छाया वादी भावुकता और कोमल कल्पना की राह से निकलकर जब नई कविता यथार्थ के उबड़-खाबड़ राह पर चली तो उसे ‘प्रयोग' और ‘प्रगति' दो हमसफर ...
छायावादी भावुकता और कोमल कल्पना की राह से निकलकर जब नई कविता यथार्थ के उबड़-खाबड़ राह पर चली तो उसे ‘प्रयोग' और ‘प्रगति' दो हमसफर मिले जो कलांतर में नई कविता में एकाकार हो गए․ अज्ञेय के प्रथम तारसप्तक में मुक्तिबोध, भरतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर शामिल हुए, इन कवियों ने कविता की जिस धारा का अन्वेषण किया उसे प्रयोगवाद कहा जाता है․ दूसरे तारसप्तक में नरेश मेहता की रचनाएं शामिल की गयी क्योंकि नरेश मेहता की संवेदना में कुछ ऐसी रचनाधर्मिता थी जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करती हैं․ नरेश मेहता की रचनाधर्मिता की सबसे बड़ी विशेषता उनकी मानव मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता और रूक्षान थी․ उनकी कविता की मजबूत आधारभूमि उनकी चिन्तन की सामाजिक भूमिका को मानी जा सकती है तथा वे पौराणिक आख्यानों के माघ्यम से नये युग के आकुल प्रश्नों से मुठभेड़ करते नजर आते हैं․ उन्होंने नई पीढ़ी के आन्तरिक द्वन्द्वों की नयी व्याख्या की, उनका स्वर हमेशा आस्थावादी रहा․
नरेश मेहता ने साहित्य का उदे्श्य मानवता और जिजीविषा की स्थापना को माना इसलिए उनका साहित्य सृजन निरंतर ऐकांतिक आत्ममंथन से सामूहिक दायित्व की ओर अग्रसर होता प्रतीत होता है․ कवि नरेश मेहता की कविताओं के पाठ से यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि उनकी मानवतावादी आस्था मनुष्य की स्वतंत्रता और अस्मिता को सर्वोपरि मानते हुए, समाज हितैषी तत्वों को युग चेतना के अनुरूप ढालने का निरंतर प्रयास करता है․ उन्होंने अपने काव्य के केन्द्र में नारी मुक्ति, प्राकृतिक सौन्दर्य और प्रणयी संवेदना को निरंतर बनाए रखा․ उनकी साहित्य में नयी कविता की विषयगत और शिल्पगत प्रवृतियां मिलती हैं․ कवि नरेश ‘टूटे नहीं जीवन की लय' कहते हुए ‘मात्र मनुष्य' बनकर जीने के इच्छुक और अपने अधिकार पाने के लिए संघर्षशील लगते हैं․ साहित्य के सर्वोच्च सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरूस्कार से सम्मानित नरेश मेहता कवि होने के साथ-साथ उपन्यासकार और निबंधकार भी थे․ उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, एकांकी, निबंध में अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया․ उनके प्रमुख उपन्यास यथा, डूबते मस्तूल, घूमकेतु ः एक श्रुति, दो एकांत, वह पथ बंधु था, नदी यशस्वी है, प्रथम फालगुन, पुनः एक युधिष्ठिर और दो खंड़ों में उतर कथा है, उन्होंने दो कहानी यथा तथापि और एक समर्पित महिला लिखा जो काफी चर्चित हुआ था․ उन्होंने चार नाटक यथा, सुबह के घंटे, सरोवर के फूल, खंडित यात्रााएं तथा पिछली रात भी लिखा था․ उनकी प्रारंभिक कविताएं राष्ट्रभारती, नयी कविता, आजकल आदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी․ उनकी प्रमुख काव्य कृतियां, यथा, बनपाखी सुनो, बोलने दो चीड़ को, मेरा समर्पित एकांत, संशय की एक रात, महाप्रस्थान, प्रवाद पर्व, शबरी, अत्सवा, तुम मेरा मौन हो, अरण्या, प्रार्थना पुरूष आखिर समुद्र से तात्पर्य, पिछले दिनों नंगे पैरों, देखना एक दिन है․ उन्होंने कुछ काव्य रूपक जैसे, अग्निदेवता, पृथ्वीपुत्र, खेमोंवाला महानगर तथा कविता संग्रह ‘शंक लेने तुम न जाना' भी लिखा जो कतिपय कारणों से 1952 में ‘प्रतीक' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ परंतु प्रचार-प्रसार कम हुआ․
