• दीप महोत्सव • महिमानगर कस्बे में ठीक तीसरे दिन दीपावली को इतिहास रचा जाने वाला था । इस कस्बे के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब एक साथ पाँ...
• दीप महोत्सव •
महिमानगर कस्बे में ठीक तीसरे दिन दीपावली को इतिहास रचा जाने वाला था । इस कस्बे के इतिहास में यह पहला अवसर था, जब एक साथ पाँच मन्दिरों ( कर्पूरा माता मन्दिर, शीतला माता मन्दिर, कालिका मन्दिर, हनुमान मन्दिर और महाकाल मन्दिर) में 21 हजार दीप प्रज्वलित होने वाले थे । इसके लिए एक समिति गठित की गई । अध्यक्ष थे कस्बे के चेयरमैन दीनानाथ शुक्ला और उपाध्यक्ष विनीत वर्मा । समिति-अध्यक्ष चेयरमैन साहब ने इस उत्सव के लिए 11000 रूपये दान-स्वरूप दिया था । इसके अतिरिक्त उपाध्यक्ष जी ने 5000 रूपये दिये थे । कुछ अन्य धनाढ्य व्यक्तियों ने भी सिंधुहृदय से सहायता की थी । शेष राशि चंदा से एकत्र की जा रही थी ।
कस्बे में अठाइस घर कुम्हार थे जिनमें से सात घरों में बर्तन गढ़े जाते थे । शेष एक्कीस घरों में लघु व्यवसाय या मजदूरी हुआ करती थी । महोत्सव समिति ने यह निर्णय लिया था कि कस्बे के इन्हीं सात कुम्हारों के घर से मिट्टी की दीप खरीदे जाएँगे, बाहर से नहीं मँगवाए जाएँगे । यह बात कुम्हारों को भी ज्ञात थी और वे सभी बड़े खिले-खिले-से थे ।
महोत्सव हेतु घरों एवं बाजारों से चंदा एकत्र करने के पश्चात् तीसरे प्रहर महोत्सव-समिति का उपाध्यक्ष विनीत अपने घर के पास वाले पीपल के नीचे चबूतरे पर बैठा था । उसके हाथ में एक पत्रिका थी । वह उस पत्रिका में 'दीपावली क्यों मनाई जाती है ?' इस शीर्षक का एक आलेख पढ़ रहा था । पढ़ते समय एक स्थान पर आता है कि जब भगवान राम रावण को मारकर और चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करके अयोध्या लौटे तो अयोध्या-वासियों ने अत्यधिक प्रसन्न होकर देसी घी के दीये जलाएँ । यह प्रसंग आते ही विनीत के मन में विचार आया कि आज परिस्थितियाँ कितनी परिवर्तित हो चुकी हैं । आज देसी घी खाने को नहीं, दीप जलाना तो दूर की बात है ।
वह सोच रहा था और उसकी दृष्टि पश्चिम दिशा के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर थी । उधर से बिरजू कुम्हार सिर पर खाँचा लेकर उसकी ओर आता हुआ दिखा ।
बिरजू बगल के गाँव का एक निर्धन कुम्हार था जो विनीत का परिचित था । आज प्रात: ही दीये लेकर वह इस कस्बे में बेचने निकला था , जिसे प्रात: विनीत ने भी देखा था।
वह चबूतरे के निकट आया । फिर खाँचे को उस पर रख दिया और धम्म् से उसी चबूतरे पर बैठ गया तत्पश्चात् एक गहरी श्वास ली -
'' ओफ्फ ! जीव थाक गया बिनीत भईया !''
सुबह से चलते-चलते बिरजू वास्तव में थका हुआ प्रतीत भी हो रहा था । वो निराश और मलीन हो गया था ।
भरा हुआ खाँचा देखकर विनीत ने प्रश्न किया -
'' ये क्या बिरजू , ये तेरा खाँचा तो वैसे ही भरा हुआ है । आधा भी खाली नहीं हुआ । दीया नहीं बिका क्या ?''
वह उदास मन से बोला -
''का करें बिनीत भईया , छवे-सात लोग ही दियरी कीने हैं । अब इ धन्धा में कउनों फयदा ना है ।''
विनीत ने पूछा -
''क्यों, इतने ही लोगो ने क्यों खरीदा ?''
