श्याम गुप्त का आलेख - जल-प्रलय की अवधारणा का ऐतिहासिक, वैज्ञानिक व मिथकीय विवेचना

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जलप्रलय - गोंडवाना लेंड एवं भरत-खंड .... भविष्य पुराण व अन्य पुराणों एवं बाइबल, कुरआन, अवेस्ता आदि विश्व भर के विभिन्न धार्मिक ग्रंथों व प...

जलप्रलय - गोंडवाना लेंड एवं भरत-खंड ....

भविष्य पुराण व अन्य पुराणों एवं बाइबल, कुरआन, अवेस्ता आदि विश्व भर के विभिन्न धार्मिक ग्रंथों व पुरा कथाओं आदि में जल-प्रलय की कथाएं बिखरी हुईं मिलती हैं | मनु की नाव, नूह का बेड़ा, नोआ का बक्सा आदि प्रकारांतर से प्राप्त कथाएं मूलतः वैवस्वत मनु के समय की जलप्रलय का वर्णन है | वास्तव में मानव इतिहास में कई जल-प्रलय हुईं हैं परन्तु यह सबसे भयंकर जलप्रलय थी जो जम्बू द्वीप एवं वृहत्तर भरत खंड ( जिसमें समस्त यूरोप, एशिया, अफ्रीका, भारत, सम्मिलित थे में हुई एवं इस महाजल-प्लावन ने समस्त विश्व के प्राणी इतिहास को ही बदल कर रख दिया था, जहाँ से देव-मानव सभ्यता का विनाश एवं एक नवीन मानव सभ्यता का पुनः प्रादुर्भाव हुआ | अतः यह घटना समस्त विश्व के स्मृति पटल पर स्थायी बनी रही |

विविध वर्णनों एवं साक्ष्यों के आधार पर देखें तो महान महाद्वीपीय विचलनों एवं निरंतर भूसागरीय एवं छुद्र भूखन्डीय हलचलों के अतिरिक्त अब तक मानव इतिहास में पांच महा-जलप्रलय की घटनाएँ हुईं हैं |...१.अनादि काल में –गोंडवाना लेंड से भारत के विघटन व अफ्रीकी भू भाग के यूरोपियन प्लेट से जुड़ने व टेथिस सागर के पश्चिमी-मध्य भाग के विलुप्त होने के समय भारत के नर्मदा क्षेत्र में ..२. सतयुग के अंत में-- काशिराज दाशरथि खट्वाग के समय औत्तम मनु के काल में .....३. वैवस्वत मनु के समय भारत व उत्तरापथ, ईरान, अरब, पूर्वी योरोप, एशिया ( जम्बू द्वीप ) भूखंडों में . ४.त्रेता युग के अंत में उत्तर मध्य भारत में ...राजा संबरण - सावर्णि मनु के समय ... ५. द्वापर के अंत में उत्तर-पश्चिम भारत में ..सरस्वती नदी विलुप्ति के समय |

प्रथम महा जल-प्लावन ---- जो अनादि काल में हिमालय पूर्व के गोंडवाना लेड एवं भारतीय प्रायद्वीप पर नर्मदा क्षेत्र में हुई | जब हम लगभग ३५ करोड़ वर्ष पहले की पृथ्वी संरचना इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो नूतन काल के प्रारम्भ में धरती उत्तरी व दक्षिणी दो मुख्य भूखंडों में स्थिर हुई थी जिसके मध्य में टेथिस सागर था | भूमध्य रेखा के निकट स्थित दक्षिणी भूखंड गोंडवाना लेंड कहलाता है एवं उत्तरी भूखंड लारेशिया |

चित्र १-पेंजिया भूखंड ...( लारेशिया + गोंडवाना लेंड)

भूगर्भ शास्त्रियों ने यह प्रमाणित किया है कि हिमालय निर्माण होने के पूर्व वर्तमान भारत पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध के विशाल द्वीप समूह से जुड़ा हुआ था और पृथ्वी के मध्य रेखा पर स्थित था. इसलिए नृतत्वशास्त्रियों और जीव शास्त्रियों का मत है कि इसी द्वीप में सर्वप्रथम जीवाश्म का प्रादुर्भाव हुआ और प्रथम मानव भी इसी द्वीप में विकसित हुआ, जिसमे वर्तमान भारत के नर्मदा घाटियों के क्षेत्र का समावेश होता है. इस तरह पृथ्वी का दक्षिणी गोलार्ध, गोंडवाना द्वीप-समूह में वर्तमान भारत ही वह द्वीप है, जहां आदिमानव सर्वप्रथम विकसित हुआ, तत्पश्चात शेष द्वीप समूहों में उसका विस्तार हुआ.

भारत में भी मध्य-स्थान पर एक गोंडवाना प्रदेश है | जहां आदिवासी कबीलाई प्राचीनतम जनजाति ...गोंड’.. रहती है | इन दोनों में क्या सम्बन्ध हो सकता है ?

सम्बन्ध है, हिमालय निर्माण होने के पूर्व ही गोंडवाना द्वीप समूह के वर्तमान भारत में आदिमानव की उत्पत्ति हुई , ऐसा गोंडी समुदाय के सिरडी सिंगार जीवसूत्र से प्रमाणित होता है. गोंडवाना द्वीप समूह के पांच द्वीपों की गाथा गंडोदीप तथा सिंगारदीप के रूप में गोंड समुदाय में आज भी प्रचलित है, जो वर्तमान भारत का मूलनिवासी समुदाय है मध्य भारत का अमरकंटक (अमूरकोट) पर्वत का उद्गम पैंतीस करोड़ वर्ष पूर्व हुआ है, जहां से नर्मदा (नर-मादा) की जलधारा निकली है. इसलिए नर्मदा नदी के किनारे जिस मानव समुदाय का विकास हुआ, वह निश्चित ही प्राचीन आदि मानवों की सभ्यता थी.

