केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में सौन्दर्यबोध समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोई मन की रुचि जेती जितै , तित तेती रुचि होई॥ 1 ‘‘सौन्दर्य&...
केदारनाथ अग्रवाल के काव्य में सौन्दर्यबोध
समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोई
मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होई॥ 1
‘‘सौन्दर्य'' शब्द सुन्दर विशेषण के साथ मिलकर भाव अर्थ में ‘इय' प्रत्यय लगने से बना हैं । अर्थात् ‘सुन्दरस्य भावः ' का तात्पर्य सौन्दर्यबोध को उजागर करना है। डॉ नगेन्द्र सौन्दर्य की व्युत्पत्ति ‘सु + अरन् ' से मानते हैं जिसका अर्थ है नयनों को सिक्त कर देने वाला अर्थात् सुख देने वाला। चारू तथा रुचिकर का अर्थ है- प्रिय या प्रीतिकर और कांत में काम्यता का भाव ही प्रमुख है। 2
वाचस्पति कोश में सौन्दर्य को आर्द्र बनाने वाला द्योतित किया गया है। ‘‘सु + अन्द + अरन् '' द्वारा सुन्दर की सिद्धि की गई है जिसका अर्थ है- आर्द्र करने वाला। 3
सौन्दर्य किसे कहते हैं ? प्रकृति, मानव-जीवन तथा ललित कलाओं के आनन्ददायक गुण का नाम सौन्दर्य है। इस स्थापना पर आपत्ति यह की जाती है कि कला में कुरूप और असुन्दर को भी स्थान मिलता है , दुखांत नाटक देखकर हमें वास्तव में दुख होता है। साहित्य में वीभत्स का भी चित्रण होता है- उसे सुन्दर कैसे कहा जा सकता है ? इस आपत्ति का उत्तर यह है कि कला में कुरूप और असुन्दर विवादी स्वरों के समान हैं जो रोग के रूप को निखारते हैं । वीभत्स का चित्रण देखकर हम उससे प्रेम नहीं करने लगते.. हम उस कला से प्रेम करते हैं जो हमें वीभत्स से घृणा करना सिखाती हैं वीभत्स से घृणा करना सुन्दर कार्य है या असुन्दर ? ...जिसे हम कुरूप, असुन्दर और वीभत्स कहते हैं, कला में उसकी परिणिति सौन्दर्य में होती है। दुखान्त नाटकों में हम दूसरों का दुख देखकर द्रवित होते हैं। हमारी सहानुभूति अपने तक, अथवा परिवार और मित्रों तक सीमित न रहकर एक व्यापक रूप ले लेती है। मानव-करूणा के इस प्रसार को हम सुन्दर कहेंगे या असुन्दर ? सहानुभूति की इस व्यापकता से हमें प्रसन्न होना चाहिए या अप्रसन्न ? दुखान्त नाटकों अथवा करुण रस के साहित्य से हमें दुख की अनुभूति होती है, किन्तु यह दुख अमिश्रित और निरपेक्ष नहीं होता। उस दुख में वह आनन्द निहित होता है जो करुणा के प्रसार से हमें प्राप्त होता है।
सौन्दर्य कहाँ है ? दर्शक, श्रोता या पाठक के मन में या उससे भिन्न सुन्दर वस्तु में ? कैरिट का कहना है कि मनुष्य उस वस्तु को सुन्दर कहता है जो उसके लिए उन भावनाओं को व्यक्त करती हैं, जिनके योग्य वह अपने स्वभाव और पिछले इतिहास से बना है। उसके मत से ‘‘ सौन्दर्य गोचर वस्तुओं में नहीं होता, वरन् उनके महत्व पर निर्भर होता है और भिन्न-भिन्न पुरुषों के लिए उनका महत्व भी भिन्न होगा। सम्भवतः बहुत ही भिन्न कोटि के लोगों के लिए यह महत्व भिन्न कोटि का होगा।'' उनके लिए सौन्दर्य की सत्ता वस्तुगत न होकर आत्मगत होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है,‘‘सौन्दर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं है, मन के भीतर की वस्तु है।....'' सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो । 4
