डिनर विद डब्बू / प्रमोद यादव ‘ एक बात तो बताओजी..आप का सिर कैसे घूम गया है ? ‘ पत्नी चाय का मग थमाते बोली. ‘ क्यों ? क्या हुआ ? मैंने क्या ...
डिनर विद डब्बू / प्रमोद यादव
‘ एक बात तो बताओजी..आप का सिर कैसे घूम गया है ? ‘ पत्नी चाय का मग थमाते बोली.
‘ क्यों ? क्या हुआ ? मैंने क्या किया भई ? पति ने चौंकते हुए पूछा.
‘ अरे ..आप भी पूरे बुद्धू के बुद्धू ही ठहरे..आप से मेरा मतलब पार्टीवाले से है.. दिल्ली के मफलर वाले की पार्टी से..’
‘ अरे तो ऐसा कहो न..तुम आप-आप करोगी तो मैं खुद को ही समझूँगा न ..हाँ ..बोलो-क्या कह रही थी ? ‘
‘ अजी मैं सुनी हूँ कि वे कल मुंबई में डिनर पार्टी कर रहे हैं..’
‘ तो तुम्हें इससे क्या भई ? ‘ पति ने कहा.
‘ पहले पूरी बात तो सुना कीजिये..कहते हैं कि जिनको उनके साथ डिनर करना है वे बीस हजार रूपये देकर कर सकते हैं..इतनी महँगी थाली तो राजे-महाराजे भी कभी न खाए हों फिर ये जनाब क्यों इतनी महँगी थाली खाने-खिलाने पर तुले हैं..और फिर इनके साथ बैठकर खायेगा कौन ? मुंबई में तो बीस रूपये में भरपेट भोजन मिल जाता है..’ पत्नी बोली.
‘ अरे यार तुम कहना क्या चाहती हो ? ‘
‘ यही कि ये डिनर पार्टी का माजरा क्या है ? ‘
‘ भई ..वे पार्टी के लिए फंड जुटा रहे हैं..लोगों से दान मांग रहे हैं..लंच-डिनर केवल प्रतीक है..अब खाली-पीली कैसे रूपये लें इसलिए डिनर खिलाकर ले रहे..’ पति ने समझाया.
‘ बहुत खूब ..जब सारी पार्टियां चुनावी रणनीति बना रही है तो इन्हें अभी फंड सूझ रहा है ? एकदम ही ठन- ठन गोपाल पार्टी है क्या ? वैसे इन्हें कितने रूपये चाहिए ?’
‘ तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे अभी अंटी से निकाल इनके फंड को लबालब कर दोगी..’
‘ अरे..मैं क्या लबालब करुँगी ? मैं तो यूं ही पूछ रही थी..’
‘ तो सुनो..पिछले चुनाव में शायद बीस करोड़ का फंड इकट्ठा किये थे..इस बार चालीस करोड़ का इनका टारगेट है..’
‘ क्या ??? चालीस करोड़ ???..अरे बाप रे..इतना कौन देगा ? और कैसे देगा ?..नहीं जी..इतने दानी तो हमारे लोग नहीं हैं..कुछ रकम ये उधार भी लेते होंगे..’ पत्नी बोली.
‘ अरे यार..राजनीति में कहीं कोई उधार नहीं होता ..सब नगद-नगद होता है..बेवकूफ होते हैं वे जो उधार ले चुनाव लड़ते हैं..चुनाव न तो घर के पैसों से लड़ा जाता है ना ही उधार के पैसों से..चुनाव हमेशा मतदाताओं के पैसों से लड़ा जाता है..इसलिए वे बीस हजारी डिनर में आमंत्रित कर रहे.. पहले इन्हें आन-लाईन ही काफी फंड मिल जाता था पर जबसे इस्तीफा दिया सारे लोग बे-लाईन हो गए..’ पति ने डिटेल में समझाया.
‘ वाह.. तरीका तो बढ़िया है..लेकिन ऐसी महँगी थाली खाता कौन हैं ? ‘
‘ अरे पिछले चुनाव में भी उन्होंने ये कार्यक्रम किया था..बंगलुरु और नागपुर में..तब डिनर का रेट दस हजार था..महंगाई बढ़ी है इसलिए इस बार बीस हजार किये हैं..’
