आधुनिक हिन्दी आलोचना ः एक विवेचन ( पंजाब के हिन्दी साहित्य के विशेष सन्दर्भ में) आधुनिक युग आलोचना का युग है। साहित्य में विविध विध...
आधुनिक हिन्दी आलोचना ः एक विवेचन
(पंजाब के हिन्दी साहित्य के विशेष सन्दर्भ में)
आधुनिक युग आलोचना का युग है। साहित्य में विविध विधाएँ दर्शनीय हैं। सभी अपने आप में महत्त्वपूर्ण तो हैं, लेकिन आलोचना ऐसी विधा है जिसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व एवं निजी महत्व है। किसी भी भाषा में रचित साहित्य में इस विधा का महत्वपूर्ण स्थान समझा जा सकता है। हिन्दी साहित्य में भी आलोचना का महत्वपूर्ण स्थान है। आलोचना को आत्मा की कला कहा गया है। रचना की तरह जब आलोचना भी आलोचक के आत्ममंथन से पैदा होती है तो सर्जनात्मक और सार्थक बनती है। आलोचना एक प्रकार से प्रतिक्रियाओं की देन है, लेकिन ये प्रतिक्रियाएँ वैज्ञानिक संयम से अनुशासित रहती हैं, इसलिए साहित्य की आलोचना को पाठक स्वीकार कर रहे हैं। सच्ची आलोचना में सत्य और यथार्थ की जिज्ञासा, प्रश्नाकूलता, सार्थकता की खोज, आत्म साक्षात्कार की बेचैनी और संकल्प का पुर होता है। डॉ․ नामवर सिंह के अनुसार, ‘‘आलोचना अपने समय की बौद्धिकता की उपस्थिति है।'' यहाँ बौद्धिकता से अभिप्रायः समय की हलचल और धड़कन से परिचित होना है। वर्तमान आलोचना जनतंत्र से जुड़ी है इसलिए लोकमत और लोकचेतना के निर्माण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह पंजाब के हिन्दी साहित्य में भी आलोचना विधा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में प्रयासरत है। पंजाब के हिन्दी आलोचकों के वर्ग में वह सभी आलोचक आ जाते हैं जिनका जन्म स्वतन्त्रता पूर्व के वृहद पंजाब, स्वतन्त्रोत्त्ार काल से विभाजित पंजाब एवं 1 नवम्बर, 1966 के वर्तमान पंजाब में हुआ। हिन्दी आलोचना (समीक्षा) की चिन्तन भूमि यथार्थ पर आधारित है। यह यथार्थवादी दृष्टिकोण जीवन और जगत को लक्ष्य कर निर्मित हुआ था। हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु, प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट आदि की समीक्षा में जीवन-जगत का यथार्थपरक अंकन हुआ है। आधुनिक हिन्दी आलोचना के श्लाका-पुरूष आचार्य रामचन्द्र शुक्ल है। उन्होंने आलोचना को आलौकिकता के अराले से उतार कर लोक की सामान्य भूमि पर विचरण कराया तथा जन सामान्य से उसका परिचय कराया। इन लेखकों ने साहित्य को जनता की सामूहिक चेतना के रूप में मान्यता प्रदान की। इन्हीं समीक्षकों के पद् चिन्हों पर पंजाब का हिन्दी आलोचक भी अग्रसर हुआ।
पंजाब का आधुनिक हिन्दी आलोचनात्मक साहित्य केन्द्र में है और कहीं भी मुख्यधारा से कटा हुआ नहीं है। इसकी उपलब्धि इस बात में है कि पंजाब के हिन्दी समीक्षक ने सैद्धान्तिकी और व्यावहारिक रूप में लेखन अर्थपूर्ण निर्वाह किया है। इस क्रम में डॉ․ हुकुमचंद राजपाल, मनमोहन सहगल, इन्द्रनाथ मदान, हरमहेन्द्र सिंह बेदी, महीप सिंह, चन्द्रशेखर, उपेन्द्रनाथ अश्क, ज्ञान सिंह मान, कीर्ति केसर, नरेन्द्र मोहन, बलदेव वंशी आदि