डॉ. श्याम गुप्त की दस रचनाएँ ...... १. गज़ल..... आते तो सभी अकेले हैं इस दुनिया में और जाते भी अक...
डॉ. श्याम गुप्त की दस रचनाएँ ......
१. गज़ल.....
आते तो सभी अकेले हैं इस दुनिया में और जाते भी अकेले ही हैं, पर आने व जाने के मध्य जो संसार-व्यापार है, यही ज़िंदगी है और हर लम्हा खुश खुश जीना ही जीना है | इस ज़िंदगी के सफ़र में किसी हमसफ़र का होना उसे सुहाना सफ़र बना देता है | सफ़र को सुहाना बनाए रखने के लिए एक दूसरे को सुनना, समझना, जानना व मानना अत्यंत आवश्यक है
कुछ तुम रुको कुछ हम रुकें चलती रहे ये ज़िंदगी |
कुछ तुम झुको कुछ हम झुकें ढलती रहे ये ज़िंदगी |
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें सुनती रहे ये ज़िंदगी ,|
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें कहती रहे ये ज़िंदगी |
बहकें जो साथ साथ तो छलकी ये ज़िंदगी,
मस्ती में झूमके चलें मचली रहे ये ज़िंदगी |
घुट घुट के जीना भी है क्या ए यार कोइ ज़िंदगी,
कोइ न साथ देगा बस छलती रहे ये ज़िंदगी |
हर गम खुशी जो साथ साथ यार के जिए ,
आयें हज़ार गम यूंही हंसती रहे ये ज़िंदगी |
वो हारते ही कब हैं जो सज़दे में झुक लिए ,
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी |
रहरौ है हर एक शख्स और दुनिया है रहगुजर ,
खुश रंग यूंही चलते रहो पलती रहे ये ज़िंदगी |
आया न साथ कोई, न कोई साथ जायगा,
कुछ हमकदम हों साथ तो संभली रहे ये ज़िंदगी |
गुल भी हैं और खार भी, इस रहगुजर में श्याम’
हो साथ हमनफस कोई खिलती रहे ये ज़िंदगी ||
२. श्याम सवैया छंद...(वर्ण गणना …छ: पंक्तियाँ –२२ वर्ण )
जन्म मिलै यदि मानुस कौ, तौ भारत भूमि वही अनुरागी |
पूत बड़े नेता कौं बनूँ, निज हित लगि देश की चिंता त्यागी |
पाहन ऊंचे मौल सजूँ, नित माया के दर्शन पाऊं सुभागी |
जो पसु हों तौ स्वान वही, मिले कोठी औ कार रहों बड़भागी |
काठ बनूँ तौ बनूँ कुर्सी, मिलि जावै मुराद मिले मन माँगी |
श्याम' जहै ठुकराऊं मिले, या फांसी या जेल सदा को हो दागी ||
वाहन हों तौ हीरो होंडा, चलें बाल-युवा सबही सुखरासी |
बास रहे दिल्ली -बैंगलूर, न चाहूँ अजुध्या मथुरा न कासी |
चाकरी प्रथम किलास मिले, सत्ता के मद में चूर नसा सी |
पत्नी मिलै संभारै दोऊ, घर-चाकरी बात न टारै ज़रा सी |
श्याम' मिलै बँगला-गाडी, औ दान-दहेज़ प्रचुर धन रासी |
जौ कवि हों तौ बसों लखनऊ, हर्षावै गीत-अगीत विधा सी ||
3.दोहे के अंतिम चरण को रोला के प्रथम चरण के रूप में न दोहराने के विकल्प वाला कुण्डली छंद ---
मर्यादा पालन करे, नीति विरुद्ध न होय,
सब विषयों पर कर सके, तर्क-युक्ति जो कोय |
थोड़े में ही समझले, बात सार से युक्त,
