ओम प्रकाश शर्मा की कहानी - बालक मन

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बालक मन साँझ ढलने लगी थी। सूर्य अस्ताचल में लालिमा बिखेर रहा था। सुशान्त अपना कार्य पूरा कर पुलिस लाईन से महालेखाकार कार्यालय की ओर आ रहा थ...

बालक मन

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साँझ ढलने लगी थी। सूर्य अस्ताचल में लालिमा बिखेर रहा था। सुशान्त अपना कार्य पूरा कर पुलिस लाईन से महालेखाकार कार्यालय की ओर आ रहा था तभी एक ग्यारह-बारह साल की बच्ची ने उससे समय पूछा उसने घड़ी देख समय बता दिया फिर कुछ देर बाद पूछने लगी, अंकल कुल्लू के लिए कौन सा मार्ग जाता है। पहले उसने सोचा कि उसके सुनने में कोई गलती रह गई है इसलिए उसने उस बच्ची से ही प्रश्न कर दिया ‘‘ तुम्हें कहाँ जाना है।’’

‘‘मैंने कुल्लु जाना है आप मुझे रास्ता बता दीजिए न।’’

‘‘कुल्लु तो बहुत दूर है अभी तुम कहाँ से आई हो?’’

‘‘वहीं से आई हूँ।’’

‘‘अकेले।“ सुशान्त की समझ में कुछ नहीं आ रहा था इसलिए अधिक जानकारी के लिए पूछा। ‘‘नहीं मामा के साथ।“

‘‘इस समय आपके मामा कहाँ हैं?’’

‘‘पता नहीं। वे मुझे बिजली के खम्बे के पास अकेला छोड़ कहीं चले गए।“

‘‘कौन से खंबे के पास और कब ?’’

‘‘ हम जब कुल्लू से आए तो रास्ते में एक जगह बस बड़ी देर के लिए रुकी। वहाँ मामा ने मुझे कड़ी चावल खिलाए और खुद भी खाए। उसके बाद हम फिर बस में बैठ गए। मुझे उसके बाद नींद आ गई। बस अड्डे पर मामा ने मुझे जगाया फिर सारा समान उतारा और मुझे भी उतरने को कहा।“ ‘‘उसके बाद क्या हुआ?’’

‘‘उसके बाद हम उपर की ओर चढ़ने लगे। जहाँ पर फौजी भी रहते हैं। एक खम्बे के पास मामा ने मुझे खड़े कर दिया और बोले यहीं रहना और कहीं जाना नहीं मैं अभी थोड़ी देर में आता हूँ। मैं बड़ी देर उसी जगह खड़ी रही पर मामा लौट कर वापिस नहीं आए। मैंने रास्ते में उपर उपर चलना शुरू किया। उस समय तक मुझे भूख भी लग गई थी।

‘‘ फिर तुमने क्या किया?“

‘‘ तब मैं एक मंदिर के पास पहुँच गई मंदिर के बाहर बाजार लगा था। मैं मंदिर के गेट से अंदर चली गई। वहाँ लोग कंजक जमा रहे थे मुझे भी उन्होंने जमाया हलुआ पूरी खाने को दी साथ ये चुनरी और पैसे भी दिए।“ इसके साथ ही वह लाल रंग की चुनरी और पाँच रुपये का सिक्का दिखाने लगी। वह इतने आत्मविश्वास से बात कर रही थी कि उसकी बातों पर संदेह किया ही नहीं जा सकता था। लेकिन उसकी शब्दावली व हिन्दी भाषा के स्पष्ट उच्चारण के कारण वह किसी भी प्रकार से कुल्लू गाँव की लड़की नहीं लग रही थी उसकी बातों से उसमें अच्छे शहरी परिवार के संस्कार प्रकट हो रहे थे। इतना अवश्य था कि वह इस समय बिलकुल अकेली थी और ऐसी दशा में कोई भी उसे बहका कर अपने साथ ले जा सकता था। वह सोचने लगा कि वह क्या करे? उसके मन में पहला विचार आया तुझे क्या तू अपना काम कर इसने जहाँ जाना होगा चली जाएगी। पर तभी उसके मन में दूसरा विचार आया मानव के नाते इस बालिका को इस प्रकार असहाय अवस्था में मदद करना उसका नैतिक कर्त्तव्य बन जाता है। सूर्य छिप चुका था थोड़ी देर में अंधेरा हो जाएगा फिर यह कहाँ जाएगी।

