ममदू ममदू की माँ थैला झटक कर खाली करते हुए ममदू पर झल्लाई-कितनी बार तुझ से कहा है कि सिर्फ पन्नी ही बीन कर लाया कर, ये ढेर सारे कागज़ क्...
ममदू
ममदू की माँ थैला झटक कर खाली करते हुए ममदू पर झल्लाई-कितनी बार तुझ से कहा है कि सिर्फ पन्नी ही बीन कर लाया कर, ये ढेर सारे कागज़ क्यों भर लाता है। वो इब्राहिम पन्नी वाला सब छाँट-छाँट कर कागज़ अलग कर देता है, फिर तौलता है। जितना बोझ ढो कर लाता है उसमें तीन चार किलो ही पन्नी निकल पाती है, बाकी कागज़ का ढेर......। क्या फायदा ऐसी मेहनत का ? रोज़ मना करती हूँ पर मानता ही नहीं नासमिटा। अगर ढंग से बीने तो किलो दो किलो पन्नी तो और हो ही जाय, पर न जाने क्या धुन में रहता है यह लड़का....... ! छः सात साल का ममदू मुजरिम बना नीची निगाह किये माँ का उलाहना सुनता रहता चुपचाप। उसके मन में क्या चलता है, इससे किसी को क्या सरोकार। उसकी माँ के दिमाग़ में तो दो वक्त की रोटी की जुगाड़ के सिवाय कुछ आता ही कहाँ है। आज की साँसे खत्म हो रही है तो कल जीने की चिन्ता उसे दो रोटी के गोल चक्कर से बाहर निकलने ही नहीं देती। रोज सुबह वह भी काम पर निकल जाती और ममदू बड़ा सा मैला कुचैला थैला लेकर निकल जाता शहर की गन्दी और बदबूदार जगहों की सैर करने। उसकी मजबूर जगहें, गन्दी नालियाँ, नगर पालिका द्वारा जगह जगह रखे गये कचरे के डिब्बे, अस्पताल, सड़क किनारे लगी चाय की होटलें और उन बिल्डिंगों के आसपास जहाँ बेशउर लोग कचरा अपनी खिड़कियों से बाहर उछाल देते हैं। यही तो वे जगहें है जहाँ से ममदू के पेट की ज्वाला को ईंधन मिलता है। इन जगहों से घूमते-घूमते कभी-कभी उसका गुज़र अम्बेडकर स्कूल के सामने से भी हो जाता, जहाँ उसकी उम्र के बच्चे पढ़ते है। संयोग से कभी कभी उस वक्त बच्चों की खाने की छुट्टी होती। स्कूल के मैदान में घने नीम के पेड़ की छाँव में बच्चे अपने अपने टिफिन से खाना खा रहे होते, तो कोई भाग दौड़, खेल में व्यस्त रहते। बाल सुलभ ममदू अपने तन पर मैली चीथड़े हुई कमीज़ लटकाये, कन्धे पर कचरे का थैला लटकाये, स्कूल की बाउन्ड्री वाल के पास खड़ा हो जाता। कम ऊँची बाउन्ड्री वाल पर लगी मोटे तार की बड़े-बड़े चौकोर छेद वाली जाली से ममदू को अन्दर का सब नज़ारा दिखाई देता। अपने काम से बेखबर ममदू उन बच्चों को निहारने लगता। उसके मैल से काले पड़े चहरे पर दिव्य मुस्कान बिखरने लगती। काले चेहरे पर उसके पीले दाँत और उभर कर चमकने लगते। वह मन ही मन कुछ सोचता फिर आगे बढ़ जाता। उस मासूम के मन के भाव कोई क्या जाने! थोड़े आगे एक कम्प्युटर टायपिंग, फोटोकापी, लेमिनेशन, फेक्स और न जाने क्या-क्या काम की दुकान आती। सुबह-सुबह दुकान वाला सफाई करके ”कम्प्युटर पेपर वेस्ट” वह कागज़ जो टायपिंग में, या फोटोकापी करने में खराब हो गये दुकान के बाजू में डाल देता। यह सफेद प्रेस बन्द कागज ममदू को अच्छे लगते और वह उनको बटोर कर