गीता का प्रतिपाद्य जीवन क्या है, इसे कैसे जिया जाए कि वह सृष्टि की लय में हो, मेरी दृष्टि में गीता का यही प्रतिपाद्य है. जीवन के संबंध्...
गीता का प्रतिपाद्य
जीवन क्या है, इसे कैसे जिया जाए कि वह सृष्टि की लय में हो, मेरी दृष्टि में गीता का यही प्रतिपाद्य है.
जीवन के संबंध् में अध्यात्म का पक्ष यह है कि यह जन्म और मृत्यु तक की दौड़ नहीं है. यह जीने का एक अवसर है जिसका विस्तार मृत्यु के बाद भी है,
योगियों के अनुभव में जीवन, उर्जाओं का एक संघट्ट है. इसे सम्मिलित रूप में जीवन-उर्जा कहा जा सकता है. यह अस्तित्व से छिटकी एक तरंग है, ठीक सागर से उछली तरंग की तरह. सागर से उछली तरंग कुछ पल हवा में रहकर, वहाँ के संगत असंगत पलों को झेलकर पुनः सागर में लय हो जाती है. जीवन जिस स्रोत से उत्पन्न हुआ है उसे स्मरण में रख और संसार में संसरण कर इसका पुनः उसी स्रोत में स्मरणपूर्वक मिल जाना ही इसका उद्देश्य है. एक दृष्टि से सागर तरंगों के माध्यम से स्वयं खेलता है. योग भी कुछ ऐसा ही कहता है. अस्तित्व ही जीवन-तरंगों के रूप में लीला करता है.
जीवन को जानने समझने के लिए हमारे पास देह ही एकमात्र प्रयोग-सूत्र है. यह देह, पदार्थ और चैतन्य दोनों के गुणों से संवलित है. पूरब के योगियों ने जीवन के आधरभूत को जानने के लिए देह के भीतर चेतना की दिशा से यात्रा की. उन्होंने ध्यान में डूबकर चेतना की आत्यंतिक गहराई को टटोला. इस गहराई में जीवन का जो आधारभूत ईकाई उन्हें मिली, वह है ध्वनि. यह चैतन्य है और जीवन की इकाई है. यही हिंदुओं का ओम और इस्लाम का आमीन है.
विज्ञान ने देह में पदार्थ की दिशा से प्रवेश किया, विश्लेषण का औजार लेकर. पदार्थ को स्तर दर स्तर तोड़ते हुए उसने जिस आत्यंतिक ईकाई को पाया, वह है विद्युत-इलेक्ट्रान. विज्ञान की इस खोज के आधार पर पश्चिम के मनीषियों का मानना है कि विद्युत ही घनीभूत होकर पदार्थ हो गई है. विद्युत ही जीवन का आधरभूत है. यह विद्युत जड़ है.
इस बात पर योग और विज्ञान दोनों सहमत हैं कि जीवन का आधारभूत चाहे ध्वनि हो अथवा विद्युत, ये दोनों एक ही हैं. विद्युत ध्वनि में परिवर्तित हो सकती है और ध्वनि विद्युत में 1. किंतु विज्ञान को आघात से उत्पन्न हुई ध्वनि का ही पता है. जबकि योग इससे आगे जाता है. उसके द्वारा अनुभूत ध्वनि अनाहत - पग बिना आघात के उत्पन्न हुई- और चैतन्य है. वह अस्तित्व की ही अनुगूँज है जो अंतस्तल में सदा मौन निनादित होती रहती है. समस्त अस्तित्व और जीवन इसी अनाहत ध्वनि का घनीभूत रूप है. यह सतत सृजनशील सत्ता है. वल्कि कहा जा सकता है कि योगियों के अनुभव में ध्वनि की यह मौन निनादित अवस्था अथवा अनुगूँज सत्तामात्र की रचनाशील स्थिति है. सृजनशील सत्ता की इसी अनुगूँज के निरंतर घनीभूत होते जाने से विद्युत और इस विद्युत से पदार्थ उद्भूत होता है. चैतन्य सतत इससे संयुक्त स्थिति में रहता है. ब्रह्मांड में उत्परिवतर्न जैसी किसी प्राकृतिक घटना के घटने पर पार्थिव तत्व एक विशेष स्थिति में संघटित हो जाते हैं और सत्ता का चैतन्य उसमें उद्बुद्ध हो उठता है. और इस तरह जीवन उद्भूत होता है. जीवन-उर्जा सक्रिय हो उठती है और जीवन संसरित हो उठता है.