प्राचीनकाल में महाप्रलय होने से अमरकंटक से सम्बंधित ऐसी ही महाप्रलय की कथा अनादिकाल से प्रचलित है, जिससे यह पुष्टि होती है कि आदि नूतन युग के आरम्भ में तथा उसके पूर्व नर्मदाघाटी में अमरकंटक पर्वत के चारों ओर समुद्र निर्माण हुआ था. इस घटना की गाथा नर्मदाघाटी के क्षेत्रों में अनादिकाल से निवास करने वाले गोंड समुदाय में प्रचलित है जिससे यह प्रमाणित होता है कि वर्तमान नदी की जलधारा अमरकंटक से प्रवाहित होने के पूर्व से ही गोंड समुदाय इस द्वीप में विद्यमान हैं अर्थात आदि-मानव का उद्गम नर्मदा नदी प्रवाहित होने के पूर्व ही हो चुका था...जो शायद नियंडरथल मानव था | गोंडवाना लेंड पर अवतरित प्रथम जीव-सृष्टि विविध जीव-जंतुओं में रूपांतरित होकत समस्त पेंजिया भूखंड ( = लारेशिया + गोंडवाना लेंड ) पर फैलते रहे | गोंडवाना लेंड पर प्रथम आदि-मानव का जन्म हुआ तथा उसके विखंडन पर आदि-मानव ( होमिनिड्स आदि ) व अन्य जीव अमेरिका, अफ्रीका, भारत, आस्ट्रेलिया भूखंडों में बंट गए जो अपने-अपने भूखंडों में नियंडरथल आदि में विक्सित एवं विभिन्न महासागरीय एवं प्रायद्वीपीय हलचलों तथा विकास के उपयुक्त वातावरण व जलवायु के अभाव में बारम्बार नष्ट व अवतरित होते रहे |

अफ्रीकी भूखंड के लारेशिया भूखंड से जुड़ने एवं भारतीय भूखंड के यूरेशियन प्लेट की टक्कर के उपरांत पर टेथिस सागर की विलुप्ति एवं भारतीय प्रायद्वीप के टेथिस सागरीय भूमि से जुडने पर सम्पूर्ण भारत के निर्माण के उपरांत उत्तरी हिमक्षेत्र तिब्बतीय पठार, सुमेरु क्षेत्र एवं उठते हुए हिमालय आदि द्वारा प्राकृतिक रूप से संपन्न भारतीय भूभाग जीवन हेतु सर्वाधिक उपयुक्त हुआ जहां उपस्थित आदिमानव का पूर्ण मानव ( होमो सेपियंस ) में विकास हुआ जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सप्तर्षियों के नेतृत्व में सरस्वती-दृषवती सिन्धु सभ्यता को जन्म दिया | दक्षिण प्रायद्वीप में विक्सित नियंडरथल से होमो सेपियंस में विकासमान अवस्था में मानव..उत्तर की ओर गमन करता हुआ मध्य भारत होता हुआ अपनी आदि भाषा, सभ्यता एवं देवता संभु सेक के नेतृत्व में उत्तर के सप्त-चरु तीर्थ क्षेत्र में पहुंचा, दोनों भरतखंडीय सभ्यताओं ने मिलकर उन्नत सभ्यताओं को जन्म दिया | सरस्वती सभ्यता, सिन्धु घाटी व हरप्पा सभ्यता के स्थापक भी यही मानव थे

प्रमाण यही बताते हैं कि भारत के उत्तराखण्ड अर्थात् ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई...अतः कहा जाता है यहीं पर आदि सृष्टि की उत्पत्ति हुई |

गोंड समुदाय में वह कथा इस प्रकार है-प्राचीन काल में कभी एक बार ऐसा कलडूब (महाप्रलय) हुआ था और चारों ओर पानी ही पानी फैला हुआ था. केवल अमूरकोट (अमरकंटक पर्वत) का टीला ही पानी की सतह के ऊपर दिखाई दे रहा था. वहाँ पर एकमात्र फरावेन सईलांगरा (ज्येष्ट सईला-गांगरा = स्त्री-पुरुष ) का एक जोड़ा एक कच्छुआ और एक कौवा के साथ जीवित था. फरावेन सईलांगरा ने दो अंडाल (बच्चों) को जन्म दिया. गोंडी भाषा में “अंडाल” शब्द का मतलब बच्चा होता है. दो अंडाल में एक पुत्र और एक कन्या थी. पुत्र का नाम आंदि रावेन पेरियोर और कन्या का नाम सुकमा पेरी था. गोंडी में पेरियोर और पेरी का अर्थ क्रमशः लड़का और लड़की होता है |

इस प्रकार जब हम गोंड प्रांत, गोंड क्षेत्र, गोंड भाषा, गोंड समुदाय में प्रचलित कथानकों, पुरा-कथाएं, रीतियों आदि को ध्यान से देखते हैं तो कुछ विशिष्ट तथ्य ज्ञात होते हैं....

१.गौंड पुरा कथाओं के अनुसार नौ खण्डों वाली धरती पर पांच भूखंडों से सम्मिलित होकर बना है गंडोदीप ( अर्थात गोंडवाना लेंड ) एवं चार खण्डों वाला है अन्ड़ोदीप (अंगारा लैंड अर्थात लारेशिया )

२. धरती का स्वामी शम्भू सेक ( शिव-शंभू )..शंभू मूला ..मूल-शम्भू ..स्वयंभू.. समस्त जीवों का स्वामी –पशुपतिनाथ ( महादेव ) है | गंडोदीप के राजा लिंगो ( शिवलिंग ) हैं | ये सब पदवियां है ..क्रमिक |

३. जीव व जीवाश्म का जन्म दाता सल्लो-सांगरा है जो धन-ऋण, नर-मादा. दाऊ-दाई तत्व है | चूंकि गोंडवाना लेंड में भारत व अफ्रीकी किनारा जल के किनारे पर एवं भूमध्य रेखा पर था अतः गर्म जल में सर्व-प्रथम जीवाश्म की उत्पत्ति गोंडवाना लेंड –भारत –अफ्रीका में हुई |

४. एक महान कलडूब ( जलप्रलय ) का वर्णन है जिसमें सारी पृथ्वी डूब गयी परन्तु अमराकूटा पर्वत ( अमरकंटक ) नहीं डूबा एवं एक जोड़ा फरावेन साईं-सांगरा (स्त्री-पुरुष), एक कछुआ, एक कौवा बचे | जिनसे बाद में पुनः सृष्टि हुई | इसके बाद जल उतरने पर नर्मदा नदी ( अर्थात नर..मादा उत्पत्ति स्थान की प्रथम नदी ) उत्पन्न हुई जहां पहले अन्दर तक सागर की भुजाएं प्रविष्ट थीं उनके विलुप्त होने पर विन्ध्य व सतपुडा, गारो, महादेव आदि पर्वत श्रृंखलाओं का जन्म हुआ |

५. द्रविड़ शब्द आज सभी दक्षिण भारतीय जन के लिए प्रयुक्त होता है परन्तु किसी भी दक्षिण भारतीय भाषा में इस शब्द की उत्पत्ति का वर्णन नहीं है यह शुद्ध गोंडी शब्द है. गोंडी सभ्यता में दई शक्ति की प्रधानता है. गोंडी में दई के बीरो (उपासकों) को “दईनोर बीर” का संक्षिप्त रूप दाईबीर--- से द्रविर है जिससे द्रविर या द्रविड़ रूप बना है—गोंडी गीत –‘दईनोर-बीर ताल दरबीर आंसीनेड दरवीड मातोनी...’ का भाव है --- गोंडी दई शक्ति से तेरा जन्म हुआ है इसलिए दाई का बीर याने दई का उपासक तू दरबीर है और आज तू दरबीर नाम से जाना जाता है| यह सभी द्रवीड भाषाओं की जननी है इसलिए यह द्रविड शब्द सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्रचलित है. किन्तु उनकी उत्पत्ति मात्र गोंडी भाषा में हैं |