अपने थैले में डाल लेता। पढ़ना लिखना तो वह जानता ही नहीं पर वह साफ सुथरे सफेद कागज ममदू को भले लगते। घर जाकर उसे उन कागज़ो के बदले माँ की डाँट फटकार सुननी पड़ती, पर वह भी क्या करे कागज़ का और बच्चों का एक कुदरती रिश्ता है। कागज़ से निकली शिक्षा और बच्चों का मन जब एक हो जाते है तो मनुष्य का मनुष्य होना सार्थक हो जाता है। वह ज्ञान विज्ञान की सीढियाँ चढ़ता चला जाता है। संसार में महान् से महानतम् होता चला जाता है। तभी वह संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाता है। ममदू की कहानी की जनक कागज़ और कलम ही तो है। मासूम और नासमझ बच्चा भी कागज़ के मोह में पड़ जाता है। फिर वह उसे फाड़े, पढ़ने का अभिनय करे या अपनी नन्ही नन्ही उँगलियों में कलम पकड़ कर कागज़ पर आड़ी तिरछी लकीरें खींचे। ममदू को भी कागज़ आकर्षित करते तो उसकी माँ को गन्दी मैली बदबूदार पालीथीन की थैलियों में अपना भविष्य नज़र आता। ममदू माँ की डाँट सुन ही रहा था कि पास की झुग्गी से सुरेखा हाँफती काँपती दौड़ी चली आई। हाथ में प्लास्टिक का खाद भरने वाला बड़ा-सा थैला लेकर झुग्गी के दरवाजे में झाँकती हुई बोली-काकी जल्दी चलो, पीठे का सरकारी गुदाम है ना जो गन्दे नाले के किनारे बना है, वहाँ पर बाहर पड़ी गेहूँ की बोरियाँ बारिश में फट गयीं है। गेहूँ बोरों से फिसल फिसल कर नाले में बह रहा है। गोमती और सुक्खी भी वहीं गई हैं। काकी एक साड़ी रख ले, नाले के पानी से गेंहू छानने के लिये और भरने के लिये कुछ बोरा वगैरह। गन्दे नाले के पानी में पड़े गेहूँ साड़ी के कपड़े से छान-छान कर भर लायेंगे।
यह खबर ऐसी थी कि जैसे स्विस बैंक में जमा सारा काला धन वापस आ गया हो और सरकार ने मुनादी करा दी हो कि यह जनता का माल है जो चाहे जितना भर कर ले जाये। ममदू की माँ ने कचरा बीनने वाला बड़ा थैला देखा तो वह जगह जगह से फटा हुआ था। उसने झट मैली कुचैली, मुड़ी-तुड़ी पालीथीन की आठ दस छोटी बड़ी थैलियाँ लीं। अपने बदन पर लपेटी पुरानी मैली साड़ी उतारी और ब्लाउज़ पेटीकोट में ही ममदू को साथ ले सुरेखा के पीछे भागी।
कुछ देर बाद नाले के गन्दे पानी से रिसती गेहूँ से भरी आठ दस छोटी-बड़ी, नीली-पीली, काली सफेद, पालीथीन की थैलियाँ ममदू की झुग्गी में रखी थीं। किसी ने कुछ नहीं कहा, पर गेहूँ से भरी यह गन्दी पालीथीन की थैलीयाँ ममदू के मन मस्तिष्क में उसका मुँह चिढ़ाती नाच रही थी, कह रही थी कि माँ ठीक कहती है कि यह गन्दी पालीथीन की थैलियाँ कागज़ से कहीं ज्यादा अहम् है।
