पुरुषोत्तम विश्वकर्मा के हास्य-व्यंग्य

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मोबाईल का मर्ज      आज जब में चाचा दिल्लगी दास से मिला तो देखा कि जनाब व्यस्त का कम अस्तव्यस्त ज्यादा लगे। मेरे शुभ प्रभात का प्रतुत्तर दुए...

मोबाईल का मर्ज

     आज जब में चाचा दिल्लगी दास से मिला तो देखा कि जनाब व्यस्त का कम अस्तव्यस्त ज्यादा लगे। मेरे शुभ प्रभात का प्रतुत्तर दुए बिना ही मुझे अपने पीछे पीछे आने का इशारा कर सीढियों की और दौड़ पड़े।उन्हें सीढियों पर ऐसे बन्दर की भांति कुलांचें भरते हुए देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि बुढऊ घुटनों के पुराने दर्द का रोगी हो सकता है। देखा तो चाचा छत के एक विशेष कौने में एक खास दिशा की ओर मुंह कर के बड़े जोर जोर से बोल रहे थे कि हाँ हाँ अब थोड़ा थोड़ा सा टावर मिल रहा है। वो क्या है कि हमारे यहां टावर की बड़ी समस्या रहती है । कभी तो नो नेटवर्क कवरेज,कभी नेटवर्क इज बिजी ही मिलता है,अब आप समझे नहीं तो यूं समझ लो कि ट्रेफिक जाम ही मिलता है, इसकी शिकायत भी की मगर आज तक तो कुछ नहीं हुआ। कॉल करने वाले की बात का जवाब हाँ हूँ में ही देकर अपने मोबाइल इंस्ट्रूमेंट,उसके कवर,केस,ब्लेक में खरीदी गई सिम आदि के ही के बार में अजीब अजीब किस्म की मालूमात देते रहे,जब अगले ने अपना मोबाइल सेट स्विच ऑफ़ कर दिया तब जाकर के उसका पिण्ड छोड़ा।

चाचा बड़े ही अनमने भाव से अपने मोबाइल इंस्ट्रूमेंट को अपनी लठ्ठे की बनियान की जेब के हवाले करते हुए मेरी तरफ मुखातिब हुए और बोले कपूत तू कब आया । कब आया सो आया बता क्यों आया।आओ नीचे चलते है,यहां हवा बड़ी सर्द चल रही है,धूप भी तो नहीं है, कहते हुए चाचा घुटनों को दोनों हाथों का सहारा देते हुए धीरे धीरे सीढियां उतरने लगे। अभी आधी ही सीढियां उतर पाए थे कि चाचा के लैंड लाइन टेलीफोन की घंटी बजने लगी।मैंने कहा चाचा नीचे लैंड लाइन फोन  बज रहा है, तुम घुटनों के दर्द से परेशान हो कहो तो मैं उठा लूं ,तो चाचा उस बेसिक फोन की घंटी को अनसुनी कर के बुदबुदाए,रहने दो किसी को दरकार होगी तो मोबाइल पर कर लेगा बात,कहते हुए चाचा सीढियों पर वापस मुड़ गए और जा कर जम गए छत के उसी तयशुदा कोने में चाचा काफी देर तक छत के उसी तयशुदा कोने में घंटी आने के इंतजार में जमे रहे मगर उनके मोबाइल को नहीं बजाना था सो नहीं बजा।

       जब काफी देर बाद चाचा नीचे आये तो चाय की जगह मोबाइल की चर्चा छिड़ते देख मैंने टोका, चाचा पान वाले भैया के शादी में शरीक होने नहीं जाना है क्या,अब और देरी से पहुचे तो वो हमारे लत्ते लेगा,शादी निपटने के बाद तक तुम्हारी और उसकी नोक झोंक चलेगी। बात चाचा के समझ में आ गयी और बोले जल्दी चलो ताकि टेम्पो का किराया केवल पान वाले भैया के घर तक का ही भुगतना पड़े,लेट हो गए तो पंद्रह बीस रूपयों की चप्पत और लग जायेगी। चाचा और मैं एक टेम्पो में बैठ गए,टेम्पो वाला और सवारियां होने के इंतजार में था कि उसका मोबाइल भी यकायक बज उठा और उसने हमसे कहा भाई जान माफ़ करें आपको टेम्पो से उतरना पड़ेगा,मेरे कहीं की बुकिंग आ गई है। हम दूसरे टेम्पो के इंतजार में खड़े थे,हमारे वहां खड़े खड़े ही एक गधा छकड़ी वाले ने अपना मोबाइल कान से लगाये लगाये ही गोदाम नंबर दो में पहुँचाने की कह कर अपनी गधा छकड़ी का मुंह विपरीत दिशा में मोड़ लिया।