६.विश्व की प्रथम भाषा गोंडी भाषा की उत्पत्ति शंभू-मूला के गोयदांडी ( डमरू ) से हुई है | भारतीय शास्त्र में भी महादेव के डमरू की ध्वनि से ही वर्णों व बोली का प्रादुर्भाव माना जाता है|
७. गोंडी जन कथाओं के अनुसार –गोंड लोग समस्त भारत में द्रविड़ सभ्यता के नायक उन्नायक बने एवं उत्तर भारत, उत्तरापथ, मेसोपोटामिया, सिन्धु घाटी सभ्यता, हरप्पा आदि एवं सभी महान सभ्यताएं उन्होंने ही बसाईं, जो शिव एवं लिंग पूजा की सभ्यताएं थीं जो यूरेशियन आर्यों के आने तक निर्बाध चलती रहीं जिन्होंने शंभू महादेव को अपने कूटनीति से वश में करने हेतु दक्ष कन्या पार्वती को प्रयोग किया और पुराणों की रचना कर मिथ्या प्रचार किया, जिससे अनादि काल से गोंड समुदाय में जो शंभू शेक और लिंगो की परिपाटी चली आ रही थी वह खण्डित हो गई |

वस्तुतः यह उपरोक्त गाथा उस कथा व घटना का मिथ्याकरण एवं विकृतीकरण है जब शिव ने समुद्र मंथन से निकला कालकूट विष पान एवं स्वर्ग से गंगावतरण आदि के उपरांत ब्रह्मा, विष्णु से मैत्री के साथ ही देवलोक, जम्बूद्वीप एवं विश्व के अन्य समस्त खण्डों एवं द्वीपों तथा देव-असुर आदि सभी को एक सूत्र में बांधने हेतु दक्षिण भारत की बजाय कैलाश को अपना आवास बनाया एवं दक्ष की पुत्री सती से विवाह किया और कालांतर में देवाधिदेव कहलाये | सती आर्योंवर्त की नहीं अपितु देवभूमि-हिमप्रदेश की निवासी थीं, उस समय तक आर्य या आर्यावर्त थे ही नहीं |

यह शायद उस काल की घटना है जब क्रिटेशस काल अंत में गोंडवाना लेंड के विघटन के होने पर अफ्रीकी भूभाग उत्तर की ओर खिसक कर यूरोपियन भूखंड से टकराकर टेथिस सागर के पश्चिमी व मध्य भाग को धीरे धीरे विलुप्त कर रहा था उसके अवशिष्ट जल से केश्पियन सागर, भूमध्य सागर आदि बनने की प्रक्रिया में थे | भारतीय भूखंड संयुक्त गोंडवाना लेंड व अन्टार्कटिका तथा आस्ट्रेलियन भूखंड से पृथक होकर उत्तर -पश्चिम की ओर बढ़ते हुए यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट के तिब्बतीय भाग से टकराकर, टेथिस सागर की विलुप्ति प्रारम्भ होचुकी थी एवं ईरान, अरब आदि मध्य एशिया, तिब्बत व उत्तरापथ बन चुके थे परन्तु केवल लवणीय बालू के मैदान थे जो टेथिस सागर के निक्षेप से बने थे | उत्तरी हिम प्रदेश स्थित समस्त यूरेशिया, तिब्बत व भारतीय प्रायद्वीप, हिंदूकुश का पर्वतीय भाग का सम्मिलित भूभाग पर जो देव-लोक कहलाया ---पौराणिक हमत, हिरण्यगर्भ, ब्राह्म व पद्म कल्पों .से होते हुए ब्रह्माण्ड व पृथ्वी के सृजन उपरान्त वाराह कल्प में मानव अवतरित होचुका था |...जहां कैलाश, सुमेरु, पामीर, स्वर्ग, क्ष्रीरसागर आदि थे | गोंडवाना लेंड में उत्पन्न भारतीय प्रायद्वीप स्थित नर्मदा घाटी में विक्सित एवं उत्तर भारत तक विकास करते हुए आये ( शिव के समर्थक- ) मानव एवं उत्तर भारतीय भूभाग त्रिविष्टप ( तिब्बत ) एवं सरस्वती दृषवती के सप्तसिंधु क्षेत्र सप्तचरुतीर्थ में विक्सित ( विष्णु- इंद्र के समर्थक ) मानव ( नियंडरथलàहोमो सेपियंस समस्त विश्व में फ़ैल चुके भारतीय देव-मानव ) उन्नत हुए --प्राणी ( ज्युरासिक एवं अन्य सभी प्रकार के जीव-जंतु आदि ) व मानव..(होमो सेपियंस.) द्वारा एक सम्मिलित सभ्यता --- ब्रह्मा-विष्णु-महेश- स्वय्म्भाव मनु, दक्ष, कश्यप-अदिति-दिति द्वारा स्थापित विविध प्रकार के आदि-प्राणी सभ्यता.. ( कश्यप ऋषि की विविध पत्नियों से उत्पन्न विश्व की मानवेतर संतानें नाग, पशु, पक्षी, दानव, गन्धर्व, वनस्पति इत्यादि ) एवं देव.असुर सभ्यता

का निर्माण किया | मूल भारतीय प्रायद्वीप से स्वर्ग व देवलोक ( पामीर, सुमेरु, जम्बू द्वीप, कैलाश में दक्षिण प्रायद्वीप से उत्तरापथ एवं हिमालय की मनुष्य के लिए गम्य ( टेथिस सागर की विलुप्ति व हिमालय के ऊंचा उठने से पूर्व ) ..नीची श्रेणियों से होकर मानव का आना जाना बना रहता था... यही सभ्यता कश्यप ऋषि की संतानों देव-दानव-असुर आदि विभिन्न जीवों व प्राणियों के रूप में समस्त भारत एवं विश्व में फ़ैली एवं विश्व की सर्वप्रथम स्थापित सभ्यता देव-मानव सभ्यता कहलाई | स्वर्ग, इन्द्रलोक, विष्णुलोक, शिवलोक, ब्रह्मलोक ....सुमेरु-कैलाश ..पामीर –आदि पर्वतीय प्रदेशों में एवं स्वय्न्भाव मनु के पुत्र- पौत्रों आदि द्वारा ,काशी, अयोध्या आदि महान नगर आदि से पृथ्वी को बसाया जा चुका था | विश्व भर में विविध संस्कृतियाँ नाग, दानव, गन्धर्व, असुर आदि बस चुकी थीं | हिमालय के दक्षिण का समस्त प्रदेश द्रविड़ प्रदेश कहलाता था..जो सुदूर उत्तर तक व्यापार हेतु आया-जाया करते थे |