ममदू अपने दिमाग़ में ढेर सारी उथल पुथल लिये, मैला थैला कन्धे पर लटकाये अम्बेडकर स्कूल की बाउन्ड्री की जाली के पास खड़ा खेलते-कूदते साफ-सुथरे बच्चों को निहार रहा था। एक स्कूली बच्चा चोरों की तरह इधर-उधर देखता जाली के पास आया जहाँ ममदू खड़ा था। उसने जाली के पास दीवार की मुन्डेर पर अपना टिफिन बाक्स उल्टा कर सारा खाना फेंक दिया और डिब्बा बन्द कर वापस भाग गया। ममदू ने हाथ बढ़ाकर सारा खाना समेट लिया। फिर वह रोज़ खाने के लालच में उसी बाउन्ड्री वाल के पास खड़ा रहने लगा। बच्चा जो खाना वहाँ फेंक जाता ममदू उसे उठा लेता। एक दिन ममदू की उस लड़के से बात हो गई। लड़के ने खाना फेंकने का सारा किस्सा ममदू को बता दिया। ममदू आँखें फाड़कर उसकी बात सुनता रहा। मम्मी रोज़ यह टिफिन बना कर देती है पर यह खाना मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिये मैं इसे यहाँ फेंक देता हूँ, मम्मी समझती है मैंने खा लिया। फिर मैं घर जाकर मिठाईयाँ, चाकलेट, आलू चिप्स्, बादाम, किशमिश, मैगी सब खाता हूँ। यह सब मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। लड़के की बातें सुन कर ममदू के मुँह में पानी भर आया। ऐसी स्वादिष्ट चीज़ो की तो ममदू कल्पना भी नहीं कर सकता था। ममदू ने पूछा- इतना सारा सामान तुम्हारे यहाँ आता कहाँ से है?
वह बोला- बाजार से! मेरे पापा के पास बहुत पैसे होते है। वह आफिस में काम करते हैं न...! ममदू ने पूछा-आफिस में क्या काम होता हैं ? क्या वहाँ पैसे बनते हैं ?
वह लड़का बोला- नहीं, वहाँ कागज़ों की फाईलों में काम होता है। मेरे पापा बहुत सारे कागज़ पढ़ते हैं और बहुत सारे कागज़ लिखते हैं। फिर उनको बहुत सारे पैसे मिलते है। बस...फिर हम बाजार जाते हैं और बहुत सारी चीजे़ खरीदते हैं।
ममदू ने आश्चर्य से पूछा- क्या बैठे-बैठे सिर्फ कागज़ों को पढ़ने लिखने से इतने सारे पैसे मिलते है? ममदू कागज़ की महिमा को अपने अन्दर सहजता से महसूस नहीं कर पा रहा था। पर वह बहुत उत्सुक था उस लड़के से और बहुत कुछ जानने के लिये ।
लड़का बोला-मेरे पापा कार में बैठकर आफिस जाते हैं, शानदार सूट पहनकर, मेरी माँ भी बहुत अच्छी अच्छी साड़ियाँ पहनती है और मुझे बहुत प्यार करती हैं। हमारा घर भी बहुत बड़ा और बहुत सुन्दर है। मैं भी स्कूल मे पढ़ाई कर रहा हूँ। मैं भी पापा जैसा बनूँगा, बड़ा आदमी...! इतने में स्कूल की घन्टी बज गई और बच्चा भाग कर अपने दोस्तों के टोले में खो गया।
स्कूल की घन्टी बजना तो बन्द हो गई पर ममदू के मस्तिष्क में सैकड़ों घन्टियाँ बजने लगीं। उसके कानों में लड़के के शब्द गूँजने लगे...मेरी माँ बहुत अच्छी-अच्छी साड़ियाँ पहनती है.......। मुझे बहुत प्यार करती है....। हमारा घर भी बहुत बड़ा और बहुत सुन्दर है। मैं भी स्कूल में पढ़ाई कर रहा हूँ.......। मैं भी बनूँगा पापा जैसा बड़ा आदमी...! ममदू को अपने ख्यालों में दिखी अपनी झुग्गी के दरवाजे पर चीथड़ा लपेटी खड़ी उसकी माँ जो उसे प्यार करने के बजाय डाँट रही है, कि पन्नी के बदले कागज़ क्यों बीनकर लाया ? और उसे भला बुरा कह रही है। वह उदास हो गया और सोचने लगा-क्या यह कागज़ की किताबें पढ़ने से छोटा आदमी बड़ा आदमी बन जाता है ? ममदू का बाल सुलभ मन सोचने लगा.. अगर मैं भी कागज़ पढ़ सकूँ तो अच्छा-अच्छा खाना, अच्छे अच्छे कपड़े मुझे और मेरी माँ को भी मिलें......! ममदू के हृदय में उसके थैले में पड़े कागज़ों का आकर्षण और बढ़ गया। उसके मन में थैले में पड़े सफेद कागज़ और गन्दी पॉलीथीन की थैलियों के बीच जंग होने लगी। उसी उधेड़बुन में वह घर चला गया। माँ ने रोज़ की तरह आज भी उसे भला बुरा कहा पर वह अन्दर से पत्थर हो गया था।
