श्याम गुप्त ग़ज़लें १. ऐ हंसीं... ऐ हसीं ता ज़िंदगी ओठों पै तेरा नाम हो | पहलू में कायनात हो उसपे लिखा तेरा नाम हो | ता उम्र मैं पीता ...
श्याम गुप्त
ग़ज़लें
१. ऐ हंसीं...
ऐ हसीं ता ज़िंदगी ओठों पै तेरा नाम हो |
पहलू में कायनात हो उसपे लिखा तेरा नाम हो |
ता उम्र मैं पीता रहूँ यारव वो मय तेरे हुश्न की,
हो हसीं रुखसत का दिन बाहों में तू हो जाम हो |
जाम तेरे वस्ल का और नूर उसके शबाब का,
उम्र भर छलका रहे यूंही ज़िंदगी की शाम हो |
नगमे तुम्हारे प्यार के और सिज़दा रब के नाम का,
पढ़ता रहूँ झुकता रहूँ यही ज़िंदगी का मुकाम हो |
चर्चे तेरे ज़लवों के हों और ज़लवा रब के नाम का,
सदके भी हों सज़दे भी हों यूही ज़िंदगी ये तमाम हो |
या रब तेरी दुनिया में क्या एसा भी कोई तौर है,
पीता रहूँ , ज़न्नत मिले जब रुखसते मुकाम हो |
है इब्तिदा , रुखसत के दिन ओठों पै तेरा नाम हो,
हाथ में कागज़-कलम स्याही से लिखा 'श्याम' हो ||
२. ग़ज़ल की ग़ज़ल
शेर मतले का न हो तो कुंवारी ग़ज़ल होती है |
हो काफिया ही जो नहीं,बेचारी ग़ज़ल होती है।
और भी मतले हों, हुश्ने तारी ग़ज़ल होतीं है ।
हर शेर मतला हो हुश्ने-हजारी ग़ज़ल होती है।
हो बहर में सुरताल लय में प्यारी ग़ज़ल होती है।
सब कुछ हो कायदे में वो संवारी ग़ज़ल होती है।
हो दर्दे दिल की बात मनोहारी ग़ज़ल होती है,
मिलने का करें वायदा मुतदारी ग़ज़ल होती है ।
हो रदीफ़ काफिया नहीं नाकारी ग़ज़ल होती है ,
मतला बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है।
मतला भी मकता भी रदीफ़ काफिया भी हो,
सोची समझ के लिखे के सुधारी ग़ज़ल होती है।
जो वार दूर तक करे वो करारी ग़ज़ल होती है ,
छलनी हो दिल आशिक का शिकारी ग़ज़ल होती है।
हर शेर एक भाव हो वो जारी ग़ज़ल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है।
मस्ती में कहदें झूम के गुदाज़कारी ग़ज़ल होती है,
उनसे तो जो कुछ भी कहें दिलदारी ग़ज़ल होती है।
तू गाता चल ऐ यार, कोई कायदा न देख,
कुछ अपना ही अंदाज़ हो खुद्दारी ग़ज़ल होती है।
जो उसकी राह में कहो इकरारी ग़ज़ल होती है,
अंदाज़े बयान हो श्याम का वो न्यारी ग़ज़ल होती है॥
3. बाद मुद्दत के....
बाद मुद्दत के मिले, मिले तो ज़नाब,
गुन्चाये-दिल खिले, खिले तो ज़नाब |
तमन्नाएं, आरजू, चाहतें पूरी हुईं,
अरमां-दिले निकले, निकले तो ज़नाब |
खुदा की मेहरबानियों की ऐसी बरसात हुई,
सिलसिले मिलने के हुए, हुए तो ज़नाब |
इक नए बहाने से आपने बुलाया हमें,
बाद मुद्दत के खुले, खुले तो ज़नाब |
कहते थे भूल जाना, भूल जायेंगे हम भी,
भूले भी खूब, खूब याद आये भी ज़नाब |
अब न वो जोशो-जुनूं न ख्वाहिशें रहीं,
आना न था आये मिले, मिले तो ज़नाब |
आशिकी की ये डोर भी कैसी है श्याम’
न याद कर पायें उन्हें न भूल पायें तो ज़नाब ||
४. किधर जायेंगे ....
आपने पूछा है अब आप किधर जायेंगे
आप कह देंगे जिधर हम तो उधर जायेंगे |
अब ज़माना कहे चाहे जितने अफसाने ,
प्यार की बात से अब कैसे मुकर जायेंगें|
बात तीखी हो या मीठी हो तेरी हो अगर,
तेरी हर बात पे चाहोगे तो मर जायेंगे |
प्यार में तेरे हमें कोसे ज़माना चाहे,
तेरी जुल्फों में सजे हम तो निखर जायेंगे |
अपने अशआर में हमने भी संजोया है जहां,
मुड के चल देगा मेरे साथ जिधर जायेंगे |
मोड़ जायेंगे ज़माने की कई राहों को,
करके नए रंग ज़माने की नज़र जायेंगे |
बात मेरी न सुने सारा ज़माना चाहे
चंद जाहिद तो सुनेंगे औ सुधर जायेंगे |
बात तेरी हो मेरे प्यार मेरे देश अगर
हम तो दीवानगी की हद से गुज़र जायेंगे |
मेरी यादों में न लग पायेंगे मेले चाहे,
तेरी गलियों में किये याद मगर जायेंगे |
श्याम इक रोज़ चले जायेंगे ज़हां से लेकिन,
बन के खुशबू तो ज़माने में बिखर जायेंगे ||
---- सुश्यनिदी, के-३४८, आशियाना, लखनऊ
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बच्चन पाठक 'सलिल'
सम्बन्ध होते पक्षियों से
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-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
आकाश सुशोभित होता है
विविध वर्णी पक्षियों से ।
वृक्षों पर इनका कलरव करना
पंक्तिवद्ध वायु मार्ग की यात्रा
मानव मन को बरबस मोह लेता है
पक्षियों का अनवरत उत्साह ।
बंधु क्या कभी सोचा है
मानवीय सम्बन्ध भी होते हैं
पक्षियों से ।
यदि उन्हें निर्दयता पूर्वक
पकड़ कर दबाया जाय
वे मर जायेंगे ।
हौले से सहलाया जाय
वे आत्मीय बन जायेंगे ।
यदि विश्वास का दायरा बढ़ा
पक्षी आपके मित्र बन जायेंगे
बार बार जाकर भी लौट आएंगे ।
इस स्वार्थी भौतिक वादी युग में भी
मानवता की है आशा
प्रेम और विशवास गढ़ेंगे
संबंधों की नयी परिभाषा ।
आदित्यपुर, जमशेदपुर
०६५७/२३७०८९२
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हरीश कुमार
1
महानायकत्व
करिश्मा
यशोगान
मानसिकता
को हाइजैक करते प्रायोजित प्रेस मिडिया
पूंजी की आवारगी
रागों का चापलूसी भरा दरबारीकर्ण
नये हथियार है उनके
ये वैश्वीकरण की उच्च तम सीमा है
और हम इसके आकर्षण में स्वत खिचे चले जा रहे है
विकल्पों की विश्वसनीयता निरंतर टूट रही है
विचारधाराए वेंटी लेटर पर है ।
2
एक मरीज की आँखों के नोट्स
मैंने केवल मौन चाहा था
नदी के किनारे भोर में बिखरा अलसाया
जहां से सूर्य दूर कही उगता हुआ
शोर नहीं करता न ही उसका फैलता प्रकाश चीखता है
वहाँ नदी में बहता पानी मधुर संगीत का आभास देता है
चुपचाप कुम्हार के चाक सा
पक्षी कलरव भी मौन की मर्यादा भंग नहीं करता
सोते हुए शिशु की नींद में ली मुस्कान जैसा
पर यहाँ हस्पताल का ये मौन बड़ा उघडा है
इस मौन को भंग करती फिनायल की फैली गंध
जीवन रक्षक/भक्षक दवाओं का पसरा धुआं
उदास अस्वस्थ चेहरों में लुप्त होती जीवन की चाह
मरीजों के सर पर पुराने पंखों की चूं चूं
जैसे भाग जाने का संकेत करती है
डस्ट बिन में पड़ी रक्त रंजित सूइयां पे सूखा लाल रंग जैसे रुकने का ही इशारा हो
डाक्टर के जूतों की ठक ठक से ऊबती जीवन आशा का रुदन
मेरे इस मौन की क्रूरतमहत्या करता है ।
3
बारिश से पहले
काश यह जीवन बादल होता
खेलता खुले आकाश में कहीं
यहाँ वहां आवारा घूमा करता
कभी सूर्य तो कभी चाँद की
किरणों से रंग ले बनाता
कितनी ही आकृतियाँ
या रुई की गठरी सा आकार ले
उफनते दूध सा बिखरा रहता
टिमटिमाते तारों और तुमाहरी
आँखों के बीच छुपन छुपाई खेल का
कारण हो जाता अकारण ही
तपती धुप में घिर कर बन पाता
अलसाये चेहरों पर एक उम्मीद
किसी की प्रतीक्षा हो पाता।
4
घर को रंग करवाने
और नई पुस्तक छपवाने में
बुनियादी भेद है
एक जरूरत है
दूसरा जुनून
ये अलग बात है
कि घर पुस्तक नहीं होता
घर का मतलब परस्पर निर्भरता है
इसे सीखने का तरीका पुस्तकों से आता हो शायद
पुस्तकें निर्भरता से ज्यादा आजादी सिखाती है
आजादी का मतलब रंग नहीं होते
इसके मायने बहुत जटिल और गहरे है
जटिलता जुनून मांगती है
कहाँ इस जटिलता जुनून के चक्कर में पड़ेंगे
चलो रंग दे अपनी ही गहराई से अपनी जरूरतों को।
5
दीवारें सिर्फ रंगों दरारों
खूटियों की मोहताज नहीं होती
वे तो घर की बाहें होती है
उनके स्नेही आगोश में
कितना अपनापन होता है
बचपन में सभी ने
ना जाने कितनी ही बार
दीवारों से कुछ कहा है
इन पर खोजे है
कितने ही शब्द
उकेर दिए है मन के चित्र
अनेक बार तुम्हारी ही
इच्छाओं के रंग
इन पर पुते है
कहते है इनके कान होते है
जुबान नहीं होती
तुम्हारे हर सुख को
दुःख को प्यार को फसाद को
यही तो चुपचाप सुनती है
शायद इनका झड़ता पलस्तर
इनकी प्रतिक्रिया होती हो
जीवन के कितने ही संस्मरण
तुमने इन पर टाँगे है
और कितने बेफिक्र है खुश है
कितना भरोसा पाया है इनमें
सजा के वक्त भी दीवारों की ओर
करवाए चेहरों को
ये जताती है
अपना साथ
सिखाती है कि तुम
सहजता से
घेर लेना शांत रहकर
हर विपत्ति को
तुम्हारे आगोश की गर्मी में
हर फासला पिघल जाएगा
पत्थरों से बनाया मकान
एक घर बन जाएगा ।
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बलवन्त
गाँधी के प्रति
महामना गाँधी के प्रति, वह मानवीय व्यवहार कहाँ है?
