शोध-आलेख डॉ पद्मा शर्मा शा. स्नात. महाविद्यालय,शिवपुरी हिन्दी बाल कहानियों में जीवन-मूल्य ः एक विश्लेषण बच्चे राष्ट्र का भविष्य ह...
शोध-आलेख डॉ पद्मा शर्मा
शा. स्नात. महाविद्यालय,शिवपुरी
हिन्दी बाल कहानियों में जीवन-मूल्य ः एक विश्लेषण
बच्चे राष्ट्र का भविष्य होते हैं । इस भविष्य की आधारशिला वर्तमान में ही रखी जाती है। यही कारण है कि सरकार और समाज बच्चों के भविष्य के प्रति उदासीनता नहीं बरतते । भारत के संविधान में भी इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि बच्चों के व्यक्तित्व विकास में किसी भी स्तर पर उपेक्षा न बरती जाए । अभिभावकों की देखभाल , पारिवारिक वातावरण द्वारा उनमें निहित क्षमताओं का विकास ,प्रतिभा को निखरने के अवसर, प्रोत्साहन , वर्जित व्यवहारों पर अंकुश, मनोवैज्ञानिक व्यवहार, संवेगों का शमन आदि ऐसे कार्य-व्यवहार हैं , जिनके द्वारा बच्चों के व्यक्तित्व को नई दिशा दी जा सकती है। 1 अभिभावकों तथा शिक्षकों की भूमिका कुम्हार के समान होती है । जिस प्रकार से कुम्हार कच्चे घड़े को ठोक-ठाक कर उसके दोष निकालता है, ऐसी ही सोच पालकों, शिक्षकों, समाज-सुधारकों और लेखकों की होना चाहिए। अनुशासित, शिष्ट और सदाचारी बच्चे आज की सबसे बड़ी आवश्यकता हैं ।
फ्रांस के सुप्रसिद्ध विद्वान रूसो का कहना है कि बालक का मन शिक्षक की पाठ्य पुस्तक है जिसे उसको पहले पृष्ठ से लेकर अंत तक भली-भांति अध्यापन करना चाहिए । दूसरी ओर आयु वर्ग एवं शिक्षा मनोविज्ञान पर विचार करते हुए मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर बल दिया है कि अवस्था के अनुसार बच्चों का अपना पृथक् अस्तित्व होता है । वे स्वतंत्र होते हैं, उनके मनोविज्ञान को समझना इतना आसान नहीं है। तभी तो खलील जिब्रान ने कहा है कि ‘‘तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो लेकिन विचार नहीं क्योंकि उनके पास अपने विचार होते हैं। तुम उनका शरीर बन्द कर सकते हो लेकिन आत्मा नहीं क्योंकि उनकी आत्मा आने बाले कल में निवास करती है । उसे तुम नहीं देख सकते हो । सपनों में भी नहीं देख सकते । उन्हें अपनी तरह बनाने की इच्छा मत रखना क्योंकि जीवन पीछे की ओर नहीं जाता और न बीते हुए कल के साथ रुकता ही है । '' बच्चों के लिए लेखन आसान नहीं है । उनके मनोविज्ञान को समझे बिना बाल साहित्य लिखा ही नहीं जा सकता । तथ्य तो यह है कि बाल साहित्य का लक्ष्य बच्चों के मानसिक स्तर पर उतरकर उन्हें रोचक ढंग से नई जानकारियाँ देना है । यदि बच्चों में कल्याण भावना और सौन्दर्यपरक दृष्टि जाग्रत करनी हो तो उनकी समस्त आकांक्षाओं और जिज्ञासाओं का स्कूली शिक्षा के साथ ही विकास आवश्यक है।2 बच्चों के चंचल मन और जिज्ञासाओं को प्रेरित करने का मुख्य साधन बाल साहित्य ही है ।
पहले भी दादा-दादी, नाना-नानी और घर के अन्य बुजुर्ग बच्चों को कहानी सुनाते थे तो उसमें कोई सीख समाहित होती थी । पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ भी कोई न कोई उपदेश लिए होती थीं । बाद में जब प्रेमचन्द की कहानियाँ भी आयीं जिनमें आदर्श निहित था । 3 आज जबकि बच्चा अपना अधिक समय टी व्ही और कमप्यूटर में व्यतीत करता हैे तब तो लेखक की जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती है कि उसका ध्यान साहित्य की ओर कैसे आकर्षित किया जा सकता है ।