‘अर्थशास्त्र की आलोचना को एक देन' में मार्क्स ने विचारधारा के अन्तर्गत मनुष्य के सौन्दर्यबोध को भी गिना है। मार्क्सवादी साहित्य में कला, साहित्य और संस्कृति को मनुष्य की विचारधारा के रूपों में गिना जाता है। सौन्दर्यबोध एक संश्लिष्ट इकाइ्रर् है। सौन्दर्य प्रकृति में है, मनुष्य के मन में भी। उसकी अनुभूति व्यक्तिगत होती है, समाजगत भी। 5
केदारनाथ अग्रवाल हिन्दी के प्रगतिशील कवियों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैैं। प्रारंभ में उनकी रचनाएँ प्रेम और श्रृंगार की रूमानियत से भरपूर थीं, बीच के संघर्षी स्वर के बाद परवर्ती कविताओं में फिर उनका मानवीय और प्राकृतिक सौंदर्य के कवि का रूप ही अधिक प्रभावी रहा है। केदार पाखण्ड से दूर सहज कवि हैं। शमशेर ने उन्हें ‘सहज सजगता' का कवि कहा तो राजेश जोशी ने ‘दुरूह सहजता का'। उनकी विलक्षण सजगता उनकी विषय-वस्तु और अभिव्यक्ति -कला में झलकती है, फिर भी वे कला चतुर कवियों जैसे जटिल-दुरूह नहीं हैं।
ं
प्रगतिवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल प्रकृति एवं सौन्दर्य के कवि हैं, किन्तु उनकी प्रकृति चेतना जिस प्रकार छायावादी चित्रण से अलग है उसी प्रकार उनका सौन्दर्यबोध भी छायावादी सौन्दर्य चेतना से अलग है । प्रगतिवादी कवि सौन्दर्य को समस्त प्रकृति में व्याप्त मानते हैं। जीवन के सभी पक्षों में वे सौन्दर्य का अनुभव कर लेते हैं। उन्हें खेत-खलिहान में, प्रकृति की नैसर्गिक सुषमा में, नदी, वन, पर्वत में वह सौन्दर्य दिखाई पड़ता है। उनका सौन्दर्यबोध यथार्थ की कड़ी धूप से निःसृत है। छायावादियों की भांति वे कल्पना लोक में सौन्दर्य का संधान नहीं करते अपितु आस-पास के जीवन में इस सौन्दर्य को देखते हैं। उन्हें यह सौन्दर्य ज्वार के खेत में भी दिखाई देता है।
श्रृंगार को भी प्रगतिशील कवियों ने बिल्कुल नया धरातल प्रदान किया। केदारजी तो उस क्षेत्र में अद्वितीय हैं, ,‘नींद के बादल'(1947) से लेकर ‘आत्मगंध' (1988) तक वयस्क-दाम्पत्य श्रृंगार की मानवीय अनुभूति का असाधारण चित्र खींचते हैं।
‘ नींद के बादल ' उनकी प्रारम्भिक कविताओं का संकलन है । संकलन की भूमिका में कवि ने कहा है कि ये उनकी प्रारम्भिक वैयक्तिक प्रेम की कविताएँ हैं । नींद के बादल की अधिकांश कविताएँ सरल और स्वस्थ प्रेम की कविताएँ हैं। नारी सौंदर्य और प्रेम की कुण्ठारहित अभिव्यक्ति इनमें हुई है। कवि की शैली की अपनी सरलता और सादगी छायावादी बाह्याडम्बर से इन कविताओं को बहुत दूर ले जाती है।
और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी
हाथ पीले कर लिये हैं
ब्याह मण्डप में पधारी।
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे
देखता हूँ मैं ः स्वयंवर हो रहा है।
