डॉ.चन्द्रकुमार जैन ------------------------------- एक ------ तो पूजा हुई ! ------------------- किसी के काम आ जाएँ अगर ये हाथ तो पूजा हु...
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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एक
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तो पूजा हुई !
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किसी के काम आ जाएँ
अगर ये हाथ तो पूजा हुई !
किसी के दर्द में दो पल हुए
गर साथ तो पूजा हुई !
माना कि प्रार्थना में होंठ
रोज़ खुलते हैं मगर,
आहत दिलों से हो गई
कुछ बात तो पूजा हुई !
दो
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ख़्वाहिश जोश में है !
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क्यों यहाँ हर शख्स औरों में
किसी की खोज में है ?
ख़बर अपनी ही नहीं उसको
न ही वह होश में है !
पाँव के नीचे ज़मीं
चाहे न हो पर देखिए तो
आसमां की बुलंदी छूने की
ख़्वाहिश जोश में है !
तीन
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भूल गए हम जीना भी है !
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मिली हुई दुनिया की दौलत
भूल न जाना माटी है !
हाथ न आई है जो अब तक
दौलत वही लुभाती है !
लेकिन इस खोने-पाने की
होड़-दौड़ भी अद्भुत है,
भूल गए हम जीना भी है
साँस भी आती-जाती है !
चार
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देने वाले 'आम' रह गए...!
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किरणों के माली जाने क्यों
अँधियारों के दास बन गए !
हँसी बाँटते थे जो कल तक
देखो आज उदास बन गए !
जीवन का निर्वाह हो गया
इतना जीवन पर हावी है,
देने वाले 'आम' रह गए
लेने वाले 'ख़ास' बन गए !
पांच
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दूर न होगा शिखर..!
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आँखों को मुस्कान
अगर मिल जाए
पाँवों को उड़ान
अगर मिल जाए
दूर न होगा शिखर
कभी जीवन में
संकल्पों को जान
अगर मिल जाए
पाँच प्रेरक कविताएँ
एक
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लगन सूरज की पैदा हो गई
लो तमस भी भागा
अगन धीरज की पैदा हो गई
संकल्प भी जागा
बुझे मन से कभी ये ज़िंदगी
रौशन नहीं होती
तपन ज़ज्बे की पैदा हो गई
सोने में सुहागा
दो
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जारी रही तलाश तो
हर आस को जीवन मिलेगा
भारी रहा विश्वास तो
सहरा में भी सावन मिलेगा
डगर में पाँव और जुम्बिश
सफ़र में हार न मानें
तो बेशक ज़िंदगी को ज़िंदगी का
मीत वह मधुबन मिलेगा...!
तीन
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कह पाना जिसको मुश्किल हो
बात वही मैं कह जाता हूँ
सह पाना जिसको मुमकिन हो
हर पीड़ा मैं सह जाता हूँ
दुनिया रुदन जिसे कहती है
मैं स्वर पंचम में उस दुःख के
घर में बनकर सहज सहोदर
जब तक चाहे रह जाता हूँ
चार
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सधे हुए हाथों से सेवा
मानवता का सहज धर्म है
कष्ट हरे जो हर हारे का
विजयी का वह विश्व-कर्म है
माना जीवन पाहन-सा है
लेकिन पावन इसे बनाएँ
पत्थर पर भी फूल खिला दें
जो भीतर से अगर नर्म हैं......!
पाँच
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जितना चल सकता हूँ मैं
उतने क़दमों तक हक मेरा है
जितना जल सकता हूँ बस
उतनी किरणों तक ही डेरा है
जब तक मात न नींदों की हो
तब तक सजग मुझे रहना है
रातों से क्यों गिला मुझे हो
कब सुबहों ने मुँह फेरा है ?
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हिन्दी विभाग, दिग्विजय कॉलेज,
राजनांदगांव
0000000000000000
डॉ. (श्रीमती) तारा सिंह
खुदा करे, मेरी कसम का उसे एतवार हो
मुहब्बत फ़िर न रुसवा1 सरे बाजार हो
आँख उसकी जब भी तरसे, जल्वा-ए-दीदार2 को
सामने उसका आजुर्दगी -ए- यार3 हो
छूट न जाए हाथों से गरेबां बहार का
मुहब्बते इंतजार का चढ़ा हुआ खुमार हो
मेरी जान को करार मिले न मिले, बू-ए-गुल से
मस्त, यार के कूचे का हर दरो-दीवार हो
है यही खुदा से दुआ मेरी, बागे-आलम में
समन्दे-उम्र4का लगाम,हाथ से न बे-इख्तियार हो
1. बदनाम 2. नज्जारा 3. उदास यार
4.उम्र का घोड़ा
---.
