जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का एक यादगार उपन्यास - दूसरा ताजमहल (2 रा भाग)

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उपन्यास : दूसरा ताजमहल जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा - संदीप प्रिन्टर्स, मेरठ द्वारा मुद्रित आरती पाकेट बुक्स मेरठ : 250001 लखनऊ : ...

उपन्यास : दूसरा ताजमहल

जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा

- संदीप प्रिन्टर्स, मेरठ द्वारा मुद्रित आरती पाकेट बुक्स मेरठ : 250001

लखनऊ : '

  (---पिछले भाग 1  से जारी)

 

- माशा अल्लाह, वह जवान हैं। मेरी ही उम्र के होंगे।

-'उनका दौलतखाना...?'

-पहले वह मिठाई के पुल के पास नूरी दरवाजे में मीर साहब के मकान में बतौर किराएदार रहते थे। अब शादी के बाद ताजगंज में रहते हैं।'

-'गुजारे का जरिया क्या है?'

-'आगरा के एक जौहरी हैं जिन्हें सल्तनते मुगलिया की तरफ से राजा का खिताब मिला हुआ है। नाम है राजा बिलासराय। राजा साहब की हवेली माईथान में है- नजीर साहब राजा साहब के बच्चों को पढ़ाते हैं ।'

- 'तनखाह क्या मिलती होगी ?’

-'पन्द्रह बीस रुपए तो जरूर मिलते होंगे।'

--'हूं.. .।' मन ही मन नवाब साहेब ने निर्णय किया कि वह नजीर साहब को लखनऊ बुलाकर दो से लेकर तीन सौ के बीच मानिक वेतन देंगे।

 

-'क्या ख्याल है तुम्हारा दूल्हे मियां। अगर हम उन्हें लखनऊ बुलाएं, तो आ जाएंगे ?'

- भला हुजूर आपका हुक्म कौन टाल सकता है। अलबत्ता फक्कड़ और मस्त तबियत के आदमी हैं। शादी न करते तो जरूर सूफी होते। अजीब दिमाग है, कहीं कोई वहम नहीं, भेद नहीं। उनकी नज्म मोज्जए-हजरतअली को मुसलमान फकीर गाते थे और कन्हैया जी का जनम और महादेवजी का ब्याह हिन्दू जोगी गाते थे, लेकिन धीरे-धीरे सारी नज्में गडमड हो गई हैं'। आगरा में आपको हिन्दू जोगी मौज्जए-हजरतअली गाते मिलेंगे और मुसलमान फकीर खूब मस्त होकर महादेव जी का ब्याह गाते हैं। कमाल यह हे खुदाबन्द कि सिक्खों के गुरु नानक शाह पर भी उनकी नज्म मशहूर है।'

-'सुभान अल्लाह। बताओ दूल्हे मियां, हमें उनकी, शायरी के बारे में बताते रहो।'

 

-'कम से कम मैंने उन जैसा अजीबो गरीब शायर नहीं देखा। भिखारी उनकी नज्में गाकर पेट भरते हैं। शायद खुदाबंद बंजारा नामा आपने सुना हो-

 

क्या गेहूं चावल मोठ मटर, क्या आग धुआं क्या अंगारा,

सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बनजारा।

 

-'बहुत खूब। क्या कहने।' नवाब साहब ने दाद दी।

 

नईम खां ने कहा--रोटी के बारे में- नजीर साहब ने फरमाया है -

 

जब तलक रोटी का टुकड़ा हो न दस्तरखान पर,

न नमाजों में लगे दिल और न कुरआन पर।

रात दिन रोटी चढ़ी रहती है सबके ध्यान पर,

क्या खुदा का बर बरसे है पड़ा हर नान पर।

दो चपाती के वरक में सब वरक रोशन हुए,

इक रकाबी हमें चौदह तबक रोशन हुए।

जरा दुनिया के बारे में सुनिए खुदाबंद.. .।

नहीं है जोर जिन्‌हों में वो कुश्ती लड़ते हैं,

जो जोर वाले हैं वो आपसे पछड्‌ते हैं।

झपट के अंधे बटेरों को जा पकड़ते हैं,..

