उल्लू को चुनिए, आदमी बनिए हमारे मोहल्ले के घूरेजी चुनाव में खड़े हुए, खड़े क्या हुए, खड़े करवा दिए गए घूरे जी पिछले पचास सालों से समाज से...
उल्लू को चुनिए, आदमी बनिए
हमारे मोहल्ले के घूरेजी चुनाव में खड़े हुए, खड़े क्या हुए, खड़े करवा दिए गए घूरे जी पिछले पचास सालों से समाज सेवक हैं उन्होंने तो आजीवन समाज सेवा का व्रत ले रखा था परन्तु उनके मित्रों एवं सहयोगियों ने कहा, घूरेजी जमाना तरक्की कर रहा है, और आप हैं, कि पिछले पचास वर्षों से जहां थे वहीं हैं “माना कि एक स्कूल मास्टर पूरी जिंदगी मास्टर ही रहता है, परन्तु आज वह भी ट्यूशन पढ़ा-पढ़ाकर तरक्की कर लेता है फिर आप तो समाज सेवक हैं, सेवा करने का आपको अनुभव है कुछ तरक्की करो यानि समाज सेवक के सीमित दायरे से बाहर निकलकर देश सेवक बनो चुनाव में खड़े हो जाओ”
मित्रों ने मजबूर किया तो घूरेजी ने चुनाव में खड़ा होना मंजूर कर लिया वे चाहते तो कोई भी पार्टी उनका व्यक्तित्व देखकर उन्हें टिकिट दे देती परन्तु उन्होंने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप् में खड़ा होना उचित समझा उनका कहना था कि “आदमी को समाज सेवा या देश सेवा दलगत होकर नहीं करना चाहिए वरना आगे चलकर व्यक्ति दल के दल-दल में फंसकर, अपना उद्देश्य भूल, दल सेवा करने लग जाता है”
बहुत सोच-विचार कर मित्रों से सलाह-मशविरा कर घूरेजी ने अपना चुनाव चिन्ह “उल्लू” रखा उल्लू पर उनकी दलील थी कि “आजादी के बाद नेताओं ने देश की जनता को इतना “उल्लू” बनाया ि कवे अपनी असली सूरत ही भूल गए जब भी चुनाव आता है, वे अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं इसलिए उल्लू जनता का प्रतीक है, हम अपने चुनाव चिन्ह उल्लू के जरिए ज्यादा से ज्यादा जनता के करीब पहुंचेंगे”
फिर हवा का रूख देखते हुए वे समझ गए कि आप कल चुनाव जातीयता के आधार पर लड़ा जाता है अगर उल्लू को देखकर नेताओं की तरह जनता भी भाई भतीजावाद पर उतर आई तो इसका सबसे ज्यादा फायदा “उल्लू” को ही मिलेगा वैसे भी लोग अपने बीच के व्यक्ति को चुनना ज्यादा उचित समझते हैं, ताकि वह उनके दुःख दर्द के समय उपलब्ध हो सकें
घूरेजी का उल्लू के प्रति तर्क था, कि दिनदहाड़े जो भ्रष्टाचार होता है, उसे तो सभी देख लेते हैं, परन्तु रात का भ्रष्टाचार उल्लू ही देख सकता है इसलिए उनका उल्लू रात की काली करतूतों पर नजर रखेगा वह देश का सजग प्रहरी बनेगा
बहरहाल घूरेजी ने चन्दे से बड़े-बडे़ पोस्टर बनवाए जिस पर उल्लू की एक बड़ी सी तस्वीर छपवाई और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा “आपका अपना चुनाव चिन्ह उल्लू”, “उल्लू की जीत आपकी जीत” नीचे उनकी अपील थी “पिछले पचास वर्षों से अपको कई लोगों ने उल्लू बनाया ओैर आप बने भी बगैर यह सोचे अंजामें-गुलिस्तां क्या होगा? आज आपको उल्लू आदमी बना रहा है।” साथ में एक नारा था-“उल्लू को चुनिए, आदमी बनिए”
नमांकन पत्र भरने के बाद घूरेजी जगह-जगह सभा लेने लगे वे अपने भाषणों में कहते, “हमारा उल्लू तिजोरी में बंद लक्ष्मी को आपके पास लाएगा, इसलिए आप से निवेदन है, कि आप अपने चुनाव चिन्ह “उल्लू” पर मोहर लगाकर उसकी पीठ मजबूत कीजिए, ताकि वह आपकी लक्ष्मी का वनज उठा सके और आपके पास ला सके”