विनयी भाव सदा रहे, अहंकार से मुक्त |
सबको आदर देय, होय मंत्री या प्यादा,
बुद्धिमान है श्याम, करे पालन मर्यादा ||
४. –अतुकांत कविता
बुराई की जड़
प्रत्येक बुराई की जड़ है,
अति सुखाभिलाषा ;
जो ढूंढ ही लेती है
अर्थशास्त्र की नई परिभाषा;
ढूंढ ही लेती है
अर्थ शास्त्रं के नए आयाम ,
और धन आगम-व्यय के
नए नए व्यायाम |
और प्रारम्भ होता है
एक दुश्चक्र, एक कुचक्र -
एक माया बंधन -क्रम उपक्रम द्वारा
समाज के पतन का पयाम |
समन्वय वादी , तथा-
प्राचीन व अर्वाचीन से
नवीन को जोड़े रखकर ,बुने गए-
नए नए तथ्यों , आविष्कारों विचारों से होता है,
समाज-उन्नंत अग्रसर |
पर, सिर्फ सुख अभिलाषा,अति सुखाभिलाषा-
उत्पन्न करती है , दोहन-भयादोहन,
प्रकृति का,समाज का, व्यक्ति का;
समष्टि होने लगती है , उन्मुख
व्यष्टि की ओर;
समाज की मन रूपी पतंग में बांध जाती है-
माया की डोर |
ऊंची , और ऊंची, और ऊंची
उड़ने को विभोर ;
पर अंत में कटती है ,
गिरती है, लुटती है वह डोर-
क्योंकि , अभिलाषा का नहीं है , कोई-
ओर व छोर |
नायकों, महानायकों द्वारा-
बगैर सोचे समझे
सिर्फ पैसे के लिए कार्य करना;
चाहे फिल्म हो या विज्ञापन ;
करदेता है-
जन आचार संहिता का समापन |
क्योंकि इससे उत्पन्न होता है
असत्य का अम्बार,
झूठे सपनों का संसार ;
और उत्पन्न होता है ,
भ्रम,कुतर्क, छल, फरेब, पाखण्ड kaa
विज्ञापन किरदार ,
एक अवास्तविक,असामाजिक संसार |
साहित्य, मनोरंजन व कला-
जब धनाश्रित होजाते हैं;
रोजी रोटी का श्रोत , व-
आजीविका बन जाते हैं ;
यहीं से प्रारम्भ होता है-
लाभ का अर्थ शास्त्र,
लोभ व धन आश्रित अनैतिकता की जड़ का ,
नवीन लोभ-कर्म नीति शास्त्र , या--
अनीति शास्त्र ||
५.अपन-तुपन
मेरे रूठकर चले आने पर,
पीछे-पीछे आकर,
"चलो अपन-तुपन खेलेंगे",
मां के सामने यह कहकर,
हाथ पकड्कर ,
आंखों में आंसू भर कर,
तुम मना ही लेती थीं, मुझे,
इस अमोघ अस्त्र से ,
बार-बार,हर बार ।
सारा क्रोध,गिले-शिकवे ,
काफ़ूर होजाते थे , ओर-
बाहों में बाहें डाले ,
फ़िर चल देते थे , खेलने ,
हम-तुम,
अपन-तुपन॥
६.पर्यावरण के दोहे ---
उधर काट जंगल हरे, बनीं अटारी खूब |
नगर बगीचे फल रहे, मेंड़ उगाई दूब |
घूमे पूरे शहर में, मिली न बड़ की छाँह ,
हे पंछी ! अब लौट चल, उस बरगद की बांह |
अब न गाँव में रह गयी, वह गावों की बात,
पान मसाला आगया, शहरों की सौगात |
पनघट ताल कुआ मिटे, मिटी नीम की छाँह ,
इस विकास के कारने, उजड़ा सारा गाँव |
हम स्वतंत्र उन्नत हुए, मन में गर्व असीम,
किन्तु ढूँढते रह गए, दरवाजे का नीम |
छाया शीतल बृक्ष की,या हो रवि के धूप,
सर आँखों पर ले सदा, उसी ईश के रूप |
७. एक अमात्रिक घनाक्षरी छन्द—डमरू...
