शिक्षा के संदर्भ में भाषा के प्रति आम धारणा और विद्वानों की चुप्पी छत्तीसगढ़ राज्य 1 नवंबर 2000 को बना। यह एक राजनैतिक फैसला था। भले ह...
शिक्षा के संदर्भ में भाषा के प्रति आम धारणा और विद्वानों की चुप्पी
छत्तीसगढ़ राज्य 1 नवंबर 2000 को बना। यह एक राजनैतिक फैसला था। भले ही इस राज्य के क्षेत्र निर्धारण के लिए इस प्रदेश की मूल निवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को प्रमुख आधार बताया जाता है लेकिन यह केवल भावनात्मक दोहन के लिए खड़ा किया गया एक छलावा मात्र है। शासन करने वालों को नया राज्य मिल गया। उनका काम सध गया। बहुसंख्यक लोगों की भाषा से शासन करने वालों को काई लेना-देना नहीं रहता। यही सच्चाई है। शासन करने वाले फिर ऐसी भाषा को बढावा देने लगते हैं जिसे आम आदमी समझने, बोलने, लिखने या पढ़ने में कठिनाई महसूस करे। यदि मूल निवासियों की मातृभाषा को बढ़ावा दिया जाने लगे तो उसे अपने दूरगामी हितों की समझ आ जाएगी और वे शासक वर्ग से सवाल करने की हिम्मत करने लगेंगे जो शासक वर्ग कभी भी नहीं चाहता। छत्तीसगढ़ में भी यही सब राज्य बनने के बाद पिछले चौदह सालों से हो रहा है। यहां की मातृभाषा छत्तीसगढ़ी को उचित स्थान और मान-सम्मान देने की बात कुछ मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर कोई नहीं करना चाहता।
लेकिन कुछ चतुर लोग छत्तीसगढ़ी का बाना धारण कर छत्तीसगढ़ी हितैषी होने का स्वांग जरूर भरते रहते हैं और मातृभाषा के नाम पर मिलने वाले हर लाभ का उपभोग करते रहते हैं। ये सरकार को खुश करते रहते हैं और सरकार इन्हें खुश करती रहती है। मातृभाषा ही शिक्षा के लिए सबसे सही भाषा है ऐसा दुनिया के हर शिक्षा शास्त्री का मत है। लेकिन सरकारों को इससे कोई मतलब नहीं है। उसको तो अपनी सुविधाओं से मतलब है और वे जनता को केवल सुविधाओं का भुलावा देते हैं। इसके लिए वे उन्हें उतनी ही शिक्षा देते हैं जितनी में वे उनकी जी हुजूरी कर सकें। इसीलिए सरकारी शिक्षा नीति को लेकर बहुत से लोगों द्वारा की जाने वाली यह टिप्पणी एकदम सही लगती है कि वह जनता को केवल हस्ताक्षर करना सिखाना चाहती है इससे ज्यादा कुछ नहीं। अंग्रेजों ने देश को दो सौ साल तक गुलाम रखा लेकिन भाषायी गुलामी के लिए आजीवन पट्टा लिखवा लिया। तभी तो इस देश के लोग अंग्रेजी की गुलामी से मुक्त ही नहीं होना चाहते। जब दुनिया के कई अतिविकसित देश अपनी मूल भाषा का झंडा बुलंद करने में गर्व महसूस करते हैं तो कभी विश्व गुरु कहलाने वाला देश भाषा को लेकर क्यों हीन भावना का शिकार है?
असल में इसका मूल कारण भाषायी अस्मिता के प्रति उदासीनता है और हर तरह के शासक वर्ग इस उदासीनता को हमेशा खाद-पानी देने का काम करते रहे हैं। चाहे वह विदेशी शासन हो चाहे स्वदेशी। बात घूम-फिरकर फिर से शासक वर्ग पर आकर टिक गई है। इसलिए यदि हम कहें कि हमें भाषायी अस्मिता से संपृक्त संवेदनशील सरकार की दरकार है तो कतई अनुचित नहीं होगा। क्योंकि जनता तो गाय है उसे जैसे हांकोगे हंका जाएगी। आज सरकार परस्ती का युग है। यदि कुछ लोग सोचते हैं कि भाषायी अस्मिता के लिए जनता को खुद जागरूक होना होगा तो आज की स्थिति में यह संभव नहीं दिखता। इसके लिए भी सरकार को ही कदम उठाना होगा। और इसके लिए सरकार को विवश करने का काम कलम के सिपाही ही कर सकते हैं।
अभी शिक्षा जगत में भाषा को लेकर आम धारणा क्या है? छत्तिसगढि़या घर में छत्तीसगढ़ी बोलते हैं और स्कूल में पढ़ाई जाने वाली भाषाओं को ही भाषा मानते हैं। छत्तीसगढ़ी को भाषा नहीं अपितु बोली मानते के पीछे यही कारण है। तो ऐसे में जनता में भाषायी अस्मिता कैसे जागृत होगी? आज स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली भाषा है हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत। हिन्दी हिन्दी पट्टी की बोलियों से मिलती-जुलती भाषा है और पूरे देश की संपर्क भाषा भी है इसलिए इसे सब समझते हैं लेकिन अंग्रेजी और संस्कृत तो कहीं भी न बोली जाती है न समझी जाती है फिर भी उसे भाषा के रूप में सभी जानते हैं। क्यों? क्योंकि यह भाषा के रूप में स्कूलों में पढ़ाई जाती है। लेकिन इन भाषाओं को लेकर अस्मिता बोध का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि यह हमारी मातृभाषा नहीं है। मैं जो कह रहा हूं वह बहुत ही साधारण सी बात है जिसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देना चाहता आम आदमी स्कूल में पढ़ाई जाने वाली भाषा के प्रयोग करने को शिक्षित होने का प्रमाण समझता है इसलिए हर पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपनी बोली में अभिव्यक्ति को पिछड़ापन मानने के हीन भावना का शिकार होता है। यदि भाषा के रूप में मातृभाषा अनिवार्य रूप से पढ़ाई जाए तो इसमें कोई शक नहीं कि इस हीन भावना का परिष्कार नहीं होगा और अपनी भाषा के प्रति अस्मिता बोध नहीं जागेगा। मातृभाषा को तो वह जीता है, बोलता और समझता है। जरूरत सिर्फ उसके खोए हुए मान-सम्मान को स्थापित करने की है। जरूरत ऊँची कुर्सी पर बैठने वालों की साजिश को समझने की भी है जो यह नहीं चाहते कि आम जन में भाषायी अस्मिता बोध जागे। इसीलिए तो अंग्रेजी को बढ़ावा देने के लिए उनके पैर हमेशा उठे रहते हैं पर छत्तीसगढ़ी के लिए इन लोगों के पास कोई न कोई बहाना हमेशा तैयार रहता है। अभी हाल में ही छत्तीसगढ़ के शिक्षा मंत्री ने घोषणा की है कि सभी जिलों में सरकारी अंग्रेजी स्कूल खुलेंगे। मैं पहले ही कह चुका हूं कि सरकार की इस चालाकी को कलम का सिपाही ही उजागर कर सकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि लिखने से कुछ नहीं होगा। मैं उनकी बातों से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। मैं मानता हूं कि लिखने वाले के जीते जी कुछ नहीं होगा क्योंकि जीते जी यदि कुछ हो जाता है तो लिखने वाले को श्रेय मिल जाएगा और बहुत से दूसरे लोगों की कीमत घट जाएगी लेकिन भविष्य में भी कुछ नहीं होगा इस बात से मैं इंकार करता हूं। क्योंकि किसी भी अच्छे कार्य का मूल्यांकन व्यक्ति नहीं समय करता है। आज जिस कार्य को अनदेखा किया जा रहा है कल उसी की खोज और स्थापना होगी। इसलिए सच्चे कलम के सिपाही को निराश होकर लिखना बंद नहीं करना चाहिए। 'चरैवेति-चरैवेति' सूत्र का पालन करना चाहिए। यहां पर कुछ बातें विद्वानों के ऊपर कहना भी जरूरी लगता है। हमारे प्रदेश में भी विद्वानों की कमी नहीं है जिनकी बातों का वजन सरकार भी महसूस करती। लेकिन पता नहीं क्यों ये लोग मातृभाषा में शिक्षा के मुद्दे पर चुप्पी साधे रहते है। इन विद्वानों में कुछ संपादक भी हैं जिनके पास अभिव्यक्ति के लिए उनका अखबार है। कुछ बड़े लेखक-पत्रकार हैं जिनके लिखे को कोई अखबार छापने से इंकार नहीं कर सकता। पर हम जैसे लोग इनकी चुप्पी टूटने का इंतजार भर कर सकते हैं कि कभी तो यह मुद्दा उनके मन-मस्तिष्क को झकझोरेगा और वे मातृभाषा की शिक्षा की अनिवार्यता पर कुछ लिखेंगे। तब हो सकता है वर्तमान युगीन परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के लिए मातृभाषा की अनिवार्यता की बहस की सार्थकता या निरर्थकता पर कुछ निष्कर्ष निकले। क्योंकि आज अपनी अगली पीढ़ी को प्राथमिक शिक्षा से ही विदेशों में भेजने का चलन भी एक कड़वी सच्चाई है और देश में ही कई-कई तरह के स्कूल भी एक कड़वी सच्चाई है।
दिनेश चौहान,
छत्तीसगढ़ी ठिहा, नवापारा- राजिम,
dinesh_k_anjor@yahoo.com
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