सत्य-अहिंसा के आदर्शों का आचार–विचार कहाँ है?
उनके सपनों के अपनों का आत्मीय संसार कहाँ है?
पूछ रहा हूँ, मुझे बता दो,उस चरख़े का तार कहाँ है?
रूप कहाँ है, रंग कहाँ है?
वह ज़ीने का ढंग कहाँ है?
दौड़ पड़ी जिनके पीछे, वह चिर परिचित चीत्कार कहाँ है?
पूछ रहा हूँ, मुझे बता दो, उस चरख़े का तार कहाँ है?
लकुटी के संग देश कहाँ है?
मुट्ठी का आवेश कहाँ है?
साबरमती का वह संरक्षक, पड़ा हुआ लाचार कहाँ है?
पूछ रहा हूँ, मुझे बता दो,उस चरख़े का तार कहाँ है ?
गंध कहाँ है ? गीत कहाँ है?
इसमें अपनी जीत कहाँ है?
जिसने कर्मयोग सिखलाया, वह गीता का सार कहाँ है ?
पूछ रहा हूँ, मुझे बता दो, उस चरख़े का तार कहाँ है ?
बलवन्त, विभागाध्यक्ष हिंदी
कमला कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एण्ड साईंस
450, ओ.टी.सी.रोड, कॉटनपेट, बेंगलूर-53
Email- balwant.acharya@gmail.com
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मधुरिमा प्रसाद
अंबर के परिंदे
यह युग नया है आज, नई राजनीति है
बन्दे बदल गए हैं, बदली काजनीति है।
जनता के कहे जाते थे सेवक जो पुराने
वे आज तो सेवक नहीं, भक्षक हैं सयाने।
देश में रहते तो हैं पर देश कहाँ है
जीते भी औ मरते भी वहीँ ऐश जहाँ है।
हैं नहीं सिद्धांत ना कोई उसूल हैं
बहरी है सियासत, कुछ कहना फ़िज़ूल है।
दल हैं बहुत से और अनेकों हैं टोलियाँ
हर एक दल में बोलते हैं अलग बोलियाँ।
गांधी, पटेल, पंत औ नेहरू के देश में
पग पग पे मिले भेड़िये भक्तों के वेश में।
कहते हैं देशभक्त खुद को सब ही दरिंदे
किसका भला करेंगे ये अम्बर के परिन्दे।
दिल तक तो इनके पहुँचे न दर्द किसी का
बन पाये मुँह से छीन लें ये कौर किसी का।
बेटी, बहन औ बीवी माँ को भी दगा दें
पद के लिए ये दाँव पर इनको भी लगा दें।
( १९ / ६ / २०१२ )
पर्देदारी
दुनियाँ से उठ गयी है उठती ही जा रही है
कैसे बचेगी अब तो तन मन की पर्देदारी।
हमने तो थोड़ी देखी, समझी भी थी कुछ हद तक
आगे की पीढ़ी पूछेगी, क्या थी वह पर्देदारी।
थी कभी कंसिनों की पलकों पे लरजती वह
हर चाल ढाल से भी टपकती थी पर्देदारी।
वह ख़त्म हुई थी धीरे धीरे समाज घर से
घर की ही तो इज़्ज़त ने ठुकरा दी पर्देदारी।
कहने को पेट तन ने मजबूर कर दिया जब
मॉडल बनीं बालायें, बिसरा के पर्देदारी।
साबुन हो तेल हो या, उद्योग नया कोई
करने प्रचार उसका बिक जाती पर्देदारी।
हैं केश तन और अंग सभी लड़के लड़कियों के
करती प्रचार लड़की ही लुटवाती पर्देदारी।
फैशन के बहाने से कपड़ों की क़द्र मिटती
है तार तार होती हर कुल की पर्देदारी।
यौवन की नुमाइश ही सरे राह दिख रही है
नव युग की है अंगड़ाई, चिता पर है पर्देदारी।
इज़्ज़त ने खुद अपनी ही अस्मत को लुटा डाला
सामानों की कीमत पर, दी बेच पर्देदारी।
( १२ / ५ / २००८ )
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सुनील जाधव
निशा ....