केदारनाथ अग्रवाल हिन्दी के प्रगतिशील कवियों में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इन कवियों के काव्य में मजदूर , किसान कंगाल, शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति और व्यवस्था के प्रति आक्रोश आदि भावनाएँ देश की तत्कालीन दुर्दशा से सीधा जोड़ती हैं। ‘‘ बाप बेटा बेचता है / भूख से बेहाल होकर/ 6
मार्क्सवाद उनका जीवन दर्शन हैं आर्थिक आधारों पर वर्गों में विभाजित समाज तब तक गतिशील नहीं हो सकता , जब तक उसमें वर्ग-विहीनता या समानता स्थापित न हो जाय। अंचल बुन्देलखण्ड की प्रकृति और जनजीवन उनकी कविता के मुख्य विषय हैं । अपनी विषय वस्तु के अनुरूप सरल, इकहरी और गुंफित - संश्लिष्ट शिल्पशैली का उन्होंने सधे हुए हाथों से प्रयोग किया है। आंचलिक वातावरण प्रधान कविताओं में उन्होंने बांदा जनपद में प्रचलित साधारण बोलचाल के ग्रामीण शब्दों का भी उपयोग किया है। रामविलास जी को उनकी कविताएँ इसी ग्रामीणता और ‘भदेसपन' के कारण विशेष प्रिय हैं । 7 ऐसी कविताओं में प्रगतिशील सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है।
उन्होंने धूप, ओस, हवा, नदी और ताजगी का अंकन किया है । उन्होंने प्रकृति का पर्यवेक्षण एक ताजा कोण से किया है। धूप, हवा और नदी के प्रत्येक तेवर की उन्हें सूक्ष्म पहचान है। मात्र तफसील से आगे पढ़कर उन्होंने धूप और हवा की सारी कविता निचोड़ ली है और नदी को पूरी गरिमा से उपस्थित किया है। विशेषकर प्रकाश के चित्रण में वे अग्रणी हैं और उसके सौंदर्य के विविध आयामों के अंकन में उनकी प्रतिभा खूब निखरी है प्रकाश, हवा और नदी प्रकृति के विशाल क्षेत्र से चुने गये उनके प्रिय उपादान हैं। प्रकाश के शीतल और दीप्तिपूर्ण प्रभाव के अंकन में केदार हिन्दी मे अद्वितीय हैं । 8
बसन्त में प्रकृति का रूप निखर आता है। ‘बसन्ती हवा' में कवि ने हवा का मानवीकरण करते हुए उसे मस्त मौला मुसाफिर का रूप दिया है। ग्राम्य जीवन की सरलता , स्वस्थता और उन्मुक्तता के साथ ही साथ जीवन के प्रति एक स्वस्थ और आशावादी दृष्टि की छाप इस कविता पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है ः-
हवा हूँ , हवा मैं
बसन्ती हवा हूँ
वही हां, वही जो
युगों से गगन को
बिना कष्ट श्रम के
संभाले हुए हूँ
वही हां , वही जो
सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव
जिलाये हुए हूँ
अनोखी हवा हूँ
बड़ी बावली हूँ
बड़ी मस्त मौला
नहीं कुछ फिकर है
बड़ी ही निडर हूँ
जिधर चाहती हूँ
उधर झूमती हूँ
मुसाफिर अजब हूँ
धूप केदार की अनेक छोटी-बड़ी कविताओं का विषय है। धूप केदार के लिये वैसी ही है जैसे निराला के लिए बादल । उनकी जीवन शक्ति, उनकी स्वतंत्रता, प्रसन्नता और कविता का प्रतीक । धूप के विभिन्न रूपों , रंगों और कई मुद्राओं का उन्होंने तन्मयता और बारीकी से चित्रण किया है। कभी वह धूप पर बैठी मुलायम खरगोश की भाँति लगती है जिसके स्पर्श मात्र से जीने का ज्ञान मिल जाता है। कभी वह प्रेयसी लगती है जो छत पर अपने प्रियतम से मिलने जाती है और दुपट्टा भूलकर चली जाती है, कभी वह चमकती चांदी की साड़ी पहन कर मैके में आयी बेटी की तरह मगन हैं ,उदास है। दिन में वह माँ से बिछुड़े पुत्र की तरह खड़ी दिखायी देती है, तो प्रसन्नतापूर्ण प्रभात में वह शिव के जटाजूट पर उतरती हुयी गंगा बन जाती है। सुबह की कंचन किरणें जब धरती पर धीरे-धीरे कदम रखती हैं तब छोटा सा गाँव केसर की क्यारी बन जाता है। गाँव के कच्चे घर कंचन के पानी में डूब जाते हैं। शाम की धूप पातहीन डालों के पीत फूलों पर जगर मगर चलते दीपों की तरह चमकती है। 9
