वीरेन्द्र ‘सरल‘ हल के फाल से धरती का सीना चीरकर अन्न उगाने वाले और दुनिया की भूख मिटाने वाले अन्नदाता छत्तीसगढि़या श्रमवीर किसान जब अ...
वीरेन्द्र ‘सरल‘
हल के फाल से धरती का सीना चीरकर अन्न उगाने वाले और दुनिया की भूख मिटाने वाले अन्नदाता छत्तीसगढि़या श्रमवीर किसान जब अपनी श्रमनिष्ठा के फलस्वरूप खेतों में लहलहाती हुई धान की सोने जैसी बालियों को देखता है तब मस्ती और उमंग के साथ बरबस गा उठता है कि ‘छत्तीसगढ़ ला कहिथे भैया धान के कटोरा, ये दे लक्ष्मी दाई के कोरा भैया धान के कटोरा।‘ मेहनतकश कृषक के कंठ से मुखरित यह गीत, गीतकार की लोकप्रियता का प्रमाण है। यह गीत केवल माटी की वंदना और मातृभूमि का गौरव गान ही नहीं बल्कि छत्तीसगढि़या स्वाभिमान का प्रतीक भी है। कला, साहित्य और संस्कृति से इतर लोग जो इस कालजयी गीत के गीतकार को चेहरे से नहीं पहचानते वे भी गीत के माध्यम से उन्हें जानते है। वैसे भी सर्जक की पहचान चेहरे से नहीं बल्कि उसकी सर्जना से होती है। कृतित्व ही व्यक्तित्व का दर्पण होता है। इस गीत के गीतकार डॉ जीवन यदु जी विद्वत समाज में लोक साहित्य के गंभीर अध्येता के रूप में प्रतिष्ठित और सम्मानित है। यदि डॉ जीवन यदु के छत्तीसगढ़ी साहित्यिक अवदान का समग्र मूल्यांकन करते हुए संक्षेप में कहें तो यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि छत्तीसगढ़ी साहित्याकाश जिन सितारों की चमक से देदीप्यमान है उनमें से एक सितारे को साहित्य जगत जीवन यदु के नाम से जानता है।
श्री प्रकाशन दुर्ग से प्रकाशित उनका छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह ‘धान के कटोरा‘ इन दिनों चर्चा में है। डॉ यदु ने अपने सुदीर्घ साहित्यिक यात्रा में अपने संवेदनशील हृदय के स्पंदन में जो कुछ महसूस किया और सचेत मस्तिष्क से जो कुछ चिन्तन किया है उन अनुभवों का निचोड़ इस संग्रह में हैं। कवि जो देखता है और महसूस करता है, उसी को तो कोरे कागज पर उतार कर जीवन्त कर देता है। आखिर अनुभूति ही तो अभिव्यक्ति की जननी होती है। नये शिल्प और बिबों के माध्यम से गंभीर बातो को कम-से-कम शब्दों में कह देने की कला में सिद्धहस्त डॉ यदु की लेखनी का ही कमाल है जो संग्रह में जीवन के विविध रंगों का इन्द्रधनुष मन को मोह लेता है।
कवि ने इस संग्रह में अपने जीवन अनुभवों को साहित्य की विभिन्न विधाओ यथा गीत, गजल, नई कविता और वक्रोक्ति अर्थात व्यंग्य के माध्यम से रखने का सार्थक उपक्रम किया है। जहां अपन मुड़ में पागा बांधव, रहिबे हुशियार भैया, चलो-चलो रे भैया, जिनगी बने परी, भइया, पखरा सही काया में आगी सही मन, सुधारन जिनगानी, बिजहा धान तपास जी, चेत-चेत रे चिरैया, जांगर के महिमा जैसी रचना के माध्यम से कवि ने सामाजिक चेतना के साथ श्रमनिष्ठा और आत्मनिर्भरता का संदेश दिया है वहीं दूसरी ओर बादर करे साहूकारी, भुइंया के चूंदी, मउसम, जड़काला, भुइंया