श्याम गुप्त कारण कार्य व प्रभाव गीत ----मेरे द्वारा नव-सृजित .....इस छः पंक्तियों के प्रत्येक पद या बंद के गीत में प्रथम दो पंक्तियों में ...
श्याम गुप्त
कारण कार्य व प्रभाव गीत ----मेरे द्वारा नव-सृजित .....इस छः पंक्तियों के प्रत्येक पद या बंद के गीत में प्रथम दो पंक्तियों में मूल विषय-भाव के कार्य या कारण को दिया जाता है तत्पश्चात अन्य चार पंक्तियों में उसके प्रभाव का वर्णन किया जाता है | अंतिम पंक्ति प्रत्येक बंद में वही रहती है गीत की टेक की भांति | गीत के पदों या बन्दों की संख्या का कोई बंधन नहीं होता | प्रायः गीत के उसी मूल-भाव-कथ्य को विभिन्न बन्दों में पृथक-पृथक रस-निष्पत्ति द्वारा वर्णित किया जा सकता है | एक उदाहरण प्रस्तुत है –---
कितने भाव मुखर हो उठते .....
ज्ञान दीप जब मन में जलता,
अंतस जगमग हो जाता है |
मिट जाता अज्ञान तमस सब,
तन-मन ज्ञान दीप्त हो जाते |
नव-विचार युत, नव-कृतित्व के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
प्रीति-भाव जब अंतस उभरे,
द्वेष-द्वंद्व सब मिट जाता है |
मधुभावों से पूर्ण ह्रदय हो,
जीवन मधुघट भर जाता है |
प्रेमिल तन-मन आनंद-रस के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
मदमाती यौवन बेला में,
कोइ ह्रदय लूट लेजाता |
आशा हर्ष अजाने भय युत,
उर उमंग उल्लास उमड़ते |
इन्द्रधनुष से विविध रंग के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
सत्य न्याय अनुशासन महिमा,
जब जन-मन को भा जाती है |
देश-भक्ति हो, मानव सेवा,
युद्ध-भूमि हो, कर्म-क्षेत्र हो |
राष्ट्र-धर्म पर मर मिटने के,
कितने भाव मुखर हो उठते ||
--- डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ,२२६०१२
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अशोक नायगांवकर
(मराठी कविता का हिंदी अनुवाद )
ज्योतिबा
धन्यवाद।
आप उसे
दहलीज के
बाहर ले आये,
क ख ग घ
त थ द ध
पढ़ाया
और
कितना बदलाव आया है
अब उसे
दस्तख़त के लिए
बायी अंगुली पर
स्याही लगानी नहीं पड़ती
अब वह स्वयं
लिख सकती है
मिट्टी का तेल स्वयं पर
फैलाने से पहले
( उसके पीछे रहनेवाले बच्चों को ध्यान में रखकर)
" मैं अपनी मर्जी से
जल कर ख़ाक हो रही हूँ "
हिंदी अनुवाद- विजय नगरकर
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दीनदयाल शर्मा
बाल कविताएँ
शिक्षा की ताकत
टन टन टन जब बजे तो घंटी
भागे दौड़े जाएं स्कूल
दड़बड़ दड़बड़ सब भागें तो
उड़ती जाए गली की धूल
कंप्यूटर से करें पढ़ाई ,
नई - नई बातें बतलाई
बस्ता अब कुछ हुआ है हल्का ,
मन भारी था हो गया फुलका .
अब न कोई करे बहाना
रोजाना स्कूल को जाना ,
पढ़ लिख कुछ बनने की ठानी
शिक्षा की ताकत पहचानी..
बच्चे मन के सच्चे
खट खट खट खट कटती लकड़ी
आठ पैर की होती मकड़ी..
थप थप थप थप देती थपकी
घोड़ा खड़ा खड़ा ले झपकी..
चट पट चट पट चने चबाए,
बकरी में में कर मिमियाए
टर टर टर टर मेंढक करता
चूहा बिल्ली से है डरता..
खट खट खट खट बजते बूट
बिन जूतों के फिरते ऊँट ..
खड़ खड़ खड़ खड़ होता शोर.
बादल देख के नाचा मोर..
छट पट छट पट बरखा आए
कागज की सब नाव चलाए..
दड़ बड़ दड़ बड़ भागे बच्चे
मन से निर्मल होते सच्चे ...
