भारत अच्छा है लेकिन सब भारतीय अच्छे नहीं --------------------------------------- कोई तीस-पैंतीस वर्ष पहले एक बंदर और बया...
भारत अच्छा है लेकिन सब भारतीय अच्छे नहीं
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कोई तीस-पैंतीस वर्ष पहले एक बंदर और बया की कहानी पढ़ी थी. शायद यह हितोपदेश या पंचतंत्र की है. यदि हितोपदेश की है तो प्रस्तुत सन्दर्भ में और भी प्रासंगिक है. वह कहानी पढ़ते हुए मुझे अपने गाँव के कई लोग एक साथ याद आए थे. उनमें एकाध वे लोग भी थे जो चोरी और ऐय्याशी अपना राष्ट्रीय धर्म समझते थे. उनमें नाम के लिए दो-चार पढ़े-लिखे भी थे लेकिन पढ़ाई-लिखाई से कोई सरोकार नहीं था. इसलिए वे साहित्य नहीं पढ़ते थे या यह कहें कि पढ़ नहीं पाते थे. मजबूरी वश वे साहित्य भले नहीं पढ़ते थे लेकिन साहित्य के जीवंत पात्र ज़रूर थे. इनमें से कुछ प्रेमिकाओं के लिए ट्रक से चुराई शायरी से अपने को शायर भी मानने लगे थे. ऐसे ही अन्य लाखों पढ़े-लिखे लोग कुछ न कुछ लिखते हैं. जब इनमें से ही कोई अपनी समझ से साहित्य समझकर कुछ लिखता है तो ज़रूरी नहीं कि वह साहित्य ही हो. ऐसे में वे भीआते हैं जो अपने को बड़ा साहित्यिकार समझ अभिमानी भी हो जाते हैं. वस्तुतः वे भी साहित्यकार नहीं साहित्यकारनुमा साहित्यिक पात्र भर ही होते हैं. उन्हें केवल इष्ट-मित्र पढ़ते हैं. कभी-कभी वे भी झूठे ही वाह-वाह करके किताब रद्दी में बेच देते हैं. इन्हें एक सामान्य पाठक कभी नहीं पढ़ता है. अगर कोई अपवाद स्वरूप पढ़ता भी है तो उसे कोई दृष्टि नहीं मिलती .
एक आम पाठक साहित्य को पढ़ते समय यह कत्तई नहीं सोचता कि वह जितना कुछ पढ़े वह सबका सब उसके साथ घटित भी हुआ हो या होना ही चाहिए. ऐसा होता भी नहीं है. सीधे सरल शब्दों में कहें तो अपनी प्रत्यक्ष उपस्थिति के अभाव के बावज़ूद पाठक उसमें आत्मीयता का अनुभव करता है और रस लेता है. यह रस केवल काव्य में ही नहीं होता ,साहित्य ,संगीत और कला की हर विधा में होता है. यही नहीं यह रस रसायन,भौतिकी और गणित जैसे नीरस माने जाने वाले विषयों में भी उतना ही हो सकता है जितना कि ललित कलाओं में. यदि ऐसा न होता तो आज हमारा इतना भौतिक विकास न हुआ हो पाता. हमारे लिए जितने महत्त्वपूर्ण भरत मुनि और कालिदास हैं उतने ही बाराहमिहिर और आर्य भट्ट भी . इस लिए मैं विषय से अधिक विषयी में रस की उपस्थिति मानता हूँ. इसी दृष्टि के कारण मुझे 'वाक्यं रसात्मकं काव्यं 'का अर्थ बहुत व्यापक लगता है और इसका अर्थ मैं परंपरागत अर्थ से हट कर इस तरह लेने लगता हूँ कि जिसमें भी रस मिले वही काव्य है.