जिसके जल्वे से जमीं –आसमां सर-शार1 है, हमने
उसी से तेरे लिए, चाँद-तारों की उमर माँगी है
तेरे पाँव में जमाने के काँटे न चुभे कभी
बहारों से हमने, तेरे लिए फ़ूलों की डगर माँगी है
फ़लक2 से भी ऊपर तेरे रुतबे के शरारे3 उड़े
उस अनदेखे ख़ुदा से हमने, गुम्बदे बेदर माँगी है
जो तू पास नहीं होता, तमाम शहर हमें वीरां लगता
हमने अपनी अफ़सुर्दा-निगाहों4की उससे कदर माँगी है
खुश हो ऐ वक्त कि आज मेरे लाल का जनम दिन है
तुमसे और कुछ नहीं,बस सौ साल की उमर माँगी है
1.लबालब 2. आकाश 3. चिनगारियाँ 4.उदास नेत्र
----.
जो तुमको अपने दिले– दुश्मन की महफ़िल में
रात ठहरना कबूल नहीं, तो मेरा क्या कसूर है
दुनिया में चलन है, चार दिन की आशनाई का
ठहरे-ठहरे चल दिये, दुनिया का पुराना दस्तूर है
रिश्ता-ए-वफ़ा का ख्याल रखता कोई नहीं यहाँ
जब आती खिजां, शज़र से पत्ते भागते दूर हैं
तुमने जहाँ भी हमको तन्हा पाया, जान से मारा
जख्म भर गया,जो लहू न बहा तो मेरा क्या कसूर है
हम तो सर पे –बारे –मुहब्बत को लिये घूमते रहे
न मिली फ़ुर्सत सर उठाने की,तो मेरा क्या कसूर है
---.
जिस निगाह से बचने में मेरी उम्र गुजरी
शामे-जिंदगी मुझे उसी से मुहब्बत हो गई
गमे दो जहां क्या कम थे
जो राहत में एक और मुसीबत हो गई
उसके नजदीक तसलीमों-रजा1 कुछ नहीं
मुझे सितम पर सब्र करने की आदत हो गई
जिसने दिल खोया,उसी को कुछ मिला,फ़ायदा
जब देखा नुकसान में तब दिक्कत हो गई
इश्क आग नहीं जो राख में दवा देता,मुहब्बत
की इबादत2 में शराब पीने की आदत हो गई
1. आत्म स्वीकृति 2. पूजा
---.
गम की अँधेरी रात में तुम कहाँ हो
जहाँ भी हो , आवाज दो , तुम कहाँ हो
मिटती नहीं दागी उलफ़त गुजर जाने के
बाद भी , सोचकर तुम क्यों परेशां हो
मुहब्बत में हसरतों की कमी नहीं होती
मगर लबे-नाजुक पर इसका कुछ तो निशां हो
कैसे कर पूछूँ उससे, दुनिया का हाल, जो
खुशी में अपना हाल अपने ही करता बयां हो
आखरी दम तक न रहता कोई जबां
बहारे-उम्र1 रहता नहीं वहाँ, जहाँ न खिजा हो
1. जीवन वसंत
--.
चाहा था इस रंगे- जहां में अपना एक ऐसा घर हो
जहाँ जीवन जीस्त1 के कराह से बिल्कुल बेखबर हो
मुद्दत हुई जिन जख्मों को पाये, अब उनके
कातिल की चर्चा इस महफ़िल में क्यों कर हो
मैं क्यूँ रद्दे-कदह2चाहूँ,मैंने तो बस इतना चाहा टूटकर
भी जिसका नशा बाकी रहे,ऐसी मिट्टी का सागर हो
बदनामी से डरता हूँ, दिले दाग से नहीं, बशर्ते कि
वह दाग अन्य सभी दागों से बेहतर हो
हसरतों की तबाही से तबाह दिल का हाल न पूछो
तुमने पिलाया जो जहर ,उसका कुछ तो असर हो
1. जिंदगी 2. मदिरापात्र का खंडन
0000000000000000
सुमन त्यागी”आकाँक्षी”
घर मेरा
क्या है मेरा घर भी कोई ?