एक सभा में लोगों ने घूरेजी से पूछा “क्या कुर्सी पर उल्लू बैठ सकेगा?” हाजिर जवाब घूरेजी ने कहा “आप तक कुर्सी पर उल्लू ही तो बैठे हैं”
घूरेजी के कार्यकर्ता उल्लू प्रवृत्ति के अनुसार दिन भर सोते और रात में प्रचार करते और जो भी उल्लू उन्हें मिलता उसे कार्यालय पकड़ लाते घूरेजी पूछते “आज कितने उल्लू पकड़े?” वे उन्हें आगे कर देते घूरेजी कहते “ठीक है, आज इन्हें भी अपने साथ प्रचार में ले जाना”
एक दिन कार्यकर्ताओं ने घूरेजी को बताया कि शहर की झुग्गी-झोपड़ी बहुत बड़ी वोट बैंक है बहुत से नेता वहां जाने की तैयारी कर रहे हैं, उन्हें कोई उल्लू बनाए उसके पहले आप चले जाइए और जो भी उल्लू मिले उसे भाई भतीजावाद का अर्थ समझा दीजिए
एक दिन घूरेजी गुस्से में तमतमाए नजर आए पूछने पर पता चला कि कुछ पार्टी के नेता उन्हें खरीदने आए थे?
बस फट पड़े “कम्बख्त हमें उल्लू बनाने आए थे अरे हम तो उल्लू हैं ही, चांदी के चन्द सिक्कों में हमें खरीदेंगे? और हम उनके समर्थन में अपना नाम वापस ले लेंगे जनता ने हमारे उल्लू में विश्वास व्यक्त किया है फिर हम भला उनके विश्वास को कैसे बेच दें?” फिर वे थोड़ा नॉरमल हुए और अपने कार्यकर्ताओं की तरफ देखकर बोले-“देखो मैंने कहा था न जहां उल्लू होगा वहां लोग अपनी लक्ष्मी लेकर दौड़े चले आएंगे”
बहरहाल वह दिन भी आया सुबह से शाम तक मतदान हुआ और उल्लू का भविष्य मत पेटी में बन्द हो गया, जो कि आज तक बन्द है.
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बनवारीलाल के जूते
सुरेश भाटिया
बनवारीलाल धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। रोज सुबह 4 बजे उठकर पूजा पाठ करके शहर के सभी मंदिरों के देवताओं के दर्शन करने जाते हैं। वह तो अच्छा है, हमारे शहर में केवल 8-10 मुख्य मंदिर हैं वरना हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी देवता हैं। अगर सभी के अलग अलग मंदिर होते तो बेचारे बनवारीलाल दर्शन करने निकलते। और कई जन्मों के बाद ही घर लौटते, क्योंकि इतने सारे देवी देवताओं की परिक्रमा किसी एक जन्म की बात नहीं हो सकती।
बहरहाल एक दिन बनवारीलाल एक माखन चोर के मंदिर से दर्शन,पूजा-अर्चना कर बाहर निकले ही थे, कि एकदम हक्के-बक्के रह गये। हुआ यह जिस जगह उन्होंने मंदिर में प्रवेश करने के पूर्व अपने जूते उतारे थे, वहां से वे नदारद थे।
हाथ में भगवान का प्रसाद लिए बदहवास होकर वे मंदिर के चारों तरफ अपने जूते तलाशने लगे। परन्तु उन्हें जूते कहीं भी नहीं मिले। मंदिर में दर्शनार्थियों की काफी भीड़ थी। आखिर जूतों के बारे में किससे पूछे। फिर उन्हें आश्चर्य भी हो रहा था। माखन चोर के घर में चोरी हो गई थी। वह भी जूतों की, उन्होंने हिम्मत जुटा कर एक शक की नजर से भगवान की मूर्ति की ओर देखा। कहीं ऐसा तो नहीं भगवान भक्त से लीला कर रहे हों। क्योंकि उन्होंने एक कहावत सुन रखी थी, चोरचोरी से जाए परन्तु हेरा फेरी से ․․․․․․․
भगवान की मूर्ति तटस्थ थी। उसमें कोई भी परिवर्तन उन्हें नजर नहीं आया था। इसलिए खोजते खोजते अचानक उन्हें चौकीदार का ख्याल आया जो मंदिर के मुख्य द्वार पर डंडा पकडे़ खड़ा था। उन्होंने सोचा हो सकता है चौकीदार की मिलीभगत से ही जूते गायब हुए हों इसलिए उस पर रोब झाड़ते हुए बोले-
“क्यों चौकीदार तुमने मेरे जूते देखे हैं?”