उद्धृत कहानी में ठण्ड से काँपता हुआ एक बन्दर उसी पेड़ पर बैठा है जिस पर बया का घोंसला है. बया को काँपते बंदर पर दया आ जाती है तो वह उसे उसके ही हित में उपदेशित करती है कि,"हे बंदर!तुम्हारे तो मज़बूत हाथ-पाँव हैं. तुम भी मेरी तरह अपना घर क्यों नहीं बना लेते ?"उस ग़रीब के कहने का आशय यह था कि जब मैं हाथ विहीन होकर भी केवल नन्हीं चोंच के बल पर अपना घोंसला बना सकती हूँ तो तुम लंबे-लंबे और बलशाली हाथों से क्यों नहीं?नन्हीं-सी चिड़िया का उद्देश्य उसे अपमानित करना कदापि नहीं था फिर भी वह अपमानित हुआ था. उसने गुस्से में आकर बया का घोंसला नोंचकर अंडे-बच्चों समेत उसे धराशायी कर दिया था. निर्दोष चिड़िया के उपकार के उपदेश में अनजाने में बंदर का अहंकार आहत हुआ था जिसका परिणाम नन्हीं बया को निराश्रित होकर भोगना पड़ा. बंदर ही नहीं हर अभिमानी नर जब भी अपमानित होता है ,इसी तरह किसी न किसी बया का घोंसला नोंचता है.
आर्य जंगलों को बहुत महत्त्व देते थे. जंगलों में रहना भी पसन्द करते थे. इससे स्वाभाविक है कि वे शिकार प्रेमी रहे होंगे. इसका प्रमाण रामायण में भी उपलब्ध है कि राम हिरन के शिकार के लिए जाते हैं . उसमें उनकी असफलता का दोष भी स्त्री को दिया जाता है कि सीता ने राम को भेजा. अपने पति राम की प्राण-रक्षा के लिए चिंतित सीता देवर लक्ष्मण को भेजने पर कलंकित की जाती है कि उसने नर-निर्मित लक्ष्मण रेखा पार की इसलिए हरी गई. न भेजती तो भी कलंकित की जाती कि उसे पति से अधिक अपने जीवन से प्रेम था. इन सब बातों से न जाने क्यों मुझे लगता है कि अपनी भारतीय संस्कृति नर संस्कृति है. इसमें नर शिकारी है और नारी शिकार. यदि ऐसा न होता तो क्या एक भी स्त्री शिकारी का उल्लेख हमारे साहित्य या इतिहास में न मिलता. चिड़िया के घोंसले को उजाड़ने वाला निश्चय ही नर वानर रहा होगा. वानरी होती तो चिड़िया के घोंसले को कदापि न नोचती.
जिस भारतीय संस्कृति की बात वे सभ्रांत सज्जन कर रहे थे. वे भी ऐसी ही नर संस्कृति के संवाहक हैं जिसमें सीता हों या द्रोपदी पहले हरी,छली या निर्वस्त्र की जाती हैं फिर अग्नि परीक्षा में झुलसाई जाती हैं. वहाँ नारी की अग्नि परीक्षा लेने वाले नर को न केवल सिंहासनारूढ़ किया जाता है बल्कि नारायण भी बनाया जाता है परन्तु गर्भवती नारी सीता को वनवास दिया जाता है. किसी तपस्यारत शूद्र की हत्या हो या फिर किसी छाया शिक्षक (जिसने पढ़ाया -लिखाया एक अक्षर न हो फिर भी गुरुत्त्व के भार से दुहरा हुआ जा रहा हो)के द्वारा प्रगति करते किसी स्वाध्ययी विद्यार्थी का अंगूठा काटा जाना ,अपनी संस्कृति को महिमामंडित करने के लिए इन कृत्यों को आख़िर कब तक जस्टिफाई किया जाता रहेगा. दुनिया की सबसे पुरानी संस्कृति में न जाने कब से बच्चे,स्त्री और दलित को मुए चाम की ढोल की तरह संवेदन हीन होकर पीटा जाता रहा है और संस्कृति के पुजारी उसपर सामवेदी ऋचाएँ गाते रहे हैं. मुझे यह देखकर भी आश्चर्य होता है कि प्रायः हर युद्धक्षेत्र के सभी अर्जुन अपनी सफलता के लिए या तो किसी शिखंडी की वोट खोजते हैं या फिर सभाओं में किसी द्रोण,कृपाचार्य या भीष्म जैसे किसी अंधे राजा के राजभक्तों के चरणों में बैठे रहकर द्रोपदी के नंगे होने की प्रतीक्षा करते हैं. केवल कुछ भीम ही होते हैं जो किसी ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा किए बिना नारी का चीर हरण कर अपमान करने वाले दुःशासन की छाती चीरकर उसका रक्त पीने का संकल्प लेते हैं.