असंख्य आलोचक आते हैं। डॉ․ हुकुमचंद राजपाल मूलतः आलोचक हैं। उन्होंने हिन्दी और पंजाबी काव्य नाटक पर असंख्य आलोचनात्मक पुस्तकें लिखीं हैं, जैसे ‘महादेवी का काव्य सौन्दर्य‘ (1978), ‘समकालीन बोध और धूमिल का काव्य' (1980), ‘कृति और मूल्यांकन' (1971), ‘समकालीन कविताः चर्चित परिचित चेहरे' (1993), ‘समकालीन कविता के तीन पड़ाव' (1986), ‘मुक्ति बोध की काव्य चेतना और संकल्प' (1985), ‘समकालीन कविता के मानव मूल्य' (1993), ‘धर्मवीर भारती ः साहित्य के विधि आयाम' (1980) आदि।
हुकुमचन्द जी की व्यावहारिक आलोचना में यह बात बिल्कुल नहीं है कि किसी कवि के बारे में सारे निष्कर्ष एक अनुच्छेद में दो टूक शब्दों में रख दिए जाएँ। इनकी आलोचना में चिन्तन-प्रक्रिया निरन्तर सक्रिय रहती है। जब वे किसी एक बिन्दु पर विचार कर रहे होते हैं तो उससे सम्बन्धित अनेक विचार-बिन्दु उनके मानस-पटल में बुलबुलों की तरह उठते रहते हैं। हुकुमचन्द ‘धूमिल' की काव्य-भाषा से विशेषतः प्रभावित है। फिर भी एक तटस्थ आलोचक की दृष्टि से वे देखना चाहते हैं कि एक कवि जिस भाषा में रच रहा है उसके प्रति उसका सम्बन्ध क्या है? वह धूमिल, धर्मवीर भारती, महादेवी, मुक्तिबोध को एक साथ रखकर उनके कवि-स्वभाव और उनकी क्षमता एवं विशिष्टता को अलग-अलग रेखांकित करते हैं। उनकी आलोचना की विशिष्टता यह है कि वह धीरज के साथ पढ़ी जाने योग्य ऐसी रचनात्मक आलोचना है जो पाठक को बहुत सी बारीकियों में और लहरीले प्रवाह (Zig-Zag motion) में उतारने तथा अन्ततः उसे समृद्ध करने वाली है। साथ ही उससे स्वयं कवि के मानसिक अहापोह और रचनात्मक संघर्ष का भी पता चलता है। आलोचक के रूप में हुकुमचंद जी ने केवल उन्हीं रचनाकारों पर लिखा है जिनकी रचनाओं से उनके आलोचक मन का एक आत्मीय रिश्ता कायम हो सकता है। किसी रचनाकार को उखाड़ने-पछाड़ने का भाव उनमें कदापि नहीं रहा। अपनी इसी विशिष्टता हेतु तीन बार सर्वोत्त्ाम ‘आलोचक हिन्दी पुरस्कार' से आपको सम्मानित किया गया।
पंजाब का आलोचक इस बात से भली-भांति परिचित है कि आलोचना का काम केवल रचना की टीका करना नहीं है। आलोचना रचना में व्यक्त मूल्यों एवं विश्वासों की व्याख्या करती है। इस तथ्य से पंजाब के सशक्त आलोचक के रूप में मनमोहन सहगल का नाम उल्लेखनीय है। आपके आलोचनात्मक ग्रंथों में ‘गुरू ग्रन्थ साहिब ः एक सांस्कृतिक सर्वेक्षण', ‘संत काव्य का दार्शनिक विश्लेषण', ‘उपन्यासकार गुरदत्त्ाः व्यक्तित्व और कृतित्व, ‘विधाषतिः मूल्यांकन और उपलब्धि', ‘उपन्यासकार जैनेन्द्रः मूल्यांकन और मूल्यांकन', ‘पंजाब का कृष्ण काव्य और सूरदास', ‘हिन्दी शोध तंत्र की रूप रेखा' आदि बीस से अधिक आलोचनात्मक ग्रंथ हैं। इनकी आलोचनात्मक प्रक्रिया की विशेषता यह है कि उनके कहने का ढंग अपना है जिसमें उनकी मानसिक बनावट, उनकी चिन्तन प्रक्रिया, और उनके रचनात्मक भाषा-संयोजन का योगदान है।