निकालें छातियां कुबड़े अकड़ते फिरते है।

गरज में क्या कहुँ दुनिया भी क्या तमाशा है-

 

दुनिया के ऐसे तमाशे की बात सुनकर नवाब साहब खूब हंसे, असगर मिर्जा भी हंसी रोक न पाए।

नईम खां स्वयं भी तो शायर था। वह तरंग में कहे जा रहा था।

हजूर जरा दौलत के बारे में, रुपए पैसे के बारे मैं भी नजीर साहब का नजरिया देखिए। फरमाते हैं-

 

गर नेक कहाता है कर जा यहां कुछ अहसान,

हिन्दू को खिला पूरी, मुसलमां को खिला नान।

खा तू भी इसे शौक से और ऐश पर रख ध्यान,

तू इसको खावेगा तो यह बात यकीं जान,

एक रोज यह खन्दी तुझे खा जाएगी बाबा।

 

एक और पहलू भी है खुदाबन्द। जरा गौर फरमाएं--

 

अब जीने को तुम रुखसत दो, और मरने को मेहमान करो,

खैरात करो, अहसान करो या पुन्न करो या दान करो।

या पूरी लड्डू बनवाओ या खासा हलवा नान करो,

कुछ लुत्फ नहीं अब जीने का अब चलने का सामान करो

तन सुखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर जीन धरो बाबा,

अब मौत नकारा बाज उठा, चलने की फिक्र करो बाबा।

 

लेकिन आलमपनाह, गलतफहमी न हो। नजीर साहब सिर्फ ऐसी ही नज्में नहीं कहते। आगरे की ककड़ी के बारे आप-फरमाते हैं –

 

क्या प्यारी प्यारी मीठी और पतली पतलियां हैं,

गन्ने की पोरियां हैं, रेशम की तकलियां हैं।

फरहाद की निगाहें, सीरी की हंसलियां हैं।

मजनूं की सर्द आहें, लैला की उंगलियां हैं।

क्या खूब नर्मओ नाजुक इस आगरे की ककड़ी,

और जिसमें खास काफिर असकन्दरे की ककड़ी

 

खुदाबंद उन्होंने तरबूज के बारे में फरमाया है-

 

मीठे और सर्द हैं इतने कि जरा नाम लिए,

होंठ चिपके हैं जुदा, दांत हैं कड़-कड़ बजते।

शब को दो चार मंगाकर जो तराशे मैंने,

क्या कहूं मैं कि मिठाई में वो कैसे निकले।

कोई ओला, कोई मिश्री, कोई शक्कर तरबूज।

 

-'क्या खूब, वल्लाह सुनकर तबियत खुश हो गई।

मौसम नहीं, वर्ना जी ऐसा मचलता है कि तरबूज और ककड़ी अभी मंगाएं। अभी खाएं।'

वह रात जैसे शबे नजीर हो गई।

.. नईम खां सुनाते रहे और नवाब साहब सुनते रहे

नवाब साहब तभी उठने के लिए मजबूर हुए जबकि खुद हकीम साहब ने आकर कहा- 'सोने का वक्त हो गया है सरकारे आला.. .वक्त की पाबन्दी नहीं होने से दुश्मनों की तबीयत खराब हो सकती है. .।'

नईम खां को नवाब साहब ने एक सौ एक मोहरों की थैली देकर उसकी पीठ थपथपाई। पहले तो उन्होंने यह भी सोचा कि कल सुबह ही नईम खां को आगरा जाने का हुक्म दें। परन्तु यह हुक्म दिया नहीं। सोचा नजीर को लाने के लिए किसी ऐसे सियासत दां को भेजना मुनासिब होगा जो मस्त और सूफी ' तबियत के शायर नजीर को हर हालत में साथ लेकर ही आए।

आगरा में, आगरा के बाजारों में, एक व्यक्ति देखा जाता है जिसके चेहरे प छोटी-छोटी दाढ़ी और पतली-पतली मूंछें हैं। दरमियाना कद, गेहुंआ रंग, माथा ऊंचा और चौड़ा, नाक लम्बी और आँखें चमकदार. होठों की मुद्रा मुस्कुराहट भरी ... मानो अब हंसा .अब हंसा।

यह व्यक्ति एकवर्का पायजामा, अंगरखा और खिचड़ीदार पगड़ी पहनता था। उंगलियों में फिरोजे की अंगूठियां चमकती थीं और बडे ही सीधे, आमतौर से मस्ती से चलने वाले थोड़े पर सवार।