बाल दिवस
मां स्वरूपरानी थी जिनकी
पिता थे मोतीलाल
इलाहाबाद में जन्मे थे जो
नाम जवाहरलाल
मुंशी मुबारक अली सुनाते
इनको रोज कहानी,
अठारह सौ सत्तावन ग़दर के
किस्से इन्हें ज़ुबानी
प्राथमिक शिक्षा घर में दिलाई
फिर भेजा परदेश
शिक्षा पूरी कर लौटे वे
फिर भारत स्वदेश
अंग्रेजों के अत्याचार से
व्यथित भारतवासी
राजद्रोही आरोप में जवाहर
बने जेल प्रवासी
पंद्रह अगस्त सैंतालिस के दिन
हुआ देश आज़ाद
तोड़ गुलामी की जंजीरें
फिर से हुआ आबाद.
बच्चों के प्यारे चाचा तुम
याद सभी को आते.
चौदह नवंबर के दिन उत्सव
रलमिल सभी मनाते..
अपना घर
एक - एक ईंट जोड़कर हमने ,
बनाया अपना सुन्दर घर.
अपने घर में रहें सहज हम,
दूजों के घर लगता डर.
बच्चे हों तो करते रौनक,
किलकारी से गूंजे घर.
बिन बच्चों के मकां है केवल,
सूना जैसे हो खँडहर .
घर हो तो हम उड़ें आसमां
लग जाते हैं जैसे 'पर'
घर जैसा भी होता घर है.
जीवन उसमें करें बसर.
आओ रलमिल बनायें सारे.
इक दूजे का अपना घर..
चल चल चल
चल चल चल भई चल चल चल,
रुक ना कभी तू चलता चल।
ठहरा जल गंदा हो जाता,
उससे तू भी शिक्षा लेले
चलना ही कहलाता जीवन,
कर्म किए जा चलता चल,
इक दिन तुझको मिलेगा फल।
अपनी गाड़ी चलती जाए,
चलती का गाड़ी है नाम।
खड़ी रहे तो बने खटारा,
चलेगी तो फिर मिलेंगे दाम।
काम आज का आज करो तुम,
नहीं कहो तुम कल- कल-कल।
समय कभी नहीं रुकता देखो
चलता रहता पल-पल-पल
कितने करोड़ों दाम भी दे दो,
वापस कभी न आता कल।
समय की कीमत जानी न जिसने,
समय भी लेता उसको छल।
चल चल चल भई चल चल चल,
रुक ना कभी तू चलता चल।
दीनदयाल शर्मा, बाल साहित्यकार
१०/ २२ आर . एच . बी. कॉलोनी,
हनुमानगढ़ ज. - ३३५५१२, राजस्थान,
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एस. के. पाण्डेय
बच्चों की समझ
(१)
मम्मी क्यों स्कूल मुझे रोज ही भेंजा करती हो ?
कितना भी तुमको समझाऊँ कुछ भी नहीं समझती हो ।।
उल्टा मेरे ऊपर तुम भी, मैडम सा ही बिगड़ती हो ।
गरिमा पढ़ने नहीं गई, पापा से कहती रहती हो ।।
(२)
मैडम खुद स्कूल में रोज फैशन करके आती हैं ।
मुझसे फिर भी रोज-रोज ‘ड्रेसकोड’ पे अमल कराती हैं ।।
फीस से भी देखो मम्मी मैडम नहीं अघाती हैं ।
कुछ दिन चुप रहती हैं केवल फीस की रट लगाती हैं ।।
(३)
याददाश्त कमजोर है मैडम की बहुत जल्द भूल वो जाती हैं ।
कभी तीन-तीन कभी पाँच-एक कभी चार-दो छे बताती हैं ।।
कैसे मैं समझूँ जब वे ही उल्टा सीधा समझाती हैं ।
सब कुछ लिखा किताबों में फिर भी मुझसे लिखवाती हैं ।।
(४)
कक्षा में आकर मैडम खुद देख-देख कर पढ़ती हैं ।
लेकिन मम्मी मैडम मुझसे मौखिक ही कविता सुनती हैं ।।
थोड़ा सा भी भूलूँ फिर तो मैडम बहुत बिगड़ती हैं ।
बच्चों की यूनियन नहीं है इससे बहुत उलझती हैं ।।
(५)
स्कूल और होम-वर्क की कॉपी अलग रखने को कहती हैं ।
सभी किताबें लेकर आओ यह भी कहती रहती हैं ।।
भूलें हम तो बड़े हाथ से छोटे कान पकड़ती हैं ।
पता नहीं क्यों बच्चों को मैडम खच्चर समझती हैं ।।
(६)
लगता है भगवानजी भी बच्चों को नहीं समझते हैं ।
कल छुट्टी करवा दो कहती हूँ, कभी नहीं वो सुनते हैं ।।
प्रसाद चढाऊँगी कह दो तब भी नहीं रीझते हैं ।
भगवान तो सीधे-साधे हैं शायद मैडम से डरते हैं ।।
(७)
सूरज बाबा जब-जब आते चंदा मामा छुप जाते हैं ।
उनके आते ही सब जग जाते पक्षी शोर मचाते हैं ।।
समझ न आए चंदा मामा क्यों बाबा से डर जाते हैं ।
शायद सूरज बाबा भी इन्हें पढ़ाने आते हैं ।।
(८)
मत डरिय चंदा मामा तुम, डरने की है बात नहीं ।
मैडम सोएँ चिड़िया सोये होए जो प्रभात नहीं ।।
स्कूल न पहुँचे जगने पर भी तम से भूलें राह सही ।