देखो निशा मदहोशी का प्याला लिए आती है
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है नींद खुमारी चढती है
भर-भर प्याला वह हमसब को नींद पिलाती हैं
गहरी निद्रा में वह सपनों को खास बना देती है ।
लो सारे दुःख बिसरा के सुख निद्रा दे जाती है
लोरी सुना के जैसे माँ बालक को सुला देती है
हर सपूतों पर एक जैसा ही प्यार लुटा जाती हैं
इसीलिए तो तनमन रात्रि का इंतजार करती हैं ।
कोई न जागे इसका व भरसक खयाल रखती हैं
ख़ामोशी से भरा मधुर गीत हमको सुना जाती हैं
चाँदसी शीतलता वाले मुख से गीत गुनगुनाती है
सितारों वाली स्याह साड़ी पहन कर मुस्काती है ।
दिनभर के कार्यों से उमड़ी थकान मिटा देती हैं
सुबह नई चेतना नई ताजगी की भेंट दें जाती हैं
हमारा उनका अटूट नाता प्रकृति हिय समाती है
देखो निशा नित नया उपहार लिए चली आती हैं।
डॉ.सुनील जाधव
नांदेड
महाराष्ट्र
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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
आओ दीप जलायें
दीपावली मनायें ।।
आज राम आये निज धाम
निपटा करके सारे काम
जननिजन्मभूमिश्च... का मंत्र
हम सब भी अपनायें ।।
आओ दीप जलायें...
स्नेह -प्रेम का हो उजाला
द्वेष- भाव का हो मुख काला
समरसता की बने मिठाई
एकता के मोदक खायें ।।
आओ दीप जलायें...
ये दिवले , ना बुझ पायें
कैसे भी झंझावत आयें
चले अनार , बम , फुलझड़ियाँ
आतंकवाद मिटायें ।।
आओ दीप जलाये
दीपावली मनायें ।।
---
जितना सुन्दर ,
दिखता है वृक्ष
कहीं , उससे भी ज्यादा ,
सुन्दर होती है
उसकी जड़
पर हाय !
हम देख नहीं सकते ,
कर सकते हैं ,
उसे महसूस ,
वृक्ष की बाह्य- सुन्दरता /
दृढ़ता को देखकर
क्योंकि ,
खोखली जड़ वाले वृक्ष ,
सुन्दर हुआ नहीं करते ...
-विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
कर्मचारी कालोनी , गंगापुर सिटी,स. मा.
(राज)322201
ईमेल:-vishwambharvyagra@gmail.com
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अंजु डागर
"ज़िंदगी का परायापन"
घर में खामोशी थी बहुत
सन्नाटे ने जैसे समय को खा लिया हो
सब कुछ था वहां,
बस एक कोने में मै ही बिलखती रह गई |
कभी लगता फंदा सा
कभी जालों का साया
घुट-घुट कर एक साँस,
अन्दर ही अन्दर दबी रह गई |
मौका था मगर कुछ सोचकर
मैं चुप थी
पर हाथों कि शक्ति ने
ख़ुद को ही घायल किया
उसी पीड़ा को पीकर अपनी,
ख्वाहिश पूरी होकर रह गई |
आज जाना हँसना और रोना
सब बाहरी साज़-सज्जा है
जब दिल को कोई दाग-दाग कर दे
तब एहसास दर्द का होता है
इसी एहसास ने मुझे पकड़ा,
और इसी में सिमटी मेरी ज़िंदगी रह गई ||
-अंजू डागर
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योगेन्द्र जीनगर
गीत ‘सावन’
सावन में अँखियाँ तरसे,
पिया का दीदार ना हो।
बादल में बिजली कड़के,
बिन नीर सागर तरसे।
बगियन में फूल कोई मुरझे,
बस मौत को रो-रो मांगे।
सावन में अँखियाँ तरसे,
पिया का दीदार ना हो...............(1)
निकले साजन घर से, बिन सजनी साजन रोये।
साजन की बाहे तडपे, बिन पिया के रूह भी तडपे।
सावन में अँखियाँ तरसे, पिया का दीदार ना हो...............(2)
अंखियन से आंसू छलके, सावन की बूंदे बरसे।
आँगन को गिला करदे, सजनी रो-रो बरसे।
सावन में अँखियाँ तरसे, पिया का दीदार ना हो.............(3)
साजन – साजन करके मेरा जियरा तडपा जाये,
बिन साजन के अब तो मेरी रूह भी मचली जाये,
आया सावन भीगे नदिया,सागर छलका जाये,
याद करू साजन को मेरी अँखियाँ तरसी जाये,
काश मेरा साजन अब मेरे पास लौट आये,
बिन साजन के सावन मुझको अधुरा लगता जाये।
गीतकार योगेन्द्र जीनगर
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नन्दलाल भारती
संविधान
पुष्पवर्षा,हृदयहर्षा
आज़ादी का कर अमृतपान
अपनी जहां अपना संविधान .........
