13 नवम्बर मुक्तिबोध जयन्ती पर विशेष गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्म के इसी माह 97 बरस हो रहें हैं․ बकौल वरिष्ठ कवि व समालोचक शमशेर, बहा...
13 नवम्बर मुक्तिबोध जयन्ती पर विशेष
गजानन माधव मुक्तिबोध के जन्म के इसी माह 97 बरस हो रहें हैं․ बकौल वरिष्ठ कवि व समालोचक शमशेर, बहादुर सिंह ‘‘मुक्तिबोध ने छायावाद की सीमाएं लाँघकर, प्रगतिवाद से मार्क्सी दर्शन ले, प्रयोगवाद के अधिकांश अधिकार संभाल और उसकी स्वतंत्रता महसूस कर, स्वतंत्र कवि रूप से, सब वादों और पार्टियों से उपर उठकर, निराला की सुथरी और मानवतावादी परम्परा को आगे बढ़ाया․'' पोलिश कवयित्री अगन्येष्का सोनी का मत है कि मुक्तिबोध सहज ही हिन्दी के आधुनिक युग का सबसे शक्तिशाली कवि हैं․
मूर्घन्य कवि व समालोचक शमशेर बहादुर सिंह ने ठीक कहा है कि ‘‘हिन्दी की नयी पीढ़ी का बिलकुल अपना कवि, सबसे प्रिय कवि और विचारक गजानन माधव मुक्तिबोध ही है-यह निर्विवाद है। उनकी तुलना में किसी भी प्रकार और कोई नहीं ठहरता․ यह और बात है कि साधारण पाठकवर्ग आज तक उससे प्राय अपरिचित ही रहा है․ भले ही हम हिन्दी प्रदेशवासी इस तपे हुए सोने को अभी न पहचाने, देश से बाहर उसके व्यक्तित्व ने चौंकाना शुरू कर दिया है․ कुछ कवि अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट शब्द की खोज करते हैं, मुक्तिबोध विशिष्ट बिम्ब बल्कि उससे अधिक विशिष्ट प्रतीक की योजना लाते हैं․ मुक्तिबोध के सारे प्रयोग विषय-वस्तु को लेकर हुए हैं․ यह कुछ उनकी सीमा भी है और एक भारी विशेषता भी․ अपनी शैली में मुक्तिबोध को, अमूर्त को मूर्त करने की सहज शक्ति है․ मुक्तिबोध का कवि व्यक्तित्व वॉल्ट हिवट्मैन और मॉयोवयस्की के शिल्प और शक्ति से टक्कर लेता है और अपनी जमीन पर अप्रतिहत और अद्वितीय रहता है․''
बकौल वरिष्ठ कवि, कथाकार व समालोचक श्रीकांत वर्मा, ‘‘मुक्तिबोध को याद करते हुए तकलीफ होती है, मुक्तिबोध को भूलना कठिन है․ मुक्तिबोध की जिन्दगी अशांत करती है, विवेक को झकझोरती है, मुक्तिबोध इस युग के सबसे ‘अप्रिय' कवि हैं․ मुक्तिबोध ने जितना ‘अप्रिय' जीवन जिया, उतने ही ‘अप्रिय' सत्यों की रक्षा के लिए काव्य रचा․ ‘अप्रिय' सत्य की रक्षा का काव्य रचनेवाले कवि मुक्तिबोध को अपने जीवन में कोई लोकप्रियता नहीं मिली और आगे भी, कभी भी, शायद नहीं मिलेगी․ कविताएं मुक्तिबोध के लिए केवल चित्र-मालाएं नहीं थीं, बल्कि मनुष्य की जीवनगाथा थीं․ ‘मनुष्य की वाणी' होने के कारण वह उनके लिए एक ऐसी सम्मानित अनुभूति थी, जिसका उन्होंने जीवन-भर आदर किया․ उनमें असाधारण प्रतिभा थी, उनकी बौद्धिक क्षमता किसी को भी आश्चर्य में डाल सकती थी․ मुक्तिबोध का छोटी-छोटी बातें समझ नहीं आती थीं, जैसे जालसाजी की, गुटबन्दी की, अखाड़ेबाजी की․ वह कहीं भी हों, लगता था किसी बड़े संदर्भ से जुड़े हुए है․ उनका हर अनुभव किसी बड़े महानुभव से जाकर जुड़ जाता था․''
मात्र 45 बरस का जीवन जीने वाले मुक्तिबोध कहते हैं-
‘‘ओ मेरे आदर्शवादी मन
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!
