करें राष्ट्र का पुनर्निर्माण : इंडिया हटाइए भारत लौटाइए पाठकों, इस समय मुझे आपकी मदद की सख्त जरूरत है। मेरी बहुत कीमती चीजें खो गई हैं। मैं...
करें राष्ट्र का पुनर्निर्माण : इंडिया हटाइए भारत लौटाइए
पाठकों,
इस समय मुझे आपकी मदद की सख्त जरूरत है। मेरी बहुत कीमती चीजें खो गई हैं। मैं नहीं समझ पा रही हूं कि इन्हें कहां ढूंढूं, किस थाने में रपट लिखवाऊं?
मेरी इन खोई हुई बहुमूल्य निधियों की सूची बड़ी लंबी है। एक को स्मरण करती हूं तो दो और याद आ जाती हैं। इनका खो जाना मैं रोक नहीं पा रही हूं और इन्हें ढूंढ भी नहीं पा रही हूं। इस आशा और विश्वास से आपको बता रही हूं कि आप प्रतिभाशाली हैं, योग्य हैं, जरूर कोई उपाय करेंगे मेरी खोई हुई सम्पदाओं को खोज निकालने का।
तो सुनिए, मेरा देश खो गया है। मेरे देश का नाम ही खो गया है। कभी मेरे देश का नाम ‘भारतवर्ष’ था, अब ‘इंडिया’ हो गया है। मेरा देश जिसका नामकरण कर्मभूमि के प्रारम्भ में आदि तीर्थंकर भगवान श्री ॠषभनाथ के पुत्र भरत के नाम पर हुआ था, भगवान श्री राम के अनुज भरत ने जिसे अपने आदर्श चरित्र से सार्थक किया था और कालीदास के भरत ने भी जिसे गौरवान्वित किया, वह देश जिसमें राम की मर्यादा का पालन होता था, कृष्ण की वंशी की मधुर स्वर लहरी यमुना की तरंगों से अठखेलियां खेलती थी, महावीर की दिव्य ध्वनि का निनाद जिसमें गुंजायमान था, बुद्ध का बोधित्व जिसमें मनस्वियों के चिंतन को प्रखरता देता था, खो गया है। मेरा वह महान भारतवर्ष जिसमें सुख था, शांति थी, समृद्धि और संतोष था, जिसमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा जनजीवन का आधार थी, जिसमें केवल मनुष्य ही नहीं, जीव मात्र के प्रति वात्सल्य और करुणा थी कहीं खो गया है, ‘इंडिया’ हो गया है।
कैसा था वह भारतवर्ष?
अंग्रेजों के आगमन तक हमारा भारतवर्ष कैसा था? कैसा था वह भारतवर्ष जो सोने की चिडि़या कहलाता था? जिसके बारे में अंग्रेज लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में कहा था कि इस देश के कोने-कोने में भ्रमण करने पर भी मुझे न कोई भिखारी मिला, न कोई चोर। यह देश उच्च प्रतिभासंपन्न लोगों का देश है, अत: इसे गुलाम नहीं बनाया जा सकता।
यह बात शायद आप जानते हों कि भारत को निराधार ही सोने की चिडि़या नहीं कहा जाता था। हमारा देश वस्तुत: इस उपमा के योग्य था कभी। विदेशी व्यापार की वर्तमान स्थिति को देखकर यह अविश्वसनीय लगता है कि कभी हम विश्व के कुल निर्यात का तैंतीस प्रतिशत निर्यात किया करते थे। दैनिक उपभोग की उत्तम गुणवत्ता युक्त वस्तुएं हम समग्र विश्व को बहुत ही उचित मूल्य पर उपलब्ध कराते थे और बदले में लेते थे केवल हीरे, जवाहरात, सोना और चांदी। हमारे देश का कपड़ा इतना मृदु और महीन होता था कि पाश्चात्य देशों की संभ्रान्त महिलाएं भारतवर्ष से कपड़ा लेकर जाने वाले जहाजों की प्रतिक्षा में अपने कारिंदों को रात-रात भर समुद्र तट पर खड़ा रखतीं थीं, इस भय से कि कहीं प्रात:काल से पूर्व ही सारा कपड़ा बिक न जाए और उन्हें भारत के उच्च कोटी के वस्त्रों से वंचित ही रहना पड़े। हमारे देश में निर्मित इस्पात(स्टील) इतना अद्भुत था कि सालोंसाल पानी में पड़ा रहने पर भी उसमें जंग नहीं लगता था। देश की राजधानी दिल्ली में कुतुब मीनार के समक्ष शान से सिर उठा कर खड़ा हुआ मेहरौली का लोहस्तंभ इसका जीवंत प्रमाण है। हमारे इस्पात की इसी गुणवत्ता के कारण तो ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाजों में भारतीय इस्पात का बहुतायत से उपयोग होता था। तब हम एक कृषि प्रधान समाज न होकर उध्योग प्रधान समाज थे। कुटीर उध्योगों का एक सुविस्तृत मजबूत ढांचा था जिसमें हर हाथ के लिए काम था और हर तरह की योग्यता के लिए सम्मानपूर्ण स्थान था। साथ ही प्राप्त आय के न्यायोचित वितरण की कुछ ऐसी व्यवस्था थी जो समाज के हर वर्ग को इतना संतुष्ट, समृद्ध और नैतिक बनाए रखती थी कि किसी को भी जीवनयापन के लिए चोरी या भिक्षावृत्ति जैसे उपाय अपनाने का विचार भी नहीं आता था। घरों में ताले लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लार्ड मैकाले को चोर और भिखारी मिलते भी तो कहां से्?