दलित,स्त्री और बच्चों की पक्षधरता की वज़ह से चीन में रहते हुए मेरे साथ कुछ ऐसा घटित हुआ जिसे मैं अपने समाज और उसकी सभ्यता तथा संस्कृति में समाई संवेदना के घनत्त्व की रक्ताल्पता और कई अन्य कारणों से कभी भूल नहीं पाऊँगा. यहीं बीजिंग के एक अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन में स्त्री और बच्चों के प्रति चीनी समाज विशेष रूप से पुरुषों के दृष्टिकोण की प्रशंसा किए जाने पर भारतीय नर संस्कृति के पूजक एक अत्यंत संभ्रांत भारतीय देशभक्त द्वारा मुझे देशद्रोही करार दिया गया. इन अत्यंत संभ्रांत सज्जन ने (स्वयं को देव तुल्य वेद वेत्ता ऋषि और मुझे दिग्भ्रांत असुर समझ कर ) न केवल भर पेट गरियाया बल्कि उद्भ्रांत होकर शाप भी दे दिया कि,'' देश आपको माफ़ नहीं करेगा. "पता नहीं वे किस देश की बात कर रहे थे. शायद उस देश की जिसमें वे नेता बसते हैं जो बलात्कार जैसी छोटी-मोटी गलती करने वालों की माफ़ी के पक्षधर हैं या फिर अपने जैसे साहित्यकार के देश की जहां दलितों,स्त्रियों और बच्चों पर हो रहे अत्याचारों की चर्चा किसी दूसरे देश में करना देश द्रोह है. वह भी संचार के उस युग में जब पूरा विश्व एक गाँव बन चुका है और जिसमें हर-एक को पता होता है कि किसके चूल्हे में शाम को आग गई और किसके नहीं. यदि ऐसा नहीं होता तो बँधुआ मज़दूरों को मुक्त कराके उन्हें नया जीवन देने वाले कैलाश सत्यार्थी और लड़कियों की शिक्षा के लिए जान जोखिम में डालने वाली मलाला को कभी नोबेल सम्मान नहीं मिल पाता. इसलिए गंदगी को ढक कर साफ सुथरा बनने का स्वांग करने वाली बिल्ली की संस्कृति का मैं कभी पुजारी नहीं रहा हूँ और न रह पाऊँगा.
संभव है इसी शाप के बहाने उन ऋषि महोदय ने सारे साहित्यकारों को सावधान किया हो कि यदि उन्होंने अपने साहित्य में ऐसा दुराचार (इन सज्जन के हिसाब से दलितों,बच्चों और स्त्रियों के प्रति हो रहे सुकृत्यों के उल्लेख का) किया तो सांस्कृतिक प्रलय आ जाएगा. इस प्रलय में दलितों,स्त्रियों और बच्चों का तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं. ऐसे प्रलयकाल के लिए ही निराला जी ने भी कहा है कि,"लघु ही हैं शोभा पाते. " दलित,स्त्री और बच्चे तो अब भी लघु के लघु ही हैं तो फिर घर किसके बहेंगे ?पुरुषों के ही न. वह भी सबसे ज़्यादा सवर्ण पुरुषों के. अब जाके मेरी समझ में आया कि वोट माँगते समय 'यत्र नार्यास्तु पूजयन्ते'वाले देश के नर संसद के भीतर पहुँचते ही महिला आरक्षण के मुद्दे पर कैसे मुकर जाते हैं. स्त्रियों से नारीवत करुणा से भरकर और प्रायः गिड़गिड़ाकर भी वोट लेने वाले सांसद स्त्रियों को वोट देते समय नर हो जाते हैं. परिणामतः महिला आरक्षण का विधेयक खटाई में पड़ जाता है लेकिन इन नरों को यह नहीं पता कि जब नारी शक्ति दुर्गा बनकर जागेगी तो वही खटाई इनके दांत खट्टे करने का भी काम करेगी.