उसका चेहरा मुरझा-सा गया । वह दु:खी मन से बोला -
''अब देवारी में दियरी गढ़ना बिरथा है भईया। अब इ कस्बा में घर-घर बिजुली है । लोग देवारी अब दीया बार के नाहीं मनावत हैं, लोग झालर-बत्ती बार के मनावत हैं । बहुत करत हैं त कुछ लोग मोमबत्ती बारत हैं । हम लोगन का पुस्तैनी धन्धा चउपट हो गया है भईया ।''
विनीत उसके चेहरे पर उभरी पीड़ा को पढ़ने के लिए उसे निर्निमेष देख रहा था और उसकी बातें सुन रहा था -
'' इ कस्बा अब कस्बा ना रहा, सहर बन गया । अब इहाँ गरमी में गगरी का पानी केहू नाहीं पीयत । गगरी के जगह फिरीज हो गया । अब बियाह में चुक्कड़ ना चलत, पलासटिक के गिलास हो गये । इ काम में कउनो आमदनी नाहीं भईया। सब मेहनत बेकार है । जीव में आवत है कि इ काम हम छोड़ देहीं, कउनो दूसर काम करीं नाहीं त परिवार भुख्खे मर जाए । एसे बेसी मजूरी में कमा लेत हैं लोग ।''
विनीत को उस निर्धन पर दया आ रही थी । बिरजू अपनी धुन में बोलता रहा, परन्तु विनीत प्रतिउत्तर के स्थान पर केवल यही सोचता रहा कि यह विज्ञान का युग है, जिसमें हर कार्य मशीनीकृत हो गया है । एक मशीन पचास-पचास मजदूरों के बराबर कार्य करती है ।
इस विज्ञान-युग ने तो बिरजू जैसे लोगों का हाथ ही काट दिया है और आय का साधन भी छीन लिया है । वे निर्धनता के कारण पढ़ भी नहीं पाते , शिक्षा के अभाव में उनको ढंग का कोई काम भी नहीं मिल सकता है।
इस कस्बे में पहले की भाँति सील कूटने वाले जो चिल्लाकर कहते थे 'सील-लोढ़ा कुटा लो ! सील-लोढ़ा कुटा लो !' अब नहीं आते, क्योंकि उनको ज्ञात है कि इस आधुनिक कस्बे में मिक्सर का प्रचलन अधिक हो चला है ।
सरकंडे की टोकरी और सूप बनाने वाले छेदी ने टोकरी और सूप बनानी इसलिए छोड़ दिया, क्योंकि अब प्लास्टिक और फाइबर आदि की बनी टोकरियाँ और सूप मिलने लगे ।
बाँस और ताड़ के पत्तों से पंखे बनाने वाले जोखन डोम को अपना वंशपरम्परागत काम छोड़ना पड़ा क्योंकि अब उस बाँस या ताड़ के पंखे की आवश्यकता कम ही लोगों को पड़ती है । कहार ने कहारी इसलिए छोड़ दी क्योंकि अब विवाह में डोली की परम्परा लगभग लुप्त हो गई है।मनोरंजन के साधन भी बदल गए । अब लोग क्रिकेट में अधिक रूचि लेते हैं । कम्प्यूटर के इस युग में बच्चे विडियो गेम में समय गँवाते हैं, पतंगे नहीं उड़ाते । अत: नदीम शाह पतंग वाले ने पतंग बनाना और बेचना बंद कर दिया ।
विनीत बिरजू के दयनीय मुखड़े पर बड़ी कातर दृष्टि डाल रखा था और सोच रहा था कि एक समय था जब बिरजू के परिवार वाले मिट्टी के बर्तन ही बनाकर आर्थिक रूप से सशक्त थे, परन्तु आज इन बर्तनों की उपयोगित कम होने से उसकी रोज़ी-रोटी मारी गई।
अचानक बिरजू उठा और बोला -
''अब चलत हैं भईया, बहुत अराम कर लिये ।''
विनीत की आत्मा उद्विग्न हो उठी । उसने एकाएक कहा-
''कहाँ जा रहे हो ?''
''घर'' बिरजू ने छोटा - सा उत्तर दिया ।
''ये भरा खाँचा लेकर ?''
''हाँ''
''मुझे दे दो ।''
विनीत के ऐसा कहने पर बिरजू को आश्चर्य हुआ । बोला-
''एतना का करेंगे ?''
''तू विक्रेता है, मैं क्रेता । विक्रेता ग्राहक से ऐसे प्रश्न नहीं पूछता है ।''
विनीत के इस तर्क पर बिरजू को प्रतितर्क नहीं सूझा । किन्तु सच बात बोल गया -
''दया कर रहे हैं ?''
''मैं दया नहीं कर रहा हूँ, किन्तु तू हया नहीं कर रहा है, बेशर्म के जैसे मुँह लग रहा है । अरे भाई मुझे दीपक की आवश्यकता है और तू देने से मतलब क्यों नहीं रखता ?''
विनीत ने बिरजू को डाँटा ।
बात बिगड़ती देख बिरजू ने उसे सारे खाँचे का दीया बेच दिया । उसमें लगभग आठ सौ दीये रहे होंगे ।
समिति उपाध्यक्ष विनीत ने दीप महोत्सव के लिए ये दीये खरीदे थे । कस्बे के बाहर के कुम्हार से दीये क्रय करना, यद्यपि समिति के निर्णय के विरुद्ध था, तथापि विनीत के हृदय में इस बात का हर्ष था कि बिरजू का सारा दीया बिक गया और उसे आजीविका में कुछ सहारा मिल गया ।
बिरजू के नयन कृतज्ञता के आँसू से छलक उठे थे । अब उसका खाँचा हल्का था । वह बिना थके जा सकता था । उसने विनीत को बड़ी कृतज्ञता से देखा। उसकी दीवाली अब अच्छे से मन सकेगी, इन्हीं विचारों में मग्न बिरजू चला जा रहा था और विनीत तब तक उसे देखता रहा जबतक की सुदूर मार्ग से वह ओझल न हो गया ।
परन्तु एक प्रश्न विनीत को सता रहा था कि बिरजू की अगली दीपावली कैसी होगी । उस समय तो कोई दीप-महोत्सव न रहेगा जिससे कि उसका सारा दीया बिक जाए ।
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कहानी -रचना : - सुरेश कुमार "सौरभ"
छात्र :- स्नातकोत्तर (हिन्दू पी जी कॉलेज जमानियाँ गाजीपुर, उ0 प्र0)
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