक्ष की छाया में जागती हुई नदी को पीती हूं मैं
बजते हुए मादल की रात
और बेसुध हो उठती हूं झूमर के छंद में।
सवेरा
सवेरा टिमटिमाकर जलता हुआ
एक दीपक।
हवा के विरुद्ध कदम नहीं बढ़ा सकती
हवा तेज होने पर आग में तब्दील हो जाएगी लौ
मत जगाना तुम मुझे,
रोशनी से उज्ज्वल सवेरा के लौट आने तक
अंधेरे में ही ठिठकी रहूंगी।
(2011)
सूरज डूबते ही
सूरज डूबते ही आह की तरह
सांसें महकने लगती हैं
दीया जलते ही
नैन सरोवर में पानी बढ़ता है
गोरैया के घोंसला बनाने पर
बारिश के दोनों हाथ भीगते हैं
(2011)
इसी तरह एक दिन मेरा
मुझे ढूंढ़ा उन्होंने शब्द की तरह इशारा करके;
शब्द ढूंढ़ा इशारा करके मेरी तरफ।
और कहता है, देख रहे हो शब्द की भोली प्रेमिका को!
इतने दिनों तक चुपचाप खेले जा रहे खेलों को मैं भी
गोपनीयता के बगैर खेलने लगी,
शब्द के सिवा वफादार साथी ढूंढ़ भी नहीं पाई।
शब्द के साथ मैं और मेरे साथ शब्द,
जैसे एक दूसरे का ही प्रतिबिंब।
जानकारों की तरह ही वे कहते हैं,
शब्द का घर ताश के पत्तों की तरह
फूंकते ही ढह जाता है
उन्होंने चूंकि समझा नहीं
किस तरह चेतना में पाजेब बजाकर शब्द चला जाता है।
वे फिर कहते हैं, बचपन का घरौंदा;
महज बालूचर में ही बसता है।
पत्थर-रेत-ईंट के बगैर कैसे बनाओगे घर!
कंक्रीट की चारदीवारी ही जिसका दिल;
समझकर भी समझ नहीं पाती क्या मकसद है उनका।
क्या जानते हैं वे, चित्रकल्प का सुनहरा तिनका लेकर
गोरैए की तरह घोंसला बनाना,
नहीं तो शब्द की लहर में जीवन का छंद उकेरना?
कंगाल हृदय में शब्द ही जगाता है सृष्टि का उन्माद!
रक्तिम आभा के साथ जीवित रहने की तीव्र चाह।
इसी तरह एक दिन मेरा एकमात्र आश्रय शब्द
और शब्द का तयशुदा ठिकाना मैं बन गई।
(2010)
छन छन कर तुम्हारी
छन छन तुम्हारी बोली का वाद्य
जाड़े की रात का उत्ताप बनकर बहता है
कोहरे के बीच दमक उठे चांद की तरह
यादें उतरती हैं
गहरे पानी में उतर जाती हूं मैं
आह कितनी करीब वह चांदनी धारा की
(2011)
फूल सीटियां बजाएंगे
मेरे झुर्रियों से भरपूर गालों पर
अभी भी धूप दस्तक देती है
सफेद बालों को उड़ाकर हवा को भी
छेड़ना अच्छा लगता है
मौका मिलते ही बारिश भिगोती है
चिड़िया और तितलियां फुरसत में
मेरी देह से देह सटाकर बैठती हैं
अपराह्न के शरीर में वसंत गंवाने पर भी
बिजली संजोए हुए मन में जीवन खिलता है
ज्ञानदीप का प्रजापति उड़ता है
तुम लोग ही इस तरह बातों को सोचकर नहीं देखते
झुर्रियों से ढकी हुई आंखों से
रंगों को न पहचानने पर भी समझती हूं
नदी को उन्होंने ही रोक रखा है
सड़क पर लोगों का मुड़-मुड़कर देखने के लिए
हाथी खरीदने की चाह में
थैला सीने के लिए सूई देने वाले चांद को भी
वे बंदी बनाना चाहते हैं
हरे वृक्ष अरण्य में नहीं दिखते
शंकित सूरज के ढलने से पहले ही
मैदान में चकोतरा खेलने वालों को
बुला लो
कूड़े को उड़ा देने के लिए
इसी राह से पछवा का झोंका आएगा
बारिश की फुहारें पड़ते ही
तुमलोगों के कोंपल बनने का वक्त आएगा
फूल जब सीटियां बजाएंगे
और फल गुनगुना उठेंगे
मैं महज एक वृक्ष की जड़
इस तरह और सोच नहीं पाओगे
(2011)
सूर्योदय
मैंने उनको आते हुए देखा था
नदी के सीने से
मुंह अंधेरे के वक्त
चेहरे पर खिलखिलाहट
हाथों में हरियाली की गुनगुनाहट
मुर्दे घाट पर उन्होंने रोकी थी नाव
उनके साथ आया था
नदी किनारे का हवा का झोंका
और तलाश में निकल आई
चिड़ियों की चहचहाहट
(2011)
बारिश का बीन बजने पर
बारिश का बीन बजने पर
रात में कोई मुझे बुलाता है।
पुकार के स्पर्श से नाच उठता है
वीरान नदी का सपना खिलाने वाला घाट।
राग उतारता है बारिश
बगल में गागरी लेकर उतर जाती हूं
मैं घाट तक।
एक तुषातुर काव्यिक अनुभूति के साथ
वीराने के बीच भी
मैं पुकार को टटोलती फिरती हूं।
पानी के हाथों से अंकुरित होने वाली राह
चीटियों से घिरे आदमी की तरह
रात से रात तक घेर लेती है मुझे।
राह की नदी से मैं अरण्य की गहराई में समा जाती हूं।
शायद अरण्य जानता है
