राजीव आनंद का आलेख - लोहिया का जन आंदोलन

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राम मनोहर लोहिया ः 12 अक्‍टूबर जयंती पर विशेष डा․ राम मनोहर लोहिया के मृत्‍यु के एक वर्ष पूर्व नरेश सक्‍सेना ने एक कविता लोहिया जी पर लिखा थ...

राम मनोहर लोहिया ः 12 अक्‍टूबर जयंती पर विशेष

डा․ राम मनोहर लोहिया के मृत्‍यु के एक वर्ष पूर्व नरेश सक्‍सेना ने एक कविता लोहिया जी पर लिखा था

एक अकेला आदमी

गाता है कोरस

खुद ही कभी सिकन्‍दर बनता है

कभी पोरस

हमारे राष्‍द्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी कहते है कि उनकी मुलाकात लोहिया जी से सन 1934 या 1935 में पटना के सुप्रसिद्ध समाजवादी नेता फूलन प्रसाद जी बर्मा के घर पर हुयी थी और इन दो महान हस्‍तियों का परिचय एक अन्‍य महान कवि रामवृक्ष बेनीपूरी ने करवाया था। कवि दिनकर आगे कहते है कि लोहिया जी की विशेषता यह थी कि भारी से भारी विषयों पर भी वो बहुत ही सरल हिन्‍दी में बोलते थे। टंडनजी के बाद संसद में लोहिया जी हिन्‍दी के सबसे बड़े योद्धा थे। कवि दिनकर और लोहिया जी के बीच एक संवाद बहुत ही दिलचस्‍प है जो इस प्रकार है - लोहिया जी कवि दिनकर से पूछते है कि ‘‘यह कैसी बात है कि कविता में तो तुम क्रांतिकारी हो, मगर संसद में कांग्रेस सदस्‍य।''

इसका जो जवाब कवि दिनकर दिया था उसका निचोड़ ‘दिनचर्या' नामक कविता में इस प्रकार दर्ज है-

‘‘ तब भी माँ की कृपा मित्र अब भी अनेक छाये है

बड़ी बात तो यह है कि लोहिया संसद में आए है

मुझे पूछते है दिनकर, कविता में जो लिखते हो

वह है सत्‍य या कि वह जो तुम संसद में दिखते हो ?

मैं कहता हॅूं मित्र सत्‍य का मैं भी अन्‍वेशी हॅूं

सोशलिस्‍ट ही हॅूं, लेकिन कुछ अधिक जरा देशी हॅूं

बिल्‍कुल गलत कम्‍यून, सही स्‍वाधीन व्‍यक्‍ति का घर है

उपयोगी विज्ञान, मगर मालिक सब का ईश्‍वर है।''

राम मनोहर लोहिया जी के लिए राजनीति पेशा नहीं था बल्‍कि एक आंदोलन था। उनका मानना था कि जब तक राजनीति जनता में सक्रियता लाने में सक्षम नहीं होती तबतक देश का भविष्‍य नहीं बन सकता। इसी विचार के परिपेक्ष्‍य में लोहिया जी ने भारतीय इतिहास की व्‍याख्‍या किया। उनकी मान्‍यता थी कि हमारा देश विदेशी आक्रमण का शिकार देशी शासकों की फूट के कारण नहीं हुआ अपितू जनता का उदासीन हो जाने के कारण ऐसा हुआ था।

प्रसिद्ध साहित्‍यकार महादेवी बर्मा जी ने राम मनोहर लाहिया जी के संबंध में जो लिखा है उसे आज के सुधी पाठकों के लिए जानना आवश्‍यक प्रतीत होता है क्‍योंकि लोहिया जी के कथन की विशेषता यह है कि उनका पाठक पढ़ने के उपरांत एक नवीन दृष्‍टि पा लेता है। यदि वे राजनीति में नहीं आते तो भारत को अच्‍छा अध्‍ययनशील, शोधकर्ता विद्वान लेखक प्राप्‍त होता परंतु संभवता नियति ने उन्‍हें ऐसी राजनीति में प्रतिष्‍ठित किया जिसमें उन्‍हें पूर्णत समझने वाले भी विरल थे। दबे, पीडित, हरिजन, जैसे व्‍यक्‍तियों एवं नारी के वे मसीहा थे जो अपनी पीड़ा की बात कहना भूल चुके थे, उनके भूख को उन्‍होंने वाणी दी। ये लाहिया ही थे जिन्‍होंने धर्म के संबंध में कहा कि धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्‍पकालीन धर्म। धर्म श्रेयस की उपलब्‍धि का प्रयत्‍न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है। धर्म की यह व्‍याख्‍या धर्म और राजनीति को परस्‍पर पूरक बना देने के साथ-साथ धर्म को रूढि़यों और अंधविश्‍वासों से मुक्‍त करने की प्रेरणा देता है और राजनीति को अधिकारमय तथा स्‍वार्थपरता से दूर रखने की दृष्‍टि देकर दोनों काल खंड़ों को जोड़ देता है। लोहिया की वशिष्‍ठ, बाल्‍मीकी रामायण आदि पर कही लिखी मौलिक व्‍याख्‍या में पाठक को ऐसे व्‍याख्‍याता का परिचय देता है जो आज के वैज्ञानिक यूग के संदर्भ में सर्वथा प्रांसगिक निष्‍कर्ष देने में समर्थ भी है और भारतीय मनीशा के साथ भी है। उनके कथन की विशेषता यह है कि उनका पाठक पढ़ने के उपरांत एक नवीन दृष्‍टि पा लेता है। वह अपने राष्‍द्र को गिराने वाली प्रवृतियों को जान लेता है तथा उसे उदात्‍त बनाने वाले मूल्‍यों को भी आत्‍मसात कर लेता है।