हरे हुए मुरझाये सपने
अपनी-अपनी आज़ादी,
अपने- अपने सपने ................
अपनी जहां अपना लोकतंत्र ख़ास
हर मन विह्वल,पूरी होगी आस ...........
आज़ादी का एहसास सुखद
दिल को घेरे जैसे बसंत ................
अपनी धरती अपना आसमान
समता -सदभावना,विकास हो पहचान .......
जातिववाद -सामंतवाद का अभिशाप ]
नहीं ख़त्म हो रहा
बहुजाहिताय-बहुजन सुखाय का
सपना दूर रहा ................
अपनी जहां वालो आओ करे
लोकतंत्र का आगाज़
देश में हो सर्वधर्म -समभाव
संविधान हो साज
................
अभिलाषा/
खुद को कर कुर्बान,
अपनी जहां को
आज़ादी की देकर सौगात
वे शहीद हो गए
कर्ज के भार अपनी जहां वाले
दबे के दबे रह गए …………
आज़ादी का उदघोष चहुंओर
अपना संविधान
लागू हुआ पुरजोर ....
पर नियति की खोट
आज़ादी के मायने बदल गए
ना पूरी हुई असली
आज़ादी की आस
ना हुआ संविधान
राष्ट्र ग्रन्थ ख़ास ख़ास …………
कहते है ,
कर्म से नर नारायण होता
अपनी जहां में आदमी
जातिवाद,भेदभाव से
दबा कुचला रह गया रोता …………
अरे लोकतंत्र के पहरेदारों
अपनी जहां के शोषितों की,
सुधि लो
शोषितों की समतावादी
सुखद कल की
तुमसे है आशा
अब तो कर दो पूरी
असली आज़ादी की अभिलाषा
…………
ललकार .......
रिपब्लिकन कहे या लोकतंत्र
मतलब तो एकदम साफ़
संघे शक्ति और
सब देशवासी एक साथ .......
या यो कहें ,
लोकतंत्र जातिनिरपेक्षता -
पंथनिरपेक्षता -धर्मनिरपेक्षता
राष्ट्र-लोकहित ,
मानवीय मूल्यों का
पुख्ता अधिकार .......
कल भी अपना
कुछ ख़ास नहीं रहा
आज भी ठगा -ठगा सा
कल से तो है आस .......
फिक्र है भारी अपने माथे
लोकतंत्र के दुश्मन
जातियुध्द -धर्मवाद
दहकता नफ़रत का प्रवाह
क्षेत्रवाद -नक्सलवाद
सीना ताने .......
रक्षक होते भक्षक ,
सफ़ेद करते काले
हाशिये के आदमी की
फ़रियाद यहां कौन माने .......
बदलता युग बदलती सोच
लूट रहा
असली आज़ादी का सपना
कैद ही रह गया
शोषित आदमी का सपना .......
आओ सब मिलकर करे
ललकार ,
संविधान का हो अक्षरशः पालन
तभी मिलेगी असली आज़ादी ,
कुसुमित रह पायेगा
मानवीय हक़ और अधिकार
.......
लोकतंत्र का उद्देश्य--------
लोकतंत्र का उद्देश्य
परमार्थ ,देश हित
मानव सेवा लोकमैत्री सदभाव
मानव को मानव होने का
सुख मिले भरपूर
शोषण अत्याचार ,भेदभाव
अपनी जहां से हो दूर,
शूद्र गंवार ढोल पशु नारी
ये ताडन के अधिकारी
अपनी जहा में ना गूंजे ये
इंसानियत विरोधी धुन
समानता राष्ट्रिय एकता को
अब ना डँसे
कोई नफ़रत के घुन
अरे अपनी जहां वालो
रिपब्लिकन यानि लोकतंत्र के
मर्म को पहचानो
संविधान को
जीवन का उत्कर्ष जानो
आओ कर दे ललकार
रिपब्लिकन विचारधारा
और
संविधान से ही होगा
अपनी जहां का उध्दार--------------------
लोकतंत्र------
लोकतंत्र की चली हवा
अपनी जहां में
अथाह हुए
स्वाभिमान अपने
देश आज़ाद अपना
जाग उठे सारे सपने
लोकत्रंत्र हो गया साकार
देश अपना ,
अपनों की है सरकार
हाय रे निगाहें
उनकी और न गयीं
ना बदली तकदीर उनकी
हाशिये के लोग जो
टकटकी में
उम्र कम पड़ गयी
अब तो तोड़ दो
आडम्बर की सारी सरहदें
खोल दो समानता ,
हक़ -अधिकार की बंदिशें
आओ सपने
फिर से बो दे प्यारे
अपनी जहां में
निखर उठे मुकाम
लोकतंत्र में ,
बसे प्राण आस हमारे।
--
लोकतांत्रिक के मायने
लोकतांत्रिक होने के मायने
समता-सद्भावना की ,
सकूँ भरी साँसे
लोकंमैत्री की निश्छल बहारे ,
बिसर जाए दर्द के
एहसास भयावह सारे
ना आये याद कभी वो
कारी रातें ,
हो स्वर्णिम उजियारा
संविधान का
अपनी जहाँ में
चौखट -चौखट नया सबेरा
तन -मन में नई उमंगें
सपने सजे हजार
