आचार्य क्षेमचन्द्र ‘ सुमन ' · डॉ. इन्द्र सेंगर आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन का जन्म 16 सितम्बर, 1916 ई. को उत्तर प्रदेश के मेरठ ज...
आचार्य क्षेमचन्द्र ‘सुमन'
· डॉ. इन्द्र सेंगर
आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन का जन्म 16 सितम्बर, 1916 ई. को उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद (अब गाजियाबाद) की हापुड़ तहसील के बाबूगढ़ नामक ग्राम में हुआ था। बाबूगढ़ भारत की चार विशेष घुड़सवार फौजों की छावनियों में से एक रहा है। ये छावनियाँ ‘रिमाउण्ड डिपो' कहलाती थीं। इनमें बाबूगढ़ (इण्डिया) के पते से ही पत्राचार होता था।
सुमन जी के पिता श्री हरिश्चन्द्र सारस्वत बाबूगढ़ की छावनी में सैनिक अश्वशाला के निरीक्षक थे। सरकारी सेवा से जो समय बचता था, उसमें वे पौरोहित्य किया करते थे। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय बात यह है कि संस्कृत शिक्षा रहित होते हुए भी वे पौरोहित्य में बड़े-बड़े धुरन्धरों के छक्के छुड़ा देते थे।
सुमन जी के परिवार में उनके बड़े भाई श्री लखीराम शर्मा को छोड़कर और कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। आपके सुकुमार जीवन के 5-6 बसन्त माँ की ममतामयी बाँहों में झूलते हुए गुजर गए। फिर एक दिन वह आया कि बगल में बस्ता दबाए हाथ में तख्ती लिए आप ग्राम की पाठशाला में पढ़ने जाने लगे। यह सन् 1924 ई. की बात है।
जिस समय ‘साइमन कमीशन' का अंगद-चरण भारत में जम चुका था, उस समय आप पापहारिणी जाह्नवी कि किनारे महामहिम दर्शनानन्द सरस्वती की चरण-छाया में पोषित शिक्षा केन्द्र गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रविष्ट हुए। यह सन् 1928 ई. की बात है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के कारण सन् 1932 ई. में आप सर्वप्रथम महाविद्यालय के छोटे ब्रह्मचारियों की आर्य किशोर सभा के मंत्री बन गए। इतना ही नहीं, उसी वर्ष आपने आर्य किशोर सभा के हस्तलिखित मासिक मुखपत्र ‘किशोर मित्र' के ‘दीपमालिका अंक' का सम्पादन भी किया था। यह आपकी प्रतिभा का ही चमत्कार था कि इस अंक के कुशल सम्पादन, सौंदर्य एवं सौष्ठव से प्रभावित होकर अनेक विद्वानों ने मुक्त कंठ से इस अंक की प्रशंसा की थी। उक्त अंक की अनेकशः विद्वानों द्वारा सराहना किए जाने का सुपरिणाम यह हुआ कि आपकी साहित्यिक चेतना का उदीयमान सूर्य अपनी तेजस्वी रश्मियों को साहित्य-जगत् में प्रकाशित करता हुआ आलोकित होने लगा और उसी वर्ष बसन्तोत्सव के पावन पर्व पर आपने एक और रत्न हिन्दी-जगत् को दिया था। यह था हस्तलिखित ‘सुधांशु' मासिक पत्र, जो अविरत कीर्ति अर्जित करता हुआ कई वर्षों तक प्रकाशित होता रहा। उस युग में ‘सुधांशु' ने हिन्दी-जगत् को अनेक ऐसे विशेषांक प्रस्तुत किए, जिनकी पं. हरिशंकर शर्मा कविरत्न, श्री द्वारिका प्रसाद ‘सेवक', श्री ईश्वरदत्त मेधार्थी और पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ आदि विद्वानों एवम् शिरोमणियों ने उन्मुक्त हृदय से प्रशंसा की थी।
उपर्युक्त पत्रों की भांति ही आपने महाविद्यालय के संस्कृत एवं हिन्दी विभागों के बड़े ब्रह्मचारियों की विद्वत्कला परिषद् के मासिक मुखपत्र ‘विद्वत् कला' का भी सफल सम्पादन किया था।
सन् 1936 ई. में आपकी गुरुकुलीय शिक्षा पूर्ण हो गयी। उसी समय शीतलप्रसाद ‘विद्यार्थी' ने शान्ति प्रेस, सहारनपुर से ‘आर्य' नामक एक सामाजिक-क्रान्तिकारी सचित्र साप्ताहिक पत्र निकालने का विचार सुमन जी के समक्ष प्रस्तुत किया। सुमन जी ने उनके अनुरोध पर, उस पत्र का एक वर्ष तक सुचारु रूपेण सम्पादन किया, परन्तु आर्थिक समस्याओं के कारण वह पत्र बन्द हो गया। उसी वर्ष आप 5 फरवरी, 1938 को आयोजित आर्य किशोर सभा के रजत-जयन्ती महोत्सव के स्वागताध्यक्ष मनोनीत किये गये। आपने इस महोत्सव में पूर्ण मनोयोग से कार्य किया। इसी वर्ष हरिद्वार में होने वाले कुम्भ मेले के अवसर पर आपने 8 अप्रैल, 1938 को एक विराट् हिन्दी कवि सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसकी अध्यक्ष श्रीमती होमवती देवी थीं।
मई, सन् 1938 में सुमन जी का विवाह हो गया और वे जीविकोपार्जन की चिन्ता से घिर गए। परिणामतः जनवरी, 1939 में ‘आर्य सन्देश' के सम्पादकीय विभाग में आगरा चले गए। यह पत्र आर्थिक कठिनाइयों के कारण केवल दो मास तक ही चल कर बन्द हो गया। फलतः मार्च, 1939 से आप ‘आर्य मित्र' में चले गए। उस समय आपका वेतन बारह रुपये मासिक था। अक्तूबर, 1939 ई. में अमेठी राज्य के राजकुमार रणंजयसिंह ने अपने खर्चे पर आपको ‘मनस्वी' मासिक का सम्पादन करने के विषय में विचार-विमर्श करने के लिए बुलाया और चालीस रुपये मासिक पर नियुक्ति की सूचना देते हुए 4 नवम्बर, 1939 को इस प्रकार लिखा-“आप यहाँ शीघ्र से शीघ्र चले आइए, क्योंकि ‘मनस्वी' के प्रकाशन में बहुत विलम्ब हो रहा है। आपके लिए चालीस रुपये मासिक का प्रबन्ध हो जाएगा।” सुमन जी वहाँ चले तो गए परन्तु वहाँ का वातावरण और क्रियाकलाप उन्हें रास नहीं आए और गर्मियों में राजकुमार के विजगापट्टम की समुद्र-यात्र पर जाने के बाद उनकी अनुपस्थिति में तार द्वारा अपने त्याग-पत्र की सूचना देकर मण्डी धनोरा (मुरादाबाद) से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘शिक्षा सुधा' में पहुँच गए। दिसम्बर, 1940 में आपने वहाँ से भी त्यागपत्र दे दिया। अक्तूबर, 1941 में आप हिन्दी-भवन, लाहौर में साहित्यिक सहायक होकर चले गए। वहाँ पर आपकी भेंट प्रसिद्ध नाटककार और कवि उदय शंकर भट्ट और हरिकृष्ण ‘प्रेमी' से हुई, जिनकी प्रेरणा से आप सम्पादन-कार्य के साथ-साथ लेखन-कार्य की ओर भी प्रवृत्त हो गए। उन दिनों हिन्दी की रत्न, भूषण, प्रभाकर आदि परीक्षाओं की सहायक पुस्तकें तैयार करने का श्रेय सुमन जी ने ही प्राप्त किया था।