जनवादी कवि होने के कारण उन्होंने ग्रामीण प्रकृति केे चित्र अपनी कविता में अधिक उतारे हैं जो खेत-खलिहानों से संबंधित हैं। पेड़-पौधें, नदियाँ, पहाड़, फसल सब कुछ उनकी कविताओं में उपलब्ध हो जाता है। ‘खेत का दृश्य' नामक कविता में उन्होंने धरती को ‘राधा' के रूप में तथा ‘कृषक' को कृष्ण के रूप में देखा है। आसमान ही इसका दुपट्टा है और धानी फसल ही इसकी घंघरिया है-
आसमान की ओढ़नी ओढ़े।
धानी पहने फसल घंघरिया॥
राधा बनकर धरती नाची।
नाचा हँसमुख कृषक संवरिया॥
यहाँ कलरव करते हुए पक्षी कवि को फाग गाते से लगते हैं। हवा की लहर में फसल ऐसी झूमती है जैसे कोई नर्तकी नृत्य कर रही हो -
जी भर फाग पखेरू गाते।
ढरकी रस की राग गगरिया॥
खेतों के नर्तन उत्सव में।
भूला तन-मन गेह डगरिया॥ 10
केदारनाथ जी ने अपने कवि जीवन का प्रारम्भ प्रेम और श्रृ्रंगार के रूमानी कवि के रूप में किया था किन्तु परवर्ती कविताओं में उनका मानवीय और प्राकृतिक सौंदर्य रूप ही अधिक मुखर हुआ है। कवि और किसान का अमिट संबंध रहता हैं। उनकी प्रकृति संबंधी कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उनमें प्रकृति को किसी मध्यम वर्गीय रुग्ण और कुण्ठाग्रस्त दृष्टि से नहीं, एक किसान की स्वस्थ , सरल, ग्राम्य और रूमानी दृष्टि से देखा गया है। चने के पौधे उन्हें सिर पर मुरेठा बांधे बुन्देलखझडी युवक प्रतीत होते हैं, जबकि ‘अलसी' पतली कमर वाली युवती जो उनके पास ही खड़ी है- ‘चन्द्र गहना से लौटती बेर' (युग की गंगा 1947) का यह चित्र इसका प्रमाण है ः-
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिगना चना
बांधे मुरेठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सज कर खड़ा है।
पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली , कमर की है लचीली
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ाकर
कह रही है, जा छुए यह
दूं हृदय का दान उसको।
और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी
हाथ पीले कर लिये हैं
ब्याह मण्डप में पधारी।
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे
देखता हूँ मैं ः स्वयंवर हो रहा है।
प्रकृति का चित्रण करते समय कवि सूरज, चांद और बादलों के सौन्दर्य का मनभावन वर्णन करता है। समुद्र का वर्णन करने के साथ-साथ वह आने वाले तूफान को भी अपने काव्य का कथ्य बनाता है। लोक और आलोक (1957) काव्य संग्रह की कविता ‘लेखकों से ' में कवि इन सबके प्रति अपने भावों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हुए कहता है ः-
सूर्य हो लेकिन छुपे हो बादलों में
कान्ति हो लेकिन पले हो पायलों में
सिन्धु हो लेकिन नहीं तूफान लाते
चांद की मुस्कान में हो प्रान पाते।