उसने उसे अपने साथ आने को कहा और वह वापिस पुलिस लाईन की ओर चल पड़ा। उसने लाईन आफिसर से इसके बारे बात की। उन्होंने उस लड़की से उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम संगीता बता दिया। उसके बाद उसका हूलिया एक कागज पर लिख उन्होंने रिपोर्टिंग रूप में फोन कर इसकी सूचना दी। फिर सुशान्त को संबोधित कर बोले, ‘‘ आप बड़े सहृदय व्यक्ति हैं आप इस बच्ची को यहाँ लेकर आ गए पर कठिनाई तो यह है कि हम इसे रखे तो कहाँ रखें। आज आप इसे अपने साथ ले जा सकते है बड़ी मेहरबानी होगी। कल सुबह तक इसके परिवार के लोग इसकी गुमशुदगी की रपट लिखा ही देंगे तब तक यह आपके पास सुरक्षित तो रहेगी। सुशान्त ने उसको साथ ले जाने की बात पहले भी सोची थी पर एक अनजान लड़की को घर ले जाने के कारण उसके ऊपर भी तो बात आ सकती है नेकी करते करते कहीं और ही मुसीबत खड़ी न हो जाए इस कारण उसने यह विचार त्याग दिया था। उसने उनके आगे अपनी शंका रखी कही इसके परिवार वाले बाद में मेरे लिए कोई मुसीबत न खड़ी कर दें। आप कमाल करते हैं यह तो आप हमारी मदद कर रहे है। यदि आप इसे अपने साथ न लाते न जाने इसके साथ क्या होता। मैं पुनः रिपोर्टिंग रूम में इसकी सूचना लिखा दूँगा आपके ऊपर किसी प्रकार की आँच नहीं आएगी।

वह बालूगंज समरहिल मार्ग में दाहिनी ओर बने एक एक सरकारी मकान में रहता था। वह उस लड़की को साथ लेकर पुनः बालूगंज की ओर चल पडा। महालेखाकार के कार्यालय के पास चढ़ाई समाप्त हो गई। इसके बाद सीधी सड़क थी विधानसभा ,चौड़ा मैदान और उच्च अध्ययन संस्थान के नीचे से दीपक प्रोजैक्ट कार्यालय से होते बालूगंज तक। सुशान्त उससे बात कर उसके बारे में और जानना चाहता था। इसीलिए वह उससे बीच बीच में कई प्रश्न भी पूछता जा रहा था लेकिन वह इतनी चुस्त और चालाक थी कि वह हर प्रश्न का उत्तर बड़ी सफाई से देती। चौड़ा मैदान में एक दुकान पर टेलीवीज़न लगा हुआ था और लोग क्रिकेट का मैच देख रहे थे। उसे देख वह प्रशान्त से पूछने लगी,‘‘ अंकल आपके घर पर टी वी है और जब सुशान्त ने हाँ में सिर हिलाया तो बोली और फ्रिज। तो प्रशान्त ने कहा,‘‘ मेरे घर पर तो नहीं है , पर क्या तुम्हारे घर पर यह सब कुछ है।“

‘‘नहीं मेरे घर पर तो नहीं है।“

‘‘ फिर तुम इनके बारे में कैसे जानती हो।

‘‘ मेरी मेम साहिब के पास तो सब कुछ था वाशिंग मशीन भी जिसमें कपड़े अपने आप धुल जाते हैं।“ सुशान्त का माथा ठनका। यह लड़की किसी अच्छे घर में नौकरानी काम करती होगी। उसने पूछा,‘‘ कौनसी मेम साहब?”