जिसमें चाहूं कर लूं जो भी
जन्म लिया, मैने इक घर में
चलना सीखा
गिरना सीखा
और वहीं फिर उठना सीखा
रिश्ते सीखे
नाते सीखे
बन्धन सीखे
वादे सीखे
सोचा,घर मेरा यह अपना
लेकिन
अधिकार नहीं
समभाव नहीं
जीवन का आधार नहीं
क्योंकि, यह तो घर पापा का
क्या है मेरा घर भी कोई ?
जिसमें चाहूं कर लूं जो भी
नया मुकाम मेरे जीवन का
रिश्ते छूटे
नाते छूटे
पिछले जीवन के वादे छूटे
कर्त्तव्य लिये
संस्कार लिये
दुःख भी लिये
अन्धकार लिये
कठिन विपत्ति के वार लिये
सोचा,घर मेरा यही शायद
लेकिन फिर
अधिकार नहीं
समभाव नहीं
जीवन का आधार नहीं
क्योंकि, यह तो घर है पति का
क्या है मेरा घर भी कोई ?
जिसमें चाहूं कर लूं जो भी
अन्तिम पड़ाव आया कुछ ऐसे
हड्डी टूटी
खून भी सूखा
और पति का साथ है छूटा
लोरी गाई
कहानी सुनाई
माँ,धाय बनी
और बनी बिजूका
सोचा,अब तो घर यह मेरा
लेकिन फिर वही
वो प्यार नहीं
सम्मान नहीं
और जीवन का आधार नहीं
क्योंकि, यह तो घर बेटे का
क्या है मेरा घर भी कोई ?
जिसमें चाहूं कर लूं जो भी
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वे कविताएँ
अब लिखनी है वे कविताएँ
जिनमें अक्स स्वयं मेरा हो
जिनमें दंश हो भ्रूण हत्या का
जन्म पाने की उत्कट इच्छा
जिनमें हों बलिदान की बातें
पल-पल भाई को सौगातें
जिनमें ऋण हो मात-पिता का
शीश कटा रखना सम्मान
जिनमें लुटती इज्जत मेरी
देह पड़ी हो पत्थर समान
जिनमें ढूंढूं घर मैं अपना
पिता भाई पति पुत्र महान
जिनमें बसेरा हो वृध्दाश्रम
अन्तिम पड़ाव मेरा अभियान
जिनमें हो आजादी मेरी
सबको समता का अधिकार
जिनमें शामिल खुशियाँ मेरी
उन्मुक्त पंछी का हो आकाश
जिनमें जीवित इच्छाएँ मेरी
जैसे हों प्रस्तर में प्राण
अब लिखनी है वे कविताएँ
जिनमें अक्स स्वयं मेरा हो
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राखी
बचपन में
बंधी देखी राखी
एक कलाई पर
सोचा मैं भी बांधूं राखी
अपने भाई को
मम्मी मुझको भाई ला दो
जैसा भी हो
पतला मोटा
गोरा काला
लम्बा छोटा
इच्छा प्रकट हुई
ले रूप जिद्द का
सोते-जागते उठते-बैठते
चढी जुबान पे एक ही बात
शह भी थी दादी की मुझको
चाहती वो थी कुलदीपक
घन्टे बीते दिन भी बीते
बीते महीने चार
पहले ना की देर कभी
पाया पल में माँगा जो भी
समझ न आया
मांगा क्या है अबकी बार
पापा, मम्मी भाई न लाती
आप ही ला दो कुछ
पहली बार
गये तब क्लीनिक
क्या है माजरा ?