इस प्रकार....समस्त सुमेरु या जम्बू द्वीप देव-सभ्यता का प्रदेश था | यहीं स्वर्ग में गंगा आदि नदियाँ बहती थीं,.यहीं ब्रह्मा-विष्णु व शिव, इंद्र आदि के देवलोक थे...शिव का कैलाश, कश्यप का केश्पियन सागर, स्वर्ग, इन्द्रलोक आदि ..यहीं थे जो अति उन्नत सभ्यता थी –-- जीव सृष्टि के सृजनकर्ता प्रथम मनु स्वयंभाव मनु व कश्यप की सभी संतानें ..भाई-भाई होने पर भी स्वभव व आचरण में भिन्न थे | विविध मानव एवं असुर आदि मानवेतर जातिया साथ साथ ही निवास करती थीं | भारतीय भूखंड में उत्पन्न व विकसित मानव स्वर्ग –शिवलोक कैलाश अदि आया जाया करते थे ...देवों से सहस्थिति थी ...जबकि अमेरिकी भूखंड (पाताल लोक) व अन्य सुदूर एशिया –अफ्रीका के असुर आदि मानवेतर जातियों को अपने क्रूर कृत्यों के कारण अधर्मी माना जाता था | युद्ध होते रहते थे | शिव जो स्वयं वनांचल सभ्यता के हामी एवं मूल रूप से दक्षिणी भारतीय प्रायद्वीपीय भाग के देवता थे किन्तु मानवों तथा भारतीय एकीकरण के महान समर्थक के रूप में ब्रह्मा-विष्णु-इंद्र आदि उत्तरी भाग के देवों के साथ कार्य करने हेतु कैलाश पर बस गए एवं दक्ष पुत्री सती ..तत्पश्चात हिमवान की पुत्री पार्वती से विवाह किया | वे सभी जीव व प्राणियों –मानवों आदि के लिए समभाव रहते थे अतः देवाधिदेव कहलाये | यहाँ की भाषा देव भाषा – आदि-संस्कृत -देव संस्कृत थी जो.. आदिवासी, वनान्चलीय, स्थानीय कबीलाई व दक्षिण भारतीय जन जातियों की भाषा आदि प्राचीन भारतीय भाषाओं से संस्कारित होकर बनी थी |

आधुनिक भाषा विज्ञानियों का कथन है ...”विश्व भर में भाषाओं के आश्‍चर्यजनक

साम्‍य से यह निष्‍कर्ष निकलता है कि आर्य किसी एक स्‍थान, जैसे भारत से पश्चिमी एशिया और यूरोप में फैले। संस्‍कृत संसार की प्राचीनतम और समृद्धतम भाषा है। हर प्रकार के साहित्‍य का, जिनमें वेद-पुराण प्रमुख हैं, बहुत बड़ा भंडार उसके पास है और है शब्‍द बनाने तथा भाव व्‍यक्‍त करने का सरल एवं अनुपम ढंग तथा विश्‍व भाषा बनने की क्षमता। ऐसी दशा में संस्‍कृत यदि आर्य-सभ्‍यता की पूर्व की मूल प्रचलित भाषा रही हो तो आश्चर्य क्या |” यही तथाकथित आर्य सभ्यता पूर्व की मूल प्रचलित भाषा देव-संस्कृति ..देव-लोक की भाषा --आदि संस्कृत थी जिसे देव-वाणी कहा जाता है | वेदों की रचना इसी देव भाषा में एवं इसी देवभूमि पर हुई जिन्हें शिव ने चार विभागों में किया, जिनके अवशेष लेकर प्रलयोपरांत मानवों की प्रथम-पीढी वैवस्वत मनु के नेतृत्व में तिब्बत से भारतीय क्षेत्रों में उतरी |

अर्थात भारतीय दक्षिण प्रायद्वीप पर, हिमालय से पूर्व जब उस समय न गंगा-सिन्धु का मैदान था, न उत्तर भारतीय क्षेत्र ... इनके स्थान पर टेथिस सागर का किनारा था जो बालू व खारे पानी का मैदान था ... उस समय भी भारत में आदि-मानव रहता था जो गोंडवाना लेंड बनने के साथ ही उत्पन्न हो चुका था | अतः महाद्वीपों के पृथक होने पर भारतीय प्रायद्वीप पर विक्सित आदि-मानव के मस्तिष्क में प्राच्य गोंडवाना लेंड आदि की सारी स्मृतियाँ बनी रहीं | नर्मदा नदी की घाटी में डायनासोरों के कंकाल, अवशेष, जीवाश्म व अंडे प्राप्त हुए हैं | भारत के नर्मदा घाटी, जावा सुमात्रा, दक्षिण अफ्रिका के रोडेसिया, क्रोमन्यान और ग्रीनाल्डी में आदि मानव के अवशेष पुरातत्वविदों को प्राप्त हुए हैं. उक्त सभी स्थल गोंडवाना द्वीप समूह से हैं और साधारण रूप से पृथ्वी के मध्य रेखा पर ही स्थित हैं |

हिमालय के उत्थान के साक्षी व जम्बूद्वीप एवं देव-असुर तथा अन्य सभी जीव सभ्यताओं के स्थापक भी यही भारतीय थे जो विकास के दौरान सरस्वती –दृषवती के सप्तसिंधु क्षेत्र सप्तचरुतीर्थ से लेकर उत्तर के हिम-प्रदेश से तक समस्त विश्व में फैले | स्वय्न्भाव मनु के पुत्र-पौत्रों के बढ़ने पर उन्होंने पिता ब्रह्मा से पूछा की मानव के बसने हेतु कौन सा स्थान होगा | तब विष्णु ..आदि बाराह के रूप में जल में डूबी हुई पृथ्वी को बाहर निकाल कर लाये | जिस पर मानव बसा एवं समस्त सारी धरती पर फैला |

चित्र २ –आदि-बाराह द्वारा पृथ्वी का जल से बाहर लाना (शिलामूर्ति चित्र...बादामी.,कर्नाटक .चित्र निर्विकार) ....