   हम पड़ते उठते जैसे तैसे पान वाले भैया के घर तक पहुंचे तो बारात चल पड़ी थी,हम भी साथ हो लिए। यहां भी बारातियों की जेबों में मोबाइल की घंटियां ऐसे बज रही थी मानो चलती भेड़ों के झुण्ड में भेड़ों के गले में पड़ी घंटियां बजा करती हैं। बारातियों की तो ही क्या बेंड वालों तक की घंटियां बज रही थी,खुद दूल्हा मियां दोनों हाथों में मोबाइल शरीके हयात के घर जा रहे थे,सबको अपने अपने मोबाइल से काम था,कोई कोई तो मोबाइल के चक्कर में चलते चलते नाली में गिरे तो दो चार को घोड़ी की दुलत्ती खानी पड़ी । मैंने अब तक अपना मोबाइल स्विच ऑफ कर रखा था,पर अब  सब्र नहीं रहा,मुझे भी स्विच ऑन करना पड़ा ।

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चाचा कभी चुनाव कराने गए थे

   अब तक तो मैं यही मान कर चल रहा था कि चाचा दिल्लगी दास मुझसे कुछ भी नहीं छिपाते हैं और मेरा ऐसा मान कर चलना कोई बेबुनियाद इस लिए नहीं था क्यों कि चाचा जैसे हज़रात के पास छिपा कर रखने जैसा होता ही क्या हैं ? इस घुटनों तक की धोती,बिना आस्तीन की लठ्ठे की बनियान और दिन भर रेडियो की भांति बजने वाला एक शख्स किससे,क्या,कैसे और कहां छिपा पाएगा। इसके अलावा अगर इनके पास छिपा कर रखने जैसा कुछ हो भी तो वो लाख चाहने के बावजूद भी छिपा नहीं सकते। और अगर इनके पास कुछ छिपाने लायक होता और छिपा कर रखना चाहते भी तो कम से कम मुझ से तो नहीं छिपा पाते। राजनीति में हमारे यहां तो ‘पारदर्शिता‘ के ढोल बजने अब शुरू हुऐ है जबकि चाचा तो पैदाईशी पारदर्शी हैं। मगर इस मामले में भी चाचा से गच्चा खा गया,वो भी एक मुअम्मा यानि कि एक पहेली निकले,जो छिप छिप कर एक डायरीनुमा कुछ लिख रहे थे जिसमें अपनी जिंदगी के अहम और खास वाक़यात दर्ज करते आ रहे थे जिसका पता मुझे आज तब चला जब वो इन्तेखाबात के नताईज सुन कर वो बेहोश हो गए थे। 

    हां तो आज तो चाचा चुनाव परिणाम सुन कर के बेहोश हो गए थे,ठीक है ये तो परिणाम थे ही कुछ ऐसे जिन्होंने एक बारगी तो सबको झकझोर कर रख दिया था,अगर ये नताईज इसके अलावा कोई और तरह के होते तो भी चाचा को तो गश आना ही था,क्यों कि चाचा जान हैं कि  बेनुक्स से बेनुक्स सूरतेहाल में भी कोई न कोई नुक्स तो तलाश ही लेते हैं और सब्र तो होता नहीं नतीजा बेहोशी। वैसे चाचा टाइप लोगों के लिए बेहोश शब्द का इस्तेमाल बेमानी जरूर हैं क्यों कि जनाब होश में रहते ही कब हैं जो बेहोश होंगे।मैंने उनके मुंह पर पानी के छींटे मारे और उनके आँखें खोलने और कैंची कि तरह चलने वाली जुबान की जुम्बिश का इंतजार करने लगा। 

     इस दौरान उनके सिरहाने रखे रोजनामचे पर मेरी निगाह गई जिसमें चाचा ने अपनी शादी के जमा खर्च से लेकर सेवानिवृति पर मिली रकम तक का ब्यौरा था।इसके अलावा चाचा ने जिस जिस वाकये को तरजीह दी,उसे भी इसमें रकम कर लिया,जिसमे एक चीज थी चाचा का संस्मरण जो उन्होंने तब लिखा होगा जब जो सरकारी सेवा में रहते हुए कभी चुनाव करवाने गए होंगे। वैसे ये कोई कम बात नहीं कि बोर्ड पर चौक से लिख कर हाथो हाथ डस्टर से साफ करते रहने वाले कागज पर कलम से लिखें और उसे सहेज कर भी रखें। चाचा ने लिख रखा था कि चुनावों कि घोषणा से या तो हुक्मरान पार्टी को झुरझुरी आती हैं या फिर हम चुनाव ड्यूटी अंजाम देने वाले अहलकारान को।कुछ लोग तो इस गाज से बचना जानते हैं सो बच जाते हैं, बाकी इसको अपनी बदकिस्मती समझ कर मरे मरे कदमों से घरवालों को लगभग अलविदा कहते हुए गले पड़ी ड्यूटी अंजाम देने चल पड़ते हैं। आगे लिख रखा था कि ऐसा मेरे साथ भी कई बार हो चुका है और हर बार कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता हैं कि जिसे लाख कोशिश के बाद भी भुलाया नहीं जा सकता और कुछ वाकियात ऐसे भी होते हैं जिनको भूल जाने के डर ले लिख लिया जाता हैं।  