कितना अकाल पड़ने पर हरियाली से भर जाता है
घास विहीन आंगन।
(2011)
प्रतीक्षा
किसी के आने की बात नहीं है
इस राह से फिर भी राह देखती हूं।
संजोकर रखते गए सपनों को
कतार में सजाती हूं
साफ कर फर्श कूड़ा हटाती हूं
चाही गई हरी खुशबू
शायद ढूढ़ पाऊं
(2011)
निर्जनता का कोलाहल
कोलाहल के बीच खामोशी ढूंढ़ने की जगह
निर्जनता का कोलाहल मुझे अधिक प्रिय है
जहां मैं संजोकर रखती हूं
शीत की धूप की मीठी उष्मा,
बारिश की रात की नींद का लुत्फ,
वसंत के कोयल की कूक की तान,
और रेलगाड़ी की रात की हसीन सीटी।
और यत्न के साथ मैं बनाती हूं
एक के बाद दूसरा चित्र
निर्जनता के सातों रंग घोलकर
जो प्रतिफलित करते हैं
केतकी का अनकहा हृदय संवाद
ढलती रात के चांद की छाया में
रात में खिले फूल की विषाद से बोझिल गुहार के साथ।
(2011)
पुलक से जाग उठता है
पुलक से जाग उठता है
सोया हुआ झरना
झकझोरने से उमड़ आता है जल
दोपहर की धूप सीने में जख्म लगाती है
कलरव के संगीत में
बेसुध रात
कैसी अनजानी आवाज
चिड़िया रोती है रात में
वह प्रेमी
वह प्रेमी, जिसकी आंखों में आंखें डालकर
वह गुम हो जाना चाहती थी हरे जंगल में,
वह था एक भगोड़ा।
रोशनी नहीं थी उसकी नजरों में,
वहां थे गिद्ध के नाखून।
शव को ढूंढ़ने की बात
वह समझ नहीं पाई थी।
जब समझ पाई थी
मरुस्थल के सीने में पनपी थी मरुद्यान बनकर।
(2011)
हरियाली चबाने वाला
हरियाली चबाने वाला कीड़ा
मौका पाकर पहाड़ पर चढ़ता है
फूल-तितली, नदी-झरने सब कुछ
संग्रहालय में रहते हैं
भौंरे को देखकर, मधुमक्खी के गुनगुनाने पर
लोगबाग इतिहास के पत्ते पलटकर देखते हैं
उलट-पलट करते हैं भूगोल
एक के बाद दूसरा शोध करते हैं
वातानुकूलित परिवेश के भूमिगत घर में
कीड़ा घुसा रहता है
रात के डिस्को में नाचता है
बियर बार में आधुनिक गीत गाता है
टूटे छप्पर से रोशनी नजर नहीं आती, हर तरफ पक्के घर
तेज बारिश में भी कीचड़ नहीं, चमचमाती सड़कें
ईंट की दीवार पर चढ़ना कीड़े को अच्छा लगता है
पेड़-पौधों को देखते ही चबा जाता है
आवाजाही करने के लिए नदी के ऊपर से
पक्का पुल बनाता है
गाड़ी-मोटर दौड़ने के लिए फ्लाई ओवर के ऊपर से
फ्लाई ओवर बनाता है
आधी रात में भी सूरज वहां झांककर मुस्कराता है
हरियाली चबाने वाला कीड़ा
नई योजना की रूपरेखा बनाता है
आकाश को छूकर आरंभ करता है
ग्लोबल वार्मिंग की बात सुन कर भी
वह अनसुना कर देता है
हरियाली चबाने वाले कीड़े को
ऑक्सीजन नहीं चाहिए
कार्बन-डाइआक्साइड के दुष्प्रभाव के बारे में
वह नहीं सोचता
युग का परिवर्तन करने की चाह रखने वाले लोग बाग
बातें समझकर भी प्रतिवाद नहीं करते
कीड़े के चबाने से तकलीफ होने पर भी
वे एक बार भी नहीं चीखते
एक देश एक जाति को पेड़ जिंदा रखते हैं
ऐसा वे भोर के सपने में देखते हैं।
(2010)
सात दिन सात रातें
अंजुलि अंजुलि में भरती रही थी पानी
सात दिन सात रातें
तुष्ट हों देवता इसीलिए सात बार धोए थे चरण
मिटाई थी प्यास सात चांदों की
आधी रात में कभी-कभी सात समंदर के सपने देखती हूं
जीया भराली के पानी की तरह आते हैं करीब
सात रंगों के इंद्र धनुष ने बुरी तरह रूलाया था
भीगी या नहीं बंजर में वह सात पुरखों की रेत
लाल मिट्टी के पहाड़ ने सात बार दौड़ाया था
काई वाला रास्ता भी खदेड़ते हुए आया था
आग लगने पर अरण्य सात पर्तों तक
ढूंढ़ता रहा था पाताल को
घोड़े दौड़ाते हुए आए थे दोपहर के सात सूरज
शिला के पहाड़ पर चढ़कर भी देखा था
धूल उड़ाकर पछवा भी बनी थी
झपट्टा मारकर ले जाने के लिए चील भी बनी थी
टिपसी चिड़िया की तरह साहसपूर्वक बटोरा था धान
मुट्ठी-मुट्ठी बिखेरी थी रोशनी
अज्ञातवास की सात रातों में ढूंढ़ पाई थी क्या शांति
दिखौ-दरिका से होकर और कितना बहोगे
आग-पानी संग कितना खेलोगे
प्राचुर्य के बीच भी हो जाती हूं कंगाल
हृदय के तकाजे से भले ही मुक्त विलीन
सात चक्कर लगाकर आता है एक ही चक्र
आंखें खोलते ही दिन मूंदते ही रात
सात पर्तों वाला वर्षा का आंगन धूप से सूख पाया क्या!