पौराणिक कथन व चरित्र एवं स्थान प्रायः आज हमें इतिहास में प्राप्त नहीं होते यद्यपि कथाओं, गाथाओं व्याख्यानों आख्यानों में प्राप्त होते हैं क्योंकि उस समय वे सिर्फ श्रुति रूप में ही थे अतः कपोल-कल्पित – वाग्जाल व कल्पनायुक्त लगते हैं| वस्तुतः कल्पना शब्द ही कल्पों की अनादि-अगम्य काल में खोये समय व सृष्टि के विचार से उत्पन्न है |

चित्र-3 ..आदि-देवी दुर्गा..सूंड वाले हाथी के सिर व सिंह के शरीर वाले विचित्र जीव ( शायद ज्यूरासिक काल का डायनासोर के समान जीव- ) पर सवार त्रिदेवों द्वारा वंदना की जाती हुई....(हस्तचित्र.. हस्त लिखित महाभारत से ---सौजन्य गूगल )

चित्र-४ ... शिव-पार्वती के साथ चाइनीज़ ड्रेगन ( ज्यूरासिक कालीन डायनासोर प्राणी ) व साथ में शायद चाइनीज़ मानव - शिवगण या कुबेर ---शिव का जम्बू द्वीप के चाइनीज़ भाग से सम्बन्ध ...(शिलामूर्ति बादामी –कर्णाटक... –चित्र –निर्विकार )

चित्र ५- सूंड वाला सिंह जैसा विचित्र जानवर (ज्यूरासिक कालीन डायनासोर के समान ) –पाषाण मूर्ति...ऐहोल, विजय नगर कालीन..तुंगभद्रा घाटी अवशेष कर्नाटक ...चित्र –निर्विकार

मध्य भारत एवं दक्षिण का भारतीय पठार विश्व का प्राचीनतम स्थल है ..चार अरब वर्ष प्राचीन जितनी स्वयं पृथ्वी की आयु निश्चित की गयी है | यहाँ का तुंगभद्रा नदी क्षेत्र धरती पर सबसे प्राचीन स्थल कहा जाता है एवं स्थानीय लोग इस भूदेवी का जन्म स्थान कहते हैं | यहाँ के मानव के स्मृति में आदि-ज्युरासिक काल के पशु भी बने रहे जो मूर्तियों व हस्त-चित्रों में दिखाई देते हैं| देखें चित्र -3,४ ,५ .....

शिव महादेव-पशुपति (जायजनतोर राजाल = जीव जंतुओं के राजा ) तो सारे विश्व में आज भी... आदिदेव माने जाते हैं जो निश्चय ही शंभूसेक के परवर्तित रूप हैं | शिव को मूल रूप से दक्षिण भारतीय देवता कहा जाता है जो बाद में उत्तर में कैलाश पर निवास हेतु चले गए जहां से सारे विश्व में उनका प्रभुत्व हुआ और वे देवाधिदेव कहलाये तथा परवर्ती काल में उन्होंने अपने पुत्रों कार्तिकेय व गणेश को पुनः दक्षिण भारत की उन्नति व विकास हेतु प्रायद्वीप में भेजा |

गोंडवाना हिमयुग में गोंडवाना लेंड से भारत के विघटन व अफ्रीकी भू भाग के यूरोपियन प्लेट से जुड़ने व टेथिस सागर के पश्चिमी-मध्य भाग के विलुप्त होने के समय यहाँ आदि गोंड वर्णनों द्वारा वर्णित भारत के नर्मदा क्षेत्र में .प्रथम जलप्रलय हुआ जिसमें दक्षिण प्रायद्वीप के पर्वत व नदियाँ पुनः परावर्तित होकर वर्तमान अवस्था को प्राप्त हुए एवं विनाश को प्राप्त मानव का पुनः विकास हुआ जो संभवतया नियंडरथल, क्रो-मेग्नन, होमो-इरेक्टस थे एवं हिमालय से रक्षित उत्तरी भूभाग की ओर बढ़ने लगे |

हिमालय उत्थान के परवर्ती लगभग अंतिम काल के अभिनूतन युग के हिमयुग में महान हिमालय में उत्पन्न भूगर्भीय हलचल से हुई जल-प्रलय (–मनु की नौका घटना ) में देव-सभ्यता के विनाश पर वैवस्वत मनु ने इन्हीं वेदों के अवशेषों को लेकर तिब्बतीय क्षेत्र से भारत में प्रवेश किया ( इसीलिए वेदों में बार बार पुरा-उक्थों व वृहद् सामगायन का वर्णन आता है ) एवं मानव एक बार पुनः भारतीय भूभाग से समस्त विश्व में फैले जिसे योरोपीय विद्वान् भ्रमवश आर्यों का बाहर से आना कहते हैं |

द्वितीय महा-जलप्लावन.......

भविष्य पुराण में वर्णित द्वितीय महाजलप्लावन ( जो मूलतः वायु-प्रलय थी ) सतयुग के मध्य चरण में राजा शतरथ या दशरथ के पुत्र काशिराज खट्वाग ( दीर्घबाहु ) के समय औत्तम मनु के काल में हुई| महान देवी भक्त राजा खट्वाग को महाकाली ने स्वप्न में कहा की महान वायु से भरतखंड नष्ट होजायगा अतः आप वशिष्ठ आदि मुनियों सहित हिमालय पर जाओ | इस वायु-जलप्रलय में पश्चिम, पूर्व, दक्षिण व उत्तर सागरों,(रत्नाकर, मतादधि, वाडव एवं हिमाव्धि) के समस्त द्वीप भूखंड नष्ट होगये | पांच वर्ष तक समस्त पृथ्वी जलमग्न रही | फिर वायु ने शांत होकर समस्त जल का शोषण कर लिया | यह शायद जम्बूद्वीप के उत्तरी कुरु प्रदेश...वर्त्तमान साइबेरिया ...से उठे एक शक्तिशाली वायु के विवर्त के हिंदूकुश व हिमालय की नीची श्रेणियों को पार करके भरतखंड तक आने से हुई|

चतुर्थ हिमाच्‍छादन काल का जीव के लिए महान विपत्ति का समय था। उसकी पराकाष्‍ठा के समय उष्‍ण कटिबन्‍ध की ओर बढ़ते हिमनद एवं हिम के विवर्तों ने समस्त यूरेशिया को लपेट लिया था। अधोशून्‍य नीमान के भयंकर बर्फाताप तूफ़ान ने यूरेशिया (जम्बू द्वीप) का जीवन नष्ट-भ्रष्ट कर दिया एवं उसका प्रभाव भरतखंड तक हुआ|। इसमें नियंडरथल मानव काल की भेंट चढ़े। ऐसे समय में केवल उष्‍ण कटिबंध के आसपास पर्वतों की रक्षा-पंक्ति की ओट में ही जीवन पल सका तथा इस भीषण संकट से मुक्‍त कोने में मानव का पुनः संवर्धन (विशुद्ध मानव होमो सेपियंस में ) हो सका। जो मूलतः हिमालय के रक्षापंक्ति स्थित भरतखंड के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में हुआ |

तृतीय महा जल-प्लावन......