अज्ञेय द्वारा 1951 में प्रकाशित ‘दूसरा सप्तक' से पहली बार हिन्दी साहित्य के फलक पर अवतरित हुए․ उन्होंने ‘उत्सवा' और ‘अरण्या' के माघ्यम से मनुष्य की स्वतंत्रता, सहिष्णुता, प्रेम, उर्जा और उदात्तता के कवि-रचनाकार के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं․ ‘अरण्या' के बांग्ला अनुवादक के․के․बनर्जी ने ‘नरेश मेहता को हिन्दी का रविन्दनाथ' ठीक ही कहा है․
नरेश मेहता के प्रारंभिक काव्य छायावाद से प्रभावित अवश्य है परंतु नये प्रयोगों के प्रति आस्थावान होने के कारण उन्ेहें प्रयोगवादी कवि के श्रेणी में रखा जाता है․ उन्होंने पचास के दशक में नलिन विलोचन शर्मा और केसरी कुमार के साथ मिलकर नई कविता में एक आंदोलन चलाया लिसे ‘नाकेनवाद' के नाम से जाना जाता है․ ‘नाकेनवाद' का अर्थ नलिन, केसरी और नरेश होता है․
25 फरवरी 1922 को मालवा के शाजापुर नामक कस्बे में जन्मे नरेश मेहता का नाम उनके पिता बिहारीलाल शुक्ल ने पूर्णशंकर शुक्ल रखा था․ ‘मेहता' तो उन्हें उपाधि स्वरूप मिला․
नरेश मेहता की पहली कविता ‘चाहता मन' में कवि का प्रकृति की सौन्दर्य प्रेम को देख सकते है, ‘उषस' नामक कविता में प्रकृति के विराट एवं स्वस्थ रूप का अवलोकन कर सकते है․ ‘ये हरिण की बदलियां, गोमती के रेत, घाट के पत्थर' आदि कविताओं में कवि के प्रेमी मन की झांकी मिलती है․ ‘एकबोध' नामक कविता में कवि ने आधुनिक व्यस्तताओं तथा समसामयिक समस्याओं का बोध कराया है․ ‘तीर्थजल' नामक कविता में कवि ने अंधविश्वासों, जड़ परंपराओं तथा कूपमण्डूकता पर करारा प्रहार किया है वहीं ‘वनघासें' नामक कविता में कवि की मानवतावादी, जनवादी तथा प्रगतिशील चेतना दृष्टिगोचर होती है․ ‘बीमार सांझ के किनारे' कविता में कवि ने हमारे जीवन में विज्ञान के अधिकाधिक हस्ताक्षेप पर प्रकाश डाला है․ ‘बोलने दो चीड को' नामक कविता संग्रह जिसमें उनकी 37 कविताएं संग्रहित है में कवि ने मनुष्य की विवशता, निराशा, जिंदगी, उसकी आस्था एवं संकल्प को अभिव्यक्त किया है․ ‘किन्तु मैं लडँगा ही' में कवि की जीवन के प्रति जिवट जिजीविषा देखने को मिलती है जब वे कहते है कि शास्त्रों के छिन जाने, भुजाओं के कट जाने, वाणिविहीन और दृष्टिहीन हो जाने के बाद भी अपनी आस्था का संबल लिए मनुष्य उन विषम परिस्थितियों से भी लड़ेगा․ ‘मेरा समर्पित एकांत' नामक संग्रह में कवि अपने पूर्व संग्रहों से इतर प्रकृति की पीड़ा और दुख का भी वर्णन करते है․ ‘विडम्बना' नामक कविता में कवि का मन श्रम और श्रम की उपलब्धि की विषमता से आहत होता नजर आता है․ ‘समय देवता' में कवि दार्शनिक की तरह बताते चलते है कि समय ही सबसे बड़ा देवता है जो एक तटस्थ द्रष्टा के रूप में अहोरात्र मानव के कर्म का निरीक्षण करता रहता है․ ‘तुम मेरे मौन हो' नामक कविता संग्रह में कवि प्रेम अनुभूतियों का सुन्दर चित्रण के साथ-साथ प्रेमी के आंतरिक सौन्दर्य, मनोभावों को सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करते हैं․ कवि इस संग्रह में नारी के नारीत्व का वर्णन करते है तथा उनके लिए प्रेम केवल प्रेम ही नहीं प्रेरणा, भाषा और काव्य भी है․ कवि नरेश मेहता की प्रेम कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें मांसलता नहीं है और न ही प्रयोगवादी कविताओं की कुण्ठाग्रस्त काम चेतना की पुकार है․ नरेश मेहता की दृष्टि संशय, विद्रोह, दर्प आदि पर विशेष रूप से पड़ी है जो मनुष्य को प्रताडि़त करते रहें हैं․
