स्वाभिमान उन्होंने अपने कम्प्यूटर पर नया-नया नेट का कनेक्शन ले लिया. उनकी उम्र के लोग कम्प्यूटर का ककहरा भी नहीं जानते. उन्होंने ल...
स्वाभिमान
उन्होंने अपने कम्प्यूटर पर नया-नया नेट का कनेक्शन ले लिया. उनकी उम्र के लोग कम्प्यूटर का ककहरा भी नहीं जानते. उन्होंने ले तो लिया पर ज़्यादा कुछ नहीं जानते थे. शुरुआत में उन्होंने फटाफट अपने अध्यवसाय से सम्बन्धित कुछेक लेखकों को फ़ेस बुक पर दोस्त बनाना प्रारंभ किया. ताज्जुब, गूगल स्वयं उनके रंग में रंग गया. अनगिनत साहित्यकारों की सूची उसमें आने लगी. उन्होंने भी कुछ मित्रता के अनुरोध भेजें, स्वीकार किये. कई अवांछित भी. ऐसे में एक नामी पत्रिका के संपादक को भी जोश-जोश में ‘रिक्वेस्ट' भेज दी, जो उसने अदेर मंज़ूर भी कर ली. वह उनकी कई लघुकथाएं प्रकाशित कर चुका था- परिचय इस तरह था ही.
इधर उन्होंने अपनी एक दीर्घ और स्तरीय कहानी उसे भेजी. कई बार फ़ोन करने के बावजूद टालमटोल के जवाब- ‘अभी फ़ाइल नहीं देख पाया...' ; ‘लम्बी है ना, पढ़ूंगा...' ; ‘देखता हूं...' वग़ैरह. तीन माह बाद तो एक मर्तबा फ़ोन ही काट दिया.
उसी सम्पादक का ऑन-लाइन निमंत्रण मिला कि उसकी किताब का अमुक स्थान पर, अमुक तारीख को, अमुक समय पर विमोचन का भव्य आयोजन है. उन्होंने सोचा, जाना चाहिए.
विमोचन के दिन वे सुबह से बेचैन रहे. ‘जाना है, जाना है...' के तनाव में. जाने के फ़ायदे और न जाने के नुक़सान इस ‘संपर्क-साहित्य' के युग में क्या उन्हें पता नहीं थे...
दोपहर हुई, शाम आने को थी, लेकिन वे उस कार्यक्रम में नहीं गये तो नहीं ही गये.
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पराजय
मतदान करने के बाद उन्होंने सोचा कि पत्नी के साथ बाज़ार से होकर जाना ठीक रहेगा. उनकी पत्नी सिवा उनके कभी बाहर नहीं निकलती थीं- वह भी कभी-कभार -ख़्ाास कर कुछ विश्ोष ख़्ारेदी करनी हो तब. इधर उनका हमेशा का किराना दुकान वाला जो चावल दे रहा था, उनकी पत्नी को पसन्द नहीं आ रहा था. तो उन्होंने सोचा कि दुकान पर जाकर चावल के नमूने देखकर वे स्वयं तय कर देंगी कि- हां, यह चलेगा.
जब वे दोनों उस दुकान पर पहुंचे, दुकान के मालिक बंसल जी कुछ अन्यमनस्क लग रहे थे. उन्होंने जब उनसे कहा कि इन बोरियों में रखे चावल कैसे हैं और किस भाव के... ज़रा हमारी श्रीमती जी को दिखा दें तो बंसल जी ने अनपेक्षित जवाब दिया. वे बोले, ‘अरे छोड़िये भी इनको, कल बहुत अच्छा चावल आ रहा है, वह आप ले जाना...'
पत्नी को और खुद उनको भी यह उत्तर नागवार गुज़रा, अपमानास्पद लगा. यदि बंसल जी उनकी एकाध बार आयी पत्नी को बाहर ही अलग-अलग खुली बोरियों में भरे चावल दिखा देते तो उनका कुछ बिगड़ना तो था नहीं. एक झटके के साथ उन्होंने ज्यों कह दिया हो- ‘अभी जाइए आप, मेरे पास व्यर्थ की फ़र्माइश पूरा करने की फुर्सत नहीं है.'
इतने सालों से वे उनके ग्राहक थे, उन्हें यह व्यवहार बुरा लगा. लौटते वक़्त उनकी पत्नी ने कह भी दिया- ‘कैसा दुकानदार है यह, ग्राहक को माल दिखाने की तमीज़ नहीं है इसमें...' उन्होंने मन ही मन यह निश्चय किया कि अब इस दुकान पर दोबारा नहीं आयेंगे...
लेकिन फिर उन्हें इस निर्णय ने पसोपेश में डाल दिया, मध्यमवर्गीय सभ्य मानसिकता आड़े आ गयी. इतनी पुरानी दुकान को वे कैसे छोड़ें... कल बंसल जी पूछेंगे तो... दूसरी दुकान पर देख लेंगे तो...
उन्होंने पत्नी को समझाने की कोशिश की- ‘बंसल जी ऐसे नहीं हैं. निहायत शरीफ़ हैं, मुलामियत से बात करते हैं, वाजिब दाम लगाते हैं, सही माल देते हैं... हो सकता है, वहां रखे चावल हमारे स्तर के न हों... कभी उन्होंने कोई ग़लत बर्ताव नहीं किया...' शायद वे अपने ग़ुस्साये दिमाग़ को दलीलें दे रहे थे.
और आिख़्ारकार दस-बारह दिनों बाद वे साहस जुटाकर फिर उसी दुकान पर महीने भर के सामान की सूची लेकर चले ही गये...