लाहौर में रहते हुए सुमन जी हिन्दी ‘मिलाप' में उसके सम्पादक श्री लेखराज के साथ काम करने लगे। सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो' आन्दोलन में सुमन जी का निवास क्रांतिकारी नेताओं और कार्यकर्ताओं की शरण-स्थली बन गया। उन क्रान्तिकारियों में पत्रकार, अध्यापक, राजनीतिक और छात्र-छात्राएँ शामिल थे। पुलिस को इस बात का सुराग मिल गया और एक दिन वह आया कि पुलिस ने उनके घर को चारों ओर से घेर लिया। तलाशी में आचार्य दीपंकर पुलिस के हाथ लगे। क्योंकि वे विकलांग थे, इसीलिए पुलिस को उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी। इसी कारण सुमन जी भी पुलिस की आँखों में खटकने लगे और कुछ दिनों बाद उन्हें भी नजरबन्द कर लिया गया। इस प्रकार जून, 1945 तक स्वतन्त्रता-सेनानी के रूप में सक्रिय भाग लेने के उपरान्त जुलाई, 1945 ई. में आप दिल्ली आकर जम गए।
मार्च, 1956 में आपके जीवन में ऐसा मोड़ आया कि आप ‘साहित्य अकादमी' नई दिल्ली की सेवाओं से जुड़ गए। यहाँ पर लगभग 24 वर्ष प्रकाशन एवं कार्यक्रम अधिकारी के पद पर कार्य करने के उपरान्त अक्तूबर, 1979 से आपने दस खण्डों में प्रकाश्य ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' नामक आकर-ग्रन्थ के प्रणयन द्वारा हिन्दी के संवर्धन तथा विकास का वास्तविक इतिहास प्रस्तुत करने का जो महत्त्वपूर्ण अभियान प्रारम्भ किया, वह वास्तव में आपकी साहित्यिक साधना की चरम परिणति है। यदि आपने इस योजना की परिकल्पना न की होती, तो अतीत के अन्धकार में विलुप्त होते जा रहे हिन्दी के हजारों लेखकों, मनीषियों, सेवकों और साधकों के बारे में हम अनभिज्ञ ही बने रहते। इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के अभी तक दो खण्ड ही प्रकाशित हुए थे कि उन्हें श्वास-रोग ने दबोच लिया और लगभग 10 वर्ष की लम्बी बीमारी के बाद 23 अक्तूबर, 1993 की रात्रि को 8ः50 पर वे स्वयं भी दिवंगत हिन्दी-सेवियों की सूची में सम्मिलित हो गए। हिन्दी-साहित्य का एक विशाल जलयान, जो अनेकशः बहुमूल्य रत्नों से लदा हुआ था, काल के महासागर में जल-समाधि ले गया।
व्यक्तित्व
सुमन जी को स्वदेशी और खादी से स्वाभाविक प्रेम था, उनमें किसी फसली-नकली की मिलावट नहीं थी। मझोला कद, स्वच्छ-सादा लिबास, छरहरा बदन, सदाबहार पुष्प की भाँति सदैव मुस्कान बिखेरता हुआ चेहरा, और उस पर जटित काला तिल। उन्नत मस्तक, चिन्तनशील आँखें मिलने वाले पर अनायास ही अपना सम्मोहक पाश डाल देती थीं। उस पर भी खादी का कुर्ता, चूड़ीदार पाजामा अथवा धोती, शेरवानीनुमा लम्बा कोट, सिर पर खादी की नुकीली टोपी और पैरों में पम्प-शू। यदा-कदा साहित्यिक अनुष्ठानों में श्वेत खादी के परिधान धारण कर लेते थे। यद्यपि जीवन का काफी सफर वे तय कर चुके थे फिर भी वे थके नहीं थे। वे अदम्य साहस, पौरुष और कर्मण्यता की प्रतिमूर्ति थे। अपनी राह के पत्थर हटाकर चलने का बल उनमें था। वे कायर नहीं बहादुर थे। उनकी निष्ठा, स्फूर्ति, सजीवता, मस्ती एवं फक्कड़पन, औदार्य और वाक्पटुता तथा आत्माभिमान अनुकरणीय हैं। आतिथ्य-सत्कार उनके जीवन का विशिष्ट अंग था। बड़ा और छोटा प्रत्येक साहित्यकार उनका आतिथ्य प्राप्त कर सकता था। प्रत्येक अतिथि के सम्मान की ललक उनके कमरे में सुशोभित कबीर की ये पंक्तियाँ प्रस्तुत करती हैं-
साइर्ं इतना दीजिये, जामें कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय॥
ये पंक्तियाँ सुमन जी की संतोष-वृत्ति का प्रमाण हैं। यही कारण है कि सुमन जी का अपना एक आदर्श था, चरित्र था। उनका अहम् किसी द्वेष का कायल नहीं था। वे विनोदप्रिय थे। साहित्यिक परिवेश से हटकर दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन में व्यंग्य विनोद, हास परिहास उनकी मस्ती के परिचायक थे। उन्हें कभी क्रोध नहीं आता था, जब कोई सत्य का मर्दन करके उनके अहम् और स्वाभिमान पर चोट पहुँचाने का प्रयास करता था, तो उनका क्रोध तुलसी के परशुराम से कम नहीं होता था। हाँ, दिल के वे एकदम साफ थे। कोई गलती हो जाय, उनसे क्षमा माँग लो; सुमन जी के यहाँ सर्वदा के लिए माफ। उनके व्यक्तित्व को स्पष्ट करने में उन्हीं की पंक्तियाँ सार्थक सिद्ध होती हैं-“मैं अपने साहित्यिक जीवन में प्रारम्भ से ही अध्ययनशील रहा हूँ। संघर्ष को अपना मूल ध्येय मानता हूँ। वास्तव में निरन्तर संघर्ष करते रहने की भावना तथा अनवरत अध्ययन करते रहने की लालसा ने ही मुझे कर्म-पथ पर बढ़ने की अदम्य प्रेरणा दी। जिन कार्यों को कोई भी न कर सके, ऐसे कार्यों में सहज ही हाथ डालने की मेरी आदत-सी हो गई है। लेखन, अध्ययन, चिन्तन और मनन के दैनिक कार्य से जब जी उकता जाता है तो जन-सेवा की पावन मंदाकिनी में अवगाहन करके मैं अपने में ताजगी लाता हूँ। कबीर का फक्कड़पन, रहीम का स्वाभिमान और तुलसी की परोपकार-परायणता मेरे जीवन के प्रेरणा-स्रोत रहे हैं।”