नरेश मेहता ने अपने प्रबंध काव्यों के द्वारा मिथकीय कथा प्रसंगों को नये अर्थ-संदर्भों में अभिव्यक्त किया है․ उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘‘किसी भी देश की या जाति की जातीयता उसकी मिथकता है․'' ‘संशय की एक रात' में कवि मेहता मिथक के सहारे, रामायण की एक घटना, समकालीन समाज के व्यापक आधुनिक बोध को पाठकों के समक्ष रखा है․ वे कहते हैं-
सामने वाला यदि आवेग में
पशु हो गया हो
तो विवेक के रहते
प्रतीक्षा करो
उसके पुनः मनुष्य होने की ।
कवि विवेकहीन मनुष्य को पशु कहते है और टूटे मानव-मूल्यों का पुनःनिर्माण पर आस्था रखते हैं․ राजनीति की नृशंसता पर कवि कहते हैं-
यह सत्ताधारी
यह राज्य व्यवस्था
एक दिन
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर
विचारशून्यता का
अन्धा कारागार निर्मित कर दें ।
राजनीति आज इतनी कलुषित बन गयी है कि आज देश में सत्ता लोलुप नेताओं के बीच जो सत्ता संघर्ष चलता है, उससे पीडि़त होने वाली आम जनता को शांति का कोई विकल्प नहीं मिलता․ वे कहते हैं-
प्रत्येक व्यवस्था के पास
अपने बधनख होते हैं
अकेला दुर्योधन ही
दुर्विनीत नहीं था
व्यवस्था की मुकुट धारण करते ही
किसी भी व्यक्ति का
मनुष्यत्व नष्ट हो जाता है ।
कवि नरेश राजसत्ता से ज्यादा महत्व जनसत्ता को मान्यता देते हुए कहते हैं-
इतिहास
खड़ग से नहीं
मानवीय उदात्तता से लिखा जाना चाहिए
हमारे इन राजसी कानों तक
कभी किसी अनाथ
नारी की
असहाय अवमानना आयी है ?
राज्य की यह आतुरता
कर्मठता
केवल सीता
या हमारे ही लिए क्यों ?
सत्ताधारियों द्वारा समस्त सत्ता को केवल अपने ही अभिषेक के लिए सुरक्षित रखना तथा अपनी सुरक्षा के लिए आम जनता की बलि देना, पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कवि कहते हैं-
सत्ता के गोमुख पर बैठकर
उसके सारे शक्ति जलों को
अपने ही अभिषेक के लिए
सुरक्षित रखना
वह कौन सा दर्शन है लक्ष्मण ?
निसंदेह राजनीति की यही नीति अपनी पूरी बर्बरता और भयानकता के साथ समस्त देश को लील रही है․
कवि का मानना है कि मनुष्य का भाषाहीन हो जाना सृष्टि का ईश्वरहीन हो जाना है․
मानवीय स्वातंत्रय
मानवीय भाषा और
मानवीय अभिव्यक्ति के
प्रति इतिहास का सामना
वैसे ही
मानवीय प्रति गरिमा के साथ
करना होगा लक्ष्मण
प्रति इतिहास को इतिहास से नहीं
विनय से स्वीकारना होगा ।
मनुष्य में ईश्वर का वास को मानते हुए कवि कहते हैं-
साधारणता के इस नारायण को
आर्यपुत्र
न्याय के प्रतिनारायण की अपेक्षा है
और मुझे भी !!
कवि नरेश प्रश्न करते हैं कि जब कोई आम जन आधा पेट खाकर रह जाता है तो उसके चरित्र की यह धैर्य-परीक्षा सीता की अग्नि-परीक्षा से किस अर्थ में कम हो ? तब क्या हम उसके लिए भी इतने ही इतिहास-दोषी नहीं ? कवि का ‘प्रवाद पर्व' अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेहतरीन दस्तावेज है․ नरेश मेहता की रचनाधर्मिता का प्राणतत्व उनकी मानवतावादी दृष्टि है जो जड़ परंपराओं और गुटबंदियों को तिरस्कृत कर मानव-हित तलाशती है․ उनकी दृष्टि में काव्य का उदे्श्य बंधनों से मानव की मुक्ति की लगातार कोशिश है․ मिट्टी जब धरती का प्रतिनिधित्व करती है तो प्रतिमा बनती है, उसी तरह मनुष्य जब व्यक्ति का नहीं वैराटय का प्रतिनिधित्व करता है तो देवता बनता है․ कवि नरेश मेहता के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व स्वत्व और देवत्व से परिपूर्ण है․ कवि नेरश जिन्होंने उपरोक्त कालजयी काव्यों की रचना की, उनकी समृति को नमन․
राजीव आनंद
प्रेाफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा
गिरिडीह-815301
झारखंड
संपर्क-9471765417
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