समीक्षा सामाजिक विषमताओं की अभिव्यक्ति ः कन्ट्रास्ट नाटक की रचना रंगमंच के लिये की जाती है अतः अभिनेयता एवं रंगमंचीयता नाटक का प्र...
समीक्षा
सामाजिक विषमताओं की अभिव्यक्ति ः कन्ट्रास्ट
नाटक की रचना रंगमंच के लिये की जाती है अतः अभिनेयता एवं रंगमंचीयता नाटक का प्रमुख तत्व है। नाटक लेखन के लिये पहली प्राथमिकता हो जाती है कि नाटक ऐसे हों जिन्हें सरलता से रंगमंच पर अभिनीत किया जा सके। उनमें पात्रों की संख्या कम हो, दृश्य सीमित हों तथा ऐसे दृश्य न हों जिन्हें रंगमंच पर प्रस्तुत करने में कठिनाई हो । संवाद छोटे-छोटे हों, भाषागत सरलता हो तथा रोचकता का समावेश हो। नृत्य एवं गीत हों , नाटक की भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण हो संस्कृतनिष्ठ न हो । नाटक में दार्शनिक विवेचन नहीं होने चाहिए। स्वगत कथन यदि हों तो छोटे हों ।
वर्तमान समय में नाटक का प्राचीन स्वरूप तो बहुत कुछ लुप्त होता जा रहा है क्योंकि अब बहुत से लोग नाटक रंगमंच के लिये न लिखकर पढ़ने के लिये लिखने लगे हैं । मंचीय नाटक के लिये बहुत सी बातों का ध्यान आवश्यक हो जाता है जिसे कोई सिद्धहस्त नाटककार ही लिख सकता है। समीक्षित नाटक ‘ कन्ट्रास्ट ' के फ्लेप पर भी लिखा है -‘‘ नाटक लिखना और खेलना निहायत टेक्नीकल काम है जिसमें गहन चिन्तन , अनुभव तथा कलात्मक बारीकी की जरूरत है। ''
राधेलाल बिजघावने जी का नाटक ‘कन्ट्रास्ट ' एक सौ इक्यासी पृष्ठों में समाहित चार नाटकों -‘सालू' , ‘कन्ट्रास्ट' ,‘ कुछ इस तरह', और ‘ रेगिस्तान का सफर ' का लेखा जोखा है। ये नाटक वैचारिक हैं जिन्हें पढ़कर न सिर्फ मन में चिन्तन मनन प्रारम्भ होता है वरन् विचारों की गुत्थी इस कदर अपने गुंजलक में जकड़ लेती है कि उससे पार पाना मुश्किल हो जाता है । बिजघावने जी ने अपने नाटकों में वर्तमान समस्याओं , विसंगतियों, व्यभिचारों और भ्रष्टाचार को स्पष्ट करने का प्रयास किया हैं । वर्तमान में भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप व्यावसायिकता पनपी है फलतः मानव ने स्त्री पुरुष के संबंध-संपर्क और रिश्ते-नाते भी व्यावसायिकता के चश्में से देखना शुरू कर दिये हैं। नारी- पुरुष का संबंध भावनात्मक की अपेक्षा शारीरिक संबंध रह गया है जहाँ वह केवल भोग्या है। राधेलाल जी के नाटक यथार्थ के धरातल पर तराशी हुई मीनार है। ‘‘ नाटक में जिन्दगी का यथार्थ यदि सही रूप में उतर आता है तो वह नाटक न होकर जीवन की वास्तविकता बन जाता है ।''