हम खेंले खाएँ मौज मनाएँ तुम जो मानो बात कही ।।
(९)
बच्चों की बातें कोई न समझे, बच्चे बहुत समझते हैं ।
ऐसा मत समझे कोई बच्चे पढ़ने से पिछड़ते हैं ।।
बच्चें हैं इसलिए अभी खेल-कूद में रमते हैं ।
सच मानों पढ़ने से ज्यादा पढ़ाने वालों से डरते हैं ।।
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डॉ. एस. के. पाण्डेय,
समशापुर (उ.प्र.)।
ब्लॉग: श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या न मानो URL1: http://sites.google.com/site/skpvinyavali/
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आनंद बाला शर्मा
बाल - मजदूरी
आनंद बाला शर्मा
बाल - मजदूरी
‘बीबीजी’… ‘बीबीजी ‘
एक आवाज आई.….
रसोई घर की खिड़की से
झाँक कर देखा
बाहर खड़ा था
सात आठ वर्षीय
एक लड़का
मैला कुचैला , दीन हीन
मुख पर कातर भाव
‘बीबीजी’- एक रोटी दे दो
भूख लगी है
पेट पर हाथ फेरते हुए -उसने कहा
दो दिनों से कुछ नहीं खाया
सुबह के कार्यों में व्यस्त
जरा जल्दी में थी---
कुछ काम क्यों नहीं करते ?
भीख मांगते हो
शर्म नहीं आती
मैंने अपने चिरपरिचित
अंदाज में कहा-----
बीबीजी कोई काम नहीं देता
सब दुत्कारते हैं
काम देकर कोई
सजा नहीं भुगतना चाहता
मुझे याद आया---
बच्चों से कार्य कराने पर
है पाबंदी
असमंजस में पड़ी
सोचने लगी मैं
क्या करूं,क्या न करूं
अनमने मन से
दो रोटियों पर
थोड़ी सी सब्जी रख
मैंने उसके हाथों में थमा दी
सचमुच विपदा है भारी
कैसी है लाचारी
नौकरी देते हैं तो छिनता है बचपन
नहीं देते हैं तो निवाला छीनते हैं।
आनंद बाला शर्मा
402 सोनारी वेस्ट लेआउट
रोड नम्बर 8 ,जमशेदपुर 11
झारखण्ड
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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
बादल में बिजुरी छिपी ,अर्थ छिपा ज्यूँ छन्द।
वैसे जीवन में छिपा, नर तेरा प्रारब्ध ।।
रिश्ते, रिसते ही रहे, रीत गया इंसान ।
आपाधापी स्वार्थ की, भूल गया पहचान ।।
देह-नेह की कचहरी, मन से मन की रार ।
क्या फर्क पड़ता उसे, जीत मिले या हार ।।
चूल्हा अपनी आग से, सदा मिटाये भूख ।
लगी आग विद्वेष की, राख हुये सब रूख ।।
प्रश्नचिह्न से दिन लगे , सम्बोधन सी रात ।
अल्पविराम सी शाम है, विस्मय हुआ प्रभात ।।
सपनों सी लगने लगी, वो रात की नींद ।
मानों बूढ़े पेड़ की ,नहीं रही उम्मीद ।।
तारे गिनते बीत गई ,उस बूढ़े की रात ।
तन से ना मन से सही, यादों की बारात ।।
बिना ज्ञान के आदमी,प्राण बिना ये देह ।
जैसे मरघट सा लगे, सूना -सूना गेह ।।
बिन अनुभव का आदमी, बिना लक्ष्य की नाव ।
क्या जाने उसका भला, कहाँ होय ठहराव ।।
आप-आप की रटन में, है लौकिक व्यवहार ।
' तुम' में आता झलकता, सच अंदर का प्यार ।।
-कवि विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी ,
स. मा.,(राज०)322201
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रवि श्रीवास्तव
एक हफ्ते की मोहब्बत
एक हफ्ते की मोहब्बत का ये असर था,
जमाने से क्या मैं खुद से बेखबर था।
शुरू हो गया था फिर से इशारों का काम
महफिल में गूंजता था उनका ही नाम।
तमन्ना थी बस उनसे बात करने की,
आग शायद थोड़ी सी उधर भी लगी थी।
वो उनका रह रहकर बालकनी में आना,
नजरे मिलाकर नजरों को झुकाना।
बेबस था मैं अपनी बातों को लेकर,
दे दिया दिल उन्हें अपना समझकर।
सिलसिला कुछ दिनों तक यूहीं चलता रहा,
कमरे से बालकनी तक मैं फिरता रहा।
पूरी हुई मुराद उनसे बात हो गई,
दिल में कही छोटी सी आस जग गई।
एक हवा के झोके से सब कुछ बदल गया,
अचानक से उनका रुख बदल गया।
मागें क्या उनको जो तकदीर में नहीं थी।
कुछ नहीं ये बस एक हफ्ते की मोहब्बत थी।
--.