(2011)
पंख वाला सपना
एक दिन एक सपने के पंख उग आए।
उज्ज्वल आकाश की ओर
सपना उड़ चला।
यह जो सपने की पंख उगने की बात है,
मानो कोई अशोभनीय बात थी,
ऐसा नहीं है।
आग से परवाने का प्यार परीदेश की रूपकथा नहीं है।
रात के आकाश में चांद बनकर जलती है रोशनी,
दिन के आकाश में सूरज बनकर दमकती है रोशनी,
इसीलिए पंख वाले कीड़ों की तरह
सपने आकाश में उड़ जाते हैं।
मगर, कौन किसे समझा सकता है।
हलाहल पीकर आकाश होता है नीला।
अंधेरे के अंत में हमेशा रोशनी होती है उज्ज्वल।
अटल-अनल शमा की गर्मी से
जलकर खाक होता है नादान परवाना,
रोशनी बांटने वाली बाती भी समय पर राख हो जाती है
रोशनी के प्यासे परवाने की तरह ही चंचल
चकोर-चकोरी का एक जोड़ा
चोंच में हरी आलोक शिखा
दबाकर लाने की चाह।
रोशनी कहां! रोशनी कहां!
आकाश नीला हुआ जहां।
एक काया और एक छाया बनकर
चलो दोनों हकीकत में सुख का घरौंदा बनाएं;
सपने का मायाजाल छोड़ो, सुनो
इतना कहकर झटके से
अरण्य की गहराई में उड़ गया चिड़ियों का जोड़ा,
शिला से शिला रगड़ कर रोशनी बांटने वाले
एक आदिम मन की तलाश में।
(2010)
किस तरह सूखी धारा
किस तरह सूखी धारा नदी बन गई
किस तरह दबोच लिया छोड़े गए पानी को
भर उठा सूखा सीना
किनारों को लांघकर उर्वर बनाया दोनों तरफ की मिट्टी को
सीने के अंदर किस जगह छिपी हुई थीं
ऊपर तैरने वाली मछलियां
अंकुरित हुई थी किस तरह पानीपिया चिड़िया की चाहतें
किसके लिए कौन संजोकर रखता है होठों का शहद
क्या ढूंढ़ते हुए किस तरह बढ़ आती है चाहत की लहर
हाथ का फल जिसने आगे बढ़ा दिया था
आवाज के अमृत से प्यास बुझाई थी
इंद्रधनुष के रंग मुखड़े पर बिखेरे थे
वह शब्दों की लहरों वाली बहती हुई नदी
हवा उखाड़ेगी क्या देखने के लिए फूंक मत मारना
बहाकर ले जाएगी क्या देखने के लिए बारिश को भी मत बुलाना
(2011)
फूल नहीं
फूल नहीं, तितली नहीं
सूने बगीचे में
कौन बजाता है बीन
छटपटाते रहते हैं
हृदय के फूल
वेदना कुरेद कर खाती है रात को।
फूल नहीं खिलते, तितलियां नहीं आतीं
बारिश की बूंदें
पलकों तक ही आती हैं
फूल नहीं, तितली नहीं
ऐसे मौसम में इंद्रधनुष रंग बदलता है।
(2010)
चांद की तबियत बिगड़ने पर
चांद की तबियत बिगड़ने पर
मेघ रंग के बालों को फैलाकर
बौरा जाता है आसमान
व्यथा से स्याह हो जाता है उसका रूपहला बदन
आंखों से आंसू बहते हैं
नदी के जल में उस दिन चांदनी नहीं थिरकती,
पूंछ फटकार कर मछलियां
पानी में आवाज नहीं पैदा करती
अरण्य का गला रूंध जाता है।
अड्डेबाज सितारे खो जाते हैं
चुप-खामोश अरण्य की अंधरी गुफा में।
आंसू की धारा लेकर बहनेवाली
नदी की लहरें
दोनों किनारे के अंधेरे में सिर पटक कर रोती हैं।
चांद की तबियत बिगड़ने पर
मछुआरे के बगैर एक तन्हा नाव
पानी की तरफ देखती हुई उदास होकर किनारे में बैठी रहती है।
(2010)
अभिमान
पीपल के पत्तों की सुराख से
सूरज के झांकने पर
वे बांसुरी की तान छेड़ते हैं।
बांसुरी की तान सुनकर पंछी जागते हैं।
रंग-बिरंगे फूलों की कलियां खिल उठती हैं,
