नाक में नथ (डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री, पी / 138, एम आई जी, पल्लवपुरम फेज – 2, मेरठ 250 110) agnihotriravindra@yahoo.com भारतीय स्त्रिय...
नाक में नथ
(डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री,
पी / 138, एम आई जी, पल्लवपुरम फेज – 2, मेरठ 250 110)
agnihotriravindra@yahoo.com
भारतीय स्त्रियों का सौंदर्य प्रसाधनों एवं आभूषणों के प्रति प्रेम जगप्रसिद्ध है। यों तो भारतीय पुरुष भी इस मामले में पीछे नहीं रहे हैं, पर ‘ प्रसिद्धि ‘ स्त्रियों को ही मिली है। वे सिर से लेकर पैर तक तरह – तरह के सौंदर्य प्रसाधनों और आभूषणों का प्रयोग करती हैं। यह माना जाता है कि इससे उनकी सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं। चार क्या, प्रसिद्ध कवि बिहारी के शब्दों में तो माथे पर केवल बिंदी लगाने से ही सुंदरता दस गुनी बढ़ जाती है ( तिय ललाट बेंदी दिए आँक दस गुनो होत )। आभूषण तरह – तरह के हैं। कुछ आभूषण ऐसे हैं जो स्त्रियां किसी विशिष्ट अवसर पर सजने – संवरने के लिए पहनती हैं, और उन्हें बाद में उतार देती हैं, तो कुछ आभूषण वे हर समय पहने रहती हैं। सामान्यतया कान / नाक में पहने जाने वाले आभूषणों के लिए कान / नाक छिदवाने की परम्परा है और यह काम बचपन में तभी कर दिया जाता है जब खाल कोमल होती है, हालांकि अब तकनीक के विकास से कान / नाक के ऐसे आभूषण भी बनने लगे हैं जो कान / नाक बिना छिदवाए भी पहने जा सकते हैं। कान में आभूषण पहने तो कुछ पुरुष भी मिल जाते हैं, पर नाक में आभूषण मानों स्त्रियों का विशेषाधिकार है। बात आभूषणप्रियता तक सीमित नहीं रह गई है। अब तो कुछ ऐसी सामाजिक परम्परा बन गई है कि स्त्रियों की सूनी कलाई, नंगे कान आदि अच्छे नहीं माने जाते।
प्रायः सामाजिक परम्पराओं का सम्बन्ध धर्म से होता है। विद्वान बताते हैं कि जिसे हम आज हिंदू धर्म कहते हैं, उसका उद्गम वेद एवं वैदिक साहित्य से हुआ है। वेद के आधार पर जिस धर्म का विकास हुआ, उसे आज हम बौद्ध धर्म / ईसाई धर्म आदि की नक़ल पर “ वैदिक धर्म “ कहने लगे हैं, जबकि वैदिक साहित्य में उसे बिना किसी विशेषण के केवल “ धर्म “ कहा गया है। जैसे, वैशेषिक दर्शन में वैदिक धर्म नहीं, धर्म की परिभाषा दी है (यतोSभ्युदय निश्रेयस सिद्धिर्स धर्मः) या मनुस्मृति में भी धर्म के ही दस लक्षण बताए गए हैं, वैदिक धर्म के नहीं (धृति क्षमा दमोSस्तेयम् शौचमिन्द्रियनिग्रहः, धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं) । इस धर्म में स्त्रियों – पुरुषों में सामाजिक स्तर पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता था, पर आज अपने धर्म का जिस रूप में आचरण हम कर रहे हैं उसमें भेदभाव बहुत बढ़ गया है और यह अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता है। आभूषणों में भी इसकी झलक देखी जा सकती है। कोई व्यक्ति विवाहित है या नहीं, यह दर्शाने वाला कोई आभूषण पुरुषों का नहीं है, स्त्रियों के अनिवार्य रूप से हैं, जैसे गले में मंगलसूत्र या किन्हीं स्थानों पर पैरों में बिछिया।
ऐसा ही एक आभूषण नाक में पहना जाता है और विवाह के अवसर पर तो इसे बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। गांवों में सामान्य परम्परा यह है कि गरीब से गरीब परिवार में भी वधू के लिए चाहे और कुछ चीज दी जाए या न दी जाए, पर “ नथ “ अवश्य दी जाती है। जानना चाहेंगे ऐसा क्यों है ?