रचना-संसार-माँ भारती के मंदिर में जिन कृतियों का पावन नैवेद्य लेकर सुमन जी ने अनन्यार्चना की, उनमें मौलिक और सम्पादित दोनों ही प्रकार की कृतियाँ हैं। मौलिक कृतियों की संख्या तीन दर्जन से ऊपर और सम्पादित कृतियों की संख्या पाँच दर्जन से भी अधिक है। उनका रचना-संसार इस प्रकार है-
मौलिक रचनाएँ ः
काव्य-मल्लिका (1943), बन्दी के गान (1945), कारा (1946), और अंजलि (2010)।
समीक्षा-हिन्दी साहित्य ः नये प्रयोग (1949), साहित्य-सोपान (1950), साहित्य-विवेचन (1952), हिन्दी साहित्य और उसकी प्रगति (1958), साहित्य विवेचन के सिद्धान्त (1958), आधुनिक हिन्दी साहित्य (1960), हिन्दी साहित्य को आर्यसमाज की देन (1970), साठोत्तरी हिन्दी कविता (1971), मेरठ जनपद की साहित्यिक चेतना (1977), शोध और सन्दर्भ (1985), चिन्तन और चर्चा (1986), नई पीढ़ी के कवि, कृतियाँ और कला (दोनों अप्रकाशित)।
इतिहास-हमारा संघर्ष (1946), कांग्रेस का संक्षिप्त इतिहास (1947), आजादी की कहानी (1949), हम स्वाधीन हुए (1987), अगस्त क्रान्ति (1996)।
जीवनी-नेताजी सुभाष (1946), नये भारत के निर्माता (1948), जीवन-ज्योति (1962), अमरदीप (1968), यशस्वी पत्रकार (1986), भारत के कर्णधार (1996)।
संस्मरण-रेखाएँ और संस्मरण (1975), जाने-अनजाने (1989), चमकते जीवन ः महकते संस्मरण (1990), मेरे प्रिय ः मेरे आराध्य (1993)।
निबन्ध-प्रभाकर निबन्धावली (1948), सुमन-सौरभ (1950), कुछ अपनी ः कुछ पराई, प्रारंभिक लेख (दोनों अप्रकाशित)।
संदर्भ ग्रंथ-दिवंगत हिन्दी-सेवी (10 खण्डों में प्रकाश्य)-प्रथम खण्ड (1981), द्वितीय खण्ड (1983)।
बाल-साहित्य-ये भी बोलते हैं (1981), खिलौने वाला (1984), इतना तो सीखो ही (1993)।
सम्पादित एवं संकलित रचनाएँ ः
काव्य-लाल किले की ओर (1946), गांधी भजनमाला (1948), हिन्दी के लोकप्रिय कवि ः नीरज (1960), हिन्दी के लोकप्रिय कवि ः रामावतार त्यागी (1961), हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रेमगीत (1961), आधुनिक हिन्दी कवयित्रियों के प्रेमगीत (1962), चीन को चुनौती (1962), सरल काव्य संग्रह (1964), हिन्दी कवयित्रियों के पे्रमगीत (1965), नारी तेरे रूप अनेक (1966), वन्दना के स्वर (1975)।
भाषा-परिचय-उर्दू और उसका साहित्य (1952), तमिल और उसका साहित्य (1952), तेलुगू और उसका साहित्य (1953), मराठी और उसका साहित्य (1953), मालवी और उसका साहित्य (1953), बंगला और उसका साहित्य (1953), अवधी और उसका साहित्य (1954), भोजपुरी और उसका साहित्य (1954), संस्कृत और उसका साहित्य (1955), गुजराती और उसका साहित्य (1956), प्राकृत और उसका साहित्य (1956)।
कहानी-गल्प-माधुरी (1948), मनोरंजक कहानियाँ (1950), पारिवारिक कहानियाँ (1951)।
एकांकी-नीर-क्षीर (1949), एकांकी संगम (1958)।
निबन्ध-राष्ट्रभाषा हिन्दी (1948), गद्य सरोवर (1951), निबन्ध भारती (1957), सरल गद्य (1962)।
जीवनी-संस्मरण-जैसा हमने देखा (1950), पं. पद्मासिंह शर्मा (1951), साहित्यिकों के संस्मरण (1952), जीवन-स्मृतियाँ (1952), नेताओं की कहानी ः उनकी जुबानी (1952), बापू और हरिजन (1953), भारतीय आत्माएँ (1975)।
अभिनन्दन-ग्रंथ-डॉ. एन. चन्द्रशेखरन नायर अभिनन्दन ग्रंथ (1979), निष्काम-साधक (1984), समर्पित यायावर ः राजेन्द्र शर्मा (1985)।
स्मृति-ग्रंथ-आत्मशिल्पी कमलेश (1976), अणुव्रती तापस ः गोपीनाथ अमन (1988), चाँदकरण शारदा जन्म-शती-ग्रंथ (1988)।
स्मारिकाएँ-भारतीय साहित्य ः आदान-प्रदान (1970), स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज (1973), राजभाषा हिन्दी ः प्रगति और प्रयोग (1975), राजभाषा हिन्दी ः प्रगति के बढ़ते चरण (1976)।
सम्पादन-सहयोग-प्रेरक साधक (बनारसीदास चतुर्वेदी अभिनन्दन-ग्रंथ), बाबू वृंदावन दास अभिनन्दन ग्रंथ, स्वामी रामानन्द शास्त्री अभिनन्दन ग्रंथ, हिन्दी पत्रकारिता ः विविध आयाम, मेरठ जनपद ः एक सर्वेक्षण, समर्पण और साधना, जानकी देवी बजाज अभिनन्दन ग्रंथ, महाकवि शंकर अभिनन्दन ग्रंथ तथा हीरालाल दीक्षित अभिनन्दन ग्रंथ।
पत्र-पत्रिकाएँ-आलोचना (त्रैमासिक), मनस्वी (मासिक), शिक्षा-सुधा (मासिक), आर्य (साप्ताहिक), आर्य सन्देश तथा आर्यमित्र (साप्ताहिक), हिन्दी-मिलाप (दैनिक) आदि।
भूमिका-लेखन-सुमन जी ने अपनी साहित्यिक यात्रा में अन्य साहित्यकारों द्वारा विभिन्न विधाओं में लिखित लगभग सौ पुस्तकों की भूमिकाएँ लिखी हैं। इनके अतिरिक्त स्वयं लिखित कतिपय पुस्तकों की भूमिकाएँ भी उल्लेखनीय हैं।
उपयुक्त रचनाओं के आधार पर सुमन जी के कृतित्व को निम्नलिखित रूपों में मूल्यांकित किया जा सकता है-