हिमालय उत्थान के परवर्ती लगभग अंतिम काल के अभिनूतन युग के हिमयुग में महान हिमालय में उत्पन्न भूगर्भीय हलचल से हुई तृतीय जल-प्रलय (–मनु की नौका-घटना) में देव-सभ्यता के विनाश पर वैवस्वत मनु ने वेदों के अवशेषों को लेकर तिब्बतीय क्षेत्र से भारत में प्रवेश किया तथा नवीन मानव सभ्यता का विकास किया ( इसीलिए वेदों में बार-बार पुरा-उक्थों व वृहद् सामगायन का वर्णन आता है ) एवं मानव एक बार पुनः भारतीय भूभाग से समस्त विश्व में फैले जिसे योरोपीय विद्वान् भ्रमवश आर्यों का बाहर से आना कहते हैं | 

जल प्रलय की यह घटना संसार की सभी सभ्यताओं में पाई जाती है | मनु की यह कहानी नूह या नोआ के नाम से यहूदी, ईसाई, इस्लाम सभी में वर्णित है|  इंडोनेशिया, जावा, मलयेशिया, श्रीलंका एवं अन्य देशों की धार्मिक परम्पराओं में यह कथा विविध रूप से वर्णित है|

नूह की कहानी के अनुसार जब नूह ६०० वर्ष के थे यहोबा ने स्वप्न में कहा कि तू एक जोड़ा सभी प्रकार के प्राणी समेत सारे घराने को लेकर कश्ती पर सवार होना ..में संसार में प्रलय लाने वाला हूँ | कश्ती से बाहर के सभी प्राणी नष्ट होगये | १५० दिन तक सब कुछ डूबा रहा ..जब जल उतरा तो धरती प्रकट हुई एवं कश्ती के बचे हुए जीवों से दुनिया पुनः आबाद हुई|

मत्स्य पुराण में वर्णित मनु की कहानी के अनुसार ..द्रविड़ देश के राजर्षि सत्यव्रत, जो वैवस्वत मनु हुए, के समक्ष मत्स्य रूप में प्रकट भगवान विष्णु ने कहा की आज से सातवें दिन पृथ्वी जल प्रलय में समुद्र में डूब जायेगी | एक नौका बनाकर उसमें समस्त प्राणियों सूक्ष्म शरीर एँ सब प्रकार के बीज लेकर सप्तर्षियों के साथ चढ़ जाना | मैं स्वयं नौका को मत्स्य रूप में बचाऊंगा| मनु ने वासुकी नाग की रस्सी से विशाल मत्स्य के सींग से नौका बाँध दी..मत्स्य ने नौका को लेकर हिमालय की गौरीशंकर शिखर से बाँध दिया | चालीस दिन तक महावृष्टि होती रही सारी यह धरती जलप्रलय के कारण जल से ढँक गई | कैलाश, गोरी-शंकर की चोटी तक पानी चढ़ गया था। कुछ का मानना है कि कहीं-कहीं धरती जलमग्न नहीं हुई थी। पुराणों में उल्लेख भी है कि जलप्रलय के समय ओंकारेश्वर स्थित मार्कंडेय ऋषि का आश्रम जल से अछूता रहा।

वैवस्वत मनु ..इन्हें श्रद्धादेव भी कहा जाता है द्वारा कई माह नाव में ही गुजारने के बाद उनकी नौका गोरी-शंकर के शिखर से होते हुए नीचे उतरी। गोरी-शंकर जिसे एवरेस्ट की चोटी कहा जाता है। दुनिया में इससे ऊँचा, बर्फ से ढँका हुआ और ठोस पहाड़ दूसरा नहीं है।

महाजलप्रलय से विनष्ट सुमेरु या जम्बू द्वीप की देव-मानव सभ्यता पुनः आदिम दौर में पहुँच गयी जो लोग व जातियां वहीं यूरेशिया के उत्तरी भागों में तथा हिमालय के उत्तरी प्रदेशों में फंसे रहे वे उत्तर की स्थानीय मौसम, वर्फीली हवाएं ....सांस्कृतिक अज्ञान के कारण अविकसित रहे | जो सभ्यताएं मनु के नेतृत्व में हिमालय के दक्षिणी भाग की भौगोलिक स्वस्थ भूमि पर बसी वह महान विक्सित सभ्यताएं बनीं |

गौरी शंकर शिखर पर उतर कर मनु एवं अन्य बचे हुए लोग तिब्बत में बस गए | मनु एवं नौका में बचे हुए जीवों व वनस्पतियों के बीजों से पुनः सृष्टि हुई| हिमालय की निम्न श्रेणियों को पार कर मनु की संतानें तिब्बत एवं कम ऊँचाई वाले पहाड़ी विस्तारों में बसती गईं। फिर जैसे-जैसे समुद्र का जल स्तर घटता गया वे भारतीय भूमि के मध्य भाग में आते गए। धीरे-धीरे जैसे-जैसे समुद्र का जलस्तर घटा मनु का कुल पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी मैदान और पहाड़ी प्रदेशों में फैल गए।
जनसंख्या वृद्धि और वातावरण में तेजी से होते परिवर्तन के कारण वैवस्वत मनु की संतानों ने अलग-अलग भूमि की ओर रुख करना शुरू किया। जो हिमालय के इधर फैलते गए उन्होंने ही अखंड भारत की सम्पूर्ण भूमि को ब्रह्मावर्त, ब्रह्मार्षिदेश, मध्यदेश, आर्यावर्त एवं भारतवर्ष आदि नाम दिए। यही लोग साथ में वेद लेकर आए थे जिन्होंने एक उत्कृष्ट सभ्यता को जन्म दिया जो निश्चय ही विनष्ट देव सभ्यता का संस्कारित रूप था | वैवस्वत मनु ने मनु-स्मृति के रूप में नीति-नियम पालक व्यवस्था से संपन्न किया तथा परिशोधित भाषा वैदिक-संस्कृत व लौकिक संस्कृत का गठन से एक उच्च आध्यात्मिक चिंतन युक्त श्रेष्ठ सभ्यता को जन्म दिया | वे सभी मनुष्य आर्य कहलाने लगे। आर्य एक गुणवाचक शब्द है जिसका सीधा-सा अर्थ है श्रेष्ठ। इसी से यह धारणा प्रचलित हुई कि देवभूमि से वेद धरती पर उतरे। स्वर्ग से गंगा को उतारा गया आदि|  इस प्रकार आर्य जाति...विश्व का प्रथम सुसंस्कृत मानव समूह...का भारतीय क्षेत्र में जन्म व विकास होने के उपरांत...मानव सारे भारत एवं विश्व भर में भ्रमण करते रहे सुदूर पूर्व में फैलते रहे |