आदमियत की छाये बहार
स्वर्णिम रंग में रंग जाए
शोषितों का हो जाए उध्दार
संविधान राष्ट्र -धर्म ग्रन्थ का
पा जाए मान
हर मन में हो
राष्ट्र का सम्मान
भेद-भाव से दूर
सद्भावना से दीक्षित
हर मन हो जाए चेतन
मिट जाए जाए
जाति -क्षेत्र की हर खाईं
आतंकवाद -नक्सलवाद की ना
डँसे परछाईं
मान्य ना हो जाति भेद का समर
लोकतांत्रिक होने के असली मायने
बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय
सर्वधर्म -समभाव
राष्ट्र-हित सर्वोपरि यही है सार
ना गैर ना बैर कोई
हर भारतवासी
करे संविधान की जय जयकार
लोकतांत्रिक होने के
असली मायने अपने
पी रहा रहा हूँ विष
जी रहा हूँ
लोकतंत्र के सपने लिए
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डॉ नन्द लाल भारती 29.09.2014
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इतिश्री सिंह राठौर
नाथूराम की गोलियों से से नहीं मरा था मोहनदास
उस दिन नाथूराम की गोलियों से
नहीं मरा था मोहन दास .
उसे मारा दंगाइयों की बर्बरता ने,
धर्म के नाम पर मासूमों का कत्ल करने वाले,
गर्दनमारों की धृष्टता ने.
उसे मारा शिक्षक के वहशीपन ने,
तीन साल की गुड़िया की अस्मत लूटने के बाद,
खुद को ईश्वर तुल्य बताने वाले के जंगलीपन ने.
उसे मारा उसी के आदर्शों को मानने वाले गांधीवादियों ने,
जिन्होंने अनशन के नाम पर सड़क पर कराया रक्तपात,
फिर भी कहते रहे चलो हाथ से हाथ मिला कर हाथ.
पल-पल भले ही हजार मौतें मरता रहा वह,
फिर भी कुछ सांसें बाकी थी उसमें,
लेकिन कब मोहनदास ने पूरी तरह दम तोड़ा
जानते हैं ?
जब उसकी प्रतिमा पर फूलों का हार चढ़ाया ,
आपने-हमने,
दो अक्टूबर को.
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वह पागल लड़का
लोग सोते हैं, मैं जागती हूं, तन्हा रोती हूं
यह दुनिया बेगानी लगती है,
उस पागल लड़के की याद आती है,
जिसके बिना जिंदगी बेमानी लगती है.
न चाहते हुए भी घर जाती हूं मगर फिर दरवाजे से लौट आती हूं
घरवालों को यह नई कहानी लगती है,
उस पागल लड़के की याद आती है,
जिसके बिना जिंदगी बेमानी लगती है.
धूप में पतंग को गिरता देख
गली के बच्चे दौड़ते हैं,
में भी उनके पीछे भागती हूं,
बच्चों को यह शैतानी लगती है,
उस पागल लड़के की याद आती है,
जिसके बिना जिंदगी बेमानी लगती है.
न कह सकी मुझे है तेरी जरूरत
समझ कर भी उसका न समझना नादानी लगती है,
उस पागल लड़के की याद आती है,
जिसके बिना जिंदगी बेमानी लगती है.
इतिश्री सिंह राठौर(श्री)
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अंजली अग्रवाल
नारी
मैं एक नारी हूँ.....
बहुत अभागी हूँ.....
दर - दर भटकती हूँ..... कितनी ही जगह पैरो
से कुचली जाती हूँ..... तब कहीं इस दुनिया में आती हूँ.....
और आते ही पराया धन हो जाती हूँ.....
बड़ी मुश्किल से उड़ती हूँ..... कि
तभी किसी चील का शिकार बन जाती हूँ.....
इंसाफ माँगने जाती हूँ..... तो चरित्रहीन हो जाती हूँ.....
अपने ही माँ-बाप पर बोझ बन जाती हूँ.....
मैं मुखौटा पहनना चाहती हूँ.....
मैं अपने आप को छुपाना चाहती हूँ.....
मायके से ससुराल जाती हूँ.....
तो धन न लाने पर जलायी जाती हूँ.....
और बच गई तो लड़का पैदा करने की मशीन बन जाती हूँ.....
आज समझी मैं कि एक नारी दूसरी नारी को.....
जन्म क्यों नहीं देना चाहती है।.....
आज समझी मैं कि........ मैं एक नारी हूँ.....
बहुत अभागी हूँ.....
--.
आँखों में पड़ी इस धूल को हमें ही हटाना है....
चाहें लाख कमाये धन दौलत हम, पर रोटी तो दो
ही खाना है....