नई पीढ़ी के बच्चों का मानसिक स्तर गुजरे जमाने से कहीं अधिक बढ़ चुका है , उसकी बौद्धिक भूख को शान्त करने के लिए ऐसे साहित्य की जरूरत है जो उसे मनोरंजन के साथ-साथ सही दिशा भी दे सके । जॉन होल्ट मानते हैं कि ‘‘ जिस व्यक्ति के पास असली स्वतंत्रता नहीं होती या उसे लगता है कि उसके पास वह नहीं है, वह उसे लेने के बारे में नहीं सोचता वह केवल इस बारे में सोचता है कि उसे दूसरों से छीना कैसे जाए ? मनुष्यता को बचाए रखने के लिए हमें बच्चों को इस रूप में ढालना होगा जो अपने जीवन को सम्पूर्ण रूप से जीना चाहते हों उसे सार्थकता और खुशहाली से भरना चाहते हों ।''
आज भी कई कहानीकार बाल कहानी लिखकर साहित्य में योगदान दे रहे हैं । संभाग स्तर पर ही लें तो परशुराम शुक्ल, महेश कटारे, राजनारायण बोहरे, डॉ कामिनी, रामगोपाल भावुक, ए असफल, प्रमोद भार्गव , पद्मा ढेंगुला, आदि कहानीकारों की लेखनी बाल सरोकारों से सम्पृक्त है ।
आसपास के परिवेश का बच्चों पर बहुत असर पड़ता है । गलत आदतो का पहला प्रभाव उन पर ही पड़ता है । ठाकुर साहब शराब पीते थे और वेश्या के घर भी जाते थे उस पर तुर्रा यह कि वे मास्टर जी पर ही तोहमत लगा रहे थे कि वे अच्छी तरह नहीं पढ़ाते। मास्टर जी बोले कि मुझे इन बाल-गोपालों से डर लगता है क्योंकि-
‘‘अरे इनसे इसलिए डरता हूँ कहीं हमारे आचरण का इनके बाल -मन पर कोई गलत असर न पड़ जाए।'' 4
ए असफल के ‘‘ नन्हा फरियादी, नकली सौ का नोट, नाई की घोड़ी तथा ‘मिसिंग पर्सन' जैसे कहानी संग्रहों में भी मूल्य बोध, संस्कार, प्रेरक तत्व निहित हैं । डा कामिनी की ‘‘ लाडिली के भुवन कहाँ ,इतना जीवट तथा भोली सी आशा'' आदि कहानियों में बाल संस्कार तथा बाल मनोविज्ञान की छवि दिखाई देती है । ‘‘भोली सी आशा'' भोली के कथन का एक दृश्य वर्णित है-
‘‘ मैं चाहती हूँ कि मैं सभी प्रोग्रामों में भाग लूँ, पर सर कहते हैं कि मैं छोटी हूँ । ''
‘‘ क्या तुम चाहती हो कि तुम्हारे अलावा दूसरे को काम न मिले''
‘‘ हाँ मम्मी मैं चाहती हूँ हमेशा मैं ही फर्स्ट आऊँ''
‘‘ स्कूल में सभी लड़कियाँ बराबर होती हैं । '' 5
प्रमोद भार्गव की कहानी ‘‘विकास का भूत'' में ऋषि कहते हैं -‘‘राजन गौर से सुनो ,तुम जिस विकास और उन्नति के भ्रम में लगे हो वह कुछ ऐसा ही है। जो न ऊपर की ओर बढ़ रही है औेर न नीचे की ओर। बल्कि जल,जंगल और जमीन से उसके वास्तविक हकदारों से हक छीनकर तुम सामाजिक न्याय के बहाने उनके साथ अन्याय कर रहे हो।''6
बालमन स्वाभिमानी, मेहनती और ईमानदार होता है । कभी-कभी परिस्थिति वश उन्हें गलत काम करने पड़ते हैं, इसका मतलब यह नहीं कि वे आचरण से खराब हैं। समाज का काम है उन्हें सुधारना। पद्मा ढेंगुला की कहानी ‘‘ जीवन की नई सुबह '' में अक्षत नामक पात्र मजबूरी में चोरी करता है। इन्सपेक्टर साहब उसे घर ले जाते हैं और कहते है-
‘‘नहीं अक्षत मुझे पता है, तुम स्वाभिमानी हो और ईमानदार भी। तुम तो परिस्थितियों से चोर थेे दिल से नहीं। मुझे ईमानदार लड़के की आवश्यकता थीं । तुम यहीं काम कर लिया करो। यह सुनकर अक्षत की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे ।'' 7