के लगिन धरागे, आगे अषाढ़ कविता के माध्यम से प्रकति का मानवीयकरण करते हुए सुन्दर प्रकृति चित्रण किया है। खुसरे हे सरकार मा जी की ये पंक्ति ‘‘ जोंक कोख मा सीखत रहिथे, ढंग लहू ला चुहके के, तभे जोंक मन चतुरा होथे, लहू के कारोबार मा जी‘‘ राजनीतिक मूल्यहीनता, देखत हवं, अमेरिकी परेतिन ह, देश में हमागे की ये पंक्ति ‘‘ मॉल मा खुसरबे त जेब ला टमड़ ले, हटरी झन खोज, वो तो कब के नंदागे‘‘ सांस्कृतिक क्षरण। जउंहर भइगे की ये पंक्ति ‘‘लोकतंत्र ला घुनहा कीरा कस खोलत हें, नवा किसम के राजा रानी जउंहर भइगे‘‘ प्रशासनिक मूल्यहीनता। आजादी के बाद की ये पंक्ति ‘‘आजादी के बाद बबा के मिहनत मिलगे मट्टी मा, गंगाजल ला खोजत-खोजत देश खुसरगे भट्टी मा‘‘ आजादी से मोह भंग की स्थिति तथा का कहिबे की ये पंक्ति ‘‘ संसद के अनुशासन टी वी मा देखत हन, वो आल्हा, ये फगुवा गावत हे का कहिबे‘‘ राजनेताओं के चारित्रिक पतन, खोजत हे प्रेमचंद, सुन भई तुलसीदास जैसी रचनाओं के माध्यम से साहित्यिक क्षेत्र में आई मूल्यहीनता को कवि ने निर्भीकतापूर्वक व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है। वैसे तो संग्रह की सभी कविताएं उत्कृष्ट है पर बस्तर के वनवारिसयों के दर्द को अभिव्यक्त करती कविता बता, कहाँ हम जावन? तथा सिविर बनिस रहवास पाठकों का विशेष घ्यान आकृष्ट करती है।
संग्रह की कविताओं में कवि ने छत्तीसगढ़ी के ऐसे शब्द जो हाशिए पर ढकेल दिए गये हैं या ढकेले जा रहे हैं उनका भरपूर प्रयोगकर पुनः प्राण प्रतिष्ठा करने का स्तुत्य प्रयास किया है यथा बेलबेलही, ओखी, बइठांगुर, अदियान इत्यादि। साथ-ही साथ भाषा के आभूषण लोकोक्तियों का प्रयोग भी कवि ने यथा स्थान बहुत सुन्दर ढंग से किया है जैसे ‘‘ जब तक हे सांस तब तक हे आस‘‘, ‘‘ररूहा हा सपना देखे, चांउर अउ दार के‘‘ इत्यादि।
संग्रह को ध्यान से पढ़ने के बाद स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि इसकी कविताओं में छत्तीसगढि़या श्रमवीरों के श्रम सीकर से सनी मिट्टी की ऐसी सौंधी महक है जो हर छत्तीसगढ़ी काव्य प्रेमी पाठक को मंत्र मुग्ध करने में सक्षम हैं पर पुस्तक का अधिक मूल्य पाठकों को आतंकित करता हुआ महसूस होता है और टंकन की अशुद्धियां प्रकाशक की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। मुझे लगता है कि छत्तीसगढ़ी काव्य की ऐसी उत्कृष्ट कृति यदि अधिक मूल्य के कारण सुधि पाठकों के हाथ में पहुंचने के बजाय ग्रंथालयों के आलमारियों में बंद हो जाय तो कवि के सार्थक श्रम का अपेक्षित परिणाम मिलना संदिग्ध हो जाता है। बहरहाल इस कृति के लिए कवि डॉ जीवन यदु जी को हार्दिर्क बधाई-
वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा, मगरलोड़
जिला-धमतरी, छ ग
कृति- धान के कटोरा
कवि -डॉ जीवन यदु
प्रकाशक- श्री प्रकाशन दुर्ग, छ ग
मूल्य-460 रूपया
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