इन आर्यों के ही कई गुट अलग-अलग झुंडों में पूरी धरती पर फैल गए और वहाँ बस कर भाँति-भाँति के धर्म और संस्कृति व सभ्यताओं आदि को जन्म दिया। मूलदेश से दूर बसे मानव स्व-संस्कृति को भूलने लगे तथा वे एवं स्वदेश में भी सिर्फ भौतिक सुख में डूबे, स्वयं में मस्त, अधार्मिक कृत्य व व्यवहार वाले लोगों, जातियों व सभ्यताओं को अनार्य कहा जाने लगा | मनु की संतानें ही आर्य-अनार्य में बँटकर धरती पर फैल गईं। इस धरती पर आज जो भी मनुष्य हैं वे सभी वैवस्वत मनु की ही संतानें हैं |

वैवस्वत मनु की शासन व्यवस्था में मानवों में पाँच तरह के विभाजन थे- देव, दानव, यक्ष, किन्नर और गंधर्व। वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। इसमें इक्ष्वाकु कुल का ही ज्यादा विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में कई महान प्रतापी राजा, ऋषि, अरिहंत और भगवान हुए हैं। सबसे बड़ा पुत्र अर्ध-नारीश्वर था। इसलिए उसके दो नाम थे-इल और इला। इस पुत्र से राजपरिवार की दो मुख्य शाखाओं का जन्म हुआ, इल से ‘सूर्यवंश’ और इला से ‘चन्द्रवंश’ का।

निरंतर विकास के उपरांत जनसंख्या विकास के अगले चरण में ...मानव भारतीय भूभाग से पुनः उत्तर-पश्चिम की ओर से ..अफ़्रीका, योरोप, एशिया, चाइना, और ग्रेट-बेरियर रीफ़ पार करके उत्तरी अमेरिका पहुंचा,…वहां से दक्षिण -अमेरिका- ( जो इस समय तक लारेशिया के विघटन से …उत्तरी अमेरिका व गोन्डवाना के विघटन व द.अमेरिकी भूभाग के बनने पर आपस में जुड चुके थे-) पहुंचे | आर्य-मानव सभ्यता दक्षिण की ओर ..दुर्गम विन्ध्य पार करके दक्षिण भारत में स्थापित हुई | जो अगस्त्य मुनि की कथा से तादाम्य करता है| इस प्रकार आर्य सभ्यता सम्पूर्ण भारत में पुनर्स्थापित हुई | मानव दक्षिण भारत होते हुए पूर्वी द्वीप समूहों, एडम्स ब्रिज पार करके श्रीलंका व आस्ट्रेलिया तक पहुंचे | विष्‍णु पुराण में सात पवित्र नदियों के नाम इस प्रकार हैं—‘गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्‍वती नर्मदे सिंधु कावेरी..... इस प्रकार हिमालय के दक्षिण के संपूर्ण देश को ही ‘सप्‍तसिंधु’ कहा जाता था |

विभिन्न महाद्वीपों के विचलन व वातावरण के परिवर्तन..बार बार हिमयुग…आदि के कारण…मानव…..विकास के प्रत्येक चरण में पूरे विश्व-भूभाग पर एक स्थान से दूसरे स्थान पुनः पुनः पुनर्स्थापन,परिवर्तन व गति करता रहा। अतः विभिन्न स्थानों पर अवशेष-फ़ौसिल्स आदि मिलने पर …आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा उसी स्थान के नाम से ..उसे पुकारा जाने लगा।

नृवंशशास्त्रियों के अनुसार यूरेशिया और अफ्रीका के उत्‍तरी तट के विशुद्ध मानव ( होमो सेपियंस ) एक ही मूल धारा के थे। वे गेहुँए या श्‍यामल रंग के थे, भारतीय व गोंडवाना लेंड के मानव थे । सहस्‍त्राब्दियों में वे धीरे बदलाव आया औ-धीरे गोरे हो गए। चाइना में पिंगल वर्णी हुए मानव जब अलास्‍का होते हुए नई दुनिया अमेरिका पहुँचे वे कालांतर में कुछ गौर-पिंगल वर्णी हो गए।

भारत से मानव का विश्व में प्रसार ...

चतुर्थ जल-प्लावन.....

भविष्य पुराण में वर्णित यह जलप्रलय त्रेता के द्वितीय चरण में राजा संवरण जो सावर्णि मनु के नाम से विख्यात हुए, के काल में भारत में हुआ| | मानवों ने अपने कुलों सहित महेंद्र पर्वत ( दक्षिण-पूर्व भारत ) पर शरण ली | पांच वर्ष तक पृथ्वी समुद्र के अन्दर रही तत्पश्चात अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र का जल पी लेने पर धरती बाहर आयी एवं उत्तर-पश्चिम के पर्वतीय क्षेत्र के निवासी त्रिगर्तों (...प्राचीन कांगड़ा, कुल्लू , रावी, व्यास, सरस्वती-सिन्धु -सतलुज आदि के क्षेत्र ) द्वारा पुनः प्राणि-सृष्टि की गयी | यह जलप्रलय शिवालिक श्रेणियों के अंतिम उत्थान के समय एवं सिन्धु-सरस्वती क्षेत्र में हुई भूगर्भीय हलचल का परिणाम रही होगी जिसमें सरस्वती के किनारे बसी हरप्पा सभ्यता का विनाश हुआ |

प्राचीन काल में त्रिगर्त नाम से विख्यात कांगड़ा हिमाचल की प्राचीनतम रियासत है। महाभारत काल में इसकी स्थापना सुशर्मा ने की थी। प्रचीनकाल में यह कटोच राजाओं का केंद्र रहा। कांगड़ा हिमाचल की सबसे ख़ूबसूरत घाटियों में एक है। धौलाधर पर्वत श्रंखला से आच्छादित यह घाटी इतिहास और संस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। किसी समय में यह शहर चंद्र वंश की राजधानी थी। त्रिगर्त का उल्लेख वैदिक युग में भी मिलता है। मत्स्य और त्रिगर्त पड़ोसी देश थे। उस समय त्रिगर्त का विस्तार उत्तरी राजस्थान तक था| कांगड़ा कोत्रिगर्तके अलावा नगरकोटके नाम से भी जाना जाता है।