चौकीदार एकदम तैश में आ गया, डंडा हवा में लहराते हुए बोला-
“क्या कहा․․․ फिर से तो कहना जरा, मुझे अपने जूते दिखा रहा है, तेरे बाप में दम है ?”
बनवारी लाल डरकर पीछे हटे, फिर नम्र होकर बोले-
“भाई आप गलत समझ रहे हो मैंने उस जगह अपने जूते उतारे थे। कोई उठाकर ले गया। शायद आपने देखे हों?
चौकीदार भुनभुना गया था, झल्लाते हुए बोला-
“हम यहां जूतों की चौकीदारी नहीं करते। कई श्रद्वालु आते-जाते रहते हैं, अब किसे पता कौन किसके जूते पहन रहा है किसी के चेहरे पर यह नहीं लिखा होता है कि यह जूता चोर है। इसलिए हमने पहले से ही उस बोर्ड पर लिख दिया है।” अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें, उठाईगीरों से सावधान रहें” “अब कोई उठाई गिरा ले गया होगा, इसमें हम क्या कर सकते हैं?”
चौकीदार का भाषण सुनकर उनके हौसले पस्त हो गये
“भैया अब आप ही बताएं, हम क्या करें, अभी कुछ दिन पहले ही नगद 300 रूपये देकर खरीदे थे, एकदम नये थे”
चौकीदार को उस पर दया आ गई, उसने सलाह दी
पास ही पुलिस थाना है, रपट लिखा दो अगर तुम्हारी किस्मत में जूते लिखे होंगे तो मिल जायेंगे, वरना हरि भजो․․․․․․․
चौकीदार की सलाह पर बनवारी लाल थाने पहुंचे। थानेदार से निवेदन करते हुए बोले-
“हुजूर․․․․․․मेरी मदद करें․․․․․मेरे जूते गुम हो गये।”
इतना सुनते ही थानेदार को गुस्सा आ गया, क्योंकि आज तक किसी भी थाने में जूते गुम हो जाने की गुहार किसी ने न की थी।
“अबे तो साले․․․․ थाने को क्या जूतों की दुकान समझ रखा है, जैसे अलमारी से निकालकर तुझे थमा दूंगा, चल भाग यहां से जूते गुम हो गये तो दूसरे पहन ले।”
बनवारी लाल को उम्मीद नहीं थी थानेदार इस तरह पेश आयेंगे वे डरते डरते बोले-
सरकार रिपोर्ट लिख लीजिये।
अचानक थानेदार को मसखरी सूझी चेहरे पर मुस्कान लाते हुए बोले-
“अच्छा तो तेरे जूते गुम हो गये, कहां से गुम हो गये ?”
“जी मदिर से।”
“ठीक है जा, मुंशी को अपना नाम पता हलखा दे, जब तेरे जूते चलकर थाने आयेंगे तो तेरा पता बता देंगे,” फिर मंुंशी को आवाज देकर बोल ।
“अरे मंशी․․․ सुनो इसके जूते गुम हो गये हैं, चाय,पानी की व्यवस्था करके इसका नाम पता लिख लो”
बनवारी लाल मुंशी के पास जा पहुंचे तो वह बड़बड़ाने लगा,“पता नहीं साले पुलिस को क्या समझते हैं, चले आये मुंह उठाये। अब इनके जूते ढूंढो यहां तो पहले ही जूते बजा बजाकर परेशान हैं।”
मुंशी ने कागज कलम लेकर कहा-
“भैया रिपोर्ट ऐसे ही नहीं लिखी जाती है, कुछ चाय, पानी की व्यवस्था करो। तुम्हारे जूते ढूंढने में हमारे जूते भी तो घिसेंगे, उसका हर्जाना कोैन देगा, इसलिए फटाफट 100 रूपये निकालो।”
बनवारी लाल ने रोते झिझकते 100 रूपये निकाल कर मुंशी को थमाये मुंशी ने कहा-
“अब बताओ-जूतों का हुलिया कैसा था ?”
