सुदामा पांडेय धूमिल 9 नवम्बर को जन्मदिवस पर विशेष सुदामा पांडेय धूमिल साठोत्तर हिन्दी कविता के शलाका पुरूष हैं․ उन्होंने पहली कविता तब ...
सुदामा पांडेय धूमिल 9 नवम्बर को जन्मदिवस पर विशेष
सुदामा पांडेय धूमिल साठोत्तर हिन्दी कविता के शलाका पुरूष हैं․ उन्होंने पहली कविता तब लिखी जब वे सातवीं में पढ़ते थे, उनके प्रारम्भिक गीतों का संग्रह ‘बाँसुरी जल गई' है जो फिलहाल अनुपलब्ध है․ उन्होंने अपने 38 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में सिर्फ एक कविता संग्रह ‘संसद से सड़क तक' 1972 में प्रकाशित करवा पाए थे․ उनकी दूसरी कविता संग्रह ‘कल सुनना मुझे' उनके निधन के बाद ही प्रकाशित हो पाया․ तीसरा कविता संग्रह ‘सुदामा पांडेय का लोकतंत्र' 1983 में उनके पुत्र रत्नाकर पांडेय ने प्रकाशित करवाया․
सुदामा पांडेय धूमिल सही अर्थों में जनकवि थे․ उनकी कविताओं के केन्द्र में जनता का उत्पीड़न, सत्यविमुख सत्ता, मूल्यरहित व्यवस्था, असमाप्त पाखंड, लोकतंत्र को आकार-अस्तित्व देने वाले अनेक संस्थानों के प्रति मोहभंग, रहे हैं․ धूमिल की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे शब्दों को खुददुरे यथार्थ पर ला खड़ा किया है․ भाषा और शिल्प की दृष्टि से उन्होंने एक नई काव्यधारा का प्रवर्तन किया है․
प्रसिद्ध वरिष्ठ कवि अशोक बाजपेयी ने धूमिल के संबंध में ‘संसद से सड़क तक' में ठीक लिखा है कि ‘धूमिल के यहां अनुभूतिपरकता और विचारशीलता, इतिहास और समझ, एक-दूसरे से घुले-मिले है और उनकी कविता केवल भावात्मक स्तर पर नहीं बल्कि बौद्धिक स्तर पर भी सक्रिय होती है․' श्री बाजपेयी धूमिल की एक कविता ‘उस औरत की बगल में लेटकर' का उदाहरण देते हुए कहते है कि ‘इस कविता में किसी तरह का आत्मप्रदर्शन, जो इस ढ़ंग से युवा कविताओं की लगभग एकमात्र चारित्रिक विशेषता है, नहीं है बल्कि एक ठोस मानव स्थिति की जटिल गहराईयों में खोज और टटोल है जिसमें दिखाउ आत्महीनता के बजाय अपनी ऐसी पहचान है जिसे आत्म साक्षात्कार कहा जा सकता है․ उतरदायी होने के साथ धूमिल में गहरा आत्मविश्वास भी है जो रचनात्मक उत्तेजना और समझ के घुले-मिले रहने से आता है और जिसके रहते वे रचनात्मक सामग्री का स्फूर्त लेकिन सार्थक नियंत्रण कर पाते है․ यह आत्मविश्वास उन अछूते विषयों के चुनाव से भी प्रकट होता है जो धूमिल अपनी कविताओं के लिए चुनते हैं․ ‘मोचीराम', ‘राजकमल चौधरी के लिए', ‘अकाल दर्शन', ‘गाँव', प्रौढ़ शिक्षा' आदि कविताएं, जैसा की शीर्षकों से भी आभास मिलता है, युवा कविता के संदर्भ में एकदम ताजा बल्कि कभी-कभी तो अप्रत्याशित भी लगती है․'
‘बीस साल बाद' नामक कविता में धूमिल अपने आप से सवाल करते हैं-
क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है ?
और बिना किसी उत्तर के आगे बढ़ जाता हॅूं
चुपचाप
प्रसंगवश यह जानना समीचीन है कि धूमिल का दूसरा कविता संग्रह ‘कल सुनना मुझे' उनके निधन के बाद प्रकाशित हुआ और हिन्दी के उत्कृष्ट साहित्य अकादमी पुरूस्कार से नवाजा गया․ उनकी बहुचर्चित कविता ‘मोचीराम' एनसीइआरटी के स्कूली पाठ्य पुस्तक में शामिल किया गया था जिसे 2006 में भाजपा के प्रतिरोधस्वरूप पाठ्य पुस्तक से हटा दिया गया था और उनकी दूसरी कविता ‘घर में वापसी' को ‘मोचीराम' के स्थान पर दिया गया․
‘मोचीराम' में कवि धूमिल कहते है-
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाते हुए स्वर में
वह हँसते हुए बोला
बाबूजी सच कहॅूं मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है ।
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिए खड़ा है ।
गरीबी पर करारा व्यंग्य करते हुए ‘घर में वापसी' नामक कविता में धूमिल कहते हैं-
‘मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं
माँ की आँखें
पड़ाव से पहले ही
तीर्थयात्रा की बस के
दो पंचर पहिये है ।
पिता की आँखें
लोहसाँय-सी ठंडी शलाखें हैं
बेटी की आँखें
मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिये हैं ।
पत्नी की आँखें आँखें नहीं
हाथ है जो मुझे थामे हुए हैं ।
वैसे हम स्वजन है
करीब है
बीच के दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर गरीब हैं ।
रिश्ते हैं
लेकिन खुलते नहीं है ।
और हम अपने खून में इतना भी लोहा
नहीं पाते
कि हम उससे एक ताली बनाते
और भाषा के भुन्नासी ताले को खोलते
रिश्तों को सोचते हुए
आपस में प्यार से बोलते
कहते कि ये पिता है
यह प्यारी माँ है
यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते, तू मेरी
हमबिस्तर नहीं, मेरी
हमसफर है
हम थोड़ा जोखिम उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते
यह मेरा घर है ।
असमाप्त पाखंड को उजागर करते हुए धूमिल अपनी कविता ‘शांति-पाठ' में कहते हैं-
मैकमोहन रेखा एक मुर्दे की बगल में सो रही है
और मैं दुनिया के शांति-दूतों और जूतों को
परम्परा की पालिश से चमका रहा हॅूं
अपनी आँखों में सभ्यता के गर्भशाय की दीवारों का
सुरमा लगा रहा हॅूं
पूरी नैतिकता के साथ अपने सड़े हुए अंगों को सह रहा हॅूं
भेडि़ए को भाई कह रहा हॅूं ।
पता नहीं धूमिल अगर आज जिंदा होते तो देश की हालत देखकर किन शब्दों का इस्तेमाल करते, जबकि सत्तर के दशक में ही उन्होंने अपनी लंबी कविता ‘पटकथा' का अंत कुछ इन शब्दों में किया था- ‘घृणा में डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की ही तरह आज भी मेरा कारागार है।
जर्जर सामाजिक संरचनाओं और अर्थहीन काव्यशास्त्र को आक्रोशित आवेग के साथ पूरी ईमानदारी और साहस से निरस्त करते हुए, एक नये खुददुरे काव्यधारा की रचना करनेवाले रचनाकार के रूप में धूमिल सदा चिरस्मरणीय रहेंगे․
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301
झारखंड
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