‘‘ मैं कुल्लु में डाक्टर साहब के पास काम करती थी उनकी घरवाली को ही मैं मेम साहब कहती थी और उनकी छोटी सी बच्ची को छोटी मेम साहब।’’

‘‘ वहाँ से काम छोड़ तुम चली क्यों आई।’’

‘‘ मामा ने छुड़वाया। अम्मा को बहुत सारे पैसे दिए और बताया कि वह इसे शिमला में बहुत अच्छी जगह लगा देगा जहाँ पगार भी ज्यादा मिलेगी।’’

‘‘ तुम्हारे अम्मा बापू ने भेज दिया उसके साथ।’’

‘‘ बापू बीमार रहते हैं कुछ कर नहीं सकते। अम्मा को बहुत सारे पैसे मिले थे कैसे नहीं भेजती।“

सुशान्त की समझ में आ गया था कि यह लड़की गाँव में रहने वाली मासूम लड़की नहीं है। यह जहाँ पेट की गहरी है वहीं वाक्पटु भी। उसने उसके भावों को जानने के लिए प्रश्न किया कि यदि मैं तुम्हें यहाँ काम दिला दूँ तो तुम यहाँ काम करोगी?”

‘‘नहीं मैंने कोई काम नहीं करना मैंने कुल्लू जाना है। पता है परसों से वहाँ दशहरे का मेला लग रहा हैं। कुल्लू का दशहरा कई दिनों तक चलता है। मेले में कई देवी देवता आते हैं नाच गाना होता है। मैं काम नहीं करूँगी। मैंने तो मेला देखने जाना है।“ बाते करते करते वे बालूगंज के छोर पर पहुँच गए थोड़ी दूर पर ही पुलिस थाना था। सुशान्त के अन्तर से आवाज़ आई कि उसे थाने में भी इसके बारे में बता देना चाहिए। उसके कदम स्वतः ही पुलिस थाने के मुख्य द्वार की ओर बढ़ गए जहाँ पर संतरी खड़ा था। संतरी ने उसे मुंशी के कमरे की ओर जाने को कहा। संगीता कुछ घबरा गई और पूछने लगी,‘‘ क्या आप मुझे यहाँ छोड़ के जा रहे हो?’’ ‘‘ नहीं मुझे यहाँ कुछ काम है उसके बाद हम घर चलेंगे।’’ ‘‘नहीं नहीं आप मुझसे झूठ बोल रहे हैं।’’ इतने में मुंशी का कमरा आ गया। वह अंदर जा कुछ बताना ही चाहता था कि थाना प्रभारी श्री गोपाल वर्मा वहाँ आ गए उन्होंने संगीता को कमरे के बैंच पर बैठने के लिए कहा और प्रशान्त को भीतर अपने कमरे में ले गए। सुशान्त ने संगीता के बारे में जो कुछ जाना और समझा था वह सब उन्हें बता दिया। वह सुन कर वह बोले,‘‘ बालकमन ही ऐसा होता है बड़ों से सच्चाई उगलवाना आसान है पर बच्चे के मन की थाह लेना बड़ा कठिन है। ’’ ‘यह तो आप सही फरमा रहे हैं जो अभी मैंने आपको बताया है वह भी बड़ा कुरेद-कुरेद कर पता लगाया है।’

‘‘ हो सकता है जो आपको बताया हो वह भी सही न हो वास्तविकता कुछ और ही हो।’’ ‘‘इसके बारे में आपको अधिक अनुभव है हो सकता है आपकी बात ही सही हो।’’