बनवारी ला चकराये-
“हुजूर जूते तो जूतों जैसे ही होते हैं, अब उनका हुलिया आपको क्या बतायें ?”
“हमारा मतलब है किस रंग किस डिजाईन के थे?”
“डिजाईन तो साधारण थी और रंग लाल था।”
“दोनों जूते का रंग लाल था?”
“जी दोनों जूते तो एक ही रंग के होते हैं”
बनवारी लाल ने समझदारी का परिचय देते हुए जवाब दिया अलग अलग रंग के नहीं होते।
“जितना पूछा जाये उतना ही जवाब दो, यह थाना है तुम्हारा घर नहीं।” मुंशी चिढ़कर बोला-
“कितने नम्बर के थे?”
“10 नम्बरी ”
मुंशी ने एक पल उन्हें घूरकर ऐसे देखा मानो जूते के नहीं बनवारीलाल ने स्वयं के नम्बर बताए हों।
“किस कम्पनी के थे, कोई रसीद बगैरह है?“
“बाटा कम्पनी के थे, और रसीद तो नही है।”
“क्यों नहीं है, बिना रसीद के खरीदे, बेटा सरकार के टैक्स की चोरी की है। तू तो बड़ा गुरू है।”
“जी दुकानदार ने दी नहीं।”
“दी नहीं या तूने ली नहीं, सच सच बता जूते तेरे ही थे, या कहीं से मार कर लाया था?”
भगवान की कसम हुजूर जूते मेरे ही थे, आप चाहें तो चलकर दुकानदार से पूछ लीजिये।
“ठीक है अपना नाम पता बता?”
उन्होंने अपना पता लिखा दिया।
“जब मिल जायेंगे तो जूते देने तेरे घर आ जायेंगे, अब तू जा।”
बनवारीलाल थाने से निकल पड़े 300 रूपये के जूते 100 रूपये थाने में भेंट वे दुःखी मन से कोसते जा रहे थे, उस घड़ी को जिस समय जूते खरीदे थे, जो उन्हें बहुत ही महंगे पड़े थे।
घर पहुंचते ही उनकी पत्नी वीणा ने उन्हें नंगे पांव देखा तो आश्चर्य से बोली-
“अरे․․․․․․․ आपके जूते कहां गये?”
बनवारी लाल ने जूते गुम हो जाने से लेकर थाने तक की सभी बातें बता दीं।
वीणा ने कहा-
“चलो अच्छा हुआ बला टली।”
बनवारीलाल एकदम तैश में आ गये।
“300 रूपये के नये जूते गुम हो गये, ऊपर से 100 रूपये भेंट चढ़ गये, और तुम कहती हो बला टली।”
वीणा ने जवाब दिया-
“और नहीं तो क्या? भगवान की हम पर बड़ी कृपा है। आपके पूजा-पाठ का फल है। घर में कोई बड़ी चोरी होने वाली थी, अच्छा हुआ जूतों पर ही उतरी। तलवार की जगह सुई की नोंक चुभी।
बहरहाल बनवारी लाल ने फिर से 300 रूपये में जूते खरीदे, और नियमित मंदिर में जाने लगे। भगवान को धन्यवाद देने लगे, प्रभु तेरी ही कृपा है तूने एक बड़ी चोरी होने से मुझे बचाया। एक दिन बनवारीलाल दास बैठे हुए थे। उन्हें उदास देखकर वीणा ने कहा-
“ऐसे कब तक जूतों का शोक पालते रहोगे, जाने वाले थे, चले गये। ”
बनवारीलाल ने जवाब दिया।
“अरी․․․․ उन जूतों का नहीं,इन नये पूतों का गम मुझे सता रहा है।”
“क्या हुआ इन जूतों को?”
“अभी हुआ तो कुछ नहीं परन्तु․․․․․․․․?”
“परन्तु क्या․․․․․․․․․?”वीणा ने उतावली होकर पूछा।
“मैं जब भी मंदिर में भगवान की पूजा-अर्चना करता हूं तो ध्यान जूतों पर ही लगा रहता है। कहीं कोई और इन्हें चरा न ले। बस इसी बात की चिंता खाये जा रही है।”
“यह तो बुरी बात है, पूजा भगवान की और ध्यान जूतों पर राम․․․राम․․․․ ”
“फिर तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं?”