तितलियों का एक झुंड अपनी धुन में उड़ता फिरता है इधर-उधर।
बच्चों को साथ लेकर बत्तख
उतर जाते हैं पानी में,
माछरोका और कनामुसरी पक्षी
उड़ते फिरते हैं पानी के ऊपर।
पीपल के पत्तों की सुराख से सूरज के झांकने पर
वे बांसुरी के तान छेड़ते हैं।
बगल में गगरी लेकर पोखर में उतरने वाली लड़की
वापस लौटती है।
एक प्राचीन नशे के साथ बांसुरी
पुकारती रहती है उसे,
सिर झुकाकर कदम बढ़ाने वाली लड़की
सुनकर भी अनसुना कर देती है।
बांसुरी बजती रहती है।
(2010)
निर्जनता को गुनगुनाकर
निर्जनता को गुनगुनाकर गीत रचती हूं
अपेक्षा की पीली-रंगीन पतंगें
असीम में उमड़ती फिर रही हैं
एक पल बिजली में तितली बनकर उड़ पाती!
क्षितिज के उस पार कुछ भी नजर नहीं आता
कोहरे की चादर इतनी घनी है!
विश्वास के फूल वहां भी खिलने में पहले मुरझा जाते हैं क्या!
निर्जनता को गुनगुनाकर गीत रचती हूं
कोपभवन में धूप के समाने की बात
बहुतों को पता नहीं है!
(2011)
इस पृथ्वी के तीन हिस्से में पानी
इस पृथ्वी के तीन हिस्से में पानी,
एक हिस्से में ही मिट्टी,
कितने दिनों तक तैरते रहने के बारे में सोच रहे हो तुम?
युद्धं-देहि मनोभाव के साथ सामने बह रही है
वेगवती नदी!
बादल के भार से आसमान भी झुक गया है,
टुकड़ा-टुकड़ा ढह रही है बैठकखाने की मिट्टी।
कितने दिनों तक खिलते रहने के बारे में सोचते हो
पगथली के हारसिंगार?
ऋतु जब पीढ़ा बिठाकर बैठती है
तभी तितली उड़ती है!
छप्पर तक डूबे किसान का दर्द
बिना खुद डूबे महज बाढ़ की खबर का टुकड़ा।
चलो एक बार ही सही हंसी से खुद को सजाते हैं,
नदी में डुबकी लगाकर प्यास बुझाते हैं।
कितने दिनों तक प्यास सताती रहेगी सोचते हो तुम?
(2011)
रात जब सो जाती है
रात जब सो जाती है धरती
मैं सपना देखती हूं बारिश का,
हरे पेड़-पत्तों का,
हौले-हौले बहने वाली हवा का,
बादल से आंख मिचौली खेलने वाले चांद का।
सीटी बजाकर गुजर जाने वाली
रात की रेलगाड़ी की तरह ही
वे मेरे सपने में आते हैं
और चले जाते हैं।
उनके आने-जाने की खुशबू से सजाती हूं
मैं अपनी नींद के बगीचे को,
उड़कर आए गीत के टुकड़ों को प्याले में भरकर रख लेती हूं
बेसुध होने तक नशे में तैरती रहती हूं।
ऋतु की तरह एक परिवर्तन दिल में
हलचल मचाता है,
रोम-रोम में बढ़कर पुलकित करता है।
प्रचंड गर्मी में बारिश की बूंदों का खेल
शरत का प्यारा लगने वाला सान्निध्य
हेमंत के साथ दिल की सौदेबाजी
शीत के अंत में वसंत के आगमन की चाह में
बहती रहती हूं चलती रहती हूं
सपने की नदी में तैरती उतराती
पहुंचूंगी एक न एक दिन दिहिंग के उत्स तक।
(2011)
मैं भूल गई हूं
मैं भूल गई हूं
ठीक किसे कहां कैसे
छोड़कर आ गई।
बकुल पेड़ की छांव में
शायद मेरा बचपन
और करौंदे के पेड़ के नीचे
मेरा कैशोर
मगर नदी के घाट तक
पानी लाने के लिए जाते वक्त
जिसे छोड़ आई
नदी की धारा में
वही था मेरा यौवन
सुख का खोटा सिक्का
(डॉ. परान अली की स्मृति में)
हाथों में हाथ लेकर
आंखों में आंखें डालकर,
क्या राग सुनाया था तुमने!
शब्द के शृंखल तरंगित होकर
खो गए थे कहां?