वे संभ्रांत सज्जन भारतीय साहित्यकारों से मेरे इस अनुरोध पर कि वे भारत जाकर अपने साहित्य में दलित,स्त्री और बच्चों के दर्द को प्रमुखता दें, के कारण भड़के थे. मैं अपने देश यानी भारत से आए उन पचपन-साठ साहित्यकारों के दल के अपनेपन से अभिभूत था. उन्होंने जिस अपनतत्व के साथ मुझे गले लगाया था,वह महीनों बाद मिला था. इन देशभक्त और दूसरे पत्रकारिता की ठसक लादे इनके एक मित्र के सिवाय मुझे इस दल के हर एक में कुछ न कुछ अपनापन दिखा. किसी साहित्यकार में इसी प्राणतत्त्व का होना ज़रूरी है वर्ना अभिमान तो गुंडों-बदमाशों में सबसे ज्यादा होता है. उनका वह अभिमान आहत भी ज़ल्दी ही होता है. ऐसा अभिमान अव्वल तो संवेदित ही नहीं होता और होता भी है तो बहुत देर से. संवेदन ही साहित्य का प्राण तत्त्व है. अगर किसी रचना(साहित्य) में संवेदना नहीं है तो वह मुर्दा है और उसका रचनाकार मुर्दे और उसकी सड़ांध का पोषक और संरक्षक.
पराए देश में अपने देश को गंदा और बलात्कारी माने जाने के कारण मैं बहुत दुखी था. उसका यह समाधान तो नहीं था कि मैं अपने को सुधारने के बजाय बया के घोंसले को नोचने वाले बनैले वानर की तरह उनसे तीर-तलवार से बात करता. अपने विषय में व्यक्त सच्चाई को सुनना और उसके बाद आत्मावलोकन करना भी मानवीय गुण है. वही आत्मावलोकन मैं भी करना चाहता था. वही मैंने अपने साथ-साथ अपने देशवासियों से भी करने का अनुरोध किया था. इन संभ्रांत सज्जन के अनुसार हर देश में अपराध होते हैं. इसलिए हमें और हमारे देश, उसमें भी पुरुषों को रिकार्ड तोड़ अपराध करने का अधिकार है. उनके वश में नहीं था नहीं तो वे स्त्रियों को बलात्कारी भी सिद्ध कर सकते थे. उन पलों में मुझे यह भी अहसास हुआ कि ऐसी देशभक्ति के बहाने ही दंगाइयों और बलात्कारियों की प्रकारांतर से रक्षा की जा सकती है. गज़ब के हैं उनके तर्क. मेरे विदा होते समय भी उन्होंने मुझे याद दिलाया कि मैं अपनी (कु)करनी और उनकी नेक सलाह पर विचार करूं. उनके आदेश का पालन किया . गंभीरता से विचार किया और ऐसा करके ही इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उन संभ्रांत देशभक्त से इस प्रश्न के साथ पुनः संवाद करूँ कि क्या साहित्य से सत्य निकाल कर उसे शिव और सुन्दर बनाए रखा जा सकता है?