यह आभूषण हमारे समाज में पहले अज्ञात था। हजारों वर्ष पुरानी मूर्तियों / पुराने चित्रों में स्त्रियां सिर से पैर तक ढेरों आभूषण पहने मिलती हैं, पर नाक में कोई चीज़ नहीं मिलती। बाद में, अब से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व, जब जैन / बौद्ध धर्म के अनुकरण पर हिंदुओं में मूर्तिपूजा की शुरुआत हुई, तब भी किसी मूर्तिकार ने किसी देवी की नाक में कोई आभूषण नहीं पहनाया । इससे यह संकेत मिलता है कि नाक में आभूषण पहनने की परम्परा तब तक शुरू नहीं हुई थी । यह ध्यान देने योग्य है कि वैदिक परंपरा में शरीर और आत्मा की शुद्धि के लिए जो संस्कार बताए गए हैं, उनमें " कर्ण वेध " ( कान छेदना ) संस्कार तो है, जो स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है, स्त्रियों के लिए अलग से " नासिका वेध " जैसा कोई संस्कार नहीं। भाषा की दृष्टि से देखें तो इस देश की वैदिक युग से ही चली आ रही भाषा संस्कृत में नाक में पहने जाने वाले आभूषण (नथ / लौंग) के लिए कोई शब्द ही नहीं । यह भी इस बात का प्रमाण है कि यह हमारी पुरानी परंपरा नहीं । अतः निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्त्रियों की नाक छेदने और उसमें आभूषण पहनने का रिवाज़ बहुत बाद में शुरू हुआ।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. भगवत शरण उपाध्याय का मानना है कि सांस्कृतिक आदान – प्रदान पूरे विश्व में प्राचीनकाल से ही होता रहा है और आज भारतीय वधू की नाक में " नथ " इसी प्रक्रिया की देन है जिसका सम्बन्ध प्राचीन पश्चिमी एशिया के देश असीरिया से है जो सुमेरिया और बेबिलोनिया से ही लगा हुआ था । जिस स्थान पर आज उत्तरी इराक और मेसोपोटामिया आदि हैं, यह देश उसी स्थान पर था । ईसा पूर्व 20 वीं से लेकर 7 वीं शताब्दी (ईसा पूर्व) तक यह एक महत्वपूर्ण साम्राज्य था । अपने गौरव काल में असीरिया का साम्राज्य मिस्र से ईरान तक फैला हुआ था । विश्व इतिहास के विद्वानों का कहना है कि संसार में किसी जाति विशेष ने इतने विजय अभियानों से संबंधित अभिलेख नहीं छोड़े हैं जितने असूरियाई सम्राटों ने छोड़े हैं । यही कारण है कि 12 खंड वाले द कैम्ब्रिज एंशिएंट हिस्ट्री (प्रथम संस्करण ; 1923) का पूरा का पूरा खंड 3 केवल इसी साम्राज्य को समर्पित है। असीरिया की एक विशेषता यह थी कि उसकी राजधानी, उसके राजा, उसकी जनता, उसका धर्म, उसकी भाषा, उसके देवता – सबका नाम “ असुर “ (Ashur) था. यही असुर देवता बाद में ईरानियों के यहाँ असुर महान अथवा अहुरमज़्दा बन गया।
असीरिया की एक और भी विशेषता थी जिसकी झलक प्राचीन संस्कृत साहित्य की दो अभिव्यक्तियों " धर्म विजयी नृप " और " असुर विजयी नृप " में भी मिलती है। धर्म विजयी नृप ऐसा राजा बताया है जो हारे हुए राजा की " श्री / प्रभुता ” (sovereignty) तो ले, पर " मेदिनी " अर्थात राज्य क्षेत्र (territory) लौटा दे, राजा को " बहाल “ (reinstate) करके उसकी गद्दी पर उसे फिर से बैठा दे। महाकवि कालिदास ने रघु की दिग्विजय में रघु को " धर्म विजयी नृपः " कहते हुए " श्रीयं जहार न तु मेदिनीम् " कहा है। हमारी परम्परा धर्म विजयी नृप की ही थी, चक्रवर्ती सम्राट ऐसे ही होते थे।