‘‘ सालू '' नाटक एक मजदूरिन के शोषण का आख्यान है जो शारीरिक ही नहीं मानसिक और आर्थिक स्तर पर भी शोषित होती है। दैहिक शोषण की आवृत्ति रात में कई -कई बार होती है। ‘सालू' एक आकर्षक रूप की मजदूरिन है, जो बिल्डिंग निर्माण में मजदूरी का कार्य करती है। ठेकेदार, मैनेजर , टाइमकीपर, इंजीनियर ही नहीं बड़े से बड़ा ओहदा बाला तथा ऊँचे से ऊँचा रसूखदार सालू का शोषण कर रहे हैं । मजदूर स्त्री को प्यार करने का अधिकार नहीं है। यदि ऐसा हो भी जाता है तो अभिजात्य वर्ग की आँखों में स्त्री सौन्दर्य के वशीभूत तथाकथित प्रेमी काँटे के समान चुभता है जिसका निराकरण उस पर आरोप लगाकर पूर्ण कर लिया जाता है। सालू के प्रेमी भोला पर अन्ततः चोरी का आरोप लगा दिया जाता है। सहयोग करने के जुर्म में सालू को भी पुलिस पकड़कर ले जाती है जहाँ पुलिस द्वारा भी उसका भोग किया जाता हैं । गरीबी और सुन्दरता दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। गरीबी के कारण सुन्दरता को दण्ड भुगतना ही पड़ता है। सालू ने यह वाक्य बार बार दोहराया है- ‘‘ छोटे आदमी की इज्जत नहीं होती। ''
ठेकेदार , टाईमकीपर , इंजीनियर सबके अपने रोने हैं । सब भ्रष्टाचार में तल्लीन हैं , सबको जर और जोरू चाहिये । सब औरत की देह का भोग करने को लालायित हैं। भ्रष्टाचार की इन्तहा तो देखिये कि गन्दी बस्ती के उन्मूलन के लिये पक्के मकान तैयार किये जाना है लेकिन व्यावसायिक लाभ के लिये गन्दी बस्ती को नदी किनारे स्थानांतरित कर दिया जाता है। मुख्यमंत्री जी अपने भाषण में कहते हैं-
‘‘.....लेकिन मुझे दुख है कि हमें अपनी योजना में परिवर्तन करना पड़ रहा है। हम चाहते हैं कि हमारे शहर में कारखाना खुले और औद्योगिक विकास तेजी से हो। इसी दृष्टि से हमने इन आवासगृहों को स्विच गियर बनाने वाली प्राइवेट कम्पनी को दे दिया है।
झुग्गी वासियों की झुग्गी यहाँ से हटाकर अब नदी के किनारे रामनगर में उन्हें भूमि आवंटित कर दी है। जहाँ कल तक सभी झुग्गियाँ पहुँच जाएंगी । आगामी योजना में पुनः हम रामनगर की जितनी भी झुग्गियाँ होंगी उनके स्थान पर पक्के मकान बनाने की योजना में सम्मिलित कर लेंगे। '' पृ 53
नाटक ‘कन्ट्रास्ट ' में भी भ्रष्टाचार सिर चढ़कर बोल रहा है। इसमें एक ही बात बार- बार कही गयी है ‘‘नौकरी और चरित्र एक साथ नहीं चल सकते।'' रूबी , नीतू , नीलिमा जैसी स्त्रियाँ देह के बलबूते पर नौकरी पा भी सकती हैं तो गोमती जैसी महिलायें शरीर को सीढ़ी बनाकर प्रमोशन का लाभ प्राप्त कर सकती हैं। भष्टाचार इस कदर हावी है कि बिल पास करने के लिये ‘परसेंट' बंधे हुए हैं। इससे और अधिक अंधेरगर्दी और क्या होगी कि बेकार माल की नीलामी के साथ-साथ उपयोगी कच्चे माल की भी नीलामी कर दी जाती है।
‘कुछ इस तरह' में एक ऐसी कथा को लिया गया है जिसमें समाज सुधार के लिये समाज सेवक द्वारा कलानिकेतन की स्थापना की जाती है। जब वह व्यवस्थित रूप से चलने और फलने-फूलने लगती है और उसमें निवासी महिलायें काम कर अपना मुनाफा कमाने लगती हैं तो शासन की कुदृष्टि उस पर पड़ती है और वो उस संस्था का सरकारीकरण कर देते हैं। फिर वहाँ स्त्रियों के साथ अत्याचार और अनाचार शुरु हो जाता है, उनसे जबरन दैहिक संबंध बनाये जाते हैं और उन्हें बेचा भी जाता है।