‘‘चलो छोड़ो एक आध दिन में इसकी गुमशुदगी की इसके परिवार वाले कहीं न कहीं रपट लिखवा देंगे। तब वस्तुस्थिति स्वतः ही सामने आ जाएगी। ’’ फिर उन्होंने मुंशी को बुलवा उसका हुलिया लिखने को कहा उसके बाद सुशान्त को संबोधित करते हुए बोले, मेरा अनुरोध है कि आप इसे इस वक्त अपने साथ ही ले जाएँ। आप ही सोचो यदि इसे हम थाने में रखते है तो यह घबरा जाएगी और हमें भी इसे रखने में कठिनाई आएगी। आपके पास रहने में इसे कठिनाई नहीं होगी। यह आपके साथ घुलमिल गई है। आपके परिवार में यह चैन से रह भी लेगी।’’ ‘‘ मुझे तो इसे साथ में ले जाने में कोई आपत्ति नहीं है और मै इसे साथ लाया ही इसलिए था। पर आजकल जमाना बड़ा खराब है कई बार भला करते करते अपना बुरा हो जाता है। कहीं मैं भी व्यर्थ के झंझट में न पड़ जाऊँ इसलिए मैंने पहले आपके पास आना जरूरी समझा।’’ ‘‘आपने एक अच्छे नागरिक के कर्त्तव्य को बखूबी निभाया है। आपने बहुत अच्छा किया जो इसे अपने साथ ले आए। किसी बुरे व्यक्ति के हाथ पड़ जाती तो न जाने इसका क्या होता।’ अपना पता आप लिखवा जाइए । जैसे ही कहीं से सूचना मिलती है हम आपको सूचित करेंगे तब आपको इस बच्ची के साथ अवश्य आना होगा। ’’

‘‘ उसमें मुझे कोई कठिनाई नहीं है । ’’ इसके बाद वह मुंशी के पास अपना पता लिखवाने आ गया। उसे देख संगीता फिर कहने लगी, ‘‘ क्या आप मुझको छोड़कर जा रहे हैं हो।’’

‘‘नहीं मैं तुमको अपने साथ लेकर जा रहा हूँ।’ उसने अपना पता लिखवाया सबको अलविदा कहा और उसके बाद उसे साथ ले अपने क्वार्टर की ओर चल पड़ा।

पति के साथ एक बच्ची को देख उसकी पत्नी रमा कुछ हैरान थी वह अनुमान लगाने लगी कि यह बच्ची कौन हो सकती है। बच्ची ने उसे नमस्ते की और फिर छोटी सी बच्ची के पास चली गई और उसे ठीक वैसे ही गोद में उठा लिया जैसे माँ बच्ची को उठाती है और उसके साथ खेलने लगी। इतने में जरा किनारे में ले जाकर उसने पत्नी से उसके बारे में सब कुछ बता दिया। जब रमा खाना बनाने लगी तो वह जा उसकी मदद करने लगी। थोड़ी देर में अपने स्वभाव से उसने उसका मन जीत लिया।

संगीता के पास बदलने के लिए कोई कपड़े नहीं थे अब समस्या थी कि उसे पहनाया क्या जाए। रमा पडौस में मिसेज़ ठाकुर के पास गई और उसने अपनी समस्या बताई। उसने झट से पुराना संदूक खोल दो सूट निकाल कर दे दिए और बोली ये दोनों वंदना के सूट हैं उसने एक दो बार ही पहने है पर अब छोटे पड़ गए हैं। मैं कई दिनों से इन्हे किसी को देने के बारे में सोच रही थी। चलो अच्छा हुआ किसी जरूरतमंद के काम तो आए। वे कपड़े नए ही लग रहे थे इसलिए उस दिन उसे पहले के पहने कपड़ों में सुला दिया।

अगले दिन दुर्गाष्टमी थी। सुशान्त ने तारादेवी मंदिर जाने का कार्यक्रम बना रखा था। इसलिए वह छुट्टी होने के बावजूद भी घर के काम में पत्नी की मदद के लिए जल्दी उठ गया । उन्हें उठते देख संगीता भी उठ गई और कमरे में झाड़ू लगाने लग गई। सबने स्नान किया । जब संगीता कपड़े बदल कर आई तो और भी सुन्दर और प्यारी लग रही थी। वे नौ बजे के लगभग जाने के लिए निकले। जब वे बालूगंज से बैरियर की ओर जाने लगे तो सुशान्त को एकदम ध्यान आया कि कहीं संगीता की तलाश में कोई आया न हो उसने उन्हें थोड़ी देर रुकने को कहा और स्वयं पुलिस थाने की ओर चल पड़ा। उसके थाने में प्रवेश करते ही मुंशी बोल पड़ा,‘‘ साहब आपकी उम्र बड़ी लम्बी है मैं आपके पास जवान भेजने ही वाला था।“

‘‘ऐसी क्या बात है? क्या संगीता के घरवालों का पता लग गया है?’’