न जुकाम, न खाँसी,बुखार
फिर आया घर में सैलाब
बांझ,अभागन,करमजली
नाठकरणी पुरखों की
न वारिस,न सद्गति मेरी
दूजा ब्याह रचा के इसका
तब पाऊं मैं कुलज्योति
मैं हूँ बांझ,नपुंसक मैं हूँ
मैं हूँ दोषी तेरा माँ
दे न सकूं वारिस पुरखों को
ना दे सकूं मैं कुलदीपक
ला न सकूं भाई सृष्टि का
कर न सकूं मैं सद्गति
स्तब्ध नीरव वातावरण
न हलचल न कोलाहल
सावन-फिर राखी का महीना
हरियाली और झूले संग
तब आया दिन रक्षाबन्धन
चहल-पहल सब वातावरण
पर है निराश किसी का मन
लेकिन
पल में तन-मन उल्लासित
पापा लिए खड़े थे भाई
दत्तक पुत्र उन्हीं का अपना
छोटा सा था पर था प्यारा
उछली कूदी नाची गाया
मिट्ठू तोता टॉमी कुत्ता
सब मित्रों से उसको मिलाया
मिलकर राखी का त्यौहार मनाया
सुमन त्यागी”आकाँक्षी”
मनियाँ,धौलपुर(राजस्थान)
00000000000000000000000000000000
बलवन्त
अभिलाषा
हर आँगन में उजियारा हो, तिमिर मिटे संसार का।
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
सपने हो मन में अनंत के, हो अनंत की अभिलाषा।
मन अनंत का ही भूखा हो, मन अनंत का हो प्यासा।
कोई भी उपयोग नहीं, सूने वीणा के तार का ।
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
इन दीयों से दूर न होगा, अन्तर्मन का अंधियारा।
इनसे प्रकट न हो पायेगी, मन में ज्योतिर्मय धारा।
प्रादुर्भूत न हो पायेगा, शाश्वत स्वर ओमकार का।
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
अपने लिए जीयें लेकिन औरों का भी कुछ ध्यान धरें।
दीन-हीन, असहाय, उपेक्षित, लोगों की कुछ मदद करें।
यदि मन से मन मिला नहीं, फिर क्या मतलब त्योहार का ?
चलो, दिवाली आज मनायें, दीया जलाकर प्यार का।
विश्वासों के दीप
जीवन के इस दुर्गम पथ पर सोच-समझकर कदम बढ़ाना।
विश्वासों के दीप जलाकर, अंधकार को दूर भगाना।
आयोजन अंधों ने की है आपस में ही टकराने का ।
रौंद के सारे रिश्ते-नाते आगे ही बढ़ते जाने का ।
दूर हो रहे जो अपनों से, है अब तुमको उन्हें मनाना।
विश्वासों के दीप जलाकर, अंधकार को दूर भगाना।
मानवता का मान बढ़ेगा, मानव धर्म निभाने से ।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, क्या होगा कहलाने से ?
तुमको तप्त धरा के तन-मन पर होगा मोती बिखराना।
विश्वासों के दीप जलाकर, अंधकार को दूर भगाना।
हुई रक्तरंजित वसुंधरा, थर्राई हैं दशों दिशाएं।
कूंक हूई जहरीली कोयल की, गुमसुम हो गई हवाएं।
सुर हो गया पराया अब, कल तक जो था जाना-पहचाना।
विश्वासों के दीप जलाकर, अंधकार को दूर भगाना।
देख आगमन पतझड़ का, उतरा है चेहरा बहार का।
स्वर अब कौन सुनेगा, गुमसुम पड़े हुए सूने सितार का।
स्नेह, शील, सद्भाव, समन्वय से घर-आँगन को महकाना।
विश्वासों के दीप जलाकर, अंधकार को दूर भगाना।
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बलवन्त, विभागाध्यक्ष हिंदी
कमला कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एण्ड साईंस
450, ओ.टी.सी.रोड, कॉटनपेट, बेंगलूर-560053
Email- balwant.acharya@gmail.com
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डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
चाचा नेहरू
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वीर व्रती, संकल्प धनि वह
था धरती का नाहर
बहुत प्यार से दुनिया कहती
उसको वीर जवाहर ।
गांधी का वह धर्मपुत्र
मोती का राज दुलारा
भारत जननी की आँखों का
वह चमकीला तारा ।
मातृभूमि की स्वतंत्रता हित
योगी बन वह राज कुमार
निकला वह आनक भवन से
पहुँचा गांधी द्वार ।
उसका सपना था हम सब
नया भारत बनाएंगे
रोग, कष्ट, शोषण विहीन
हम राम-राज्य को लाएंगे ।
उसकी स्मृति में कोटि-कोटि जन
सादर शीश झुकाते हैं
दुनिया के बच्चे चाचा की
जय जयकार मनाते हैं ।
आदित्यपुर, जमशेदपुर
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मनोज 'आजिज़'
रौशनी की कविता
सरहदें हैं दिलों के दरम्याँ बहुत
दिवाली में सरहदों का दिवाला करें
हर शख्स है बदहवासी के अँधेरे में
मोहब्बत की रौशनी से उजाला करें
कुछ लोग पटाखों में आग की तैयारी में
कहो, ख़ुद की आग से वो सम्हाला करें
वो जश्न क्या जिसमें सिर्फ़ पैसा शामिल
दिलों के जश्न से सबको मतवाला करें
ख़ुशियों के दिये जल उठे हर तरफ़
पुराने ग़मों से न खुद को मलाला करें
---.