1. राष्ट्रीय संचेतना एवं जीवन की पुकार के कवि ः
अपनी काव्य-रचनाओं में सुमन जी ने विरही साधक एवं राष्ट्रीय चेतना के कविरूप में अनुभूतियों का सम्प्रेषण किया है, जिनमें से प्रथम दो और चतुर्थ रचनाएँ मुक्तक और तृतीय रचना इतिवृत्तात्मक खण्डकाव्य हैं। डॉ. विमल कुमार जैन के शब्दों में “यह खण्डकाव्य एक जागृति का काव्य है, जिसका महानतम सन्देश है मातृ-भू पर सर्वस्व लुटा देना। इस प्रकार इसके भाव तो सुन्दर हैं ही, भाषा भी मनोज्ञ एवं परिमार्जित है, जिसमें नैसर्गिक आलंकारिक छटा ने सौष्ठव को और भी परिवर्धित किया है।” आपके काव्य-संग्रह ‘अंजलि' की भूमिका में कविवर श्री माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा है-“कविता को अपनी जागीर कहकर, बाँध कर रखने का जो आयास हम करते हैं, उसमें शब्दों की क्लिष्टता, कल्पनाओं की दुरूहता और सबसे अधिक हमारे जीवन के हमारे काव्य से दूर से दूर रहने और होते जाने वाले स्वभाव का हम इतना पोषण करते हैं कि हमारी कहन, काव्य का आनन्द देने वाली होने के बजाय कूट प्रश्नों की बुझौवल-सी हो जाती है। क्षेमचन्द्र सुमन ने वह पथ नहीं पकड़ा।”
2. तटस्थ समीक्षक ः
सुमन जी ने अपनी साहित्य-विवेचना सम्बन्धी कृतियों द्वारा हिन्दी-साहित्य के इतिहास में भी सर्वदा नूतन क्रान्ति का श्रीगणेश किया। उनका ‘साहित्य विवेचन' अकेला ही ग्रंथ हिन्दी में ऐसा है, जिसकी महत्ता शीर्षस्थ विद्वानों ने स्वीकार की है। इस ग्रंथ के सम्बन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने-“आपने पौर्वात्य और पाश्चात्य दोनों ही दृष्टियों से साहित्य-विवेचन का कार्य कर दिखाया है...पुस्तक की उपादेयता के बारे में तो कोई सन्देह है ही नहीं...” लिखकर अपनी जो आस्था प्रकट की है, उसको डॉ. नगेन्द्र के इस अभिमत से और भी बल मिलता है-“इसमें भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही काव्यशास्त्रों को अपने विश्लेषण का आधार बनाकर साहित्य के नवीन और प्राचीन सभी रूपों का विवेचन किया है...। मैं समझता हूँ, गद्य-गीत रेखाचित्र और रिपोर्ताज का विवेचन सबसे पहले इसी ग्रंथ में हुआ है।” डॉ. सत्येन्द्र ने जहाँ इस पुस्तक को सिद्धान्त, उदाहरण और इतिहास की त्रिवेणी कहा है, वहाँ प्रख्यात आलोचक श्री शिवदान सिंह चौहान ने इसकी उपादेयता सिद्ध करते हुए लिखा है-“यह पुस्तक एक साधारण विद्यार्थी और मर्मज्ञ अध्येता दोनों के साहित्यिक ज्ञान की पीठिका बन सकती है।”
3. राजनीतिक इतिहासकार ः
सुमन जी एक सच्चे राजनीतिक इतिहासकार थे। इतिहास सम्बन्धी उनकी कृतियाँ इस बात का ज्वलन्त प्रमाण हैं। उनके द्वारा प्रणीत ‘हमारा संघर्ष' में सन् 1942 के आंदोलन का इतिहास प्रस्तुत किया गया है। ‘कांग्रे्रस का संक्षिप्त इतिहास' में कांग्रेस का जन्म, विकास, संघर्ष, अगस्त-आन्दोलन और खून की होली आदि का यथार्थ चित्रण किया गया है। ‘आजादी की कहानी' में सन् 1857 से लेकर 1947 ई. तक की क्रान्तिकारी लड़ाई का इतिहास प्रस्तुत किया गया है।
4. जीवनी साहित्य के अग्रणी लेखक ः
आचार्य सुमन जीवनी-लेखक के रूप में हिन्दी के सर्वाग्रणी साहित्यकार थे, जिन्होंने ‘नेताजी सुभाषचन्द्र बोस' नामक जीवनी की प्रथम पुस्तक लिखकर हिन्दी साहित्य को नई दिशा दी। 240 पृष्ठों में प्रकाशित यह कृति उत्कृष्ट शैली में लिखी गई है। इसके साथ ही 32 स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियों का एक संकलन ‘नये भारत के निर्माता' नाम से तैयार करके सुमन जी ने पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण और सरदार भगतसिंह जैसे राष्ट्रनिर्माताओं की जीवन-गाथा का यथार्थ चित्रण किया है।
5. मधुर संस्मरण लेखक ः
‘रेखाएँ और संस्मरण' का पारायण करने से ज्ञात होता है कि सुमन जी को अनेक साहित्यकारों, मनीषियों और विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त हुआ था, जिनसे सुमन जी ने अपने जीवन में प्रचुर प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण किया। इतना ही नहीं, सुमन जी ने इस प्रेरणा और प्रभाव को इतनी तन्निष्ठता से आत्मसात किया कि वे स्वयं अपने प्रिय और आराध्यों की श्रेणी में प्रतिष्ठापित हो गये तथा स्वयं भी एक ज्योतिपुरुष बन गए। इस कृति पर प्रकाश डालते हुए इन्दौर से प्रकाशित ‘नई दुनियाँ' (10 अक्तूबर, 1976) ने लिखा था-“सुमन जी ने इस पुस्तक में लगभग 30 साहित्यकारों के संस्मरण दिए हैं। रोचक होने के साथ-साथ यह पुस्तक हिन्दी के शीर्षस्थ साहित्यकारों के विषय में सामयिक जानकारियाँ भी प्रदान करती है, जो कि हिन्दी साहित्य के गम्भीर पाठकों और सामान्य विद्यार्थियों दोनों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सुमन जी स्वयं साहित्यसृष्टा और साहित्य-यात्रा के जागरूक परिदृष्टा रहे हैं। वे जानकारियों के जीतेजागते भण्डार हैं। यह तथ्य उनकी इस पुस्तक से और उसमें प्रकाशित अनेक महत्त्वपूर्ण पत्रों, दस्तावेजों और तथ्यों से प्रकट होता है।”
6. जागरूक निबन्धकार ः