कितना ही सुन्दर दिखे हम, पर नजर
का टीका तो माँ ने ही लगाना है......
लाखों के गद्दे में सो जाए हम,
पर सुकून तो, माँ की गोद में ही आना है.....
पूरी दुनिया घूम ले हम, पर
वापस तो घर ही आना है...
हम तो मकानों में रहते है दोस्तों क्योंकि
मकानों को घर तो, माँ ने ही बनाना है..
दुनिया को अपनाने निकले थे हम
और माँ-बाप को ही पराया कर बैठे हम...
खूब दौड़ चूके इस दौड़ में दोस्तों अब रूक
कर थोड़ा होश सम्भालना है...
जितनी जरूरत हो उतना ही कमाना है
पर जिन्दगी को जिन्दगी बनाना है....
इंतजार कर रही उन बूढ़ी आँखों
की रोशनी बनना है...
कंपकपाते उन हाथों को थामना है...
हमें बच्चे पैदा करने से पहले
बच्चे होने का फर्ज निभाना है..
आँखों में पड़ी इस धूल को हमें ही हटाना है....
ये जीना भी क्या जीना है दोस्तो....
जहां न अपना और न अपनों का ठिकाना है..
जीना है तो एक वादा करो दोस्तों कि हमें
पैंसो की जगह खुषियों का आषियाना बनाना है..
दूर बैठे अपनों को भी अपना बनाना है....
अपने से पहले अपने माँ-बाप की जय कराना है....
आँखों में पड़ी इस धूल को हमें ही हटाना है....
जिन्दगी को जिन्दगी बनाना हमें ही है....
अंजली अग्रवाल
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जय प्रकाश भाटिया
आ गए शुभ नवरात्रे
आ गए शुभ नवरात्रे भक्तों माँ के दरबार में आओ,
पाकर माँ का आशीष, अपना जीवन सफल बनाओ,
आओ भक्तों आओ, माँ वैष्णो देवी के दरबार ,
माँ चरणों में शीश झुका के माँ का करो सत्कार,
माँ करती हैं अपने सब भक्तों पर उपकार,
माँ की शरण में जो आया उसका बेडा पार,
माँ वैष्णो देवी भरती, है हर घर के भण्डार,
माँ भक्त है सदा सुखी,पड़े न वक़्त की मार,
आओ भक्तों आओ,चिंतपूर्णी माँ के दरबार ,
माँ की भेंटें गा गा कर माँ का करो सत्कार,
चिंतपूर्णी माता रानी सब चिंता दूर करती है,
अपने भक्तो की झोली में खुशियां भरती है,
माता के दरबार में जो आकर शीश नवाता है,
कष्टो से पाता मुक्ति, जीवन सुखी कर जाता है,
आओ भक्तों आओ, माँ ज्वाला जी के दरबार ,
कंजको की करके पूजा, माँ का करो सत्कार,
ज्वालाजी की ज्योति जो घर में रोज़ जलाता है,
मन उसका रोशन होता, जग में नाम कमाता है,
उस के घर न हो अँधेरा,माँ की ज्योति जलती है,
उस की जीवन नैय्या, सुख के पतवार पर चलती है,
आओ भक्तों आओ, माँ नैना देवी के दरबार ,
हलवा पूरी का भोग लगा, माँ का करो सत्कार,
माता नैना देवी , सुख शांति का वर देती है,
आएं ना आँखों में आंसू,ऐसी कृपा कर देती है,
नैना देवी माँ की मूरत अपने नैनो में बसा लो,
माँ की कृपा से अपने जीवन में पुण्य कमा लो,
आओ भक्तों आओ, माँ मनसा देवी दरबार ,
लाल चुनरिया सिन्दूर से, माँ का करो सत्कार,
माँ मनसा देवी के मंदिर ,भक्त मंशा ले आता है,
पूरी होती हर इच्छा ,मन वांछित फल वो पाता है,
मन में जो हो भी मन्नत, माँ के दरबार में कह दो,
माँ करती मंशा पूरी, संग माँ का आशीष भी ले लो,
भक्तो आ गए शुभ नवरात्रे, माँ के दरबार में आओ,
माँ का पाकर आशीष, अपना जीवन सफल बनाओ,
23/9/2014 --जय प्रकाश भाटिया ,
Ludhiana
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अमित कुमार गौतम ‘स्वतंत्र’
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हर चाँदनी रातों में मिलन हो,
ये तो जरुरी नहीं....
देखा हुआ सपना पूरा हो,
ये तो जरुरी नहीं..
महबूब के बिछड़ने का दर्द हो,
किसी से कहना ये तो जरुरी नहीं..
तुम किसी से प्यार करते हो,
सबको मालूम हो ये तो जरुरी नहीं..
कितने गमों की भीड़ है यहाँ;
हर कोई बताये ये तो जरुरी नहीं..
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अचानक
अचानक क्यों?
मेरे राग बदल गए
मुस्लिम को
भाई कह गए
व्ही, कल तक मैं
अपने भासणो में
नाम नहीं लिया करता था
फिर आज क्यों?