कवि ने लोकगीतों के माध्यम से भी प्रकृति की अलौकिकता को वर्णित करने का नवीन कार्य किया है। लोक जीवन के सीधे सरल उपमानों ने काव्य गीतों को लोक रस से सम्पृक्त कर दिया है। लोक गीतों की धुन , शब्दावली और भाव-भूमि को छूती हुयी शैली के कई गीतों की संरचना की है। ऐसे गीतोंं में ‘मांझी न बजाओ वंशी' सर्वश्रेष्ठ है।
मांझी न बजाओे बंशी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता, जैसे जल डोलता
जल का जहाज जैसे पल-पल डोलता।
मांझाी न बजाओ बंशी मेरा मन टूटता
मेरा प्रन टूटता, जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे बन बन टूटता।
सौन्दर्य विधान में केदारजी का कोई सानी नहीं हैं । काव्य में बिम्ब का प्रयोग कर चित्र सौन्दर्य उपस्थित करना उनकी अनोखी और अभूतपूर्व कला है। उनकी काव्य पंक्तियाँ वस्तु का पूर्ण स्वरूप नेत्रों के सम्मुख प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। उनकी कविताओं में बुन्देलखण्ड की धरती की सोंधी महक ह,ैं केन नदी के सौन्दर्य पर मुग्ध कवि ने उसका चित्रण एक चंचल युवती के रूप में किया है। केन की सुन्दरता के साथ- साथ बिम्ब का गठजोड़ यहाँ दृष्टव्य है ः-
रोक सका है कौन प्रवाहित युग का पानी
आदि काल से काट रहा है लट चट्टानी
भरागढ़ का किला सुनाता है यह गाथा
ऊंचे सूरज से ऊंचा है जन का माथा
फूल नहीं रंग बोलते है(1965) केदारनाथ जी का प्रतिनिधि संकलन है। इसमें लघु कविताओंं के माध्यम से उनका प्रकृति प्रेमी रूप ही अधिक मुखरित हुआ है। कुछ में केवल एक बिम्ब या एक उपमा है-
मैं पहाड़ हूँ
और तुम !
मेरी गोद में बह रही नदी हो।
कुछ में ऐसी काव्यात्मक स्थिति है जिनका उपयोग कविता के रूप में किया जा सकता था-
तुम मिलती हो
हरे पेड़ की जैसे मिलती धूप
आंचल खोले
सहज
स्वरूप।
प्रकृति प्रेरित परवर्ती कविताएँ कवि की परिष्कृत अभिव्यक्ति और सूक्ष्म संवेदनशीलता की प्रमाण है । प्रकृति संबंधी लघु कविताओं में ‘एक खिले फूल से ', ‘आज नदी बिल्कुल उदास थी', ‘चील दबाये है पंजों में ' , हरी घास का बल्लम', चारों कवितायें सौन्दर्यबोध में अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य से सम्पृक्त गहन प्रभाव को ‘एक खिले फूल' में संश्लिष्ट अभिव्यक्ति मिली है।
झाड़ी के एक खिले फूल ने
नीली पंखुरियों के एक खिले फूल ने
आज मुझे काट लिया
ओंठ से
नदी का मानवीकरण (नारी) रूप छायावादी काव्य में बहुत मिलता है लेकिन उस समय के कवियों ने उसके उछृंखल रूप का ही प्रायः वर्णन किया है। केदारनाथ जी ने नदी का संभ्रान्त कुल की नारी के रूप में वर्णन किया जो एक सच्चे प्रकृति प्रेमी का परिचायक है। ‘आज नदी बिल्कुल उदास थी ' कविता में नदी के सौंदर्य को नारी की जिस मर्यादा, शालीनता, सम्मान और शिष्टता के साथ कवि ने उद्धृत किया वह गौरवपूर्ण बात है।
आज नदी बिल्कुल उदास थी
सोयी थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पांव घर वापस आया।
दबे पांव घर वापस आया।
प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते समय कवि पशु-पक्षियों के क्रिया-कलाप और उनके रूप को भी काव्य का विषय बनाता है। ये वर्णन शारीरिक ही नहीं मानसिक धरातल पर भी अहम् होते हैं ।‘चील दबाये है पंजों में ' कविता में एक नन्ही चिड़िया के साथ , बिना उसका नाम लिये, कवि के भावात्मक तादात्म्य की यह स्थिति मन को आल्हादित कर देती है।