निबन्ध के क्षेत्र में सुमन जी का निबन्धकार एक विशेषज्ञ का जामा पहनकर अपने इर्द-गिर्द सीमाओं का निर्माण नहीं करता, बल्कि मुक्त पक्षी की भाँति उड़ता हुआ कभी इस वृक्ष पर तो कभी उस वृक्ष पर बैठता है और उसका पत्ता-पत्ता छान मारता है। सब तरफ का चक्कर लगाकर वह जहाज के पक्षी की भाँति बार-बार अपने मूल विषय, भाषा और संस्कृति तथा साहित्य पर आ जाता है। जोखिम उठाने से वह कभी भयभीत नहीं होता। यथानुभव लेखन उसका धर्म है। भय और प्रलोभन उसकी तूलिका का स्पर्श तक नहीं कर पाते, अपितु कठिन, दुस्साध्य और असम्भव कार्यों में हाथ डालना उसकी आदत है। यही बात उनकी भाषण शैली में दिखाई पड़ती थी। वे एक कुशल वक्ता थे। श्रोता उनके भाषण बड़े मनोयोग से सुनते थे।
7. हिन्दी साहित्य के क्रान्तिकारी इतिहासकार ः
सुमन जी द्वारा लिखी जानेवाली ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' ग्रन्थामाला ने सुमन जी को हिन्दी-साहित्य के यशस्वी इतिहासकारों की परम्परा में जोड़ दिया है। इस ग्रन्थ के कारण ही सुमन जी का स्थान विशिष्ट रूप से एक क्रान्तिकारी इतिहासकार के रूप में स्थापित हुआ। ध्यातव्य है कि इस ग्रंथ के लिए पूर्णतः प्रामाणिक एवं उपादेय सामग्री जुटाने के लिए उन्होंने सारे देश की कई बार 70-75 हजार कि.मी. की यात्राएँ की थीं। हिन्दी साहित्येतिहास-लेखन की परम्परा जो क्रमशः गार्सा द तासी से लेकर श्री शिवसिंह सेंगर, डॉ. ग्रियर्सन, मिश्रबन्धु, श्री रामनरेश त्रिपाठी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तक आकर रुक गई थी और हिन्दी-जगत् में सर्वत्र आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास का ही पिष्टपेषण हो रहा था। ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' ग्रन्थमाला से हिन्दी-साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिली है। हिन्दी साहित्य का इतिहास अब करवट बदलने लगा है। स्वनामधन्य इतिहासकार जो लकीर के फकीर बनकर हिन्दी-मन्दिर में मठाधीश बने बैठे थे, आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन ने अपने उक्त ग्रन्थ में अनेक नूतन मान्यताओं को उद्घाटित करके उनकी आँखें खोल दीं। आश्चर्य की बात तो यह है कि वर्तमान स्वनामधन्य इतिहासकारों ने उनकी शोधपरक नूतन मान्यताओं का उतने उन्मुक्त हृदय से स्वागत नहीं किया, जितने साहस के साथ उन्हें स्वागत करना चाहिए था। कारण स्पष्ट है कि उन्हें अपने पैरों के नीचे की नकली जमीन ही असली जमीन दिखाई दे रही थी। तथापि हिन्दी-जगत् में इस ग्रन्थ का अप्रत्याशित आदर हुआ। श्री वियोगी हरि ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' के प्रथम खण्ड की भूमिका में लिखते हैं-‘जिस कार्य को शिवसिंह सेंगर, मिश्रबन्धु, रामचन्द्र शुक्ल तथा रामनरेश त्रिपाठी आदि साहित्यकारों ने हाथ में लिया था, वह बीच में कुछ शिथिल-सा हो गया। उस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए देखकर स्वभावतः बड़ा सन्तोष और आनन्द होता है। हिन्दी-जगत् के जाने-माने सुलेखक श्री क्षेमचन्द्र ‘सुमन' ने जब दिवंगत हिन्दी-सेवियों के कीर्ति-गान का संकल्प किया, तो हम सबके मन प्रफुल्लित हो गए। संकल्प यह महान् ज्ञान यज्ञ का है। विशुद्धभावना, ऊँचा साहस और अथक परिश्रम इस यज्ञ की पुनीत सामग्री है। अकेले ही सुमन जी ने इस सामग्री को जुटाया। दिवंगत हिन्दी-सेवियों का स्मृति-श्राद्ध करते हुए पुण्य सलिला गंगा में मानो वे अवगाहन कर रहे हों और दूसरों को भी इस पावन पर्व पर पुण्य लूटने का आमंत्रण दे रहे हैं।”
इस सन्दर्भग्रन्थ के प्रकाशन की महत्ता और सुमन जी के अथाह ज्ञान पर प्रकाश डालते हुए डॉ. महावीर अधिकारी ने अपने विचार इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं-“श्री क्षेमचन्द्र ‘सुमन' साहित्य के एक जीवन्त सन्दर्भग्रन्थ हैं। ऐसे हजारों हिन्दी सेवी हैं, थे और होंगे, जिनके बारे में वे इतना जानते हैं, जितना कि देश के सभी विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक कुल मिलाकर जानते होंगे, लेकिन उनका नाम ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास' लेखन के समय किसी को याद नहीं आता। बेहतर हो कि शिक्षा-संस्थानों से जुड़े इतिहासकारों के घृणित नामों का, हम स्मरण न करें।”
इस अनूठे कार्य की प्रशंसा करते हुए आलोचक श्री राजनाथ शर्मा लिखते हैं-“जो कार्य काशी नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जैसी प्रसिद्ध संस्थाएँ करने का साहस न जुटा सकीं, उसे सुमन जी ने अकेले केवल अपने बलबूते पर करके दिखा दिया है।” श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं-“श्री क्षेमचन्द्र ‘सुमन' ने इस पुस्तक में इतिहास के अज्ञात अंधेरों में गायब हो गए हिन्दी के असंख्य रचनाकारों को फिर से जीवित कर दिया है और उनका नाम ऐसे शिला-लेख के रूप में उकेर दिया है जो लम्बे समय तक अमिट रहेगा।” दिवंगत हिन्दी-सेवी के द्वितीय खण्ड का लोकार्पण करते समय 22 जून, सन् 1983 को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री ज्ञानी जैलसिंह ने इस ग्रन्थ की महानता एवं उपादेयता इस प्रकार व्यक्त की थी-“मैं समझता हूँ कि सुमन जी ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने वह काम किया है जो हमारे देश के शिक्षा मंत्रालय को, हमारे देश की यूनिवर्सिटियों को आज से 25 वर्ष पहले शुरू कर देना चाहिए था।” ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' में उद्घाटित नूतन तथ्यों के सामने पिष्टपेषित हिन्दी-साहित्य के इतिहास की अनेक मान्यताएँ दम तोड़ती नजर आती हैं। ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' के आधार पर कतिपय तथ्यों के प्रमाण प्रस्तुत हैं-
