उपन्यास : दूसरा ताजमहल जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा - संदीप प्रिन्टर्स, मेरठ द्वारा मुद्रित आरती पाकेट बुक्स मेरठ : 250001 लखनऊ : ...
उपन्यास : दूसरा ताजमहल
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा
- संदीप प्रिन्टर्स, मेरठ द्वारा मुद्रित आरती पाकेट बुक्स मेरठ : 250001
लखनऊ : '
(---पिछले भाग 2 से जारी)
-'तौबा कीजिए। आपको बनाया है खुदा ने, आपके अब्बा और अम्मी हुजूर ने।
-'क्या मैं कढ़ाई नहीं जानती ?'
-‘माशा अल्लाह। आप लाजवाब कढ़ाई जानती हैं।‘
-'कसीदाकारी का किसी भी मेरी हम उम्र औरत से मुकाबला करा लीजिए। सिलाई.. .।'
-‘माशा अल्लाह। आप इन सभी फनों में उस्ताद है।'
-'तो ?'
-.'तो का जवाब लीजिएगा ही ?'
- 'लाजिमी।'
-'अहदी साहब ने सैयद साहब से, सैयद साहब ने अम्मी साहिबा से, अम्मी साहिबा ने हमसे-यह नहीं कहा था कि मुहम्मद रहमान साहेब की साहबजादी को एक खास शौक है।'
-‘शौक हमें ?'
-'जी।'
-'क्या ?'
-.'मियां को ओढ़नी के गल्ले में बांधने का शौक। कसम आपके सर की बेगम हम यह शौक आज तक नहीं जानते थे। पहले से हमें बताया नहीं गया था। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है। हम, जात के शेख, जबान के पक्के होते हैं। आपका शौक हम जरूर पूरा करेंगे। मियां घोड़े को जोन खोलकर रक्खे देते हैं, इधर उधर जहां मौका लगेगा यह साहब घास पात में मुंह मार लेंगे और हम.. .हम बेगम साहब सारे दिन आपके दामन से बंधकर आपके हुस्न का जायका लेंगे। क्योंकि यह कमाल आपके ही हुस्न को हासिल है कि जायके में मीठा भी है, नमकीन भी है। कौन जाए हुस्न के यह जायके छोड्कर आगरा के गली कूचों में भटकने.. .।'
बात के विषय अलग हुआ करते थे। परन्तु ऐसा अकसर होता था कि शायर साहब बेगम को गोद में उठा लेते और तब बेगम पानी-पानी हो जाती। लजाती, दिखावे का गुस्सा करती।
----'तौबा-तांबा. ..मियां छोड़ो भी हमें। सुबह-सुबह सब अल्लाह, परमात्मा का नाम लेते हैं और आप हैं कि.. .।'
नजीर साहब घर से बाहर न जाने की जिद करते और लजाई सी, शर्माई सी बेगम उन्हें घर के दरवाजे तक धकेल देती। इस प्रकार...!
विलासराय, अनेकों धंधों के व्यापारी लाला अथवा राजा विलासराय इस अर्थ में आगरा के सबसे बड़े जौहरी थे कि उन्होंने नजीर जैसे हीरे को पहचाना था।
शायर के बस की सिपाहीगीरी तो थी नहीं। कैसे गुजारा करें। सो बलदेव जी-के मन्दिर के पुजारी पण्डित लल्लन ने विलासराय से भेंट कराते हुए कहा -'राजा जी, आपको बच्चों के लिए गुरु की जरूरत थी न, सो यह हैं अपने पण्डित नजीर। नागरी पढ़ाएंगे, फारसी पढ़ाएंगे। इनका कहना है कि अरबी नहीं जानते.।'
विलासराय बोले - 'नजीर जी को हम भी जानते हैं। इन्हें भला कौन आगरा वाला नहीं जानेगा। लेकिन एक बात .. .आपने पण्डित नजीर इन्हें कहा. ..!'