तुम गुनगुनाती हुई
बारिश का गान पसंद करते थे
पंख फरफराकर उड़ जाने वाले
पंछियों के पीछे भागते थे
खामोश रातों में
कविता का दीपक जलाकर
प्रेम के हाट में बैठते थे
तेज ज्वारभाटा ने
किस सागर में डुबोया
तुम्हारे जीवन की नाव को?
स्तिमित दिया हवा में छिपा
या वर्षा में खो गया!
पीला या हरा
सपना या हकीकत
चीख या एक बांसुरी
गरल या तरल आलाप के साथ
नगर से या शहर से
जंगल से या झाड़ी से
नदी से या दरिया से ले गई उड़ा कर
धूप हवा और बारिश की
प्रतिद्वंद्वी तुम्हें
मृत्यु की तरह सर्द छाया से
अच्छी तरह लपेटकर
छोड़कर सुख का खोटा सिक्का
कहां तक पहुंचे हो अभी तुम?
(2010)
सूर्यास्त
ओझल हो जाने तक
उनको देखती रही थी मैं
जाने से पहले नदी में ही
उन्होंने हाथ-पांव धोए थे
और पानी में बिखेर दिया था रंग का वसंत;
उसी के बाद पहाड़ी राह पर चढ़कर
वह चले गए थे।
पहाड़ पर जहां रास्ता मुड़कर
ऊपर की तरफ चला जाता है,
वहीं नदी भी गति बदलती है,
बहुत देर तक धारा लिपटी रही थी
उनकी भागती हुई छाया से।
उनके जाने के बाद,
सन्नाटे के साथ अकेले में बैठने के लिए
अंधेरे ने बिछाई थी चटाई
दर्पण में स्वप्न गंवाकर
सूख रही थी नदी!
पहाड़ी किशोरी ने
समतल में गंवाया था यौवन।
(2011)
छाया-रोशनी में
तुम अतीत में ही छोड़कर आए हो
मेरे वर्तमान की छाया
तुम आज मेरे लिए एक रोशनी की राह
छाया-रोशनी में ही छवियां जागती है
मृतिका को प्राण मिलाता है।
छाया-रोशनी ही रिश्ते बनाती है, तोड़ती हैं
छाया-रोशनी में ही तुम प्राचीर चढ़कर आए थे
छाया-रोशनी में ही मैंने अंजुलि में भर ली थी खुशबू
तुम छाया-रोशनी के संग नर हो
मैं छाया-रोशनी के संग नारी
(2011)
अंधेरे में भी रोशनी में भी
अंधेरे में भी, रोशनी में भी
गीत की तरह एक सुर
रुक-रुक कर पुकारता रहता है कोयल की कूक की तरह।
कोंपल की तरह नाजुक
हवा का एक झोंका भिगोकर चला जाता है
पगथली की सूखी घास के कालीन को;
जगमगा उठते हैं
हजारों गुलाब के बगीचे।
उड़ने वाली मधुमक्खियां आज
मेरे आंगन की बाशिंदा।
(2010)
बचपन
बिना कुछ बताए ही
धुंध के बीच से चला गया वह
धूसर राह पर अभी भी जीवंत है उसकी छाया
यादों के आंगन में उड़ती फिरती है
तितली खदेड़ने वाली एक दोपहर
और पानी पर तैरती हुई बह जाने वाली
एक कागज की कश्ती
(2011)
कविता मेरी अवैध संतान
मेरी एक सौ संतानें हैं
जिनमें एक अवैध
बुद्धू और लाचार है मेरी यह संतान
छिपाकर रखती हूं मैं एक अंधेरे कमरे में
जहां कोई दरवाजा-खिड़की नही है
चांदनी के बिछौने पर बैठकर
मैं उन्हें दादी मां के किस्से सुनाती हूं
कान लगाकार सुनती है अवैध संतान
उन्हें मैं खिलाती हूं, धुलाती हूं, सुलाती हूं
स्वच्छ ताजगी से भरपूर होकर
सो जाती है अवैध संतान
शोरगुल मचाने वाली
अपनी संतानों की शरारत से
जब मैं तंग हो जाती हूं
अवैध संतान मुझे ढाढ़स बंधाती है
उसकी बांहों में है अक्षय शक्ति
सीने में जलता रहता है दुर्जेय साहस का दीपक
इसी तरह अंधेरे की गोद में वह बढ़ती है
बंद कमरे के भीतर ही मेरे लिए सोने का महल बनाती है
यांत्रिकता की लहर में अचेतन
मेरी संतानें
झुका हुआ पेड़ देखते ही कुल्हाड़ी चलाना चाहती है
बीमार शरीर के सूख स्तन चूसकर
प्यास बुझाना चाहती है
और मुझसे सवाल करती है पिता कहां है
जानकार भी न जानने का दिखावा करती हैं वे
आकाश जो उनका दादा है
हवा उनका चाचा
और मिट्टी ही उनका पिता
अवैध संतान जानती है मेरे भीतर ही समाहित है
जगत की समस्त धाराएं
(2010)
स्पर्श
तुममें ही जीवन बढ़ना सीखता है,
वसंत गीत गाता है,