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र को खड़ी बोली का प्रथम कवि, गद्य-लेखक और नाटककार लिखा है। परवर्ती साहित्यकार इसी मान्यता का अनुसरण करते रहे। उन्होंने इससे आगे कुछ भी सोचने का कष्ट ही नहीं किया। वास्तविकता यह है कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का खड़ी बोली से दूर का भी रिश्ता नहीं था। भला वे इस आन्दोलन के सूत्रधार कैसे बन सकते थे। परवर्ती साहित्यिक इतिहासकारों ने भी खड़ी बोली के क्षेत्र की काव्य-कृतियों का अन्वेषण करने का कष्ट गवारा नहीं किया और शुक्ल जी की इसी मान्यता को नींव का पत्थर बना दिया। जबकि वास्तविकता यह है कि भारतेन्दु से पूर्व भी सन्त कवि घीसादास (1803-1868) और सन्त कवि गंगादास (1822-1913) ने खड़ी बोली में सशक्त रचनाएँ प्रस्तुत की थीं। गद्य के क्षेत्र में पं. गौरीदत्त (1836-1906) भी अपनी प्रतिभा का प्रभूत परिचय दे चुके थे। लेखक ने अपनी शोध-यात्रा में भारतेन्दु-पूर्व खड़ी बोली के सात कवियों का काव्य उपलब्ध किया है। उससे स्पष्ट जाहिर होता है कि खड़ी बोली कविता का विकास खड़ी बोली क्षेत्र की ही देन है।
2. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने श्रद्धाराम फिल्लोरी द्वारा ‘भाग्यवती' (1877) उपन्यास को खड़ी बोली का प्रथम उपन्यास स्वीकार किया है। सुमन जी के शोध के अनुसार पं. गौरीदत्त द्वारा लिखित ‘देवरानी जेठानी की कहानी' (1870) हिन्दी का पहला उपन्यास ठहरता है।
3. रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर के हिन्दी पाठ्यक्रम में निर्धारित हिन्दी साहित्य का इतिहास (डॉ. रामरतन भटनागर) में छायावाद के प्रवर्त्तक कवि मुकुटधर पाण्डेय को सन् 1918 में दिवंगत दिखाया गया, तो किसी भी लेखक ने उसका प्रतिकार नहीं किया। यहाँ तक कि उनके ही शहर में वे जीवित रहते हुए भी मृत पढ़ाए जाते रहे, जबकि उनका निधन 1989 ई. में हुआ।
4. मिश्रबन्धु भी इस प्रकार की भूलें करने में पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने ‘मिश्रबन्धु विनोद' के चतुर्थ खण्ड में पृष्ठ 555 पर बिहार के कवि रामवचन द्विवेदी ‘अरविन्द' का निधन-काल स्पष्टतः संवत् 1986 दिया है, जबकि उनका निधन सन् 1991 ई. में हुआ था।
5. ऐसा ही अद्भुत चमत्कार रामनरेश त्रिपाठी की ‘कविता कौमुदी' नामक पुस्तक के द्वितीय भाग के पृष्ठ 357 पर देखने को मिलता है। इसमें त्रिपाठी जी ने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कविताओं के साथ ‘अछूत की आह' शीर्षक, जो रचना प्रकाशित की है, वह आचार्य शुक्ल की न होकर, किसी दूसरे रामचन्द्र शुक्ल की है।
6. ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' लेखन के लिए की गई यात्रा के फलस्वरूप सुमन जी को 24 ऐसे साहित्यकारों की जानकारी मिली, जो उस समय जीवित थे, परन्तु हिन्दी साहित्य में उन्हें दिवंगत दिखाया जा रहा था। किंबहुना, अब तक लिखे गए ‘हिन्दी-साहित्य के इतिहास' अपने उदर में ऐसी ही असंख्य भ्रामक भूलों को पचाए हुए हैं। आचार्य सुमन जी द्वारा लिखित ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' आकर ग्रन्थ के प्रणयन से सुधी पाठकों का ध्यान इन भूलों की ओर निश्चय ही केन्द्रित होता है। इन सभी उद्घाटित नूतन मान्यताओं से प्रमाणित होता है कि सुमन जी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिस क्रान्तिकारी व्यक्तित्व का परिचय दिया था, उसी क्रान्तिकारी व्यक्तित्व ने हिन्दी-जगत् में व्याप्त ऐतिहासिक-अराजकता को समाप्त करने के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की एक नई क्रान्ति का प्रारंभ किया था।
इस क्षेत्र में सुमन जी एक चलते फिरते विश्वकोश थे। कोई भी जिज्ञासु उन्हें फोन करके किसी भी साहित्यिक शंका का समाधान कर सकता था।
8. सम्पादन-कला के महारथी एवं पारखी ः