इसके विपरीत " असुर विजयी नृप " वह है जो " उत्थाय तरसा " अर्थात विजित को जड़ से उखाड़ दे। प्रायः " असुर " का अर्थ जो देवता नहीं, वह असुर (न सुरः इति असुरः) किया जाता है ; पर डा. उपाध्याय का मानना है कि " असुर विजयी नृप " में असुर का सम्बन्ध इस अर्थ से नहीं, बल्कि प्राचीन पश्चिमी एशिया के देश असीरिया से है। यहाँ के शासकों की विशेषता बताते हुए उन्होंने लिखा है कि वे जिस प्रदेश को जीतते थे, उस समूचे राज्य को उखाड़ और उजाड़ देते थे। पूरी आबादी को बदल दिया करते थे और उसे ले जाने का जो तरीका था वह मवेशी की तरह हांक कर ले जाने का था। कोई आदमी इधर - उधर न चला जाए इसलिए एक पतली डोर डालकर ओंठों और नाक को नथ देते थे जिसको अरबों ने बाद में नाकिल कहा (प्राचीन पश्चिम एशिया और भारत; प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली ; 1977 , पृष्ठ 7)।
आज भारतीय स्त्रियां नाक में आभूषण भले ही अपनी आभूषणप्रियता के कारण पहन रही हों, पर डा. उपाध्याय के अनुसार असीरिया की उक्त परम्परा ही आज भारतीय वधू की नाक में " नथ " के रूप में विद्यमान है. क्योंकि " दिस इज द सिम्बल आफ कम्प्लीट मास्टरी आफ द मैन ओवर ए वूमैन । यही असूरिया तरीका था ( पूर्वोक्त, पृष्ठ 8 ) । “
ऐसा प्रतीत होता है कि जब वैदिक परम्पराएं शिथिल होने लगीं तब समाज में स्त्रियों का सम्मान घटने लगा। जिस स्त्री को ससुराल की “ सम्राज्ञी “ (ऋग्वेद) कहा गया था, “ मेना “ कहा था क्योंकि वह सम्माननीय है, (मानयन्ति एनाः पुरुषाः), “ योषा “ कहा था क्योंकि वह पुरुष की मित्र है, सहयोगिनी है, जिसका सम्मान ही सुखी परिवार की गारंटी था ( यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ), उसे “ दासी “ बना दिया, पैर की जूती घोषित कर दिया, नरक का द्वार मान लिया (द्वारं किमेकम् नरकस्य ? नारी) । बाल्यावस्था में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रखने की व्यवस्था देकर स्त्रियों की स्वतन्त्रता का अपहरण कर लिया (न स्त्री स्वातन्त्र्यम् अर्हति) । ऐसे ही युग में “ कम्प्लीट मास्टरी आफ द मैन ओवर ए वूमैन “ वाले “ सिम्बल “ अपनाए गए और एक नहीं, अनेक अपनाए गए ताकि छूट की कोई गुंजाइश न रहे। मुझे अच्छा पति मिले, वह स्वस्थ रहे – इसके लिए व्रत रखना, पर्व मनाना, संकल्प करना स्त्री के लिए अनिवार्य है ; अच्छी पत्नी मिले, वह स्वस्थ रहे – इसकी चिंता पुरुष को नहीं। दीर्घायु की कामना पति / पुत्र की ही की जाती है, और इसके लिए व्रत रखना स्त्री की ही जिम्मेदारी है ; पत्नी / बेटी दीर्घायु हो, इसकी कामना नहीं की जाती। पुरुष