    चाचा के रोजनामचे में दर्ज था कि जब हम पहले पहल इस काम के लिए गए तब हमें ऐसी बस मिली जिसकी आधी सीटें और पूरे के पूरे कांच टूटे हुए थे। जिसे एक मरियल सा ड्राईवर पूरी बोतल पी कर चला रहा था सो सर्द रात में भी हमारी पूरी टीम को पसीने छूट रहे थे और डर के मारे सारे के सारे हनुमान चालीसा पढ़ते जा रहे थे सो हम ड्यूटी वाले गांव कब पहुँच गए किसी को पता ही नहीं चला। मगर जब ड्यूटी वाली जगह पहुँचे तब पता चला कि जगह सड़क,पानी,बिजली तक जिस जगह आज तक नहीं पहुंच पाए,हमारी टीम आज उस जगह जरूर पहुंच गयी थी। हमने सामूहिक यह  निर्णय लिया कि चलो नहाने धोने का तो क्या देव कृपा से यदि वापिस जीवित लौटे तो घर जा कर ही कर लेंगे, वैसे भी कौन से रोज नहा कर ही स्कूल जाते हैं। अब रही बात सोने की तो बैडिंग साथ लाये हैं सो खोल कर कहीं भी टांगें सीधी कर लेंगे। मगर खाने का तो कोई न कोई पुख्ता  इंतजाम करना ही पड़ेगा,तो तय हुआ कि खाने पीने का सामान सब मिल कर ले आयेंगे,चपरासी साथ हैं जो खाना बना ही देगा। मगर किसी को किसी पर भरोसा करने जैसी परिस्थितयां ही  नहीं थी सो पूरी की पूरी टीम परचूनी की दूकान तक गई,पूरे मोल भाव के बाद खाने पीने का सामान ख़रीदा,खाने की पुख्ता व्यवस्था कर के ही हम सब ने दम लिया।

    सब कुछ ठीक ठाक चला,मगर जिस दिन काम ख़त्म हुआ उस दिन तो झगडा होना ही था सो हुआ। झगड़े का कारण खाने पीने का सामान था जिसके बच जाने का अंदेशा सबको था,सो सबने एक राय हो कर तय किया कि बचे खुचे मिर्च मसाले पूरे के पूरे सब्जी में डाल दिये जाए,सारे के सारे  आटे की रोटियां बना ली जाये,अगर ठूंस ठूंस कर खा चुकने के बाद भी रोटियां बच जाये वो बराबर बराबर बांट ली जाये। सब कुछ योजना के मुताबिक हुआ मगर एक समस्या खड़ी हो गई, आज सब्जी में जरूरत से भी कहीं ज्यादा डालने के उपरांत भी थोडा सा तेल बच गया,अगर पिछले दिनों सब्जी में तेल डालने में कंजूसी नहीं की होती तो सब्जी खाने लायक बन जाती और आज यह समस्या सामने ही नहीं आती। उस बचे तेल की समस्या पर गहन विचार विमर्स करने पर उसका निराकरण यह यह सूझा कि तेल बालों में डाल लिया जाये,सबने अपने अपने बाल ‘नागौरी मालपुए’ जैसे कर लिए मगर फिर भी कुछ तेल बच ही गया जिसे हाथ पैरों पर चुपड़ने पर सब सहमत हो गए,और चुपड लिया। हमने अगर एक साबुन ख़रीदा होता और वो बच जाता तो उसे भी यकीनन छः टुकड़ों में विभक्त कर बराबर बांटा जाता। मैं इतना ही पढ़ पाया था कि चाचा ने आँखें खोल दी और पूछा क्यों कपूत क्या कर रहे हो ।           

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रचनाकार: पुरुषोत्तम विश्वकर्मा के हास्य-व्यंग्य
पुरुषोत्तम विश्वकर्मा के हास्य-व्यंग्य
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