सुमन जी सम्पादन-कला के महारथी थे। वे इस कला में पूर्ण निष्ठावान थे। वे सम्पादन के साथ-साथ कभी-कभी ऐसा चमत्कार भी उपस्थित कर दिया करते थे, जिससे उनकी शैलीगत प्रखरता का उत्कर्ष आभासित होता था। सुमन जी द्वारा सम्पादित ‘नारी तेरे रूप अनेक' नामक महत्त्वपूर्ण काव्य संकलन के लिए उनके अनुरोध पर प्रख्यात मनीषी और विचारक आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने 22-10-1963 के पत्र में स्पष्ट रूप से यह लिखते हुए-“भेज तो रहा हूँ, परन्तु उत्साह नहीं है। बहुत अच्छी तरह देख लीजिए। काम लायक जँचे, तभी छापिये। लिख तो बहुत दिनों से रखा था, पर भेजने में हिचक हो रही थी। अब आपके पत्रों की मार से घबरा गया हूँ। देर के लिए क्षमा करें। यह मन्दः कवियशः प्रार्थी का अच्छा नमूना है”, जब ‘बोलो काव्य के मर्मज्ञ' शीर्षक अपनी लम्बी चमत्कारिक गद्य-भूमिका भेजी तो सुमन जी ने मात्र विराम, पूर्ण-विराम-यति-गति के अनुसार कविता का रूप देकर अनुमोदन के लिए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी को भेजा और उनसे अनुरोध किया कि यदि भूमिका इस रूप में छपे तो पाठकों को आपकी काव्य-चातुरी का आस्वाद लेकर प्रसन्नता होगी। इस पर आचार्य द्विवेदी जी ने “आपने उसे कविता बना दिया अच्छा किया” लिखकर अपनी सहमति प्रकट की थी। यह उदाहरण सुमन जी की सम्पादन-कला का अच्छा उदाहरण कहा जा सकता है।
सुमन जी की अन्यतम साहित्यिक सेवाओं को दृष्टि में रखकर ही सन् 1966 ई. में राजधानी ही नहीं प्रत्युत समस्त हिन्दी-जगत् में फैले हुए उनके अनेक शुभैषियों और मित्रों ने मिलकर उनके 50वें जन्मदिवस पर उनका जो भाव-भीना अभिनन्दन किया था, वह जितना नयनाभिराम था, उतना ही अभूतपूर्व भी। उस अवसर पर आपको तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन के कर-कमलों द्वारा ‘एक व्यक्ति ः एक संस्था' नामक जो विशद अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था, उससे आपके बहुमुखी व्यक्तित्व का परिचय मिलता है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में की गई आपकी उल्लेखनीय सेवाओं को दृष्टि में रखते हुए आपको जहाँ ‘पश्चिम बंगनागरी प्रचारिणी सभा' ने सन् 1976 में ‘पत्रकार शिरेामणि' की उपाधि प्रदान की थी, वहाँ 13 अप्रैल, 1985 को ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग' ने भी गाजियाबाद में सम्पन्न अपने 32वें अधिवेशन के अवसर पर आपको सर्वोच्च मानद उपाधि ‘साहित्य वाचस्पति' प्रदान करके आपकी साहित्यिक सेवाओं का सम्मान किया था। सन् 1984 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने आपको ‘पद्मश्री' की सम्मानोपाधि से अलंकृत किया था। इसी वर्ष गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर ने भी आपको ‘विद्या वाचस्पति' (डी.लिट्.) की उपाधि प्रदान कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया था। मानव संसाधन मंत्रालय ने आपको 2000 रुपये मासिक की ‘अमरेटस फैलोशिप' प्रदान करके आपकी साहित्यिक यात्रा को गति देने का प्रयास किया था।
इसके अतिरिक्त अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने आपको अनेक मानद उपाधियों से विभूषित किया था। हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने आपको ‘विशिष्ट साहित्यकार पुरस्कार' से, भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 20 अप्रैल, 1987 को ‘भारतेन्दु पुरस्कार' से और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की ओर से दीर्घकालीन सेवाओं के लिए हिन्दी-दिवस, 1990 के अवसर पर इक्कीस हजार रुपये के ‘संस्थान सम्मान' से पुरस्कृत एवं अभिनन्दित किया था।
सुमन जी दिल्ली परिवहन निगम, नागर विमानन सेवा और जल-भूतल परिवहन मंत्रालय की हिन्दी सलाहकार समितियों के भी सदस्य मनोनीत किए गए थे। आपके साहित्यिक अवदान का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आपसे सम्बन्धित अब तक क्रमशः ‘श्री क्षेमचन्द्र सुमन ः व्यक्ति और साहित्यकार', ‘आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन ः व्यक्तित्व और कृतित्व', ‘आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन का सम्पादकीय वैशिष्ट्य' एवं ‘आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन के साहित्य का समीक्षात्मक अनुशीलन' नामक चार शोध प्रबन्धों पर विविध विश्व विद्यालयों के शोधार्थियों ने पी-एच.डी. की उपाधियां प्राप्त की हैं। हिन्दी साहित्य के लिए की गई आपकी सच्ची तपःनिष्ठा हिन्दी साहित्य के इतिहास में सदा-सर्वदा के लिए अमर एवं स्मरणीय रहेगी। आप सच्चे अर्थों में हिन्दी के एक ऐसे मनीषी थे, जो दिवंगत साहित्यकारों का पुण्य श्राद्ध कर उनकी तपःगाथा को अपने ‘दिवंगत हिन्दी-सेवी' ग्रंथ में सदा-सर्वदा के लिए अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए कृत-संकल्प थे।
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डॉ. इन्द्र सेंगर ः संक्षिप्त परिचय
सुपरिचित हिन्दी-सेवी डॉ. इन्द्र सेंगर का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के अन्तर्गत कुतुबपुर-अमरपुर नामक ग्राम में 17 फरबरी, 1951 ई. को हुआ। आपके पिता श्री गुलाब सिंह एक साधारण किसान थे। जूनियर हाईस्कूल तक की शिक्षा गाँव में रहते हुए ही प्राप्त की। हाईस्कूल से इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा का केन्द्र के.एल. जैन इण्टर कालेज, सासनी, अलीगढ़ (उ.प्र.) रहा। बी.ए. से एम.ए. तक की शिक्षा एम.एम.एच. कालेज, गाजियाबाद (उ.प्र.) से प्राप्त की। सन् 1986 ई. में आपने मेरठ विश्वविद्यालय से ‘भारतेन्दु पूर्व खड़ी बोली कविता' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। दिल्ली में रहते हुए आप सन् 1974 ई. से अब तक साहित्य-साधना में संलग्न हैं।