नवजात शिशु के लिए
तुम ही हो विश्वास का आदि पाठ;
बीमार की आस्था की लाठी भी तुम हो।
तुम मैत्री की डोरी,
सहोदर भातृ,
परम पिता का आशीर्वाद,
दुर्गत जन का प्रसाद।
तुम्हारा आलिंगन मौत की राह के राही को भी
दे सकता है पल भर का सुकून।
कोहरा जब अरण्य की राह रोक देता है,
धूप की गर्मी धरा के सीने को चीरती है,
नदी को भी जब तृषा शीर्ण बना देती है,
तुम ही प्रज्ज्वलित करती हो नव चेतना,
अकिंचन हाथों से उतार लाती हो नवजागरण की सीढ़ी।
तुम तमो हरा, भूखे का कौर
तुम तपती, करुणामयी मातृ।
(2011)
प्रांतर से प्रांतर तक
(डॉ. भूपेन हजारिका की पवित्र स्मृति में)
अस्सी वर्ष से भी पहले
अंकुरित हुआ था एक सुर
और दस कोंपल सुरों के बीच का वह सुर एक दिन
दिल का टुकड़ा एक बरगद का पेड़ बन गया
और फूल पत्तों से राहगीरों को देने लगा छाया
मर्त्य लोक में बहाकर ले आया चांदनी की नदी
सीने-सीने में लहरें पैदा कर सुर ने
गोरैया की तरह घोंसला बनाया था
हरियाली की गोद में सृष्टि का आदिपाठ दोहराया था
चांद-सूरज-तारे की आंखों में
प्रतिफलित करने का साहस किया था
प्रांतर से प्रांतर तक खुशबू बिखेरकर
बह रहा था वह सुर
जिस सुर में लोहित सीटी बजाता था
शिलाएं गुनगुना उठती थीं, पहाड़ झूम उठते थे
मगर, हेमंत और शीत के संधिक्षण में
इंद्रधनुष के रंग एक दिन गायब हो गए
पश्चिम में डूबने वाला सूरज
पूरब के आकाश में फिर उगा नहीं
जानकर भी क्यों जान नहीं पाई
पहचान कर भी मानो पहचान नहीं पाई
अंधेरे की तूलिका से रोशनी का चित्र बनाने वाले
समता के लहजे में मानवता सिखाने वाले
उदात्त कंठ के बंजारे सुर का भी
हो सकता है एक स्वाभिमानी मन
उस दिन मेघ नहीं थे आकाश में
न थी बिजली की कड़कड़ाहट
फिर भी भीगे थे वृक्ष-लता
पहाड़-मैदान, नदी-झरना, पंछी-तितली
हवा ने गंवाया था रास्ता
समय ठिठक गया था
नदी ने गंवाई थी गति
चिर स्थायी लहर पैदा कर जिस दिन सुर
शाम का सितारा बन गया था
आंसू के सागर में लोग बाग डूब गए थे।
(2011)
मैं रोशनी
मैं रोशनी की ही प्रतिध्वनि
तुम्हारे अंधेरे मुखड़े को रोशन करने के लिए ही
मेरा जन्म।
इसीलिए तुम्हें पुकारती हूं
बौराए हुए मेरे सीने में शब्द टकराकर
तुममें गुम हो जाते हैं।
मैं रोशनी की रागिनी
मेरे सीने के गान
तुम्हें जगाते हैं
एक नीलिम अनुभूति में वह डूब जाता है
मेरी रोशनी की आवाज तुम्हें जगाती है
तुम्हें सोए रहने के लिए कहती है
मैं रोशनी
मैं रोशनी का निस्तब्ध प्रेम
(2011)
आओ झरना, मेरी आंखों में आंखें रखो
आओ झरना, मेरी आंखों में आंखें रखो
नम हो जाए मेरे हाथ का दोतारा
आओ विध्वंसी भूकंप, मेरे सीने पर सीना रखो
टुकड़ा-टुकड़ा हो जाए मेरी कामना का स्वर्णपात्र
मेरी भरपूर चाहत का रजनीगंधा खो गया
फागुन में भी नहीं सुनी पलास की सीटी
ताश के पत्तों के घर की तरह मैं ढह जाना चाहती हूं
रेत के महल की तरह बिखर जाना चाहती हूं
आओ हवा, धूल की तरह कहीं मुझे उड़ाकर ले चलो
वहां बादलों के पार किसी अनजान देस में
खो जाए, खो जाए
हमेशा के लिए मिट्टी के इस तन का भूगोल।
निर्जनता
अनकहे-अनबोले इस सुर की संजीवनी को पीकर
बैठा रहा जा सकता है,
शून्यता के नशे में बौराया जा सकता है।
दुविधा की चट्टान सीने पर उठाकर
चुपचाप रहने की जरूरत नहीं
बह जाने दो शंका का कूड़ा।
आओ एक दूसरे के सीने को खोद कर देखें
मुमकिन हो तो भर लें दोनों प्राणों के प्याले।
अपने बालों की खुशबू में गुम होने दोगे।
रखने दोगे होठों पर होठ
हवा ने पैदा नहीं की कंपकंपाहट
तुम्हारे सागर की तरह नीले नयनों में?
