बंद मुट्ठी की रेत शाम के समय गर्मी और थकान से बेहाल रश्मि घर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई। घर के अंदर कोई हलचल महसूस नहीं हुई तो उसे ...
बंद मुट्ठी की रेत
शाम के समय गर्मी और थकान से बेहाल रश्मि घर पहुंच कर दरवाजे की घंटी बजाई। घर के अंदर कोई हलचल महसूस नहीं हुई तो उसे याद आया कि इस समय तो मम्मी पापा परी को पार्क में घुमाने ले कर जाते हैं। उसने थकान और खीज से भरी एक ठंडी सांस ली और अपने पर्स से चाबी निकाल कर घर में प्रवेश किया।
अंदर पहुंच कर वह पर्स एक ओर फेंक कर ए․सी․ चलाते हुए सोफे पर पसर गई। आज वह सच में बहुत थकी हुई थी। शरीर से नहीं अपितु मन से। उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। इस समय उसे एक कप गर्म गर्म कॉफी की तलब हो रही थी। किन्तु घर में उसके अलावा कोई और नहीं था तो कॉफी कौन पिलाता। निराश रश्मि कॉफी पीने की इच्छा को अपने मन में दबा कर स्नानघर का ओर बढ गई।
कॉफी का मग हाथ में लिए रश्मि बालकानी में कुर्सी पर बैठ गई। वह नहाने के बाद कुछ राहत महसूस कर रही थी किन्तु उसका मन अभी उदास ही था। आज उसने अॉफिस से आधे दिन की छुट्टी ली थी क्योंकि उसे अपनी सहकर्मी श्रीमती तिवारी से मिलने जाना था। श्रीमती तिवारी कई दिनों से बीमार चल रही थीं। वह उनसे तभी मिलना चाहती थी किन्तु अपनी व्यस्तता के चलते जा ना सकी, किन्तु अब और अधिक टालना संभव ना होने पर वह आज उनसे मिलने निकल ही पड़ी।
श्रीमती तिवारी अपने कमरे में लेटी हुई थीं। उनका चेहरा पीला पड़ गया था और वे कमजार भी काफी लग रही थीं। इसके बावजूद वे उस समय घर में अकेली थीं। यह देख रश्मि को थोड़ा आश्चर्य हुआ। शायद श्रीमती तिवारी उसके मन के भावों को समझ गई थीं अतः सफाई देने के अंदाज में बोली, ”सभी बाहर गए हैं। आज बेटी के कॉलेज में कोई फंग्शन था और पति भी कब तक मेरी तबीयत की वजह से छुट्टी लेकर घर बैठेंगे। आखिर उन्हें तो अपना काम करना ही है। मेरी देखभाल के लिए तो नर्स है ही।”
रश्मि को उनकी बात कुछ अजीब सी लगी किन्तु वह कुछ नहीं बोली। कुछ देर इधर उधर की बातें करके श्रीमती तिवारी अपने मनोभाव छिपाने की असफल कोशिश करती रही। किन्तु जब ज्यादा देर उनसे अपनी घुटन बर्दाश्त नहीं हुई तो अपने मन की गुत्थियां खोलने बैठ गई। ” कहते है ना रश्मि कि आदमी को अपने किए का फल भोगना ही पड़ता है। आज जो तुम मेरा अकेलापन देख रही हो ना यह सब मेरे ही कर्मों का फल है और कुछ नहीं।”
“जब मेरे परिवार को, मेरे बच्चों को मेरी जरूरत होती थी तब मैं अपने काम में इस कदर डूबी हुई थी कि मुझे उनकी आवाज सुनाई ही नहीं देती थी। मेरे पति ने मुझे समझाने का प्रयास भी बहुत किया किन्तु अपने पद के गरूर के कारण मैंनें हमेशा उनकी बातों को नजरअंदाज किया और देख लो क्या पाया। उस समय मैंनें अपने बच्चों को नजरअंदाज करती थी और आज उन्हें मेरी जरूरत नहीं रही। उनके दोस्त, उनका सोशल सर्कल उनके लिए अपनी मां से ज्यादा जरूरी है। किन्तु इसके लिए मैं उन्हें दोष भी नहीं दे सकती, उन्हें यह सब मैंने ही तो सिखाया है। मैने अपने बच्चों को पैसा तो खूब दिया किन्तु रिश्ते निभाने की समझ ना दे सकी और आज इसका खामियाजा मैं खुद भुगत रही हूं।”