-'सो कहा।'
-'सो हमें समझाइए।'
-'हमारी इनकी रोज की बैठ-उठ है। नजीर इन्हें इस लिए कहा कि यह अपने आपको नजीर कहते हैं, आगरा के छोटे और बडे इन्हें नजीर कहते हैं। पण्डित इन्हें इसलिए कहा कि शास्त्रों में पण्डित की जो परिभाषा है यह उससे सवाए उतरते हैं। अगर मोती के यहां इनका जाना आना न होता तो हम इन्हें देवता नजीर कहते।'
सुनकर विलासराय हँसे। कहा-'नजीर साहब, कल सुबह गरीबखाने पर तशरीफ लाइएगा। बच्चे शरारती हैं, और पढ़ने में उनका मन नहीं है। देखना यह है कि आपके सम्भाले-सम्भलते हैं या नहीं. .।'
अगले दिन सुबह... माईथान में विलासराय की हवेली के बैठकखाने में परिवार के पांचों लड़कों को एकत्रित किया था। आठ को उम्र से लेकर तीन सास की उम्र तक के बच्चे।
विलासराय स्वयम् बैठकखाने में उपस्थित थे। कहा- 'उस्ताद को आदाब करो बच्चो।'
आदाब के उतर में नजीर बच्चों के सिर पर आशीष का हाथ रख रहे थे कि विलासराय ने अपनी छड़ी नजीर की ओर बढ़ाई --लीजिए। अपने शागिर्दों को इनसे सम्भालिएगा।'
-'राजा साहब। पहले चाबुक लेकर घोड़े की सवारी करता था, एक दिन बाजार में भीड़ थी, चाबुक घोड़े को मारा तो उससे फिसलकर एक राहगीर को लगा। बेचारा जानता था, इज्जत करता था, वह तो कुछ न बोला। लेकिन मैंने खुद चाबुक तोड़कर उसके कदमों में फेंक दिया। उसके बाद से आज तक बिना चाबुक के ही घोड़े की सवारी करता हूं। भला इन मासूम से बच्चों पर छड़ी उठाऊंगा। अगर इन्हें बिना छड़ी नहीं पढ़ा सका तो कुसूर मेरा होगा, इनका नहीं। बैठो भई बच्चों। ठीक. शाबाश। जरा अपना नाम तो बताओ.. .।'
नाम जानकर वह बोले-- 'अब यह बताओ कि किस्से कहानियां भी जानते हो कि नहीं। शाबास... हम हर एक से कोई किस्सा, कोई कहानी सुनेंगे।'
विलासराय एक ओर बैठे देखते रहे। नजीर बच्चों से वह किस्से कहानियां सुनते रहे जो बच्चों ने अपनी दादी और माओँ से सुनी थीं।
फिर नजीर बोने-भई बच्चों, एक तमाशा हम तुम्हें सुनाते हैं।'
नजीर होठों पर मुस्कुराकर बोले-हम हैं उस्ताद। हमने बन्दरों को नाचना सिखाया। फिर मिला हमें एक रीछ का बच्चा।
नजीर का गद्य यकायक पद्य में बदल गया-
कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा,
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा।
सौ नमेतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा,
जिस वक्त बड़ा हुआ रीछ का बच्चा।
जब हम भी चले साथ चला रीछ का बच्चा-
बच्चे उत्सुक दृष्टि से नजीर की ओर निहार रहे थे। नजीर पद्य में सुना रहे थे कि रीछ के बच्चे को सजाकर रस्सी से बांध कर वह बाजार में ले आए। बच्चों की, जवानों और बूढ़ों की भीड़ इकट्ठी हो गई। भीड़ में हाथी सवार और ऊंट सवार भी थे।
एक बच्चे ने टोका -'उस्ताद रीछ के साथ आप बन्दर भी तो ले गए होंगे?’
-‘नहीं भई, नहीं।‘
-क्यों ?'
-'यह सवाल वहां भी हमसे एक ने पूछा था और हमने यह जवाब दिया -
कहता था कोई हमसे मियां आओ कलन्दर,
वो क्या हुए अगले जो तुम्हारे थे वो बन्दर।
हम उनसे यह कहते थे कि ये पेशा है कलन्दर,
हां, छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगल के बन्दर।
जिस दिन से खुदा ने ये दिया रीछ का बच्चा-
वह बच्चे जिन्हें विलासराय शरारती मानने थे बड़े मनोयोग से यह पद्य कहानी सुन रहे थे।
नजीर सुना रहे थे—पहले हमने रीछ को खूब नचाया। फिर कुश्ती हुई। डेढ़ पहल तक कुश्ती चलती रही। न हम हारे न रीछ का बच्चा हारा। इस कुश्ती पर देखने वालों ने रुपए बरसाने शुरु किए तो जानते हो हमारे सामने सवा लाख रुपए का ढेर हो गया। गंगा। और तारीफ. .शहर भर में तारीफ। तारीफ की क्या कहें।
विलासराव सवा लाख की बात सुनकर होठों में मुस्करा रहे थे।
नजीर रीछ का बच्चा पद्य कहानी-का अंतिम बंद सुना रहे थे-
उस दिन से 'नजीर' अपने तो दिलशाह यही हैं,
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं।
सब कहते हैं-वो साहब ईजाद यही हैं,
क्या देखते हो तुम खड़े, उस्ताद यही हैं।
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा,
यह पद्य कहानी समाप्त करके नजीर बोले अच्छा बच्चों, आज तुम्हारी यहीं छुट्टी। कल से हम तुम्हें पढ़ाया करेंगे। नागरी भी फारसी भी। कहानी भी सुनाया करेंगे। अब जाओ। बेटो, जब छुट्टी हुआ करे तो सभी बडों को आदाब या जै बलदेव जी की या जय कन्हैया लाल जी की कहकर हाथ जोड़ने चाहिएं। यह अच्छे बच्चों की पहचान होती है।'
विलासराय को विश्वास हो गया कि उस्ताद बच्चों को पढ़ा सकेंगे।
सो कई सालों से नजीर बच्चों को पढ़ा रहे थे। सुबह घर से चलते तो राह में दुआ सलाम होती। आवाजकशी और फिकरेबाजी होती। परन्तु नजीर इस वक्त रुकते नहीं थे। सीधे विलासराय की हवेली पहुंचते, बच्चों को पढ़ाते। शहर आगरा की मटर गश्ती लौटते वक्त होती थी।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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