भारत और चीन के रिश्तों की नई व्याख्या की दरकार डॉ.चन्द्रकुमार जैन भारत के प्रति चीन की दुर्भावना को लेकर एक और प्रश्न आम तौर पर पूछा जाता...
भारत और चीन के रिश्तों की नई व्याख्या की दरकार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
भारत के प्रति चीन की दुर्भावना को लेकर एक और प्रश्न आम तौर पर पूछा जाता है। वह प्रश्न चीन के इतिहास और संस्कृति से ताल्लुक रखता है। आज से लगभग दो हजार साल पहले चीन में बुद्ध वचनों का प्रसार हुआ था। बुद्ध के बचनों और बुद्ध के प्रवचनों ने चीन की मानसिकता को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चीन में स्थान-स्थान पर भगवान बुद्ध के विशाल मंदिर बने हुए हैं। बुद्ध मत से सम्बंधित सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ है।
नालंदा का वह स्वर्णिम युग
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नालंदा विश्वविद्यालय जो अपने वक्त में बौद्ध दर्शन का विश्व विख्यात केन्द्र था, चीन से पढने के लिए अनेक छात्र और विद्वान आते थे। विख्यात चीनी दार्शनिक ह्वेनसांग इसी ध्येय की पूर्ति के लिए अनेक कठिनाइयां सहते हुए भारत आया था। भारत और चीन के बीच दर्शन शास्त्र के विद्वानों का आना -जाना लगा रहता था। चीन के लोग भारत को पावन स्थल मानते थे और उनके जीवन की एक आकांक्षा बौद्ध गया और सारनाथ के दर्शन करने की भी रहती थी। साधारण चीनी के मन में भारत का स्वरुप एक तीर्थ स्थान का स्वरुप बनता था। अतः चीनियों के मन में भारत के प्रति दुर्भावना हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता। यह परम्परा प्राचीन इतिहास पर ही आधारित नहीं है बल्कि इसको अद्यतन इतिहास तक में देखा जा सकता है। वर्तमान भारत जिस तरह विश्व के देशो से अपने संबंधों की नए सिरे से पड़ताल में जुटा है, जाहिर है कि चीन के साथ उसके रिश्ते का सवाल भी पूरी संजीदगी से उभर रहा है। इसके अलावा पाकिस्तान का मुद्दा अपनी जगह पर है।
शान्ति निकेतन की वह पहल
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इस सन्दर्भ में डॉ .कुलदीप चन्द्र अग्निहोत्री बताते हैं कि रविन्द्र नाथ ठाकुर ने जब शांति निकेतन की स्थापना की तो उसमें अध्ययन के लिए चीनी विभाग भी स्थापित किया और चीन से विद्वानों को निमंत्रित किया। यहां तक कि माओ ने जब चीन में गृह युद्ध शुरु किया तो उस गृह युद्ध में दुख भोग रहे चीनियों की सहायता के लिए महाराष्ट्र के एक डॉक्टर श्री कोटनिस ने अपना पूरा जीवन ही उनकी सेवा में समर्पित कर दिया। वे भारत से चीन चले गए और गृह युद्ध में घायल चीनियों की सेवा-सुश्रुशा करते रहे। वहीं उन्होंने एक चीनी लड़की से शादी की। और सेवा करते-करते उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। चीन के लोग आज भी डॉ.कोटनिस का स्मरण करते हुए नतमस्तक हो जाते हैं। तब यह प्रश्न पैदा होता है कि इस परम्परा की पृष्ठभूमि में चीन भारत का विरोधी कैसे हो गया। इतना विरोधी कि उसने 1962 में भारत पर आक्रमण ही कर दिया और आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी उसने अपने भारत विरोध को छोड़ा नहीं है।
इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले एक और प्रश्न का सामना करना पड़ेगा। वह प्रश्न है कि क्या आज का चीनी शासकतंत्र सचमुच चीन के लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। चीन में जो साम्यवादी पार्टी सत्ता पर कुंडली मारकर बैठी है उसने यह सत्ता बंदूक के बल पर हथियाई है, न कि लोकमानस का प्रतिनिधि बनकर। साम्यवादी दल का सत्ता संभाले हुए आज 60 साल से भी ज्यादा हो गए हैं लेकिन उन्होंने कभी भी लोकमानस को जानने का प्रयास नहीं किया और न ही कभी लोगों की इच्छाओं के अनुरुप चुनाव होने दिए। इसके विपरीत लोक इच्छा को दबाने के लिए शासक साम्यवादी दल ने थ्यानमेन चौक पर अपने ही लोगों पर टैंक चढ़ा कर उन्हें मार दिया।
चीन के दृष्टिकोण का सवाल
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साम्यवाद मूलतः भौतिकवादी दर्शन है। वह मुनष्य को बाकी सभी स्थानों से तोड़कर केवल भौतिक प्राणी के नाते विकसित करना चाहता है। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी यही प्रयोग कर रही है। इस प्रयोग के लिए यह जरुरी है कि चीन को उसकी विरासत, इतिहास और संस्कृति से तोड़ा जाए। इसलिए, आधिकारिक चीनी प्रकाशनों में भगवान बुद्ध को पलायनवादी तक बताया गया है।
चीनी साम्यवादी शासकदल लोगों का इन प्रश्नों पर एक प्रकार से मानसिक दमन कर रहा है और उन्हें पशुबल से चुप रहने के लिए विवश किया जा रहा है। रुस ने लगभग एक शताब्दी तक यह प्रयोग मध्य एशिया के अनेक देशों में किया था लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो पाया। चीन के लिए महात्मा बुद्ध के प्रभाव को समाप्त करने के लिए जरुरी था कि बुद्ध वचनों के उद्गम स्थल भारत को भी शत्रु की श्रेणी में रखा जाए। चीनी साम्यवादी शासक दल के भारत विरोध का यह एक मुख्य कारण हो सकता है। चीन के लोग कहां खडे हैं और चीन की साम्यवादी शासक पार्टी कहां खड़ी है इसका पता तो तभी चलेगा जब भविष्य में कभी चीन में लोगों द्वारा चुनी गई सरकार स्थापित होगी। तब भारत और चीन के रिश्तों की नए सिरे से व्याख्या होगी।
इस समय चीन व भारत अपने-अपने शांतिपूर्ण विकास में लगे हैं। 21वीं शताब्दी के चीन व भारत प्रतिद्वंदी हैं और मित्र भी। अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों में व्यापक सहमति है। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में विभिन्न सवालों पर हुए मतदान में अधिकांश समय, भारत और चीन का पक्ष समान रहा। अब दोनों देशों के सामने आर्थिक विकास और जनता के जीवन स्तर को सुधारने का समान लक्ष्य है। इसलिए, दोनों को आपसी सहयोग की आवश्यकता है। अनेक क्षेत्रों में दोनों देश एक-दूसरे से सीख सकते हैं।
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प्राध्यापक, दिग्विजय पीजी कालेज
राजनांदगांव, मो.9301054300
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