जीने का सच
जिंदगी जीने का सच यही है,
कभी दुख तो कभी चेहरे पर हंसी है।
ये वो पल हैं जिन्हें रोक नहीं सकते,
वक्त के पहिए के साथ ये चलते।
इनसे तो बनती है जिंदगी की किताब,
करो इनसे दोस्ती मत घबराओ आप।
माना कि दर्द भी होता है इसमें,
क्या जिया वो जिंदगी झेला नहीं जिसने।
--.
मेरा क़ातिल
अब फिर रातों को सोना मुश्किल हो गया,
दिल के जख्मों को फिर कोई कुरो गया।
आंख बंद करते ही एक तस्वीर नज़र आती है,
जिधर भी देखो हर तरफ मेरा क़ातिल है।
डर नहीं है मुझे अपने क़त्ल हो जाने का,
मौका मिलेगा दुनिया को जख़्म दिखाने का।
कत्ल कर बाद में रोएगा क़ातिल,
जिंदगी की मेरी डोर से बंधी है उसकी मंजिल।
उसके लिए खुदा से दुआ यही करेंगे,
खुश रखना उसे वह चाहे जहां रहेंगे।
आँसुओं से उसके धुल जाए वो गुनाह,
नज़रों में नजरे डालकर उसने जो है की,
बिखर जाएंगे कही ख़्वाब वो न जिसको है सजोया,
बस यही सोचकर रात भर न सोया।
---.
मुस्कुराहट फूल की
कांटों के बीच खिलकर भी, मुस्कुराता शान से
तोड़ लेते लोग मुझको, बस अकेला जान के।
खुशबू सो अपनी मैं तो, महकाता पूरा ये बाग
साथ खेलने को है मेरे, भौंरों और तितलियों का साथ।
खुशियां हो य हो ग़म, आता हूं मैं सब में काम
मुझे चढ़ाकर ईश्वर पर, जपते हैं सब प्रभु का नाम।
शोभा मेरी बढ़ी निराली, सबको जो आकर्षित करती
प्यार दोस्ती और शान्ति का, मुझसे ही मिसाल बनती।
सुंदरता है मेरी निराली, खिलता हूं हर पौधे हर डाली
राह मेरे दुख दर्द भरे है, हर जगह मेरे शत्रु खड़े हैं।
जीवन अपना न्यौछावर करता, दूसरों को देकर खुशियां
बस इतनी विनती है तुमसे, तोड़ो न मेरी कलियां।
सीखोगे मुझसे बहुत कुछ, सोचोगे जब ध्यान से
कांटों के बीच खिलकर भी, मुस्कुराता शान से
तोड़ लेते लोग मुझको, बस अकेला जान के।
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याद
यादों की उनकी मैंने, सीने से लगाया है,
दिल के अंदर मैंने, हर दर्द को छुपाया है।
मेरी हंसी से लगता है उन्हें मैं खुश हूं
पर हर लम्हा आंसू, उनकी यादों में बहाया है।
बहारों के इस मौसम में, हर फूल खिलते हैं
मेरी डाली का हर फूल मुरझाया है।
यादों की उनकी मैंने सीने से लगाया है,
दिल के अंदर मैंने हर दर्द को छुपाया है।
माना कि प्यार में रुसवाइयां होती है।
दिन को रहे बेचैन आंखें. रातों को न सोती हैं।
ले बहाना मज़बूरी का लोग बदल जाते अगर
प्यार की सच्चाई से तो लोग रहते बेख़बर ।
न कोई मजबूरी तेरी न कोई फरियाद है
दिल में मेरे रह गई बस अब तो तेरी याद है।
प्यार में मैंने तो हर ग़म उठाया है।
यादों की उनकी मैंने, सीने से लगाया है,
दिल के अंदर मैंने. हर दर्द को छुपाया है।
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इकराज़
दिल में छिपा इक राज़ था मेरे,
खोज़ रहा था जिसे सांझ-सवेरे।
उस पगली को समझ न आता,
जहां देखूं बस उसे ही पाता।
ये मेरे दिल तू ही बता दे,
भूले को अब रास्ता दिखा दे।
फिर रहा हूं दर-बदर मैं,
मन में अपने इकराज़ दबाएं,
मिल जाए कोई तो ऐसा,
जिससे दिल का हाल सुनाएं।
---------.