सुलग नहीं रही है क्या तुम्हारे सीने में आग!
ओ मेरी निर्जनता! सन्नाटे की चांदनी में
आओ हम हो जाएं एक दूसरे में मग्न।
तुम कहते हो
तुम कहते हो, तुम जल रहे हो
मैं कहती हूं, उजाला दे रहे हो
तुम कहते हो, जल जलकर राख हो रहे हो
मैं कहती हूं, दिन जाने पर रात होती है
राख बनूंगी उस दिन नदी किनारे
तिल फूल उगेंगे छोड़ी गई राह पर
उससे आगे आग
कल्पना से बनाया गया पुल
औरों का ध्यान बंटाने के लिए उससे
बेहतर उपाय नहीं।
रूपांतर
झरे हुए पेड़ के पत्ते
हवा में
नाचते हुए जा रहे हैं
बीच-बीच में
एक दूसरे के तन से सटकर
हंस रहे हैं
अकड़कर
कहीं
कोई रोता है
मुड़कर देखा
धूप
लोरी सुना रही है
कोंपल को
उस पार जीवन नहीं दिखता
हवा का झोंका छेड़कर देखता है,
मदिरा की प्यास जगाता है।
डूब रहे सूरज की बेला,
रंगीन होता है आसमान का मुक्त क्षेत्र।
पेड़ पर उगे पत्ते की तरह
शरारती बचपन मुस्कराता है।
जितने दिनों तक चलेगी हवा,
उतने दिनों तक कांपेगा मन।
उस पार जीवन नहीं दिखता,
हवा के झोंके का भी स्पर्श नहीं होता,
न जाने स्मृति के सितारों में क्या जादू था।
आज ही आखरी दिन
आज ही आखरी दिन,
कल से एक साथ सूर्य दर्शन करेंगे।
चलते रहे बहुत दूर,
कभी समतल, कभी दूर्बादल।
बदल ली थी राह,
नदियों की तरह कभी छिछली,
कभी जीया भराली का मन।
मन का बाघ रात में वन में रोता है,
वन से निकलकर नहीं आता,
दिन होने पर खिड़की से कूदकर जाता है।
ऋतु क्या बदलता है पेड़ के पत्तों का रंग
पल-पल क्या फिसलता है पत्थर का कठिन मन
एक ही सपना, एक ही अपना
क्या काला, क्या सफेद
जुबान पर रखते ही नमक भी मीठा।
वहां दूर, क्षितिज के उस पार
आंगन एक ही जैसा सजा हुआ
आज ही आखरी दिन,
कल से एक साथ सूर्य दर्शन करेंगे।
पंछी और जन्तु की तरह पालतू हो तुम
पंछी और जंतु की तरह पालतू हो तुम
सपने में स्वर्णमृग का छाया चित्र
फल के भार से झुकने वाले वृक्ष की तरह तन
बंदीत्व में भी जीवित मछली की तरह ताजा
बंदूकधारी आवाज का सोता फूटने पर
राह नहीं सूझने के शोक में, दिन काटने पर भी
अंधेरे का पल नहीं कटता।
एक-एक कर पेड़ के पत्तों को गिराकर
आधी रात में कौन वहां बांसुरी बजाता
चमत्कारी जादू के साथ रात के अंतिम प्रहर में
नाटक का परदा गिरेगा
पुराने के हटने पर नया उल्लास बटोरेगा
आज का दिन कल
इतिहास का नया साक्षी बनेगा
वृक्ष और खेत की तरह मोहक तुम
तुम्हारी आंखों में नीले और पीले के मिश्रण की आंख मिचौली
लटकी हुई मेरी लाल-हरी कमीज
(फ्रीडा काल्हो की मशहूर पेंटिंग च्रू4 स्रह्म्द्गह्यह्य द्धड्डठ्ठद्दह्य ह्लद्धद्गह्म्द्गज् से प्रेरित होकर लिखी गई कविता)
घर था सागर के किनारे
सागर मुझे पसंद है।
सीने में सपनों को संजोना जिसने मुझे सिखाया था,
और लहरों के गर्जन से जिसने
आतुर कर दिया था मेरे दिल को।
परत दर परत ऊंचे राजमहल की तरह
उस घर की बालकनी में,
अभी भी साफ तौर पर देख पाओगे
लहू से सनी मेरी परछाई,
और देखोगे, आते हुए या जाते हुए
जहाजों के साथ
सागर के मनोरम मंजर को।
अपने वजूद को जताती हुई, इस पार या उस पार
हाथ उठाकर खड़ी स्टैचू ऑफ लिबर्टी।
और आकाश-हवा निनादित करती हुई बेआवाज मेरी सिसकी।
तुम्हारी प्रहरी दृष्टि के उस कारागार में
आज भी लटकी हुई मेरी लाल-हरी कमीज!
है क्या अभी भी कहीं
बकुल फूल बटोरकर खुश होने वाला उस समय का
मेरा बेकरार मन?
कूडेदान में कचरों के बीच छटपटाता
मेरा कटा हुआ हाथ भला किसे क्या कहना चाहता है!