दो दिन पहले से लेकर कल आधी रात तक दो बालिकाएँ मेरी बीमार पत्नी की देख-रेख और सुरक्षा में मेरे आवास पर ही रुकी थीं. इन जैसे अति मानवीय भारतीय संस्कृति के पुजारी से एक अति सरल प्रश्न क्या भारत में यह संभव है कि किसी गैर वह भी विदेशी के घर जवान लडकियाँ दो पूरी और एक आधी रात यानी ढाई रातें बिताएँ?चीन में संभव है. ढाई दिन रहकर कल आधी रात को गई ये दोनों बालिकाएँ आज भी पत्नी को चीन की पारंपरिक चिकित्सा में सहयोग करने आई थीं. उनमें से एक अभी महीने भर पहले भारत से लौटी है. उससे मैंने औचक पूछ लिया कि तुम्हें भारत कैसा लगा ?तो वह बिंदास भाव से बोली ,"भारत अच्छा है लेकिन सब भारतीय अच्छे नहीं. दक्षिण भारत साफ़-सुथरा है. उत्तर भारत गन्दा है. आटो वाले ठगते हैं. वहाँ स्त्री सुरक्षित नहीं है. "मेरे भारत को जिस गंभीरता से उसने देखा था काश हम पुरुष भी देख पाते. आगे मैंने उससे पुछा, तुम्हें भारत का कौन-सा भाग सबसे अच्छा लगा? उस पर वह बोली ,"मेघालय . "मैंने फिर प्रश्न किया. प्राकृतिक सुंदरता के कारण ?उसने कहा," केवल प्रकृति की सुन्दरता के कारण नहीं . विशेष रूप से मातृसत्तात्मक परिवार प्रणाली वाले समाज के कारण. " मैंने उससे कहा अभी कठोर क़ानून आया है और जनता में भी जागरूकता आ रही है लेकिन तुम्हारी बात भी अपनी ज़गह सही है. इससे अधिक लीपपोती करने को मेरी आत्मा ने साफ़ मना कर दिया. इन सज्जन से मेरा अनुरोध है कि क्या उस लड़की ने जो कुछ भी कहा वह सब झूठ है?यदि नहीं तो उसे वे कैसे आश्वस्त करेंगे?मुझे लगा मैं सही हूँ. अपनी या अपने देश की प्रतिष्ठा इसमें नहीं कि हम अपनी त्रुटियों को छिपाएँ बल्कि इसमें है कि किसी भी प्रकार की शिकायत यदि सही हो तो स्वस्थ भाव से स्वीकारें और समय पर उसे सुधारें भी .
हर अभिमान यदि उच्च तापमान पर पहुँच जाए तो अहंकार बन कर जलाने लगता है फिर वह चाहे अपने पर हो,सन्तान,कौम,धर्म या देश पर. यह अभिमान तभी तक देश और समाज के लिए सुखकर होता है जब तक समशीतोष्ण रहता है. नहीं तो यही अहंकार बनकर उसी की तरह या कभी-कभी उससे भी घातक रूप में नाश का कारण बनता है. सांप्रदायिक और नस्लीय दंगे इसी अभिमान का ही तो प्रमाण हैं ,अन्यथा और क्या हैं?यह अभिमान,स्वाभिमान ठीक वैसे ही है जैसे भोजन . जैसे जीवन दायी भोजन भी विषैला होकर प्राण हारी हो जाता है यह भी उग्र और तीव्र होकर विनाशक हो जाता है. इस अभिमान का सबसे बड़ा दोष यही है कि इसमें भी यही होता है कि बया की तरह सबसे पहले शिकार असहाय और निर्दोष ही होते हैं. बंदर के आहत अभिमान (जो अहंकार का ही एक रूप है)ने पहले निर्दोष बया के घर व बाल-बच्चों का नाश किया फिर स्वयं का भी कर लिया हो तो कोई अस्वाभाविक नहीं . माचिस की तीली जलाने की अनावश्यक आदत डालने से हमेशा दूसरों के ही घर नहीं जलते. कभी-कभी इंसान दूसरों के घर जलाने के साथ-साथ अपना भी जला बैठता है. इन तथाकथित साहित्यकार महोदय का साहित्यिक अवदान मुझे नहीं पता पर इस घटना से पता लग गया कि ऐसे देश भक्तों की नीरस ज्ञान की अभिमान भरी ज़बानी जमा देश भक्ति उसी अभिमानी बंदर की तरह अति शीत और बारिश की ठंठ में या तो ठिठुरती है या प्रचंड ग्रीष्म में अपने ही उग्र और उद्भ्रांत ताप के प्रताप से दावानल की भाँति भरी जवानी में ही अपना ही सुहाग स्वाहा कर असमय विधवा हो जाती है. अगर इनमें से कुछ भी न हो तभी आश्चर्य की बात होती है वर्ना बिल्कुल नहीं.