पंचम महा-जलप्लावन .... द्वापर के अंत में सरस्वती नदी के क्षेत्र में हुई जिसमें द्वारिका समुद्र में विलीन होगई एवं सरस्वती नदी विलुप्त होजाने पर, कच्छ का रन बना एवं राजस्थान का क्षेत्र मरुभूमि में परिवर्तित होगया |

हिमालय की पहाड़ियों में प्राचीन काल से ही भूगर्भीय गतिविधियाँ चलती रही हैं। हज़ारों साल पहले सतलुज (जो आज सिन्धु नदी की सहायक नदी है) और यमुना (जो अब गंगा की सहायक नदी है) के बीच एक विशाल नदी थी जो हिमालय से लेकर अरब सागर तक बहती थी। ऋग्वेद में, वैदिक काल में इस नदी सरस्वती को 'नदीतमा' की उपाधि दी गयी है। उस सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी, गंगा नहीं।

मानसरोवर से निकलने वाली सरस्वती हिमालय को पार करते हुए हरियाणा, पंजाब व राजस्थान से होकर बहती थी और कच्छ के रण में जाकर अरब सागर में मिलती थी। उत्तरांचल के रूपण ग्लेशियर से उद्गम के उपरांत यह जलधार के रूप में आदि-बद्री तक बहकर आती थी फिर आगे चली जाती थी| तब सरस्वती के किनारे बसा राजस्थान भी हरा भरा था। उस समय यमुना, सतलुज व घग्गर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ थीं। बाद में सतलुज व यमुना ने भूगर्भीय हलचलों के कारण अपना मार्ग बदल लिया और सरस्वती से दूर हो गईं| महाभारत में सरस्वती नदी को प्लक्षवती, वेद-स्मृति, वेदवती आदि नामों से भी बताया गया ही | पारसियों के धर्मग्रंथ जेंदावस्ता में सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है। ऋग्वेद (२ ४१ १६-१८) में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। यह नदी सर्वदा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे अन्न की प्रचुर उत्पत्ति होती थी।

ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का उल्लेख है,

'इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या

असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोभया'|

कुछ मनीषियों का विचार है कि ऋग्वेद में सरस्वती वस्तुत: मूलरूप में सिंधु का ही पूर्व रूप है। क्योंकि गंगा, यमुना सरस्वती के अलावा ये सभी पांच नदियाँ आज सिन्धु की सहायक नदियाँ हैं छटवीं द्रषद्वती है, सिन्धु नदी का नाम नहीं है | ऋग्वेद ७.३६.६ में सरस्वती को सप्तसिन्धु नदियों की जननी बताया गया है | इस प्रकार इसे सात बहनें वाली नदी कहा गया है –

“उतानाह प्रिया प्रियासु सप्तास्वसा, सुजुत्सा सरस्वती स्तोभ्याभूत ||

सातवीं बहन सिन्धु होसकती है जो उस समय तक छोटी नदी रही होगी | सरस्वती के सूखने पर पांच सहायक नदियों से आपलावित होकर आज की बड़ी नदी बनी | सरस्वती और दृषद्वती परवर्ती काल में ब्रह्मावर्त की पूर्वी सीमा की नदियां कही गई हैं।

ऋग्वेद में सरस्वती केवल 'नदी देवता' के रूप में वर्णित है किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए है।

त्रेतायुग तक सरस्वती मौजूद थी | वाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है ...

'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम् |

परन्तु द्वापर युग में सरस्वती नदी लुप्त हो गई थी| जिस स्थान पर मरुस्थल में वह लुप्त हुई उसे विनशन कहते थे। महाभारत काल में तत्कालीन विचारों के आधार पर यह किंवदंती प्रसिद्ध थी कि प्राचीन पवित्र नदी (सरस्वती) विनशन पहुंचकर निषाद नामक विजातियों के स्पर्श-दोष से बचने के लिए पृथ्वी में प्रवेश कर गई थी।

हड़प्पा सभ्यता की अधिकाँश बस्तियां सरस्वती के तट पर पायी जाती हैं अतः अब शोधों से सिद्ध होगया है की हड़प्पा सभ्यता मूलतः सरस्वती सभ्यता थी |

आधुनिक खोजों के अनुसार लगभग ५००० वर्ष पूर्व अरावली पर्वत श्रेणियों के उठने से उत्पन्न भूगर्भीय एवं सागरीय हलचलों में राजस्थान की भूमि उठने से यमुना जो दृशवती की सहायक नदी थी पूर्व की ओर बहकर गंगा में मिल गयी तथा सतलज आदि अन्य नदियाँ पश्चिम की ओर सिन्धु में मिल गयीं | सरस्वती के विशाल जलप्रवाह द्वारा समस्त भूमि पर उत्पन्न जलप्रलय ने स्थानीय सभ्यता का विनाश किया एवं स्वयं नदी सूख कर विभिन्न झीलों में परिवर्तित होगई | हरियाणा व राजस्थान के विभिन्न सरोवर व झीलें ब्रह्मसर, ज्योतिसर, स्थानेसर,खतसर,रानीसर,पान्डुसर; पुष्कर सरस्वती के प्राचीन प्रवाह-मार्ग में ही हैं... इस प्रकार सरस्वती विलुप्त होगई एवं द्वापर युग में सरस्वती में जल प्रवाह कम रह जाने से पर राजथान का थार मरुस्थल एवं कच्छ का रन बन गए| द्वापर के अंत में सागरीय हलचल में गुजरात जो सागर में एक द्वीप था उस पर बसी द्वारका समुद्र में समा गयी |

हिमालय की पहाड़ियों में प्राचीनकाल से ही समय समय पर भूगर्भीय गतिविधियाँ चलती रही हैं जो जल प्रलय ...भूकम्पों ...भू परिवर्तनों का करण बनाती रही हैं । इन्हीं जल प्लावनों की क्रमिकता में अभी हाल में ही आयी केदारनाथ जलप्रलय एवं कश्मीर में आये जल प्लावन को भी रखा जा सकता है |

आध्यात्म व व्यवहारिक संसारी जगत में इन घटनाओं को मानव के पापों, अनाचारों, दुष्कृत्यों का परिणाम मना जाता रहा है जिस प्रकार देव संस्कृति के विनाश पर द्वितीय जलप्रलय के नायक मनु की विचारपूर्ण स्मृतियों से मनु-स्मृति का उद्भव हुआ |

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रचनाकार: श्याम गुप्त का आलेख - जल-प्रलय की अवधारणा का ऐतिहासिक, वैज्ञानिक व मिथकीय विवेचना
श्याम गुप्त का आलेख - जल-प्रलय की अवधारणा का ऐतिहासिक, वैज्ञानिक व मिथकीय विवेचना
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