शाप भ्रष्ट पृथ्वी को बचाने के लिए
या कमोड के कीचड़ में गाड़ देने के लिए
मलबों के बीच
समागत के समस्वर की चीत्कार ध्वनि।
मैं समझती हूं और तैयार होती हूं।
ऐसे बहुतों कलियां कुचल कर सूख गई हैं,
बहुतों गीतों ने ताल भुलाया है।
समय आज भी ठिठका हुआ है।
उड़े नहीं हैं अभी भी
युगान्तरी स्तन पक्षी
यांत्रिकता के तार पर लटक कर बंदी हुई सरलता,
ठीक मेरी कमीज की तरह।
आह! लटकी हुई मेरी लाल-हरी कमीज!
मैं हरियाली की स्वरलिपि
मैं हरियाली की स्वरलिपि
तुम्हारे धूसर मुखड़े को वर्णिल बनाने के लिए
मेरी सृष्टि।
मेरी चेतना की रौद्रोज्ज्वल कणिका
तुममें ही प्राण पाती है
मेरी वासना की सागरिका
तुम्हारे स्पर्श के नशे में खोती है,
इसीलिए जागृत प्रहरी बन जाती हूं।
मैं हरियाली की स्वरलिपि
जो तुम्हें रुलाकर अंधेरे के कोलाहल में गुम होती है
जो तुम्हें हंसाकर पंछियों के कलरव में जागती है
मैं हरियाली की स्वरलिपि
निरंतर तुम्हें जगाने के लिए
अंधरे-प्रभात प्रतिभात करने के लिए
मेरे सीने के कोने-कोने में
सूरज संधानी शब्द की श्रुतलिपि।
हम किसीने किसीसे पूछा नहीं था
हम किसीने किसीसे पूछा नहीं था,
सफर के अंत में, मुंह ऊपर की तरफ रखोगे या नीचे।
हम किसीने समझा नहीं था!
हवा कितनी बोझिल हो सकती है।
गाने वाले पंछी
किस तरफ उड़कर जा सकते हैं।
सोच भी नहीं पाई थी!
भीगा मौसम किस तरह काई से भरकर फिसलन भरी
बना सकता है आने-जाने की राह को।
देखकर भी मानो देखा नहीं था!
अंधेरा किस तरह निगलता है सुलगती हुई लपटों को।
झरना आवाज पैदा कर रहा था,
खुला आकाश दोनों को बांहें पसार कर बुला रहा था,
सन्निध्य की गर्मी में
भर उठी थी सुख की नदी।
जो चांदनी की तरह मेरा साथ देती है
रोशनी की तरह रोज जगा देती है
जिसकी अनुपस्थिति में, शब्दहीनता में
नीलाम होती है मेरी सृष्टि
और प्रतिध्वनित होने पर मेरी बेबस सिसकी
महक उठती है विश्वास की एक जीवंत धारा!
इसी तरह एक दिन साथी बन गया मेरा निदान का चांद!
संचय करने वाला बन गया प्रकाश का उत्स धूप का पिता सूरज।
ओ मेरी कविता की चिड़िया
(कवि हीरेन भट्टाचार्य की पुण्यतिथि पर उत्सर्गित)
तुम समझाना चाहते थे
दिन ढलकर शाम होने वाली है,
हम मान लेना नहीं चाहते थे
चुभने वाली बातों को!
सूखा बगीचा राह देख रहा है
तुम्हारे लहू से लहलहाने के लिए
माधैमालती की कलियां
छटपटा रही हैं खुशबू बिखेरने के लिए
आंखों आंखों में आज भी भरी नदी की गगरी!
जंगल का वीरान रास्ता मानो राजपथ!
कवि कहां! कवि कहां!
दोतारा बजाना जानती
तुम्हें ही दोतारा बनाकर बजाती
तान छेड़ने के लिए
तुम ध्वनि पैदा करते
खुशबू से महक रहे मेरे हाथों से
ओ मेरी कविता की हरी चिड़िया
उड़कर पहुंचे कहां उस पार की अनजानी नदी के घाट!
परिचय
नाम :रौशन आरा बेगम
जन्म :1960, शिवसागर (असम)
शिक्षा:गुवाहाटी विश्वविद्यालय से सांख्यिकी विषय में एमएससी
तेजपुर केंद्रीय विश्वविद्यालय में मैथमेटिकल साइंस विषय में पीएचडी
संप्रति:1990 से दरंग कालेज में सांख्यिकी विभाग में सहायक अध्यापिका के पद
पर कार्यरत
प्रकाशित कविता संकलन: 1 रामधेनु बरनीया सुधा
2. ताईर सकूर आली बाटर एजन बरसून
3. सेउजर स्वरलिपि
कविताओं का अंग्रेजी, हिंदी और बंगला में अनुवाद प्रकाशित। असम के दैनिक अग्रदूत, असमिया खबर, आजिर दैनिक बातोरी, आमार असम, जनसाधारण, दैनिक असम, असमिया प्रतिदिन, दैनिक जन्मभूमि, सादिन, प्रांतिक, गरीयसी, प्रकाश, अनुभूति, प्रिय सखी आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।
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