अन्तिम और चौथा नाटक ‘रेगिस्तान का सफर' नये रूप में दिखायी देता है। उसमें अपने ही अक्स के साथ बातचीत करके अपने विचारों को व्यक्त करने का माध्यम अपनाया गया है।
कुल मिलाकर नाटको में नाटकीयता कम है, पठनीयता के धरातल पर वे रचे बसे हैं । नाटकों में वैचारिकता प्रभावी है। भाषा सहज सरल तो है किन्तु दार्शनिकता इतनी अधिक हावी है कि शैली में प्रवाह नहीं आ पाता । ये नाटक वार्ता के समान दिखायी देने लगते हैं और कभी - कभी लगता है कि सामान्य कथा पढ़ी जा रही है और ऊब महसूस होने लगती है अतः उन्हें नाटक कहने में संकोच होता है।संवाद छोटे-छोटे भी हैं पर लम्बे वाक्यों का आधिक्य है।
नाटककार ने अपने नाटकों में स्त्री को सशक्त नहीं दिखाया। परिस्थितियों के साथ महिला पात्र समझौता करती चलीं हैं। उनका संशय, उनका जुझारुपन और उनकी चारित्रिक जीत नहीं दिखाई है। स्त्री सशक्तीकरण न जाने कहाँ लुप्त हो गया है। इससे और अधिक भयावह स्थिति और क्या होगी जब एक ही रात में भोलासिंह, विक्रमसिंह और रामसिंह सालू के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं। जिसमें रामसिंह तीन बार संभोग करता है। मुद्दा यह नहीं है कि क्या एक स्त्री एक ही रात में इतना सब सहन कर पायेगी वरन् प्रश्न यह भी है कि वहाँ स्त्री द्वारा कोई विरोध प्रदर्शित नहीं किया गया । जानवर तक के साथ यदि ऐसी स्थिति होगी तो वह भी विरोध करता दिखाई देगा। मुद्दा यह भी है कि ‘‘ नौकरी और चरित्र दोनों एक साथ क्यों नही चल सकते '' शायद लेखक के मन में कोई ग्रन्थि है । तीन नाटको में शारीरिक संबंधों को ही नौकरी,उन्नति और जीने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत किया गया है। क्या इस प्रकार के दृश्य मंचित किये जा सकते हैं ?उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा ।
सालू नाटक पृ 11 से लेकर पृ 56 तक फैला हुआ है जिसमें आठ दृश्य परिवर्तित किये गये हैं -
पहला पृ 16 पर,
दूसरा पृ 25 पर,
तीसरा पृ 31 पर,
चौथा पृ 34 पर,
पाँचवा पृ 42 पर,
छठवाँ पृ 45 पर,
सातवाँ पृ 50 पर
आठवाँ पृ 53 पर,
क्या इतने दृश्य मंच पर परिवर्तित किये जा सकते हैं ?
कुल मिलाकर लेखक इन विषमताओं को लेकर कथा कहानी का माध्यम अपनाता तो बेहतर था । एक कथा के रूप कथ्य अच्छे हैं जिनमें सामाजिक समस्याओं को लिया गया है। इनको नाटक कहने में ही संकोच हो रहा है। नाटकीय स्तर पर इनमें बहुत परिवर्तन की आवश्यकता है।
डॉ पद्मा शर्मा
एफ-1 प्रोफेसर कॉलोनी
शिवपुरी म प्र
--
पुस्तक-कन्ट्रास्ट
लेखक- राधेलाल बिजघावने
प्रकाशक-एसकेजी पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स दिल्ली
मूल्य- 250.00 रुपये
समीक्षक -डॉ पद्मा शर्मा
COMMENTS