‘‘ जिस समय आप यहाँ से गए उसके तीन घंटे के बाद हमें संदेश आया। उस बच्ची की गुमशुदगी की रपट थाना सदर में प्रोफैसर ने लिखवाई थी । हमने उन्हे वस्तुस्थिति से अवगत करवा दिया। यह सुनकर उन्हे तसल्ली हो गई कि लड़की सुरक्षित स्थान में है।“

‘‘ये प्रोफैसर कौन है वह तो बता रही थी कि वह अपने मामा के साथ आई है।“

’’वह तो उसकी मनगढ़ंत बातें हैं। यह बात सत्य है कि वह कुल्लू की है पर रहती प्रोफैसर महाजन के पास ही है वह उनकी रिश्ते भानजी है जो स्कूल में पढ़ने जाती है और सुबह शाम काम में मदद भी करती है। उसने अपना नाम भी शाम को गलत लिखवाया था उसका असली नाम तो निर्मला हैं।“ सुशान्त यह सुन दंग रह गया । उसे विश्वास ही नहीं आ रहा था कि दो बिते की लड़की इतनी बाते बना सकती है। मुंशी ने उसे बताया कि प्रोफैसर महाजन आते ही होंगे आप उस लड़की को ले आएँ। वह उसे लेने चला गया। जितनी देर में वह उस बच्ची और उसके कपड़ों को ले कर वापिस आया प्रो0 महाजन पहुँच चुके थे। उन्होने सुशान्त का आभार व्यक्त किया और उसे अपने गले लगाते बोले नीलू तो बहुत अच्छी बेटी है एक दो दिन से घर जाने को कह रही थी ऐसा करेगी हमने नहीं सोचा था ।“

‘‘क्या यह अपने साथ कुछ लाई थी?’’

‘‘ मेरी पत्नी ने सुबह इसके पास चार सौ रुपये गैस के लिए दिए थे उन्हें भी यह फ्रिज के ऊपर रख कर आई है। यह हमारी प्यारी बच्ची ऐसा कर ही नहीं सकती।“ फिर बच्ची से पूछने लगे,‘‘ नीलू बेटे तुम चली क्यों आई? आपको पता नहीं था हम आपको ढूँढेंगे।“

‘‘ मैं मंदिर आई थी वहाँ मेला लगा था। जैसे गाँव में लगता है मुझे पता ही नहीं चला कब शाम हो गई। में डर गई थी कि घर जाकर मुझे डाँट पड़ेगी।“ प्रो0 महाजन ने उसे छाती से लगा लिया।

‘‘आप इतने बडे़ सरकारी अधिकारी हैं आपने एक चौदह साल से कम उम्र की बच्ची को अपने पास काम करने के लिए रखा है।“

“ हमने इसे काम करने के लिए नहीं रखा यह हमारी विधवा बहन की बेटी है जो हमारे साथ ही गाँव में रहती है।“

इसके बाद सुशान्त ने उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। महाजन जी ने एक बार फिर उसका आभार व्यक्त किया। वह जब विदा हो उनके पास से जाने लगा तो बच्ची बोली, ‘‘ अंकल बाय।’’ प्रशान्त उसके सिर पर हाथ रखना नहीं भूला। और यह सोचते बाहर चला गया कि बालकमन की थाह पाना वास्तव में बड़ा कठिन काम है।

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रचनाकार: ओम प्रकाश शर्मा की कहानी - बालक मन
ओम प्रकाश शर्मा की कहानी - बालक मन
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