मनमोहन सहगल ने कवि ही नहीं, उपन्यासकार, कहानीकार एवं अन्य विधाओं के लेखक व उनकी लेखनी पर भी विचार किया है। इस प्रकार उनकी व्यावहारिक आलोचना का क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है। सिद्धान्तिक आलोचना के अर्न्तगत ‘हिन्दी शोध-तंत्र की रूपरेखा' विचारणीय है, जिसमें शोध पर गहराई से विचार किया गया है। सहगल जी की विचार-दृष्टि दार्शनिक और सांस्कृतिक है। वह मूल्यवादी दृष्टि है जो चिंतन के साथ आचरण पर भी ज़ोर देती है। इसीलिए मनमोहन ऐसे ही विचारकों को बार-बार स्मरण करते हैं जो इसके उदाहरण हैं। कृष्ण, राम, गुरू गोबिन्द सिंह, शिव स्वरूप श्री चन्द, परम संत सावन सिंह जैसे महानायक इसी विषयवस्तु के अन्तर्गत इनकी रचनाओं में सुशोभित है।
पंजाब के समीक्षात्मक साहित्य के अन्य हस्ताक्षरों में बलदेव वंशी का नाम भी लिया जाता है। इनकी आलोचनात्मक रचनाओं में भारतीय संस्कृति एवं पंजाबी संस्कृति के कई तुलनात्मक दृश्य प्रस्तुत हुए हैं। साथ ही वह समाज में बढ़ रहे सांस्कृतिक प्रदूषण से भी चिन्तित हैं और उसे हमारे समय की एक क्रूर वास्तविकता स्वीकारते हैं। अधिकांश पंजाब के प्रत्येक आलोचक ने सांस्कृतिक तथ्य पर विचार किया है। हिन्दी के विख्यात आलोचक रमेशचन्द्र शाह भी आलोचना के पक्ष पर विचार करते हुए कहते हैं कि ‘‘आलोचना का पक्ष यूनिवर्सल इंटेलिजेन्स का, सार्वभौम बुद्धि वैभव का पक्ष है, वैचारिक स्वराज का एवं सांस्कृतिक आत्म-विश्वास का पक्ष है।'' इसी कड़ी में इन्द्रनाथ मदान का समीक्षक रूप में उल्लेखनीय स्थान है। इनकी आलोचना की सबसे बड़ी विशेषता है - सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्ति इन्होंने अनेक आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे जिनमें प्रमुख 'Modern Hindi Literature', 'Prem Chand - An Interpretation', Short Chandra Chetergi: His mind and Art', ‘हिन्दी कलाकार‘, ‘आलोचना और काव्य', ‘आधुनिक कविता का मूल्यांकन प्रमुख है। वैयक्तिकता की प्रवृत्ति इनकी आलोचना में उभर कर सामने आती है जो कि आधुनिकता की देन है। अतः नयी समीक्षा में विडम्बना, तनाव, विसंगति, लघुता, कुरूपता, विद्धपता का ही चित्रण प्रधानत; मिलता है। आलोच्य प्रतिमान तक इसी पर टिके दिखायी देते हैं। तात्कालिकता कि सोच मे साहित्यालोचन को जीवन के बुनियादी सरोकारों से दूर किया है , इस लक्ष्य से पंजाब का आलोचक
भली-भाती परिचित है।
महीप सिंह की आलोचना के केन्द्र में धर्म, राजनीति तथा मानवीय मूल्यों के संदर्भ में जहां पंजाब की स्थिति का तथ्यात्मक अंकन हुआ है वही कीर्ति-केसर ने आधुनिक जीवन की विसंगतियों को अपने आलोचना क्षेत्र मे रखा है। 'स्वात्रंयोतर हिन्दी कहानी का समाजसापेक्ष अध्ययन' इनका प्रमुख आलोचना ग्रंथ है। उपरवर्चित आलोचकों के अतिरिक्त चन्द्रशेखर, नरेन्द्र मोहन, हरमहेन्द्र सिंह बेदी, डॉ․ ज्ञान सिंह मान आदि अपनी आलोचनात्मक कर्म के लिए विशेष प्रख्यात है। वर्तमान इस तथ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आज आलोचना की स्वतंत्रता के नाम पर शार्टकट अपनाया है। शार्टकट की इस संस्कृति ने आलोचना के अर्थ को प्राणहीन कर दिया है। साहित्यिक क्षेत्र में यह प्रदूषण वहाँ दिखायी देता है जहां कुछ पेशेवर आलोचक पाठक वर्ग को जाने-अनजाने रचना का मूल्य बता देना चाहता है। वह यह बात भूल जाते हैं कि ‘आलोचक' और ‘रिव्यूवर' अलग-अलग हैं। किन्तु बोध और विश्लेषण दोनों ही समीक्षकों में अपेक्षित हैं। इसी स्थिति पर गम्भीरता से विचार करते हुए टेरी इग्लटन ने लिखा है- ‘‘आजकल की आलोचना का कोई सामाजिक लक्ष्य नहीं है।'' हिन्दी आलोचना की भी आज यही स्थिति और नियित हो गयी है। ऐसा कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है। टी․एस․ इलियट ने अपने निबन्ध ‘फ्रंटियर्स ऑफ क्रिटिसिज़्म' में कवि द्वारा स्वयं आलोचना को ‘वर्कशाप आलोचना' कहा है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए आलोचक के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि वह रचना में निहित मूल्यों की तलाश और व्याख्या जीवन यथार्थ दृष्टि से करे। चाहे वह परम्परावादी हो, मार्क्सवादी हो, समाजवादी हो, स्वायत्रतावादी या उत्त्ार आधुनिकतावादी उनसे यह उपेक्षा है कि रचना में निहित जीवन यथार्थ को रेखांकित करे। प्रसिद्ध समीक्षक गजानन माधव मुक्तिबोध के अनुसार - ‘‘जीये जाने वाले और भोगे जाने वाले वास्तविक जीवन द्वारा समीक्षा के मानमूल्य और समाज-शास्त्रीय दृष्टि अनुप्रमाणित होनी चाहिए। जीवन ही के प्रकाश में उसी से दिशा प्राप्त कर यदि सिद्धान्तों का प्रयोग हुआ, मानमूल्यों का प्रयोग हुआ तो वैसी स्थिति में समीक्षा भटकेगी नहीं।''
पंजाब का हिन्दी आलोचक इस तथ्य को केन्द्र में रख कर लेखन कार्य में जुटा है कि आलोचना का साहित्य कर्म के साथ समाज और संस्कृति-कर्म भी है और कोई भी कर्म अपना सृजनात्मक उद्देश्य रखता है। इसलिए आलोचना एक सृजन भी है। ऐसी स्थिति में उसका अनुशासन जहाँ एक ओर उसे साहित्य के स्तर पर तीव्र, प्रखर और सार्थक बनाता है वहीं सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर उसे सचेत और जिम्मेदार बनाता है। दूसरे अर्थों में मनुष्य जीवन से सीधे जोड़ता है। बिना मनुष्य जीवन जीवन से जुड़े किसी रचना, कला, स्थापना अथवा आलोचना कर्म का कोई महत्त्व नहीं हो सकता। इसी क अनुसरण करता पंजाब का हिन्दी आलोचक वर्ग अपने लेखन कार्य में निरन्तर प्रयत्नशील है। वे दिन-रात अपने लेखन से आलोचना विधा को समृद्ध करने में जुटे है। मेरे अनुमान से पंजाब में हिन्दी आलोचना का भविष्य बड़ा उज्जवल है।
संदर्भ-सूची
1․ रमेशचन्द्र शाह ः आलोचना का पक्ष
2․ डॉ․ आशा उपाध्याय ः हिन्दी आलोचना का लोकतन्त्र और साहित्यिक सरोकार
3․ मनोज पाण्डेय ः हिन्दी आलोचना की चिन्तनभूमि
4․ प्रत्यूष दुबे ः आलोचना की सामाजिकता
5․ हिन्दी लेखक कोश ः (पंजाबी संवेदना के संदर्भ में), गुरू नानक देव विश्वविद्यालय
6․ सुधा जितेन्द्र (संपा) ः पंजाब का आधुनिक हिन्दी साहित्य
7․ डॉ․ रामकुमार वर्मा ः हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास
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- डॉ․ बोस्की मैंगी
हिन्दू कन्या महाविद्यालय, धारीवाल
गुरदासपुर (पंजाब)
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