जल बरसत
पवन बहन लग, सरर सरर सर,
जल बरसत जस, झरत सरस रस ।
लहर लहर नद , जलद गरज नभ,
तन मन गद गद,उर छलकत रस ।
जल थल चर, सब जग हलचल कर,
जल थल नभ चर, मन मनमथ वश।
सजन लसत, धन, न न न करत पर,
मन मन तरसत, नयनन मद बस ॥
८. गीत....आ छुपा है कौन
नयन के द्वारे ह्रदय में,
आ बसा है कौन ?
खोल मन की अर्गलायें ,
आ छुपा है कौन ? -----नयन के द्वारे......||
कौन है मन की धरोहर,
यूं चुराए जारहा |
दिले-सहरा में सुगन्धित,
गुल खिलाए जारहा |
कौन सूनी राह पर,
प्रेमिल स्वरों में ढाल कर ;
मोहिनी मुरली अधर धर,
मन लुभाए जारहा |
धडकनों की राह से,
नस नस समाया कौन ?
लीन मुझको कर, स्वयं-
मुझ में समाया कौन | ----नयन के द्वारे ...........||
जन्म जीवन जगत जंगम -
जीव जड़ संसार |
ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या ,
ज्ञान अहं अपार |
भक्ति-महिमा-गर्व-
कर्ता की अहं -टंकार |
तोड़ बंधन, आत्म-मंथन ,
योग अपरम्पार |
प्रीति के सुर-काव्य बन,
अंतस समाया मौन ,
मैं हूँ यह या तुम स्वयं हो -
कौन मैं तुम कौन ? -----नयन के द्वारे .....||
९. गीत बन गए ..
दर्द बहुत थे
भुला दिए सब,
भूल न पाए
वे बह निकले-
कविता बनकर
प्रीति बन गए |
दर्द जो गहरे
नहीं बह सके,
उठे भाव बन
गहराई से ,
वे दिल की-
अनुभूति बन गए |
दर्द मेरे मन मीत बन गए,
यूं मेरे नवगीत बन गए ||
भावुक मन की
विविधाओं की,
बन सुगंध वे-
छंद बने, फिर-
सुर लय बनकर
गीत बन गए |
भूली-बिसरी
यादों के उन,
मंद समीरण की
थपकी से,
ताल बने –
संगीत बन गए |
दर्द मेरे मनमीत बन गए,
यूं मेरे नवगीत बन गए||
१०. पद—
सुअना मन के भरम परे।
जैसा अन्न हो जैसी संगति सोई धर्म धरे।
संतन डेरा बास करे जे, राम नाम गुन गाये।
अन्न भखे गणिका के घर ते अति-सुन्दर चिल्लाए।
परि भुजंग मुख बने गरल और मोती सीप समाई ।
परे केर के पात स्वाति जल, सो कपूर बनि जाई।
दीपक गुन बनि करे उजेरो, चरखा सूत बनाय।
सोई कपास संग अनल-अनिल के घर को देय जलाय।
काम क्रोध मद लोभ मोह, अति बैरी राह छिपे हैं ।
ये सारे मन के गुन सुअना, तिरगुन भरम भरे हैं ।
चित चितवन चातुर्य विषय वश हित अनहित ही भावै।
माया मन की सहज वृत्ति, मन सुगम राह ही जावै ।
काल उरग साए में सब जग भ्रम के वश प्रभु विसरे।
एक धर्म घनश्याम नाम नर भव सागर उतरे॥
----- डा श्याम गुप्त, के-३४८, आशियाना , लखनऊ ,९४१५१५६४६४
धन्यवाद रवि जी....
जवाब देंहटाएंGood job sirs.
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