अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) प्रोफेसर महावीर सरन जैन संसार में बहुत सी भाषाएँ हैं जो बोली तो जाती हैं मगर उनकी कोई लिपि नह...
अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए)
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
संसार में बहुत सी भाषाएँ हैं जो बोली तो जाती हैं मगर उनकी कोई लिपि नहीं है। इनका भाषावैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए संसार भर की भाषाओं में बोली जाने वाली भाषाओं की ध्वनियों (speech sounds) और स्वनगुणिमिक अभिलक्षणों (prosodic features) के मानकीकृत प्रतिनिधित्व के लिए अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक एसोसिएशन की स्थापना हुई। इसकी शुरुआत तो सन् 1886 में फ्रांसीसी एवं अंग्रेजी के अध्यापकों की सम्बंधित सोच से मानी जा सकती है। इस एसोशिएशन की स्थापना सन् 1887 में हुई तथा फ्रांसीसी भाषा में इसको ‘ l’Association phonétique internationale’ नाम दिया गया। बाद में, इस एसोशिएशन ने मुख्य रूप से लैटिन वर्णमाला के आधार पर ध्वन्यात्मक अंकन की एक वर्णमाला प्रणाली विकसित की जिससे संसार की किसी भी भाषा को ध्वन्यात्मक रूप से अंकित किया जा सके। यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह किसी भाषा विशेष की लिपि नहीं है।
जिन भाषाओं की अपनी लिपियाँ हैं, वे परम्परागत लिपि कहलाती हैं। संसार की परम्परागत लिपियों में, देवनागरी लिपि अपेक्षाकृत सबसे अधिक वैज्ञानिक है। जैसा बोला जाता है, उसको वह करीब करीब उसी रूप में अंकित करती है। भारत के संदर्भ में, संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, नेपाली तथा नेपाल में बोली जाने वाली अन्य उपभाषाएँ, तामाङ भाषा, बोडो, संताली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। परम्परागत देवनागरी लिपि में किंचित संशोधन करने मात्र से उसमें भारत की अन्य प्रमुख भाषाओं को लिपिबद्ध किया जा सकता है। इसका प्रमाण भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा प्रकाशित ‘भारतीय भाषा कोश’ है। इस कोश में भारत की देवनागरी लिपि से भिन्न लिपियों में लिखी जाने वाली भाषाओं के शब्दों को भी देवनागरी की परम्परागत लिपि में किंचित संशोधन करके लिपिबद्ध किया गया है। इन भाषाओं के नाम हैं –
· 1.पंजाबी 2. उर्दू 3. कश्मीरी 4. सिंधी 5. गुजराती 6. बंगला 7. असमिया 8. उड़िया (अब नाम – ओडिया) 9. तेलुगु 10. तमिळ 11. मलयालम 12. कन्नड़।
उपर्युक्त 12 भाषाओं की परम्परागत लिपियाँ निम्न हैं –
भाषा का नाम | लिपि का नाम |
· पंजाबी | गुरुमुखी |
· उर्दू | अरबी / फारसी |
· कश्मीरी | पश्तो |
· सिंधी | अरबी |
· गुजराती | गुजराती |
· बंगला | बांगला |
· असमिया | असमिया |
· उड़िया (ओडिया) | ओड़िया |
· तेलुगु | तेलुगु |
· तमिळ | तमिळ |
· मलयालम | मलयालम |
· कन्नड़ | कन्नड़ |
इन भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखने के लिए केवल किंचित संशोधन करने होते हैं। उपर्युक्त लिपियों में उर्दू की अरबी-फारसी, कश्मीरी की पश्तो एवं सिंधी की अरबी लिपि को छोड़कर शेष सभी लिपियों (गुरुमुखी, गुजराती, बांगला, असमिया, ओड़िया, तेलुगु, तमिळ, मलयालम, कन्नड़) का विकास भी देवनागरी लिपि की भाँति ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है। संसार की भाषाओं की परम्परागत लिपियों के संदर्भ में, मैं यह रेखांकित करना चाहता हूँ कि किसी भी भाषा की कोई भी परम्परागत लिपि पूर्णरूपेण ध्वन्यात्मक लिपि नहीं होती। व्यवहार में पूर्णरूपेण ध्वन्यात्मक लिपि की जरूरत भी नहीं होती। प्रत्येक भाषा में सभी ध्वनियाँ व्यतिरेकी अथवा विषम वितरण में वितरित नहीं होतीं। जो ध्वनियाँ व्यतिरेकी अथवा विषम वितरण में वितरित होती हैं, उनके लिए अलग अलग वर्ण जरूरी होते हैं। दो भाषाओं में दो ध्वनियों का प्रयोग हो सकता है मगर उन भाषाओं में उनका वितरण भी व्यतिरेकी अथवा विषम हो, यह जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए हिन्दी और तमिल में ’क’ और ’ग’ का प्रयोग होता है। मगर हिन्दी एवं तमिल में इनका वितरण समान नहीं है। इनका प्रकार्यात्मक मूल्य समान नहीं है। हिन्दी में इनका वितरण व्यतिरेकी अथवा विषम है। इसी कारण हिन्दी में इनके लिए अलग अलग वर्ण हैं। तमिल में इनका वितरण व्यतिरेकी अथवा विषम नहीं है। तमिल में इनका वितरण परिपूरक है अर्थात शब्द की जिन स्थितियों में / जिन परिवेशों में एक आती है उनमें दूसरी नहीं आती। दूसरी शब्द की जिन स्थितियों में / जिन परिवेशों में आती है उनमें पहली नहीं आती। इस परिपूरक वितरण के कारण वे भाषा में अर्थ भेद नहीं कर पातीं। तमिल में एक वर्ण दोनों को अंकित कर देता है। हिन्दी में यदि हम ’क’ और ’ग’ दोनों का प्रयोग नहीं करेंगे तो फिर ‘काल’ एवं ‘गाल’ शब्दों की अर्थ प्रतीति किस प्रकार सम्भव हो सकेगी। कहने का अभिप्राय यह है कि परम्परागत लिपियाँ पूर्णरूपेण ध्वन्यात्मक लिपियाँ नहीं होती हैं। इनके लिए ऐसा होने की कोई आवश्यकता और सार्थकता भी नहीं है। परम्परागत लिपि अपनी भाषा में बोली जाने वाली समस्त ध्वनियों (sounds) को अंकित करने के लिए नहीं होती। इसका प्रयोजन अपनी भाषा के ध्वनिमिकों (phonemes) को अंकित करना होता है। जो लिपि इस आधार को जिस मात्रा में पूरा कर पाती है, वह लिपि उसी मात्रा में उस भाषा को लिपिबद्ध करने का दायित्व पूरा करने में समर्थ होती है। किसी भाषा की ध्वनिमिक व्यवस्था (phonemic system) के अध्ययन का सबसे अधिक महत्व इसमें है कि इस कारण हम उस भाषा के लिए न्यूनतम वर्णों का निर्धारण कर सकते हैं।
ध्वनिविज्ञान (Phonetics) विषय में सबसे पहले अध्येता को अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के प्रत्येक वर्ण और उसके ध्वन्यात्मक मूल्य का ज्ञान कराया जाता है। इसको अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) के नाम से जाना जाता है। इसमें संशोधन होता रहता है। सन् 2005 में इसमें जो संशोधन किए गए हैं, उसके हिसाब से इस वर्णमाला में 107 वर्ण (letters), 52 विशेषक चिह्न (diacritics), तथा 19 अधिखंडात्मक अभिलक्षण (supra-segmental features) एवं / अथवा स्वनगुणिमिक अभिलक्षण (prosodic features) हैं। किसी भाषा में केवल स्वर एवं व्यंजन ही महत्वपूर्ण नहीं होते, अधिखंडात्मक अभिलक्षण (supra-segmental features) एवं / अथवा स्वनगुणिमिक अभिलक्षण (prosodic features) का भी महत्व होता है। यह बात अलग है कि भाषाओं में इनका महत्व समान नहीं होता। उदाहरण के लिए हिन्दी में अनुनासिकता (nasalization) का ध्वनिमिक महत्व है और चीनी भाषा में अनुतान (intonation) का ध्वनिमिक महत्व है। बलाघात, सुर, अनुतान आदि इनके उदाहरण हैं। अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) के 107 वर्णों (letters) एवं 52 विशेषक चिह्नों के संयोगों, क्रमों और क्रमचयों के कारण हजारों ध्वनि भेदों को अंकित किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला (आईपीए) के वर्णों (letters) को तालिका में इस प्रकार प्रदर्शित किया जाता है -
व्यंजनों को विस्तार से इस प्रकार दिखाया जा सकता है
(विकिपीडिया से साभार)
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर – 203001
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