बाल-कविता
चाचा नेहरू तुम्हें प्रणाम
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चाचा नेहरू तुम्हें प्रणाम
तुमने पाया सुयश सुनाम
बहुत बड़े थे मोतीलाल
उनको मिले 'जवाहर लाल' ।
गांधी ने उनको अपनाया
दुनिया ने सिर पर बैठाया
दिल्ली या इस्लामाबाद
चाचा नेहरू जिंदाबाद।
दिया देश को नया मान
लेकर आए विकास विहान
उनके बड़े हैं योगदान
बढ़ाई देश की आन-शान ।
आदित्यपुर-२, जमशेदपुर
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पद्मा मिश्रा
छठ पर्व की कविता
आलोक पुंज तुम-हे अनंत
जल-थल-नभ-सकल चराचर में,
व्यापित हो दिग दिगंत -
आलोकित धरती के कण कण में,
ज्योर्तिमय भास्कर तुम -हे अनंत !,
जुड़े हुए हाथों में,अनगिन आशाओं की ,
गुंजित स्वर वंदना में -
करुणा का दान दो,
दुःख की दोपहरी में -
सुख का वैभव भर दो,
सूने घर आँगन में सपनो को पलने दो,
अंधियारी रातों में -सिमटी जिनकी दुनिया,
उस रीते आँचल में-,
शैशव का गुंजन दो,
षष्ठी के मान तुम्ही -
सबका अभिमान तुम्ही ,!
आस भरे जीवन में -जागो आदित्य नाथ !
जागो हे ज्योति पुंज!
-पद्मा मिश्रा -जमशेदपुर
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सुरभि सक्सेना
अपना कहो मुझे और खुशियां हज़ार दो
यूँ ही किसी गरीब की किस्मत सँवार दो
दीवाना बन गया हूँ तेरी तिरछी नज़र का
पलकें झुका, झुका के, दिल को क़रार दो
जीता हूँ तेरे प्यार में, खामोश हूँ मगर
कभी तो मेरे प्यार का, सदका उतार दो
महका हुआ बदन तेरा, ऑंखें है मरमरी
छूकर मुझे ऐ गुलबदन, मुझको निखार दो
#Surabhi Saxena
Geetkar , Actress, poetess, Radio jockey
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शशांक मिश्र भारती
1.