मुक्तिबोध में भविष्य को समझने की शक्ति थी। उनकी कविताएं उन्होंने खुद से जद्दोजहद करती तराशी हुई भाषा में परवर्ती पीढि़यों की विश्व बिरादरी के लिए लिखने की कोशिश जान पड़ती है․ उनके साहित्य का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद हुआ है। मुक्तिबोध भौगोलिक सीमा में बंधे केवल भारतीय कवि नहीं बल्कि उन्हें विश्व कविता की समझ के एक प्रयोगशील हस्ताक्षर की तरह समझा जाना चाहिए․ मुक्तिबोध के काव्य-बिंब बेहद असामान्य मानसिक स्थितियों में उपचेतन के कोलाज की तरह उभरते मालूम देते है․ कहते है कि निराला ने व्यवहारगत असामान्यता के बावजूद सामान्य कविताएं लिखीं जबकि अपने व्यवहार में बेहद अनुशासित और करुणामय होने के बावजूद मुक्तिबोध की कविता का बड़ा अंश असामान्यता के लिबास में मनुष्यता का जनस्वीकृत शपथपत्र है। मुक्तिबोध की कविताओं से गुजरते हुए यह एहसास होता है कि उनकी कविताएं हमारे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है बल्कि वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है।
मुक्तिबोध की कविता आज भी गंभीर चर्चा और विवाद के केन्द्र में है․ अशोक बाजपेयी ने ठीक लिखा है कि ‘‘हिन्दी के इतिहास में किसी लेखक द्वारा ऐसी केन्द्रीयता पाने के उदाहरण बिरले है․ मुक्तिबोध एक कठिन समय के कठिन कवि है․ ऐसे समय में जब उनके समकालीन छोटी कविताएं लिखकर ‘खंड-खंड़ सर्जनात्मकता' का प्रमाण दे रहे थे, मुक्तिबोध ने प्राय लंबी कविताएं लिखने का जोखिम उठाया․'' मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ने से ऐसा महसूस होता है कि कवि के आवेग का ज्वार कविता में बहुत बार अंट नहीं पाता․ श्रीकांत वर्मा ने काफी संगत टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘‘कविता में जो काम अधूरा रह गया उसे मुक्तिबोध डायरी में पूरा करने का प्रयास किया और डायरी में जो रह गया उसे शक्ल देने के लिए उन्होंने कहानी का माध्यम चुना, हालांकि ये तीनों ही विधाएं मुक्तिबोध के उस महानुभव की संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए जगह-जगह अपर्याप्त साबित हुयी है जिसे किसी युग का समग्र अनुभव कहा जा सकता है․ मुक्तिबोध अकेले कलाकार है जिनके अनुभव का आवेग अभिव्यक्ति की क्षमता से इतना बड़ा था कि सारा साहित्य टूट गया․''
मुक्तिबोध सामाजिक विसंगतियों, जीवन की अव्यवस्थाओं और विद्रूपताओं से मुठभेड़ करते हुए कहते है -इसलिए कि इससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।
मुक्तिबोध के कविता की जब पहली पुस्तक छपी तब वे अपने होश-हवास खो चुके थे․ आज भी उनकी लिखी रचनाएं प्रकाशित हो रही है․ उन्हें हिन्दी क्षेत्रों से कोई मदद नहीं मिला जब वे लंबे समय तक बीमार रहे और लंबी बीमारी के बाद 11 सितम्बर 1964 को नई दिल्ली में अंतिम सांसें लीं․ सामाजिक-पारिवारिक-आर्थिक संकट के भारी पाटों में पिसने के बावजूद जीवन के अंत तक अपराजेय जिजीविषा से भरे मुक्तिबोध का किसी ने साथ नहीं दिया․ मन, विचार और सपनों की दुनिया में सिर्फ कविता उनके साथ रही और इसी कविताओं में उन्होंने एक ऐसे समाज को रचा जहां वे अपना जीवनयापन कर रहे थे․ बाहरी समाज ने तो उनका साथ नहीं दिया इसलिए उन्होंने एक समाज अपने कल्पना लोक में बनाया जिसका प्रतिबिंब उनकी कविताओं में नजर आता है․ उनकी एक कविता में इसका प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है-
जिंदगी में जो कुछ है, जो भी है
सहर्ष स्वीकारा है
इसलिए कि जो कुछ भी मेरा है
वह तुम्हें प्यारा है
गरबीली गरीबी यह, ये गंभीर अनुभव सब
यह विचार-वैभव सब
दृढ़ता यह, भीतर की सरिता यह अभिनव सब
मौलिक है, मौलिक है
इसलिए कि पल-पल में
जो कुछ भी जाग्रत है अपलक है
संवेदन तुम्हारा है
मुक्तिबोध रचनावली के संपादक नेमिचन्द्र जैन ने लिखा है कि ‘‘मुक्तिबोध की भावात्मक उर्जा अशेष और अटूट थी, जैसे कोई नैसर्गिक अन्तस्रोत हो जाक कभी चुकता ही नहीं, बल्कि लगातार अधिकाधिक वेग और तीव्रता के साथ उमड़ता चला जाता है․ मुझे एहसास हुआ कि आधुनिक हिंदी कविता में ऐसा कोई और नाम नहीं जो अस्तित्व के बुनियादी सवालों से इस तरह जूझा हो․ उनके सारे लेखन का एक ही विषय है-मानव आत्मा की यह तलाश और उसकी जय-यात्रा․ यह भी कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध में विषय की विविधता की बड़ी कमी है और वह एक ही अनुभव को दोहराते हुए जान पड़ते है मगर मुक्तिबोध के लिए यह अनुभव किसी एक कविता में समा सकनेवाला छोटा-मोटा आवेग या विचार नहीं, बल्कि पूरी जिन्दगी का फलक है, जिससे बाहर कुछ नहीं है․ इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अपने सरोकारों की इस अद्वितीयता और विराटता के कारण ही मुक्तिबोध हिन्दी में इस दौर के सबसे अप्रतिम कवि हैं․''
संदर्भ सूची-
1- नया ज्ञानोदय, सितम्बर, 2014
2- नया ज्ञानोदय, नवम्बर, 2014
3- मुक्तिबोध रचनावली, भाग-1, संपादक नेमिचन्द्र जैन
राजीव आनंद
प्रोफेसी कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301
झारखंड
संपर्क-9471765417
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