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प्रतिगमन
रात के नौ बज रहे होंगे. वे रिक्शा से घर लौट रहे थे. उनका परिचय किसी भी सामान्य नागरिक का हो सकता है. वैसे वे सेवा-निवृत्त प्राध्यापक थे.
ज्यों ही चौराहे से उनका रिक्शा दाहिनी ओर मुड़ा, उनकी जेब में रखा मोबाइल पुकार उठा. उन्होंने उसे कान से लगाया और बात करने लगे. तभी किसीने पार्श्व से उनका मोबाइल छीनने की कोशिश की. वे बातचीत में खोये हुए थे पर संयोग से उनकी उंगलियों की मोबाइल पर पकड़ मज़बूत थी. वह गुंडा सफल नहीं हो पाया, हांलाकि उन्होंने उस युवक की एक झलक देख ली थी.
उनके इस हादसे से उबरने तक रिक्शा कुछ फ़ासला तय कर चुका था. उन्होंने हड़बड़ाते हुए रिक्शा वाले से कहा, ‘अरे! कोई मेरा मोबाइल झपट रहा था...'
रिक्शा वाले ने पलटकर देखा- ‘क्या... मोबाइल... चलो साब देखते हैं...' उसने रिक्शा रोक लिया.
उन्होंने एक साथ दो चीज़ें- सामने, फिर पीछे -नोट की... रिक्शा वाला अधेड़ और दुबला-पतला था. दूसरे, वह मोबाइल चोर चौराहे की पुलिया पर इत्मीनान से जाकर बैठ गया था.
उन्हें इधर बढ़ चुकी आपराधिक प्रवृत्ति का पूरा अंदाज़ा था, जिसमें ज़रा-ज़रा-सी घटना के दौरान छुरा या पिस्तौल चलाकर हत्या कर दी जाती है. उन्होंने क्षण भर सोचा, तदुपरान्त रिक्शा वाले से बोले, ‘भैया, बेहतर है, तुम रिक्शा चुपचाप आगे निकाल लो...'
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हो सकता है
उसने पासपोर्ट के लिए अर्ज़ी दी थी. व्यक्तिगत सत्यापन हेतु पुलिसवाला घर पर आया. यहां-वहां हस्ताक्षर लिये, परिचय-पत्र आदि देखे और चुप बैठ गया. वह समझ गया कि यह ग़लत रिपोर्ट भेजेगा यदि इसे रिश्वत नहीं दी. उसने पूछ ही लिया- ‘कितने ?' पुलिसिए ने बेशर्मी से हज़ार मांगे. उसने दे दिये.
उसका दूसरे ही दिन कहीं जाने का कार्यक्रम बना. आरक्षण करवाने गया. तत्काल में उसे पांच सौ रुपए अतिरिक्त देकर टिकट मिल गया. लौटकर वह बिजली का बिल सही कराने गया. उसे वहां चार सौ देने पड़े. पानी का पिछला बिल भरने के बावजूद नये बिल में वह रक़म पुनः डाल दी गयी थी. वह जल बोर्ड गया. यहां मात्र दो सौ में काम हो गया.
इन्हीं दिनों उसका एसी खराब हो गया. कंपनी को बारहा फ़ोन करने के ग्यारह दिन बाद एक बंदा आया. बस आउटर को पानी से धोया, फ़िल्टर को कपड़े से साफ़ किया और एक फ़ार्म निकालकर बोला, ‘सब ठीक कर दिया साब, साढ़े पांच सौ कंपनी का सर्विसिंग चार्ज़ होता है...' वह समझ गया कि यह कंपनी को परे हटाकर कम पैसे लेने को आतुर है. इसने विचार किया- चलो इतनी बचत ही सही -उसे तीन सौ देकर रवाना किया.
एसी अगले दिन फिर बन्द हो गया. उस बंदे को लगातार पांच दिनों तक फ़ोन करता रहा. वह बहाने बनाकर रह जाता, आया नहीं. मरता क्या न करता, उसने एक प्राइवेट मेकैनिक से संपर्क किया. बूढ़े सरदारजी थे. आये. कुछ पार्टस् निकाल कर ले गये. शाम तक कहीं से इलेक्ट्रानिक बोर्डों को सुधरवा कर ले भी आये. लगा दिया. बताया कि जिसने सुधारा, साढ़े तेरह सौ लिये और उनकी मज़दूरी हुई ढाई सौ. दे दिये उसने सोलह सौ, सरदारजी के आश्वासन पर कि एसी रुक जाये तो मेरी ज़िम्मेदारी.
एसी चलता रहा. कहीं कोई शिकायत न हुई. अभी-अभी हुए कटु अनुभव उसे बार-बार याद आ रहे थे. उसने पत्नी से कहा, ‘एसी तो अच्छा चल रहा है पर पता नहीं सरदारजी ने वहां साढ़े तेरह सौ दिये भी थे या उसमें भी अपना हिस्सा रख लिया... ढाई सौ में आजकल कौन काम करता है...'
उसकी पत्नी ने थोड़ी देर सोचा, फिर जवाब दिया- ‘कदाचित तुम्हारा अनुमान सही हो क्योंकि सरकार किसी की भी बने, देश में भ्रष्टाचार बेधड़क चल रहा है. लेकिन इसमें से एक मुद्दा निकल कर आता है कि चारों तरफ़ हो रही बेईमानी को सहते-सहते हमारा सोच इतना निष्ठुर हो गया है कि हम ईमानदार पर भी शक करने लगे हैं कि शायद उसने भी बेईमानी की होगी... हो सकता है, बूढ़े सरदारजी ने सब कुछ ईमानदारी से किया हो...
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प्रा. डा. अशोक गुजराती,
बी-40, एफ़-1, दिलशाद कालोनी,
दिल्ली- 110 095.
बेहतरीन लघु कथाएँ।
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