‘ पहले बताईये तो सही कि ये लंच-डिनर इनके साथ करते कौन है ? ‘ पत्नी पूछी.
‘ भई ..जाहिर है पैसेवाले ही करेंगे..उद्योगपति..व्यापारी..सिने-स्टार..बैंकर्स आदि-आदि..’
‘ अरे ये तो सरासर अन्याय है..डिनर इन्हें खिलाएं और वोट आम आदमी से मांगे..’ पत्नी बोली.
‘ अरे भागवान जिसके पास जो होगा वही तो उससे मांगेंगे..अब भला किसी आम आदमी से वे डिनर में शामिल होने बीस हजार मांगे तो गरीब बन्दा कहाँ से दे ? वो तो केवल वोट भर दे सकता है..उसकी इतनी ही औकात है..’
‘ अच्छा..एक बात और बताईये...जो लोग उनके साथ डिनर करते हैं,क्या वे उन्हें या उनकी पार्टी को वोट देते हैं ? ‘
‘ डिनर खाने वाले जो होते हैं वे किसी भी पार्टी के नहीं होते जी ..जो पार्टी जीत जाती है..सरकार बनाती है, वे आटोमेटिकली फिर उसके हो जाते हैं..’
‘ मतलब कि सभी मतलबी होते हैं..काम से काम रखते हैं..बीस हजार लगाया तो वक्त आने पर बीस लाख वसूल लेते हैं..’ पत्नी हिसाब लगा बोली.
‘ वाह..बिलकुल ठीक कहा तुमने..तुम्हें तो राजनीति की अच्छी समझ है..’ पति ने तारीफ़ की.
‘ मैं एक बात सोच रही हूँ जी..क्यों न हम भी इसी तर्ज पर फंड इकट्ठा करें..उनकी पार्टी की तरह हम भी तो ठन- ठन गोपाल हैं.. ’ पत्नी कुछ गंभीर मुद्रा में बोली.
‘ मतलब ? ‘ पति चौंका.
‘ मतलब कि उधार तो तुम किसी से लेते नहीं..अपनी शान के खिलाफ समझते हो..और कोई उधार आपको देगा भी नहीं.. न ही कभी आपकी कोई लाटरी लगने वाली..तो हम भी यही करते हैं- डिनर विद डब्बू ... आप नगरीय निकाय के चुनाव में खड़े हो जाईये.. लंच-डिनर से जो पैसा आएगा उसमे से थोडा बहुत खर्च कर बाकी से सोने-चांदी के आठ-दस गहने बनवा लेंगे..आप तो बनवाने से रहे..’ पत्नी एक सांस में शिकायत भरे स्वर में बोली.
‘ अरे यार ..कैसी बात करती हो ? मैं और चुनाव ?..कोई भी पार्टी मुझे टिकिट नहीं देगा..’ पति बोला.
‘ अरे टिकिट का जिम्मा मैं लेती हूँ ..मेरे दिल्ली वाले चाचा दिला देंगे..आप केवल फंड का टारगेट बताओ..कितना खर्च करना है और कितना दबाना है.. पैसा दबाने में बड़ा मजा आता है..’
‘ तो बताओ..मेरा कितना पैसा दबाकर रखी हो ? ‘ पति ने अविलम्ब पूछा.
‘ अरे नहीं जी..यूं ही मुंह से निकल गया.. हाँ..तो कहिये आप तैयार हैं न चुनाव लड़ने ? ‘
‘ ठीक है..तुम कहती हो तो लड़ लेता हूँ पर फंड न आये तो लड़ना मत..मुझे नहीं लगता कि मेरे साथ कोई भलामानुष डिनर लेगा भी..’ पति ने संदेह व्यक्त किया.
‘ अरे शुभ- शुभ बोलो जी..हफ्ते भर के अन्दर ही सब कुछ होना है..मैं अभी चाचाजी से बात करती हूँ..परसों नामांकन भरना और उसी दिन से “ डिनर विद डब्बू “..’