वीणा कुछ देर सोचती रही फिर बोली-
“उपाय है, मंदिर में जूते पहनकर मत जाओ। या फिर जूते मंदिर में एक ही जगह पर एक साथ मत उतारा करो। मेरा कहने का मतलब है, एक जूता एक कोने में, और दूसरा जूता दूर दूसरे कोने में छोड़ कर जाया करो, ताकि जहूता चोर को एक ही जहूता मिलेगा, और वह एक जूता चुरायेगा नहीं।
बनवारीलाल को अपनी पत्नी की युक्ति स्पष्ट समझ में आगई, वे म नही मन भगवान को धन्यवाद देने लगे-“भगवान तू ही सबको अक्ल देता है, वरना इस निरी बुद्धिहीन दिमाग में इतनी अच्छी अक्ल की बात कैसे आ गई।”
अब बनवारीलाल बेफिक्र होकर मंदिर में अलग अलग स्थानों पर एक एक जूता रखने लगे। परन्तु होनी को भगवान भी नहीं टाल सकता, वह तो होकर ही रहती है।
एक दिन बनवारीलाल मंदिर से बाहर निकले तो देखा उनका एक जूता गायब था, उन्होंने वही दूसरे जूते से अपना सिर पीट लिया। मन ही मन दहाडें़ मारकर रोने लगे। मंदिर का चप्पा चप्पा छान लिया, परन्तु दूसरा जूता कहीं भी नहीं मिला । पिछले अनुभव से किसी से पूछने एवं थाने जाने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। रोते झींकते एक जूता हाथ उठाये मंदिर के परिसर से बाहर निकले। सोचने लगे अब इस एक जूते का क्या करंें? उनके किसी काम का नहीं था परन्तु नया था और फेंकने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी।
सेचते सोचते अचानक उनके जेहन में एक बात आयी उनकी आंखों में थोड़ी सी चमक आई, और जा पहुंचे जूते बनाने वाले की दुकान पर जो अग्रिम लेकर जूते बनाते हैं।
“भैया मेरा एक जूता चोरी हो गया। लिहाजा इसी जूते के नाप एवं डिजाईन का दूसरा जूता बना दो।”
दुकानदार ने कहा-
“ठीक है यह एक जूता छोड़ जाओ और 100 रूपये अग्रिम दे दो 150 रूपये का जूता बनेगा, 2 रोज बाद आकर ले जाना।
100 रूपये और जूता देकर बनवारी लाल नंगे पांव घर की ओर चल दिये।
वादे की मुताबिक 2 रोज बाद जूते लेने दुकान पर पहुंच गये, और बोले-“लाईये मेरे जूते दीजिए।”
“कौन से जूते?”दुकानदार ने पूछा-
बनवारीलाल ने याद दिलाया-
“अरे भाई 2 दिन पहले आपको एक जूता देकर दूसरा जूता बनवाने का मैंने 100 रूपया अग्रिम दिया था, वही जूते दिजिए।”
दुकानदार ने जवाब दिया-
“वह तो उसी दिन आपके जाने के थोड़ी देर बाद ही आपका छोटा भाई आकर ले गया।
बनवारीलाल चौंके फिर तैश में आकर बोले-
“मेरा कोई छोटा भाई नहीं है, किसे दे दिये आपने?”
“फिर वह व्यक्ति कौन था? जो आपके जाने के बाद दूसरा जूता बताकर बोला था”-“भाई साहाब का यह चोरी गया जूता मिल गया है। लिहाजा आपको जो जूता और अग्रिम दिया है, वह दे दें। तो भैया हमने दूसरा जूता देखकर 100 रूपये और दोनों जूते देकर उसे विदा कर लिया।”
अब बनवारी लाल को साफ साफ समझ मे आ गया। जूते चोर ने उन्हें करारी चोट दी थी। उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुकान के अन्दर रखे सारे जूते उन पर आ गिरे हों, और उनके मुंह से चीख भी नहीं निकल रही थी।
सुरेश भाटिया
23, अमृतपुरी खजुरीकला रोड,
पिपलानी भेल, भोपाल-462022
सुरेश भाटिया
23, अमृतपुरी खजुरीकला रोड,
पिपलानी भेल, भोपाल-462022
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