मेरी समझ से गीता में योगियों की यही अनुभूति अभिव्यक्त हुई है. कृष्ण एक योगी हैं.
मनीषियों के अनुभव में देह (क्षेत्र) और देही (क्षेत्रज्ञ) में तारतम्यता से आविर्भूत जीवन-उर्जा का संसरण ही जीवन है और उसका संसरण-क्षेत्र संसार है. जीवन का संसरण कैसे हो कि जीवन को उसके स्वस्थ रूप में जीया जा सके, कृष्ण ने गीता में यही बताया है. यह कृष्ण का अनुभूत है, उनका जीया है.
अब गीता को देखें.
गीता के रूपक में युद्धक्षेत्र में सामने अपने ही बांध्वों को युद्ध् के लिए सन्नद्ध देख अर्जुन को कुल-क्षय की पीड़ा सताने लगती है. वह विषाद से ग्रस्त हो उठता है और बाण के साथ धनुष को त्याग कर रथ के पिछले हिस्से में जा बैठता है. वह कृष्ण से युद्ध न करने की बात करता है. कृष्ण लक्ष्य करते हैं कि वह अंतर्द्वंद्व में पड़ गया है- वह युद्ध करे अथवा नहीं. सामने चुनौती खड़ी है और अर्जुन कायर हो रहा है. जीवन जीने का यह प्रकृत ढंग नहीं है. युद्ध् भी एक कर्म है. कर्म प्रकृति ही करती कराती है. वह अर्जुन को सजग करते हैं- ‘‘अर्जुन, अपनी प्रकृति और अपने प्रकृत धर्म को पहचानो. मनुष्य का प्रकृत धर्म है, जीवन की स्थितियों को स्वीकारना, उसका सामना करना, उसको जीना. तूने क्षत्रिय की प्रकृति पाई है. क्षत्रिय का स्वभाव है चुनौती का सामना करना, लड़ना. तू लड़.''
वह अपनी अनुभूति और व्यवहार से प्राप्त ज्ञान का आधार लेकर तरह तरह से अर्जुन को समझाते हैं. वह उसे बताते हैं कि उसने ;अर्जुनद्ध जो प्रकृति पाई है उसके तार अव्यक्त ;निनादित ध्वनि में अस्तित्व अथवा सत्ता से जुड़े हैं. यह अव्यक्त दोहरा है- एक परम अव्यक्त जो आत्यंतिक है, और दूसरा जीवन के आविर्भाव से ठीक पूर्व की अव्यक्त स्थिति. इसी की अंतर्ध्वनि की अनुगूँज से रूप लेने वाले जीवन को अपने आप एक प्रकृति मिल जाती है जो जीवन के संसरण अथवा जीने को गति देती है, यह दैवी और आसुरी संपद वाली होती है. इन दोनों में कर्म की गति होती ही है. इसे जीव की प्रकृति संपन्न करती कराती है. ‘‘अर्जुन तू दैवी संपद में पैदा हुए हो. तुझे एक क्षत्रिय की प्रकृति मिली है, चुनौती को स्वीकार करने और उसका सामना करने की, पीठ दिखाने की नहीं. तू इस क्षण अपना प्रकृत कर्म कर.
गीता में इन बातों को कहने के लिए ‘मैं' शैली अपनाई गई है. लेकिन यह मैं हिंदी काव्य का ‘मैं' नहीं है. हिंदी काव्य का ‘मैं' तो बस एक परसोना है जिसमें अनुभव और अनुभावक के बीच एक झीना अंतर है. गीता के ‘मैं' में अनुभव और अनुभावक का अंतर मिट गया है. इसमें अनुभावक का भी अस्तित्व नहीं है. यह ‘मैं' साक्षात अनुभूति में तरंगित सत्ता ही है.
गीता में अर्जुन निमित्तमात्र है अस्तित्व का और काव्यशैली के प्रकार से ‘मैं' का.
1.देखें- कठोपनिषद पर ओशो का पाँचवाँ प्रवचन
Vascievk Patal par kashi vishnath dham easey
जवाब देंहटाएं