मानवता की बातें हो तो वही धर्म है,
भेद ईर्ष्या-द्वेष का मिटाये तो वही धर्म है।
परस्पर लड़ाई-झगड़े से क्या मिला जग को,
अब सच्ची मानवता फैलाओ यही धर्म है।
संसार में फैला आतंकवाद चहुं ओर है,
उसे जड़ से मिटा सके तो वही धर्म हैं।
अब तक जले घर हैं अपने ही दीपकों से,
दीपक प्रेम का जलाओ यही धर्म है।
बीज कांटों का सुख-शान्ति ला न सकता,
फूल मानवता के खिलाओ सही धर्म है।
इधर-उधर न कहीं अत्याचार हो पायें,
सब कहीं सुख समानता हो तो वही धर्म है।
हिंसा का उत्तर हिंसा न हो सकती कभी,
अहिंसक मानवता अपनाओ यही धर्म है।।
2 :-
आजादी के कई दशकों के बाद जहर पी रहे हैं लोग,
अपृश्यता छुआछूत के कोप में जी रहे हैं लोग।
है और की बात क्या किसान हैं आत्महत्या करते,
घर पड़ोस के जला-जला रोटियां सेंक रहे हैं लोग।
एक की बात कौन कहे बच्चा-बच्चा है नेता,
अपनी ढपली-अपना राग बजाने लग गये हैं लोग।
त्याग-परोपकार की बातें करते थे कभी जो,
भ्रष्टाचार के दल-दल में फंसते जा रहे हैं लोग।
धर्म को अधर्म ने राजनीति को स्वार्थ ने निगला,
पाना-पानी न रहा गंदले इतने हुये हैं लोग।
रास्ता बताया जिसने वही तो भटक गया है,
कहा जाएं खड़े-खड़े चौराहे पर सोच रहे हैं लोग।
3 :-
मुफ्त की कोई भेंट नहीं हूं
बोझ बनूं वो बात नहीं हूं।
मूल्य चाहता वही लगाता,
मैं बिकाऊ सामान नहीं हूं।
रोको न आने के दरवाजे,
बेटी हूं कोई तूफान नहीं हूं।
बनी हूं लक्ष्मी मैं ही इन्दिरा
दुनियां पर अहसान नहीं हूं।
मैं हूं जननी इस जग की,
बिन बुलाया मेहमान नहीं हूं।
मुझे जन्मनें दो संसार में,
बेटी हूं कोई शैतान नहीं हूं।
पल जाऊंगी-बढ़ जाऊगी,
मैं इतना भी नादान नहीं हूं।
आगे हो बनी चावला-साइना,
दर-दर भटके सो इंसान नहीं हूं।
000000000000000000000000000000
रवि श्रीवास्तव
इक अंजान लड़की
इक अंजान लड़की से, मुलाकात हो गई
आंखों आंखों में सही, बात हो गई।
बन बैठा उसका दीवाना, नाम क्या है ये भी जाना
खोजता हूं उसका ठिकाना, जैसे कोई पागल दीवाना।
इक अंजान लड़की से, मुलाकात हो गई।
उसकी तस्वीर आंखों में, इस कदर बस गई,
दिन का चैन रातों की, नींद उड़ गई।
आंखों आंखों में ही सही, बात हो गई।
कैसे बयां करू मैं, अपने इस हाले दिल का,
चढ़ गया है मेरे ऊपर ,भूत मोहब्बत का
देख कर उसको लगे, बस देखता रहूं
प्यार में उसके जियो, और प्यार में मरूं।
मेरी वह धड़कन की, मेहमान बन गई
इक अंजान लड़की से, मुलाकात हो गई।
सोचता हूं उससे मिलकर, बता दूं दिल की बात
दिल बोले बोल दे ,पर जुबां न देती साथ
जिंदगी जीने की, बन गई वो तो आस
आंखों से न हो ओझल, रखूं मैं दिल के पास।
उसका चेहरा जब मैं देखूं, मिल जाता सुकून
कुछ नहीं ये था, मेरे प्यार का बस जुनून।
उसके बिना जिंदगी मेरी, बेजान हो गई।
इक अंजान लड़की से, मुलाकात हो गई
आंखों आंखों में ही सही, बात हो गई
रवि श्रीवास्तव -
कवि, व्यंग्यकार, कहानीकार
फिलहाल एक टीवी न्यूज़ ऐजेंसी से जुड़े हैं।
00000000000000000
अमित कुमार गौतम 'स्वतन्त्र'
भूल गए
--------------
भूल गए हम सब
उस कल को
जिस कल ने दिया
हम सब को
वो कल था
पल दो पल का
ये कल है
पल ही पल का
बीते दिनों को
याद दिलाना भूल गए
कलरव करते
सारे जग में
सूख गए
वो पल याद न आये
जिनको हमने छोड़ा
मिट जायेंगे वो
जो आईएम पल को तोड़ा
कल ही जन्मे
आज ही भूल गए
पल-पल का नाता
सब तोड़ गए
भूले बिसरे याद न आते
जिनसे वे जन्मे
उन पल को हमने
आज न भूला
जिसने देकर जीवन हमको
अपना जीवन भूला
मैं जग पालन हर से
करता हूं विनती
इन मात-पिता की
सेवा कर दूं कितनी
भूल गए हम सब
उस कल को
जिस कल ने दिया
हम सब को!!
ग्राम-रामगढ न.2 ,तह-गोपद बनास,
जिला-सीधी,मध्यप्रदेश,486661
00000000000000000000000000000000000000
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