रिक्शा चालक
पता नहीं क्यों लोग मुझे,
घृणा की नज़र से देखते हैं
ग़ाली की बौछार के साथ
हम पर हाथ सेंकते हैं
ताने सबके मुझको सुनना
पुलिस का भी डंडा सहना
जिसको देखो देता धक्का
बोलने पर मिलता है मुक्का
बिना भेद-भाव के सैर कराता
सबको मंज़िल तक पहुंचाता
सड़क पर चलना मुश्किल मेरा
कहा जाएं अब लेकर डेरा
दिन भर करता मेहनत पूरी
तब जाकर मिलती मज़दूरी
आखिर मेरा क्या है कसूर
आदमी हूं इतना मज़बूर
इतना सब सहकर के
परिवार का पेट पालता हूं
इस बेरहम दुनिया में
रिक्शा चालक कहलाता हूं
रवि श्रीवास्तव
रायबरेली, उ.प्र.
लेखक, कवि, व्यंगकार, कहानीकार
फिलहाल एक टीवी न्यूज़ ऐजेंसी से जुड़े हैं।
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सुरभि सक्सेना
अपना कहो मुझे और खुशियां हज़ार दो
यूँ ही किसी गरीब की किस्मत सँवार दो
दीवाना बन गया हूँ तेरी तिरछी नज़र का
पलकें झुका, झुका के, दिल को क़रार दो
जीता हूँ तेरे प्यार में, खामोश हूँ मगर
कभी तो मेरे प्यार का, सदका उतार दो
महका हुआ बदन तेरा, आंखें है मरमरी
छूकर मुझे ऐ गुलबदन, मुझको निखार दो
#Surabhi Saxena
Geetkar , Actress, poetess, Radio jockey
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अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र''
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मैं गुजरे हुए पल को भुला न पाया!
बस तेरी यादों में रोना आया!!
वे चांदनी रातों ने मुझे तड़पाया!
भूला ही करता उन हवाओं ने याद दिलाया!!
मैं शिकवा भी करता उन हवाओं से!
तू आजा फिर से मेरी यादों में!!
देखा ही करता उन गलियों में!
जिन गलियों में होता तेरा- मेरा मिलन सपनों में!!
तू आजा फिर से मेरे सपनों की दुनिया में!
सपने दिखा जा उन रस भरी आंखों में!!
मुझको भी जाना है दुनिया की निगाहों से!!
जीता था अब तक तेरी यादों में!!
----अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र''
ग्राम-रामगढ न.२,तह-गोपद बनास,जिला-सीधी, मध्यप्रदेश{४८६६६१}
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देवेन्द्र सुथार
शिक्षा का उजाला
शिक्षा मिले सभी को
सब शिक्षित हो जाएं
अशिक्षा के तम से ग्रसित
सब रक्षित हो जाएं
मिले सभी को शिक्षा
शिक्षक धन्य हो जाएं
गुरु-शिष्य के संबंधों की
गुरु-कृपा अन्यन्य हो जाएं
शिक्षा अनुपम मिले सभी को
जग सारा संस्कारित हो जाए
शिक्षा मिले सभी को
सब शिक्षित हो जाए
कोई नहीँ रहे अनपढ
यह सत्य शिक्षित मेँ अंकित हो जाए
अशिक्षा का दूर भगा के
पढ़कर सब विजित हो जाए
ज्ञान लता ऐसी बढ़ जाए
हरेक शिक्षा फल से फलित हो जाएं
शिक्षा मिले सभी को ऐसी
सब शिक्षित हो जाएं
अशिक्षा के दोष हैँ जो सारे मानवता से मिट जाएं
शिक्षा के उजियारे से
जहां मेँ अशिक्षा का तम मिट जाएं
-devendrasuthar196@gmail.com
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