कन्हैया लाल मिश्र 'प्रभाकर'का 'मैं और मेरा देश 'पता नहीं इन्होंने पढ़ा है कि नहीं. मैंने उसे पढ़ा भी है और जिया भी . शायद इसीलिए मैं स्वामी रामतीर्थ के आदर्श को अपनाते हुए अपने देश को पूरा मान देने के साथ दूसरे देश के लोगों को भी गरिया के नहीं अपना के चलने में स्वाभाविक रुचि रख पा रहा हूँ. दूसरे मैं चीन के ऐतिहासिक या राजनीतिक नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में रुचि रखता हूँ. वैसे भी किसी भी राष्ट्र के राजनीतिक और सामजिक,सांस्कृतिक चरित्र कभी एक से नहीं होते . चीन के भी नहीं हैं. अपने सांस्कृतिक देश भारत के हैं क्या?यह प्रश्न भी देश से नहीं उन्हीं संभ्रांत सज्जन से है. 'मैं और मेरा देश' में भी प्रश्न हैं. जब तक प्रश्न नहीं उठेंगे तबतक मंथन नहीं होगा . परसों मेरे प्रश्नों के बाद उन्होंने समुद्र मंथन किया और उनके बाद मैंने . पता नहीं इस मंथन से केवल विष ही बाहर आया या कुछ अमृत भी अथवा कितना अमृत निकला या विष? वह भी क्या,कितना और किस अनुपात में आया?अब इसमें सुर कौन है और असुर कौन ?ये सारे प्रश्न विचारणीय हैं. खैर!यह तो पाने और पान करने वाले ही बता पाएंगे. मैं तो फिलहाल इतना ही जानता हूँ कि इस समय एक बजकर चालीस मिनट हो रहे हैं और मैं लैपटॉप पर टेढ़ी-मेढ़ी लाइनें लीप रहा हूँ. यह भी चिंता है कि कहीं हमारी स्त्रियों और बच्चों के हिस्से का अमृत कोई राहु-केतु या देव-दनुज या फिर दोनों के केवल प्रौढ़ पुरुष मिलकर न पी जाएँ. वे संभ्रांत सज्जन कहीं इसका ग़लत अर्थ न निकाल बैठें और पूछें कि मैंने 'हमारी स्त्रियों' क्यों कहा?लगा भी लें तो भी मैं निश्चिन्त हूँ और जानता और मानता हूँ कि प्रश्न से प्रश्न कभी हल नहीं होते . इसीलिए मैं प्रश्न पर प्रश्न करते रहने की बजाय प्रश्नों का निडर भाव से स्वागत कर नए समाधानों की खोज में रहता हूँ. इस विश्वास के साथ कि किसी भी हल के लिए प्रश्नों का होना भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि प्रश्नों के लिए उनके हल का होना. इन आशंकित व आसन्न संकटों के बाद भी मैं स्त्री और बच्चों के लिए तब तक बेचैन रहता हूँ जब तक कि कोई आशा की किरण नहीं दिख जाती. सौभाग्यशाली हूँ कि घोर अँधेरों के बीच भी हर ज़गह मुझे यह किरण दिख ही जाती है. यहाँ भी इन संभ्रांत सज्जन के तीरों से जिस तरह उस सत्र की अध्यक्षा श्रीमती रंजना अरगड़े जी ने मुझ घायल के घावों पर अपनत्व भरे ममत्त्व का अवलेह लगाया और उसके बाद ममतामयी परमपूज्या ललिताम्बा जी ने वात्सल्य के आँचल से हवा की. उससे जो शीतलता मिली उससे मैं दावे से कह सकता हूँ कि पुरुष केवल घाव दे सकता है पर उसे पूर तो कोई स्त्री ही सकती है फिर चाहे वह,माँ ,बेटी ,बहिन हो या कि प्रिया . यह घने तिमिर को चीरती आशा की किरण ही तो है जो घने होकर चतुर्दिक तने और आक्रामक अंधेरों से जमकर लड़ती है. इन किरणों में कुछ तो दम है वर्ना इन दोनों नारियों के वात्सल्य से अब तक भीतर गुदगुदी क्यों हो रही होती और उस अकेले नर के भोथरे और असरहीन शब्द-बाणों से भी इतनी पीड़ा और हलचल क्यों मची हुई रहती?
-डॉ. गुणशेखर
(प्रो. गंगा प्रसाद शर्मा ),
प्रोफ़ेसर ,
भारतीय भाषा,संस्कृति एवं दर्शन विभाग ,
गुआंगदोंग वैदेशिक भाषा विश्व विद्यालय,
ग्वान्ज़ाऊ,चीन.
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