गांधीजी के ‘स्‍वराज' से प्रभावित लोहिया जी ‘नमक सत्‍याग्रह' पर पीएचडी किया था। गांधीजी के साथ विरोधों की प्रखरता के बीच उनका संबंध आजीवन मधुर बना रहा। गांधीजी के अखबार ‘हरिजन' में लोहियाजी के लिखे लेख ‘अब सत्‍याग्रह' के लिए उन्‍हें 7 जून 1940 को

गिरफ्‍तार किया गया था और दो वर्षों का जेल हो गया था। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के लिए ‘करो या मरो' का पोस्‍टर और पेम्‍पलेट लोहिया जी ने छापा और वितरित किया तथा कांग्रेस पार्टी की अपना अखबार ‘इन्‍कलाब' का संपादकीय कार्य लोहिया जी ने अरूणा असफ अली के साथ किया था।

पंडित नेहरू से आत्‍मियता होने के बावजूद राजनीतिक दृष्‍टिकोण से दोनों एक दूसरे के विपरित विचार रखते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि लोहिया जी राजनीतिज्ञ और सामाजिक क्रांतिकारी, विचारक और आंदोलनकारी, विद्रोही और परम्‍पराशोधक की अंतर्विरोधी भूमिकाएं एक साथ निभायी। उन्‍होंने जहां पूजीवाद का विरोध किया वहीं साम्‍यवाद को एंकाकी विचारधारा कहते हुए विरोध किया। हिटलरशाही का विरोध तो किया ही परंतु लोकतंत्र के प्रबल समर्थक रहते हुए संसदीय लोकतंत्र की सीमाओं के प्रखर आलोचक बने रहे। दार्शनिक दृष्‍टिकोण से उदारवादी होते हुए अपने कार्यक्रमों में अराजकता की हद तक जाने को तत्‍पर रहते थे। दृढ़ता और संकल्‍प के साथ अपनी बात कहने वाले लोहिया जी को अतिवादी होने का आरोप तक झेलना पड़ा था। उन्‍होंने लिखा भी था कि ‘‘ मैं मानता हॅूं कि गांधीवादी या मार्क्‍सवादी होना हास्‍यास्‍पद है और उतना ही हास्‍यास्‍पद है गांधीविरोधी या मार्क्‍स विरोधी होना। गांधी और मार्क्‍स के पास सीखने के लिए बहुमूल्‍य धरोहर है किन्‍तु सीखा तभी जा सकता है जब सोच का ढ़ांचा किसी एक युग, एक व्‍यक्‍ति से नहीं पनपा हो।''

15 मार्च 1958 को राजस्‍थान राज्‍य शाखा के प्रथम सम्‍मेलन के उदघाटन भाषण में लोहिया जी ने जो कहा उसे आज के नेताओं को जानने और आत्‍मसात करने की आवश्‍यकता है। उन्‍होंने कहा कि ‘‘मैं चाहता हॅूं कि हमारी पार्टी ऐसी हो जाए कि पिटती रहे पर डटी रहे। आखिर वह कौन सी ताकत थी जो तीन सौ वर्ष तक ईसाई मजहब को बार-बार पिटने के बाद भी चलाती रही। समाजवादी आंदोलन के पिछले 25 वर्षों के इतिहास को आप देखेंगे तो पायेंगे कि सबसे बड़ी चीज जिसकी इसमें कमी है वह है कि पिटना नहीं जानते। जब भी पिटते है तो धीरज छोड़ देते है, मन टूट जाता है और हर सिद्धांत और कार्यक्रम को बदलने के लिए तैयार हो जाते है।''

अफसोस इस बात का है कि अपने को लोहियावादी कहने वाले लोगों में लोहिया जी की नीतियों को लेकर विचित्र प्रकार की दुविधाएं और शंकायें पनप गयी है तथा लोहियावादियों की सबसे बड़ी गफलत यह है कि वे उत्‍तर भारत में न तो हरिजनों-आदिवासियों को संगठित कर पा रहे है और न ही वर्ग संगठनों में सभी जातियों के शोषितों-दलितों को एक मंच पर लाकर कोई शोषण विरोधी मोर्चाबंदी कर पा रहे है। लोहिया जी ने अपने राजनीतिक जीवन मे हमेशा जनआंदोलन व जनसंगठनों पर निरंतर जोर देते रहे थे जबकि लोहियावादियों ने अपनी राजनीति को जनआंदोलनों और जनसंगठनों से पूरी तरह अलग-थलग कर उसे चुनाव में जीत हासिल करने के लिए जातिगत गठबंधनों के खेल में बदल दिया है। यही वजह है कि जाति उन्‍मूलन के उदेश्‍य से शुरू की गयी लोहिया जी की राजनीति आज संकीर्ण जातिवाद का शिकार बन कर रह गयी है।

अगर लोहियावादी अभी भी नहीं चेते तो लोहिया जी का जयंती और जन्‍मदिवस सिर्फ आरती उतारने वाला उत्‍सव बन कर ही रह जाएगा जिसका कोई अर्थ नहीं रहेगा तथा अर्थहीन स्‍तुति बन कर रह जाएगा। इसलिए समय आ गया है कि लोहियावादी होश में आवें !

राजीव आनंद

मो․ 9471765417

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. लेख अच्छा है पर भाषा की गलतियाँ देखकर मन को चोट पहुँचती है.

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रचनाकार: राजीव आनंद का आलेख - लोहिया का जन आंदोलन
राजीव आनंद का आलेख - लोहिया का जन आंदोलन
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