चील दबाये है पंजे में
मेरे दिल को
हरी घास पर
खुली हवा में
जिसे धूप में
मैंने रक्खा।
नदी, तालाब, कुआ , बावड़ी के वर्णन के साथ - साथ सागर का वर्णन करना कवि ने विस्मृत नहीं किया। आग का आईना (1970) काव्य संकलन मे ‘फिर भी ' कविता में कवि ने सागर के संग पृथ्वी , आकाश और आग को भी शामिल कर लिया है।
फिर भी सागर, पृथ्वी, नदियां , आकाश और आग
मार पर मार के बाद भी समाप्त नहीं हुए
और अब भी लहराता है सागर भरपूर जवान
अब भी फूल फल से भरी रहती है पृथ्वी छविमान
अब भी नये-नये चांद और सूरज उगाया करता है आकाश
परवर्ती कविताओं में केदार जी काव्य संवेदना एवं काव्य सौन्दर्य में एक निखार आया है, उनकी अनुभूतियाँ अधिक सूक्ष्म हुयी हैं। पेड़ की टूटी हुयी शाखा को कवि की सूक्ष्म संवेदनशीलता ने आदमी के लिये आग लेने गये हुए पेड़ के हाथ के रूप में देखा है। टूटी हुयी डाली मनुष्य के लिए आग जलाने के काम आती है, इसी तथ्य पर आधारित है यह सुन्दर कल्पना जो शिल्प की दृष्टि से ही नहींं, भाव की और कथ्य की दृंष्टि से भी बेहतर है। ‘पृथ्वी के वंशज ' और ‘मानव के वंशज' पेड़ के प्रति उनकी दृष्टि रागपूर्ण है। आग लेने जाने में कितने ही काव्यात्मक और पौराणिक आसंग निहित हैं। अनायास ही प्रोमेथ्यूस याद आ जाता है। ‘आग' भी अपना अर्थविस्तार कर लेती है।
आग लेने गया है
पेड़ का हाथ आदमी के लिए
टूटी डाल नहीं टूटी है। 11
केदार सूक्ष्म पर स्वस्थ संवेदनाओं के कवि हैं। वे अपनी पीढ़ी के उन प्रगतिशील कवियों में मुख्य हैं जिन्होंने समय के साथ-साथ अपनी कविताओं के अपने ही बनाये हुए ढा्रचों को अतिक्रान्त कर शिल्प के नये-नये प्रयोग किये हैंं । उनकी कविताओं में अभिव्यक्ति के कई ऐसे नये-नये ढंग हैं जो उनके सूक्ष्म और परिष्कृत सौन्दर्य बोध के प्रतीक हैं।
जन्मशती के बहाने ही उनकी कविताओं को समझा जा सकता है।
फिलहाल तो यह है कि
वह जो लाल गुलाब खिला है/खिला करेगा
यह जो रूप अपार हंसा है, / हंसा करेगा
यह जो प्रेम-पराग उड़ा है, /उड़ा करेगा।
धरती का उर रूप-प्रेम-मधु/पिया करेगा
हे मेरी तुम।/ यह जो खंडित स्वप्न-मूर्ति है,
मुसकाएगी/ रस के निर्झ्रर , मधु की वर्षा / बरसाएगी
जीवन का संगीत सुना कर/ इठलाएगी
धरती के / ओठों में चुंबन / भर जाएगी/
हे मेरी तुम! / काली मिट्टी हल से /
जोतो/ बीज खिलाओ/खून पसीना पानी सींचो/
बुझाओ/ महाशक्ति की नमी फसल का, /
अन्न उगाओ/ धरती के जीवन-सत्ता की, /
भूख मिटाओ'' 12
कविवर केदारनाथ अग्रवाल की सौन्दर्य चेतना ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हुई है। वह हृदय की वास्तविक अनुभूति है तथा उसमें काल्पनिक भावबोध का नितान्त अभाव हैं यह सौन्दर्य दृष्टि मार्क्सवादी चेतना से भी अनुप्राणित हैं। उन्हें विश्वास है कि-
परिस्थितियाँ अवश्य बदलेंगी..../चेतना का श्रेष्ठ संसार बनेगा /
प्रेम और सौन्दर्य का /जहाँ राज्य रहेगा। 13
डॉ पद्मा शर्मा
हिन्दी विभाग
शा.स्नात. महाविद्यालय
शिवपुरी, म.प्र.
COMMENTS