रात को नींद में उसे सितारों से जगमगाता आसमान दिखा। उसकी माँ एक बहुत सुन्दर साड़ी पहने, ढेर सारे गहने अपने ऊपर लादे एक बड़े से घर में, चाँदी के थाल में अच्छा-अच्छा खाना सजाये, दोनो बाँहें फैलाए उसे पुकार रही है। ममदू बहुत सुन्दर कपड़े पहने, हाथ में ढेर सारे कागज लहराते हुए उसकी ओर दौड़ा चला आ रहा है।
सुबह-सुबह लाउड स्पीकर के भोंगे की आवाज से उसकी नींद टूटी तो वह भागकर झुग्गी से बाहर आया। बाहर हल्की बारिश हो रही थी। उसने देखा झुग्गी बस्ती की तंग गलियों में सरकारी हरकारा एक रिक्शा में बैठा चिल्ला रहा था-हर बच्चे का अधिकार, शिक्षा का अधिकार। अपने बच्चों को पास के सरकारी स्कूल में पढ़ने भेजिये। सरकार ने बच्चों को मुफ्त शिक्षा का इन्तजाम किया है। वहाँ खाना भी मिलेगा और कपड़ा भी। रिक्शा जब ममदू की झुग्गी के पास से गुज़रा तो ममदू ने रिक्शे पर लगा पोस्टर देखा। उस पर लिखा था-“एक बेहतर कल बनाएं, सारे बच्चे स्कूल जाएं। कोई बच्चा छूट न पाए, हर बच्चा स्कूल जाए।” ममदू यह सब तो पढ़ नहीं सका, पर उसने देखा कि एक पेन्सिल पर सवार दो बच्चे बस्ते लटकाए मुस्कुराते हुए उड़े चले जा रहे हैं। एक माँ अपने बच्चे को गोद में बिठाए, स्लेट पर उसको लिखना सिखा रही है। मुख्यमंत्रीजी बच्चे को गोद में उठा कर मुस्कुरा रहे हैं। ममदू पोस्टर पर यह सब देखकर गद्गद् हो गया। वह भागकर घर में आया। उसने माँ को देखा, वह सब तरफ से अंजान चूल्हे के पास चाय बना रही थी। बाहर भोंगे की आवाज का उस पर कोई असर नहीं था। वह पुलकित हो बोला-माँ मैं भी स्कूल........! जीने की उहापोह में माँ ने ममदू के शब्द सुने ही नहीं। आधे शब्द पानी के बुलबुले की तरह ममदू के मुँह में ही घुल गये। माँ ने कहा-“यह चाय पी ले और जल्दी जा अपने काम पर। देर होने पर मुँआ हरमू सब पन्नी बीन कर ले जायगा, तेरे जाने से पहले। सुबह बहुत जल्दी उठ कर भागता है हरामी..!” और एक टूटा कप बदरंग मैली चाय से भरा ममदू की ओर बढ़ा दिया। ममदू ने चाय के कप में झाँक कर देखा। एक क्षण के लिये वह कहीं खो गया। उसे लगा उसके नन्हे हाथों में एक सुनहरी प्याला है जिसमें उसके सारे सपने मोतियों की तरह भरे हैं। वह मोतियों को खुश होकर निहार ही रहा था कि- ”जा जल्दी कर...!” माँ की कठोर आवाज़ से घबराकर सुनहरी प्याला उसके हाथ से छूट गया। सारे सपनों के मोती बिखर गये। टूटे कप के टुकड़े और बदरंग मैली चाय झुग्गी के कच्चे फर्श पर फैल गई।
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