”तुम मेरी छोटी बहन की तरह हो रश्मि मेरी एक बात सदा ध्यान रखना कभी काम के पीछे अपनी बेटी को नजरअंदाज मत करना। माना हमारा काम बेहद जरूरी है किन्तु बच्चे और परिवार भी कम जरूरी नहीं होते और इस बात का अहसास उन्हें समय समय पर करवाते रहना चाहिए।”
रश्मि जितनी देर श्रीमती तिवारी के पास बैठी रही वह अपने मन का गुबार निकालती रही। साथ ही उसे समझाती भी रहीं कि उसे उनकी जिन्दगी से सबक लेना चाहिए और वे सारी गलतियां कभी नहीं करनी चाहिए जो कभी उन्होंने की थीं। श्रीमती तिवारी के पास बैठ कर रश्मि का मन उदास हो गया अतः वह घर चली आई।
दिन भर की भीषण गर्मी के बाद मौसम सुहाना हो गया था। ठंडी हवा मन और मन दोनों को सुकून दे रही थी। रश्मि के घर के ठीक सामने एक पार्क था जहां उस समय काफी बच्चे खेल रहे थे। परी को भी मम्मी पापा इसी पार्क में घुमाने ले कर जाते हैं रश्मि कॉफी पीते पीते बच्चों के खेल का नजारा देखने लगी। एक छोटी सी बच्ची गीली मिट्टी से घरोंदा बनाने का प्रयत्न कर रही थी। इस बच्ची में उसे अपनी परी की छवि दिखाई दी।
रश्मि को श्रीमती तिवारी की कही बातें फिर याद आने लगी। कहीं वह भी तो वही सब गलतियां नहीं कर रही जो श्रीमती तिवारी ने की थीं। हां शायद। वह भी तो अपने परिवार को अनदेखा कर रही है। परी की जाने कितनी ही अठखेलियां का आनंद लेने से वह भी तो महरूम रह जाती है हर रोज।
अपनी छोटी सी दो महीनों की परी को आया के हाथों में सौंप कर वह भी तो नौकरी पर जाने की तैयारी कर चुकी थी। निशांत को यह ठीक नहीं लगा कि उनकी नन्हीं सी परी आया के भरोसे रहे इसीलिए उसने अपने माता पिता को यहां रहने के लिए मना लिया। वे भी परी के साथ रहने का मोह संवरण नहीं कर पाए और यहां आ गए। उनके आने से तो रश्मि और भी निश्चिंत हो गई थी उसकी सास सब संभाल लेती थी।
रश्मि ने भी परिवार के ना जाने कितने ही सुख दुख के पल नजरअंदाज कर दिए, श्रीमती तिवारी की तरह वह भी कहां सबकी भावनाओं का ख्याल रख पाती है। उसे पता है उसकी सास के घुटनों में दर्द रहता है मगर अॉफिस जाने की जल्दी में वह अक्सर जान कर भी अनजान बनी रहती है। निशांत और पापा को उसके हाथ की बनी माही दाल बेहद पसंद है किन्तु उसे रसोई में कड़छी चलाने की अपेक्षा लेपटॉप चलाना ही अधिक सुहाता है।
कॉफी के खत्म होने के साथ जब रश्मि की तंद्रा टूटी, उसे ध्यान आया कि अंधेरा होने को आया अब तक तो मम्मी पापा को परी को ले कर घर वापस आ जाना चाहिए था उसे चिंता हाने लगी कि कहीं मम्मी का पैर ही ना फिसल गया हो। वह जल्दी से रसोई में मग रख कर उन्हें देखने जाने लगी कि वो लोग आ ही पहुंचे, निशांत भी उनके साथ ही था।
”अरे रश्मि बेटे तुम कब आईं।“ मम्मी ने उसे देख कर कुछ आश्चर्य से पूछा क्योंकि वह तो अकसर देर से ही ही घर आ पाती है।
”मम्मी आज तो मै काफी जल्दी घर आ गई थी। शायद आप लोगों के पार्क निकलने के थोड़ देर बाद ही।” रिश्म ने परी को पापा की गोद से लेते हुए जवाब दिया।