कुछ अन्य कहानीकार भी हैं जो जीवन मूल्य के पक्षधर हैं । ऐसे लेखक अपनी कहानियों के घात-प्रतिघातों का निर्माण इस प्रकार करते हैं जिनसे मूल्यों की रक्षा हो सके। ‘‘जादुई ठूंठा'' कहानी में दीनू को जब चमत्कारी ठूंठा मिलता है तो वह अपनी गरीबी दूर न करके गाँव के हित में उसका इस्तेमाल करता है । यह परोपकार वह एक बार नहीं दो-दो बार करता है।
‘‘ठूंठ ने सोचा कि दीनू धन-दौलत मांगेगा । मैं उसको मालदार बना दूंगा। पर दीनू किसी और ही मिट्टी का बना था उसने कहा - ‘तुमने नदी का सारा पानी पी लिया हैं वह खाली हो गई है। इससे कितने लोग प्यासे रह जायेंगे। तुम उसमें इतना पानी भर दो कि कोई गाँव न डूबे और नदी भी लबालब रहे ।'' 8
आदमी का बड़ा बन जाना उतना लाजमी नहीं है जितना उसमें इन्सानियत का होना है । बुराइयों का भण्डार होने पर भी जब कभी इन्सानियत जाग जाती है, यह इन्सान होने की सबसे बड़ी सफलता है । चंपक में प्रकाशित कहानी ‘छोटू की कार '' में यही बताया गया है कि -
‘‘ वह एक बड़ी आतंकी साजिश थी। मैंने देखा है आदमी में वैसे लाख बुराइयाँ हों
पर ऐसे समय पर उसकी इन्सानियत जाग जाती है। छोटू अपनी बात जैसे पूरी तरह भूल गया था। पर उसी कार ने हम सबको हादसे से बचाकर लोगों की मदद कदने का अवसर दिया था ।'' 9
यह तो सभी जानते हैं कि मेहनत का फल मीठा होता है । मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती ।कई कहानियाँ इसी कथ्य पर आधारित होकर लिखी गई हैं । ‘‘ गर्मागर्म जलेबियाँ '' कहानी में लिखा है -‘‘किसी ने सच ही कहा है कि मेहनत का फल मीठा होता है।'' 10
अतिथि देवो भव का संस्कार भारतीय परम्परा का अंग है। मेजबान मेहमान के लिये समस्त सुविधाएँ जुटाता हैं । जिसके घर अतिथि आते थे वह घर सौभाग्य-सम्पन्न माना जाता था।‘फिर बस गया ताल' कहानी में मृणालिनी श्रीवास्तव ने लिखा है -
‘‘दोनों बहुत वर्षों तक वहाँ आने वाले अतिथियों का प्यार से स्वागत करते रहे। हर यात्री को उस जग से निकालकर एक गिलास दूध अवश्य दिया जाता क्योंकि उसमें दूध हमेशा ही भरा रहता था।'' 11
हमेशा सच बोलना चाहिए, झूठ बोलना पाप है। यह प्रायः सभी धर्मों का मुख्य सार है। बच्चों को भी यही सिखाया जाता है। ‘‘सच्चाई का फल'' कहानी में भी बाल पात्र रवि अपनी की गयी गलती को स्वीकार कर लेता है-
‘‘सर कल मुझसे स्कूल की एक खिड़की का कांच टूट गया था। यह सब अचानक हो गया था। मैंने जानबूझकर नहीं तोड़ा । मैं इसका हर्जाना चुकाने को तैयार हूँ। 12
इज्जत सबको प्यारी होती है, चाहे वह मानव हो या पशु-पक्षी। इधर कई कहानियाँ बाल - साहित्य में पशु-पक्षियों को आधार बनाकर लिखी जा रही है। ‘‘ नाक कटने का डर'' 13 कहानी में धीमू कछुआ और तेजू खरगोश की दौड़ प्रतियोगिता का वर्णन है जिसमें तेजू के हार जाने पर सभी उसको धिक्कारते थे । पर दूसरी प्रतियोगिता में धीमू कछुआ ने जीत हासिल करके खरगोश के घमण्ड को समाप्त कर दिया ।
चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट दिल्ली द्वारा भी बच्चों के विभिन्न वर्गों के लिये कहानी , उपन्यास और अन्य विधा की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं । इसके अन्तर्गत ‘‘ सच्चा लकड़हारा, एक भला कि सौ, खिलाड़ी भावना तथा रिश्ता आदि कहानियाँ पुरुस्कृत हो चुकी हैं । ‘‘ एक बड़ा कि सौ '' कहानी में सज्जन एक चौकीदार हैं उसके पिता की मृत्यु हो जाती है और रात्रि में उसे चौकीदारी करने जाना होता है तब वह रात में पिता के मृत शरीर को घर में ही छोड़कर रात्रि पहरेदारी पर निकल पड़ता हैं - ‘‘ चौकीदार सज्जन ने जो किया वह पूरी तरह उचित था । उसकी जिम्मेदारी थी कि वह एक आदमी के बजाय सैकड़ों के हित की बात करे , जिसके लिये उसने अपने पिता की लाश को दूसरों के लिए छोड़ दिया । यही कर्तव्य उसके लिये जरूरी था । 14