नाम ले गए
जिन्हे मैं
देखना न चाहता था
फिर क्यों उन्हें?
जीने को कह दिए|
-अमित कुमार गौतम ''स्वतन्त्र'
[ग्राम-रामगढ न.२,तह-गोपद बनास,
जिला-सीधी,म.प्र.486661 ]
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देवेन्द्र सुथार
आज का युवा
जीवन को जुआ मानते,
मोबाइल से मौज उडाते।
गुटके को गुड मानते,
संगीत को सगा मानते
पर....
मौत से मतलब नहीँ रखते
हिम्मत का हथियार नहीँ रखते।
कर्म तो करना ही नहीँ चाहते,
सत्य को स्वीकार नहीँ करते।
भाग्य पर भरोसा नहीँ करते,
जवानी का जश्न मनाते,
प्रेम का प्रसाद बांटते
पर...
परिश्रम से पंगा नहीँ लेते,
नम्रता का नाम नहीँ सुनते।
सेहत की सेहज नहीँ करते,
शराब का शौक नहीँ भूलते।
जीवन की मुख्य बातेँ
कविता को गलत पढ के सुधारा जा सकता है।
जीवन को एक बार गलत पढने पर
सुधारा नहीँ जा सकता है।
सदा ध्यान रखो अपने जीवन का,
लक्ष्य को गढ लो अपने कर्म से।
दूसरोँ को दोष मत देना,
करो काम ऐसा की जग-जग याद करेँ नाम तुम्हारा॥
व्यक्ति मरता है,उसका कर्म नहीँ।
अमर रहता है उसका नाम उसका शव नहीँ॥
नेत्रदान
जिन्दगी के लम्हेँ हैँ कम,
हर लम्होँ मेँ जी लो जीवन,
मौत कभी भी है अनजान,
अमर रहना है तो कर दो नेत्रदान।
संसार मेँ चाहे,न किया हो और किसी का भला,
जीवन भर करते रहे,तुम्हारा! तुम देखो-मैँ चला।
जाने से पहले, किसी को देँ तो जीवनदान,
अमर रहना है तो कर दो नेत्रदान।
तुम्हारी आँखोँ से वह देखेगा संसार,
देखेगा खुशी से,साकार करेगा,अपने सपनोँ
और
करेगा जगत कल्याण
अमर रहना है, तो कर दो नेत्रदान।
माँ
माँ की दवाई का खर्चा उसे मजबूरी लगता है।
उसे सिगरेट का धुआं जरुरी लगता है।
फिजूल मेँ दोस्तोँ के साथ घूमना,
माँ से मिलना मीलोँ की दूरी लगता है।
वो घंटोँ लगा रहता फेसबुक के अजनबयियोँ से बतियाने मेँ
माँ का हाल जानना उसे बचकाना लगता है।
खून की कमी से मरते रोज लाचार माँ,
वो दोस्तोँ के लिए शराब की बोतलेँ खरीदता फिरता है।
वो बडी कार मेँ घूमता, लोग उसे रहीम करते,
पर बडे मकान मेँ माँ के लिए जगह थोडी रखता है।
माँ को देखे जमाना हुआ,
मगर बीबी का चेहरा उसे सुहाना लगता है।
माँ का दर्द माँ ही जाने।
-देवेन्द्र सुथार,बागरा,जालौर,राज.।
devendrasuthar196@gmail.com
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कवितायें प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंsabhi kavitayen ek se badhkar ek
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंइज़्ज़त ने खुद अपनी ही अस्मत को लुटा डाला
जवाब देंहटाएंसामानों की कीमत पर, दी बेच पर्देदारी।
---सच कहा ..बलवंत जी ..सच अच्..
शोषित आदमी का सपना .......
जवाब देंहटाएंआओ सब मिलकर करे
--- भारती जी जो आदमी शोषित हो रहा है ...उसमें इच्छा व हिम्मत ..उत्कंठा नहीं है स्वयं को शोषण न होने देने की ...उसे कोइ अन्य क्यों शोषण से बचाए ....उसके लिए कोइ अन्य क्यों ललकार दे.....यह झूठी निरर्थक ललकार होगी ........
----- अपने न्याय के लिए स्वयं ही लड़ना होता है ...
उसे मारा दंगाइयों की बर्बरता ने,
जवाब देंहटाएंधर्म के नाम पर मासूमों का कत्ल करने वाले,
गर्दनमारों की धृष्टता ने.
उसे मारा शिक्षक के वहशीपन ने
---बहुत सुन्दर इतिश्री जी ...सुन्दर ...
जितनी जरूरत हो उतना ही कमाना है
जवाब देंहटाएंपर जिन्दगी को जिन्दगी बनाना है....
---यही सच है अंजली जी ..बधाई ....आज सारे द्वंद्वों -द्वेषों -अपराधों का यही कारण है...
शराब का शौक नहीँ भूलते।----क्या बात है देवेन्द्र जी....यह तो आज के युवा का फैशन है .....
जवाब देंहटाएंअच्छे संकलन ---बधाई रवि जी.....
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
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