यही थे नजीर। यानी वली मुहम्मद ‘नजीर' अकबराबादी।

अकबराबाद यानि आगरा।

 

यह वह जमाना था जबकि आगरा का भविष्य अनिश्चित था। आगरा किसका है, आगरा पर कौन शासन करता है यह कहना बहुत कठिन था। कभी वहां भरतपुर के जाट झपट्टा मारते और लूटमार करके ले जाते। कभी बाजारों में सिन्धिया के घुड़सवार दिखाई पड़ते, और कभी घोषणा होती - खल्क खुदा का, मुल्क बादशाह का।

लेकिन आगरा के रहने वाले इस प्रकार के परिवर्तनों के मानो अभ्यस्त हो गए थे। यह न आगरा वाले जानते थे, न नजूमी और ज्योतिषी जानते ये और न दिल्ली में बैठा बादशाह जानता था, न भरतपुर का जाट राजा जानता था, और न ग्वालियर का सिन्धिया जानता था कि वह सफेद मकड़ा जो सारे मुल्क को अपने जाल में ढक लेगा--अभी जमना पार करके इधर पहुंचने ही वाला है।

 

नजीर.. .आगरा का यह शायर किसका है? लगता था जैसे जितने आगरा शहर के रहने वाले थे सभी का दावा था कि 'नजीर' उनका है।

सुबह होती, ..।

जब तक नजीर स्नान आदि से निवृत होते बेगम नाश्ता तैयार कर देती।

मीठे चावल और बेसन के चीले।

वह बेगम को आग्रह पूर्वक अपने साथ बैठाते।

दोनों का नाश्ता साथ होता।

 

लेकिन कुछ लतीफे बाजी तब होती जब जीन कसे घोड़े की रास थामकर नजीर आंगन से बाहर दरवाजे की ओर चलते।

-‘सुनिए. .।'

-'सुनाइए।'

---‘दोपहर में लौट आइएगा।'

-'जो हुक्म। '

-'बातें करते हैं, सिर्फ बातें ही करते हैं।

-'तो फरमाइए, और क्या करूं?

-'कभी सोचते हैं ?'

-'फरमाइए क्या सोचूं?’

-‘यह कि घर में निगोडी बीवी है।‘

-'घर में बीवी है. सोच लिया... आगे कहिए। '

-.'सारा दिन इन्तजार और इन्तजार। दोपहर की कह कर मियां साहब रात में तशरीफ लाएंगे. .बताइए तो बीवी बेचारी क्या करे?'

- ‘सवाल तो माकूल है?' नजीर शरारत से बेगम की ओर देखते हुए बोले - 'प्यारी तहवरून्निसा बेगम .। '

बेगम सम्बोधन का उत्तर नहीं देती। जानती हैं बातों की पहेलियां अब शुरू होंगी।'

-'प्यारी तहवरून्निसा बेगम. .सिलसिला यों शुरू हुआ कि आपके नाना जान, खुदा उन्हें जन्नत दे, जनाब अहदी अब्दुल रहमान खां साहेब ने सैयद साहब से फरमाया -भई सैयद साहब नजीर की अम्मी से यह क्यों नहीं कहते कि वह मेरी नवासी को नजीर के लिए मांग रे। मेरे दामाद मुहम्मद रहमान की बेटी तहवर जहां रूप रंग में अव्वल है वहां कढ़ाई और कसीदाकारी में लाजवाब है...।'

-.'तो?' तीखी दृष्टि से बेगम ने मियां को देखा।

-'तो अहदी साहब का कहना सैयद साहब कैसे टालते। सैयद साहब का कहना हमारी अम्मी कैसे टालती और अम्मी का कहना हम कैसे टालते? शादी खाना आबादी हो गई।'

-‘आपकी बात का मकसद क्या हुआ?’

-'क्या बिना मकसद के बात नहीं हो सकती ?'

- ‘आप मुझे बना रहे हैं मियां साहब..।''

 

(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का एक यादगार उपन्यास - दूसरा ताजमहल (2 रा भाग)
जनप्रिय लेखक ओमप्रकाश शर्मा का एक यादगार उपन्यास - दूसरा ताजमहल (2 रा भाग)
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https://www.rachanakar.org/2014/12/2.html
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