हिन्दी-जगत की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, कहानियाँ, समीक्षाएँ और शोध परक निबन्ध ससम्मान प्रकाशित होते रहे हैं।
लगभग दस वर्ष (सन् 1990 से 2000 ई.) तक अखिल भारतीय कबीर पंथी महासभा द्वारा प्रकाशित ‘कबीर पथ' मासिक पत्रिका के सम्पादक, ‘गीतकार' मासिक पत्रिका के नगर सम्पादक और कई वर्षों तक शुद्ध साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ‘कवि सभा दर्पण' के सम्पादक के रूप में आपकी सम्पादन सेवाएँ भी उल्लेखनीय हैं।
अब तक आपकी मौलिक और सम्पादित लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें निम्नलिखित कृतियाँ प्रमुख हैं-
मौलिक कृतियाँ ः
1. घीसा पंथ ः एक अवलोकन (आलोचना, 1984)
2. सूरज बिखरा द्वारे-द्वारे (काव्य-संकलन, 1990)
3. सुनहरा नेवला (कहानी-संकलन, 1993), बाल-किशोर साहित्य
4. हमारे भारत रत्न (जीवनी, 1993)
5. प्रशासनिक कार्यालय मंजूषा (राजभाषा नीति, 1994)
6. उजाले की ओर (साक्षरता, 1996), बाल-किशोर साहित्य
7. इतना तो जानो ही (बाल-किशोर साहित्य, 1996)
8. अल्पना स्मृति (शोक काव्य, 1997)
9. मायावी सरोवर (कहानी-संकलन, 1997), बाल-किशोर साहित्य
10. दलितों के मसीहा अम्बेडकर (जीवनी, 1997), बाल-किशोर साहित्य
11. शिक्षा है अनमोल रत्न (कहानी, 1998), बाल-किशोर साहित्य
12. भारत रत्न विनोबा भावे (जीवनी, 1998), बाल-किशोर साहित्य
13. गाँव की राधा (कहानी-संग्रह, 1998)
14. स्वयंवर (उपन्यास, 2000)
15. भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता (जीवनी, 2001), बाल-किशोर साहित्य
16. लौह पुरुष पटेल (जीवनी, 2002)
17. पाँच महान विभूतियाँ (जीवनी, 2002), बाल-किशोर साहित्य
18. भारतेन्दु पूर्व खड़ी बोली-कविता ः एक भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (आलोचना, 2002)
19. राजभाषा ज्ञान-कोश (राजभाषा नीति, 2003)
20. राजभाषा नीति और प्रयोग (राजभाषा नीति, 2004)
21. राजभाषा निधि (राजभाषा नीति, 2008)
22. मसौदा लेखन सहायिका, (राजभाषा नीति, 2012)
23. सन्त घीसा साहब (जीवनी, 2012)
24. माटी मेरे देस की (ब्रजभाषा काव्य-संग्रह, 2013)
25. भारत रत्न (जीवनी, 2014)
सम्पादित कृतियाँ ः
1. काव्य रश्मि (काव्य-संकलन, 1977)
2. दिवंगत हिन्दी-सेवी ः एक अवलोकन (आलोचना, 1993)
3. यादों की धरोहर (संस्मरण-संकलन, 1994)
4. निर्भीक सेनानी ः डॉ. आनन्दी प्रसाद माथुर (अभिनन्दन ग्रंथ, 1995)
5. प्रेमचन्द समग्र (20 भागों में, जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1998)
6. कबीर का सच (आलोचना, 2001)
7. कुरुप्रदेश का कुसुम (अभिनन्दन ग्रंथ, 2008)
8. प्रेरक कर्मयोगी रामचन्द्र शर्मा (अभिनन्दन ग्रंथ, 2007)
9. सुहाना सफर (अभिनन्दन ग्रंथ, 2009)
10. शब्दों के अमृत कलश (स्मृति ग्रंथ, प्रकाश्य)
इसके अतिरिक्त आप अब तक लगभग 50 स्तरीय प्रकाशित पुस्तकों की भूमिकाएं और अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं भी लिख चुके हैं। भारत सरकार की राजभाषा नीति पर वक्ता के रूप में और कवि सम्मेलनों में कवि के रूप में शताधिक आयोजनों में भाग ले चुके हैं। आकाशवाणी दिल्ली से ब्रजमाधुरी में आपकी काव्य-रचनाओं और वार्ताओं का नियमित प्रसारण होता रहता है। आप हिन्दी-जगत् की अनेक स्वैच्छिक प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो चुके हैं।
सम्प्रति आप हिन्दी-जगत् की स्वनामधन्य संस्था अखिल भारतीय कवि सभा के अध्यक्ष के रूप में हिन्दी की सेवा में संलग्न है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. राम प्रसाद मिश्र द्वारा लिखित दो खंडों में प्रकाशित ‘हिन्दी साहित्य का वस्तुपरक इतिहास' नामक वृहत ग्रंथ में 8-9 स्थानों पर हिन्दी-साहित्य की उल्लेखनीय सेवाओं के सन्दर्भ में आपके नाम का उल्लेख किया गया है।
संघ सरकार की राजभाषा नीति पर ‘प्रशासनिक कार्यालय मंजूषा' ‘राजभाषा ज्ञानकोश', ‘राजभाषा नीति और प्रयोग' ‘राजभाषा निधि' और ‘मसौदा लेखन सहायिका' जैसी श्रेष्ठ कृतियाँ लिखने के फलस्वरूप इस क्षेत्र में आपका अवदान विशेष रूप से प्रशंसनीय है।
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सम्पर्क सूत्र ः 30/106, गली नं. 7,
विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली-32
Email : drindrasengar @gmail.com
आचार्य क्षेमचन्द्र ‘सुमन' के जीवन वृत्त को पढ़कर हिंदी की महान विभूति के संबंध में जानकारी मिली। लेखक ने अपने रचना कर्म से हम सभी को यह अनुपम जानकारी उपलब्ध करायी है, इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंडॉ. इन्द्र सेंगर राजभाषा उन्नयन एवं कार्यान्वयन के क्षेत्र में विगत अनेक वर्षों से तल्लीन विभूति हैं। उनका राजभाषा के प्रति प्रेम, निष्ठा तथा मार्गदर्शन निश्चितत: ही उन्हें श्रद्धा का पात्र बनाता है। उनके द्वारा लिखित ‘प्रशासनिक कार्यालय मंजूषा' एवं ‘राजभाषा ज्ञानकोश' कार्यालयी कार्य में हिंदी को गति देने में सहायक पुस्तकें हैं।
डॉ. इन्द्र सेंगर को मेरा प्रणाम!