पत्नी के असीम प्रेम और प्रयास से पति डब्बू को टिकिट मिल जाता है..वह फार्म भरता है..और उसी दिन वह “डिनर विद डब्बू” का एलान कर देता है. पत्नी चाहती थी कि डिनर - रेट दस हजार घोषित कर दे पर पति नहीं चाहता ..डरता है कि ऐसा करने से एक भी मतदाता नहीं आएगा और वह भारी मतों से हार जाएगा इसलिए पत्नी को समझाता है कि डिनर के बाद उन्हें बिल भेज देंगे..पत्नी कहती है कि अगर बाद में लोगों ने नहीं दिया तो ? पति समझाता है कि रेट घोषित करने से तो तय है कि अकेले उसे ही डिनर लेना होगा..फिर थोक में बचे भोजन का क्या होगा ? बड़ी विकट स्थिति हो जाती है..आखिरकार तय होता है कि डिनर पहले खिला दिया जाए..फंड बाद में माँगा जाए.. पत्नी अपनी जिंदगी भर की “ दबाई गई राशि “ को खर्च कर पांच सौ स्पेशल थाली बनवाती है और घर के पीछे विशाल बाड़े में पंडाल लगा सबको खिलाती है..मोहल्ले के सारे मतदाता हो-हल्ला करते पूरा डिनर टिड्डी दल की तरह मिनटों में चाट जाते हैं..
दूसरे दिन सारे मतदाताओं से घर-घर जाकर डब्बू मियाँ डिनर के एवज में दान मांगते हैं-वो भी प्रति व्यक्ति-दस हजार.. लोग इनकार करते उस पर हंसते हैं और उसे पागल कहते हैं..डब्बू उन्हें धमकी देता है..देख लेने की बात करता है..मतदाता उलटे उन्हें दिखा देते हैं..चुनाव में हरा देते हैं..वह पत्नी पर काफी बिगड़ता है..बात-बात पर उसे रगड़ता है..असफलता को लेकर दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं.. काफी तू- तू -मैं-मैं करते हैं.. दोनों में खूब लड़ाई होती है..तभी पोस्टमैन एक पत्र दे जाता है.. पत्र खोलकर दोनों पढ़ते हैं-उसमें लिखा होता है-
‘आदरणीय बंधू... नमस्कार.. हम दिल्ली विधान सभा चुनाव में अपनी पार्टी के लिए फंड इकठ्ठा करने आपके शहर आये हैं..सूचित करते हर्ष होता है कि हमारा फंड रेजिंग डिनर परसों जयंती स्टेडियम में आयोजित है.. हमारी टीम ने आपको चुना है..आप सादर आमंत्रित हैं..कृपया..साथ में बीस हजार रूपये नगद जरुर लायें..चेक-डी.डी. भी चलेगा..समय से आधा घंटे पूर्व पहुंचें और अपना दान जमा कराएँ..और पार्टी-प्रमुख के साथ डिनर का लुत्फ़ उठायें.. आप का दान-हमारा कल्याण ..धन्यवाद.. आप का ..’
पति एक झटके से पत्र को फाड़ देता है और पत्नी से कहता है- ‘ अब छोडो भी यार ..जो हो गया सो हो गया..थोबड़ा ठीक करो..डिनर विद डब्बू भूलो और “डिनर विद डियर” करो ..जैसा रोज करती थी- एकदम ही मुफ्त..हाँ डिनर के बदले अपने मन से कुछ फंड या दान देना चाहोगी तो बंदा हाजिर है.. देखो..आज मौसम भी काफी आशिकाना है..जो दोगी-कबूल..’
‘ धत्..’ कहते पत्नी शरमाकर किचन की ओर भाग जाती है.
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प्रमोद यादव
गयानगर , दुर्ग , छत्तीसगढ़
हमेशा की तरह लाजवाब प्रमोदजी कभी कभी मुझे रश्क होता है कि मैं आप सरीखा सोंच और लिख क्यों नहीं पाता ? इस सुन्दर रचना के लिए बधाई
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