बहु-विवाह कर सकता है, स्त्री नहीं। विधवा विवाह वर्जित किया गया, विधुर विवाह पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया। सती प्रथा का विधान किया गया, “सता प्रथा “ का नहीं। स्त्रियों को पतिव्रता बनाने के लिए सती सावित्री की कहानियाँ रच लीं, पुरुषों को स्वच्छंद छोड़ दिया, उन्हें पत्नीव्रता बनाने वाली कोई कहानी तक नहीं। अग्निपरीक्षा सीता की ली गई, राम की नहीं। ऐसी सभी परम्पराएं “ कम्प्लीट मास्टरी आफ द मैन ओवर ए वूमैन “ दर्शाती हैं।
इससे यह तो स्पष्ट है कि आज हम जिन परम्पराओं का पालन कर रहे हैं, उनमें से अनेक हमारी उस मूल वैदिक संस्कृति की देन नहीं हैं जिसकी छाप सम्पूर्ण विश्व पर पड़ी थी, जिससे विश्व की प्रथम संस्कृति का निर्माण हुआ (सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा), और आधुनिक युग में जिससे हमारा परिचय स्वामी दयानंद सरस्वती (1824–1883) ने कराया। आज भी हम गौरव गाथा तो उसी युग की गाते हैं, पर हमारा आचरण उससे छिटक कर बहुत दूर चला आया है। हमारी कथनी और करनी में बहुत अंतर आ गया है। हमारी स्थिति हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और वाली बन गई है। स्वामी विवेकानंद (1863 - 1902) ने भी इसी तथ्य को स्वीकार करते हुए जहाँ एक ओर यह कहा कि " हिन्दू धर्म का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें वेद और दर्शन शास्त्र पढ़ना चाहिए ( विवेकानंद साहित्य संचयन, रामकृष्ण मठ, नागपुर ; पृ . 392) , वहीँ हमारे आचरण को देखकर यह टिप्पणी की कि “आधुनिक हिंदू धर्म अधिकांशतः एक पौराणिक धर्म है जिसका उद्गम बौद्ध काल के पश्चात् हुआ है (भारतीय नारी, रामकृष्ण आश्रम, नागपुर ; पृ. 62) । “
इससे यह भी स्पष्ट है कि हम आज जिन परम्पराओं का पालन कर रहे हैं, वे देशी – विदेशी विभिन्न स्रोतों से आई हैं। कुछ परम्पराएं तर्कसंगत हैं तो कुछ के आगे प्रश्न चिह्न / विस्मयादिबोधक चिह्न लगे हैं। वह कहानी शायद आपने भी सुनी हो कि किसी घर में लड़के की शादी की तैयारी चल रही थी. घर में एक बिल्ली पली हुई थी. गृहणी ने सोचा कि शादी के माहौल में बिल्ली पता नहीं क्या – क्या चट कर जाए / खराब कर दे, अतः उसने एक टोकरी उलटी करके बिल्ली को उसमें बंद कर दिया। बिल्ली का भोजन उसी में सरका दिया जाता था। जब बहू आई तो उसने यह दृश्य बड़े ध्यान से देखा। समय बीतता गया। वह बिल्ली भी मर गई और सास – ससुर भी भगवान को प्यारे हो गए। नए बच्चे बड़े हो गए। उनकी शादी की तैयारी होने लगी तो वर्तमान गृहणी ने बाजार से लाने वाले सामान में एक बिल्ली और टोकरी भी लिखी। पुरुष ने पूछा, ये क्यों ? गृहणी बोली, आपको नहीं पता ? यह तो इसी घर की परम्परा है, मैंने यहीं देखा कि शादी के समय एक टोकरी में बिल्ली बंद की जाती है।
क्या आपको अपनी कुछ परम्पराएं ऐसी ही नहीं लगतीं ?
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