हम कृषिप्रधान समाज न होकर भी कृषि में उन्नत थे। बहुत थोड़ी भूमि में इतना उत्पादन कर लेते थे कि कहीं भी भोजन अभाव नहीं था। हमारे खेतों में काम आने वाले कृषि उपकरणों के नमूने अंग्रेजों द्वारा अपनी सरकार को मिसाल के तौर पर भेजे गए थे ताकि उनकी नकल करके ब्रिटेन में भी उन्नत कृषि की जा सके। अंग्रेज तबतक तकनीकी कृषि से वाकिफ नहीं थे। भारतवर्ष की हस्त कलाएं अद्वितीय रूप से विदेशों में लोकप्रिय थीं। अन्य और बहुतेरी विशेषताओं के साथ भारत विश्व व्यापार में सिरमौर बना हुआ था।
यह जानकारियां मुझे भी न होतीं यदि मेरे गुरु पू. संत श्री विद्यासागरजी ने मुझे भारत का असली इतिहास पढ़ने के लिए प्रेरित न किया होता। वर्तमान में विद्यालयों में हमारे देश का जो इतिहास पढ़ाया जाता है वह हमारे पतन का इतिहास है जो हमें आत्महीनता से भर देता है। वास्तविक भारत को जानने, समझने के लिए उन्होंने मुझे स्व. धर्मपाल जी की दस पुस्तकें पढ़ने की प्रेरणा दी, जो कि स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के निकट सहयोगी थे। इन किताबों में दर्ज भारतवर्ष के इतिहास ने मुझे रोमांचित कर दिया। इन्हें पढ़कर ही मैं जान पाई कि मेरे देश को जगद्गुरु या सोने की चिडि़या कहना कोई गल्प नहीं था। ये दस पुस्तकें स्व. धर्मपाल जी द्वारा रचित ग्रंथ न होकर अधिकतर उन पत्रों का संकलन है जो भारत आने वाले विदेशी व्यापारियों ने भारत की समृद्ध जीवन शैली और उन्नत तकनीक से अभिभूत होकर अपनी सरकार को लिखे थे। अत: इन दस पुस्तकों में रचयिता ने देशप्रेम के वशीभूत भारतवर्ष की महानता के वर्णन में कोई पक्षपात किया होगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। इन दस पुस्तकों में अंग्रेजों की कलम से लिखा गया भारतवर्ष का वह उज्जवल इतिहास है, जो हम पर कभी उजागर ही न हो पाता यदि स्व. धर्मपाल जी ने लगातार वर्षों तक पाश्चात्य जगत के ग्रंथालयों और संग्रहालयों की धूल न फांकी होती। इस खोज में उन्होंने अपना जीवन खपा दिया पर इन किताबों के रूप में हमारे हाथों में खोए हुए भारतवर्ष की तस्वीर थमा गए।
ई. सन् १४९८ में वास्कोडिगामा द्वारा भारतवर्ष को खोज लेने के उपरान्त मुगल शासक जहांगीर के शासनकाल में पाश्चात्य विश्व के कई देशों से व्यापारिक प्रतिष्ठानों(कम्पनियों) का आगमन हमारे देश में प्रारंभ हुआ। विभिन्न देशों के ये प्रतिष्ठान आए तो थे व्यापार करने लेकिन यहां की समृद्धि और उच्च जीवन स्तर देखकर उनकी आंखें चौंधिया गई। ऐसे संपन्न भू-भाग पर कब्जा करने के लिए उनमें आपस में ही तीव्र प्रतिस्पर्धा छिड़ गई। तत्कालीन मुगल शासकों की अविवेकपूर्ण नीतियों के परिणाम स्वरूप इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी इस प्रतिस्पर्धा में विजयी रही जिसे सेतु बनाकर भारत की सत्ता के सूत्र अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर के हाथ से निकलकर अंतत: इंग्लैंड की महारानी के हाथों में पहुंच गए। हम सोते रहे, लुटते रहे और ‘भारतवर्ष’ इंडिया हो गया। तात्कालीन रजवाडों की आपसी फूट और अंग्रेजों की लूट और शोषण की राजनीति के एक लंबे सिलसिले ने हमें एक गरीब और गुलाम देश बनाकर रख दिया। बंदर और सपेरों का नाच दिखाने वाले, अशिक्षित और अंधविश्वासों में जकड़े हुए देश के रूप में हमारी प्रसिद्धी हो गई। जगद्गुरु की उपाधि धारण करने वाला गौरवमयी भारतवर्ष खो गया। अब हमारे देश का नाम इंडिया हो गया। अब हम भारतीय नहीं रह गए, इंडियन हो गए। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के अंग्रेजी शब्दकोष में जिसका अर्थ लिखा गया ‘’आपराधिक प्रवृत्ति के पुरातन पंथी लोग’’ । विश्व को अहिंसा का संदेश देने वाला, युद्ध और व्यापार में भी उच्च नैतिक सिद्धांतो का पालन करने वाला देश हिंसक, साम्राज्यवादी ताकतों के षड्यंत्र का शिकार होकर ‘’ओल्ड फैशन्ड अफेन्सिव’’ के रूप में दर्ज हो गया। यह पढ़कर हृदय क्रंदन कर उठा।
‘’ओल्ड फैशन्ड अफेन्सिव’’ मुझे स्वीकार नहीं है अपने लिए, अपने देशवासियों के लिए यह संबोधन। क्या आपको स्वीकार है? क्या हम भारतवासी ऐसे हैं?
यदि नहीं तो आज से ही प्रारंभ कर दीजिए अपने देश को इंडिया से पुन: भारतवर्ष बनाने का उद्यम। एक अकेला मैकाले भारतवर्ष को इंडिया बनाने में सफल हो गया तो क्या हम सवा अरब भारतीय इंडिया को पुन: भारत बनाने में सफल नहीं होंगे?
हम अवश्य ही सफल होंगे, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है। हमारा देश आज भी प्रतिभा संपन्न लोगों का देश है। हमारा भारतवर्ष जो कभी हमारे दिलों में बसता था, उसे हम अपने दिलों में ही पुन: पा सकें तो अवश्य ही सफल होंगे। इस सफलता को पाने के लिए हम भारतवासी पहला संकल्प यह करें कि हम सब अब देश में रहें या देश से बाहर हर अवसर पर अपने देश को भारतवर्ष और स्वयं को भारतीय ही कहेंगे, इंडिया और इंडियन नहीं।
हम स्वयं ऐसा संकल्प करें और हर देशवासी तक यह संकल्प पहुंचाने के लिए अपने आसपास के लोगों से लगातार संवाद करें और उन्हें भी यह संकल्प करने के लिए प्रेरित करें। विदेशों में बसे अपने भारतीय स्वजनों और मित्रों से खासतौर पर यह अपेक्षा करें कि वे अब अपने देश को इंडिया न कहकर भारतवर्ष ही कहें। भारत सरकार तक यह संदेश पहुचाने का उद्यम करें कि अब अंतर्राष्ट्रीय पत्राचार और व्यापार में अपने देश के लिए भारतवर्ष और देशवासियों के लिए भारतीय शब्द का ही उपयोग किया जाए, इंडिया और इंडियन का नहीं। हम अपने विदेशी मित्रों से भी दृढ़तापूर्वक आग्रह करें कि हमारे देश को भारतवर्ष ही कहा जाए, इंडिया नहीं और हमें भारतीय कहा जाए इंडियन नहीं। हम ऐसा कर सकें तो ही हमारे कौशल की सार्थकता है और जीवन की भी। भारतवर्ष के पुनर्निर्माण के लिए हम में से प्रत्येक को कटिबद्ध योद्धा बनना होगा।
किसी बदलाव का कोई तयशुदा नुस्खा नहीं होता। बदल सकता है जो खुदको वही सबको बदलता है।।
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विजयलक्ष्मी जैन सेवानिवृत्त उपजिलाधीश भारतीय भाषा अभियान ६१, रजत जयंति समूह योजना क्रमांक ५४, इन्दौर चलित दूरभाष क्र. ९४२५३५६७२४
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