”माफ करना बेटे आज हमें देर हो परी पार्क से वापस ही नहीं आने दे रही थी। बड़ी मुश्किल से मना कर लाएं हैं।” मम्मी जैसे सफाई देते हुए बोलीं।
”अरे तो क्या हो गया हमारी परी बिटिया की खुशी से बढ कर तो हमारे और कुछ भी नहीं है।” पापा ने कहां
”मानती हूं पर खाने को भी तो देर होगी अभी तक तो कुछ भी तैयारी नहीं हुइ। थोड़ी देर में आप ही भूख भूख का शोर मचाएंगे।”
”कोई बात नहीं मम्मी आप बैठिए मैं जल्दी से कुछ बना देती हूं।”
”नहीं बेटे तुम रहने दो सारा दिन तो वैसे ही व्यस्त रहती हो आज फुर्सत मिली है तो थोड़ा आराम कर लो। परी के साथ थोड़ा वक्त बिताओ, तरस जाती है बेचारी बच्ची अपनी मां के साथ को। खाने का क्या है मैं बना ही लूंगी जैसे तैसे।” मम्मी ने कहा, उस समय उनकी आंखों में उमड़ आई ममता को देख कर रश्मि को उन पर प्यार आ गया।
”आप दोनों में से कोई कुछ नहीं करेगा। आप दोनों काफी थकी हुई हैं और आप दोनों को ही आराम की सख्त जरूरत है।” निशांत के एलान ने सबको चकित कर दिया।
”बीवी और मां के हिमायती जरा मुझे यह बता दो कि तुम्हारा इरादा आज भूखे सोने का है या किसी फिर टीवी सीरियल के हीरो की तरह रसोई में कड़छी चलाने का है। मुझसे कोई उम्मीद भी ना लगाना कि मैं तूम्हारी ऐसी किसी मूर्खता में तुम्हारा साथ दूंगा।” पापा ने कुछ ऐसे दिल्चस्प अंदाज में कहा कि सबके होठों पर मुस्कान आ गई।
”नहीं मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा बल्कि मैं होटल से खाना मंगवा लूंगा। आज कई दिनों के बाद रश्मि खाने पर हमारे साथ है तो पार्टी तो बनती हैं। क्यों रश्मि है ना।” निशांत ने पूछा तो रश्मि खुश हो गई। सच में आज उसे जाने कितने दिनों के बाद सबके साथ समय बिताने का मौका मिल रहा था।
निशांत ने होटल के होम डिलिवरी विभाग में फोन कर खाने का अॉर्डर दिया। कुछ ही देर में उनका मनपसंद खाना उनके सामने हाजिर हो गया। फिर सबने एक साथ मिल कर खाना खाया। आज परी बेहद खुश थी, इतने दिनों के बाद आज उसकी मम्मा घर पर थी। आज तो उसके लिए त्योहार का सा दिन था वह रश्मि को एक पल के लिए भी नहीं छोड़ रही थी।
परी बेड पर सोई हुई थी और रश्मि उसे बड़े प्यार से निहार रही थी। उसे अचानक अपनी दादी की बचपन में सुनी बात याद आ गई। वह अकसर कहा करती थीं ‘वक्त बंद मुट्ठी की रेत होता है, उसे कोई रोक नहीं सकता, कितना भी कोशिश कर लो हाथों से निकल ही जाता है।' माना रश्मि ने कि वक्त बंद मुट्ठी की रेत है पर रिश्ते तो बंद मुट्ठी की रेत नहीं होते उन्हें तो सहेजा ही जा सकता है।
उसने तय किया कि वह अब अपने रिश्तों को प्यार से सहेज लेगी। सिर्फ अपने काम पर ही नहीं अपने परिवार पर भी पूरा ध्यान देगी। अब वह अपनी परी को शिकायत का एक भी मौका नहीं देगी। उसने परी के सर को प्यार से सहलाते हुए मन ही मन दिल की गहराइयों से श्रीमती तिवारी का धन्यवाद किया। आखिर उन्होंने ही तो उसे सही समय पर सही रास्ता दिखाया था।
लेखिका परिचय
नाम -- अंकिता भार्गव
पिता का नाम -- वी․ एल․ भार्गव
शिक्षा -- एम․ ए․ (लोक प्रशासन)
रूचियां -- अध्ययन एवं लेखन
विशेष -- अस्थि रोग ग्रस्त
COMMENTS