हमारे बच्चों ने प्रगति की है तो उनके सामने आज नई - नई समस्याएँ भी हैं । विकास की साढ़ी यदि शिखर पर ले जाती है तो वह उसमें फिसलन भी पैदा करती है जो बच्चों के भविष्य के लिए घातक भी बन सकती है । यह सही है कि हमने बच्चों को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार तो किया है लेकिन हमें उतना ही सावधान भी रहना है कि वे उपलब्ध सुविधाओं का दुरूपयोग न करने पाएँ। भविष्य की चुनौतियाँ गंभीर हैं। समाज, संस्कृति, जीवन-मूल्य सभी की दृष्टि से बच्चों के सामने अनेक प्रश्न हैं और हमें बच्चों को उनसे जूझने के लिए सशक्त बनाना है। हमें अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना चाहिए । हमें हिन्दी भाषा और उसके साहित्य के विकास के लिए प्रयासरत होना होगा इसके लिए बाल -साहित्य से ही प्रारम्भ करना होगा। हिन्दी का बाल -साहित्य सौ वर्ष से भी अधिक पुराना हो गया है । इसके सन्दर्भ में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का बच्चा इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका हैं ,उसकी इच्छाएँ पसंद-नापसंद और सरोकार भी बदल गये हैं। उसकी मानसिकता को समझते हुए हमें वह बाल-साहित्य रचना होगा, जो उसे संस्कार देते हुए नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार कर सके । सभ्य और सुसंस्कृत समाज के निर्माण के लिए बाल-साहित्य को उचित महत्व देकर उसमें साहित्य लेखन करना होगा। नहीं तो हम यही कहते रह जायेंगे-
‘‘ इस पीढ़ी ने पीड़ा दी हमको , बेदर्द जमाना क्या जाने
जन्म लिया है बेरुखी में फिर प्यार की भाषा क्या जाने
घुटने भी पुजने लगे जहाँ चरण चूमे जाते थे
हाय हलो से निकले काम फिर अभिवादन को क्या जाने '' 15
डॉ पद्मा शर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी
शा श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर
महाविद्यालय शिवपुरी , म प्र
संलग्न ः संदर्भ सूची
संदर्भ-सूची
1. बच्चों की प्रतिभा कैसे उभारें - चुन्नी लाल सलूजा, अपनी बात
2 कृतिका- वीरेन्द्र यादव - पृ 151
3 मानसरोवर -ईदगाह , प्रेमचन्द
4 दुलदुल घोड़ी- रामगोपाल भावुक पृ 68-69
5 बिखरे हुए मोर पंख- डॉ कामिनी, पृ 72
6 विकास का भूत - प्रमोद भार्गव पृ 2
7 जीवन की नई सुबह - पद्मा ढेंगुला पृ 22
8 जादुई ठूंठा - बाल भास्कर -जनवरी 1 . 2010 पृ 24
9 चंपक - जुलाई अंक 2010 पृ 40
10 लोटपोट - सित 2010 पृ 13
11 नंदन - सित 2010 पृ 25
12 बालहंस- सित द्वितीय पृ 18
13 जनसत्ता - रविवारीय, नन्ही दुनिया पृ 4
14 एक बड़ा कि सौ - राजनारायण बोहरे पृ 4
15 खून बहुत सस्ता है- पद्मा शर्मा पृ 40
डॉ पद्मा शर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी
शा श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर
महाविद्यालय शिवपुरी , म प्र
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