14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष ... आत्मा में बसायी जाने वाली भाषा है हिन्दी हिन्दी में वार्तालाप दिला सकता है सम्मान ... हमारी अपनी भाष...
14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर विशेष ...
आत्मा में बसायी जाने वाली भाषा है हिन्दी
हिन्दी में वार्तालाप दिला सकता है सम्मान...
हमारी अपनी भाषा हिन्दी से अब हर हाल में अंग्रेजी की बैसाखी छुड़ाने की स्थिति दिखाई पड़ रही है। राजभाषा समिति द्वारा हिन्दी की पुष्टता तक दस वर्षों के लिए अंग्रेजी की बैसाखी हमें थमा दी गई, और वही बैसाखी हमसे छोड़ी नहीं जा रही है। हमारे देश के विभिन्न प्रदेशों में ही प्रांतीय भाषाएं हमारी मातृभाषा पर भारी पड़ रही हैं। कुछ प्रदेशों ने तो अंग्रेजी को ही राज-काज की भाषा बना डाली है, जो हमारी मातृभाषा के मार्ग में बड़ी मुश्किल के रूप में दिखाई पड़ रही है। हमारे देश के वरिष्ठ साहित्यकारों ने भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए बड़े आंदोलन की जरूरत पर बल दिया है। हिन्दी दिवस मनाने के पीछे हमारा उद्देश्य अपनी भाषा की पूछ- परख न होना नहीं है, बल्कि उसके सम्मान में हमारी प्रतिष्ठा का द्योतक है। यह सभी जानते हैं कि किसी भी देश के लिए राष्ट्रभाषा तथा मातृभाषा का होना बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। वस्तुतः भारत वर्ष विविधताओें का देश है जिसकी धारा में विविध संस्कृतियों का जन्म हुआ और अनेक भाषाएं पल्लवित हुईं । कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत सदैव विचारों एंव भावनाओं से आन्दोलित रहा है। यही कारण है कि उसे राष्ट्र्रभाषा की आवश्यकता महसूस हुई। जैसा की महात्मा गांधी ने कहा है कि- राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।
इस सदी के बड़े ख्यातिनाम साहित्यकार डॉ. नामवर सिंह जो कुछ माह पूर्व ही हम सब के बीच से विदा होकर चले गये, उन्होंने भी इस बात को स्वीकार किया था कि राष्ट्रभाषा हिन्दी की स्थिति को बदलने बड़े जनआन्दोलन की जरूरत है, नामवर सिंह जी ने अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि जब तक कोई बड़ा जनआन्दोलन नहीं होता, तब तक हिन्दी का सम्मान और अंग्रेजी के वर्चस्व की लड़ाई चलती ही रहेगी। हिन्दी भाषा का जितना अपमान इलेक्ट्रानिक मीडिया कर रहा है उतना किसी ने नहीं किया है। इलेक्ट्रानिक मिडिया हमें हिन्दी भाषा की खिचड़ी खिला रहा है। मीडिया हमारे देश का आईना है और जब आईने में ही दो-दो तस्वीर दिखने लगे तो गंभीरता को समझा जा सकता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिन्ट मीडिया में हिन्दी की हो रही किरकिरी को देखकर लगता है कि हम अपनी भाषा को लेकर सचेत नहीं हैं। हमारी गलत बोलचाल का प्रभाव स्पष्ट रूप से हमारे साहित्य पर पड़ने लगता है। बावजूद उक्त विबंडनाओं के हिन्दी भाषियों को निराशा पालने की जरूरत नहीं है। कारण यह कि हिन्दी के चैनलों की संख्या और देखने वालों की संख्या अन्य भाषा-भाषियों से कहीं अधिक है। हिन्दी के अखबारों की ही अधिक मांग की जाती है न कि अंग्रेजी के। यह भी देखने में आ रहा है कि विगत दो तीन दशकों से हिन्दी साहित्य की जो क़ृतियां हमारे हाथों में आ रही है, अंग्रेजी अथवा अन्य भाषा के साहित्य उसके आस-पास भी नहीं हैं।
आत्मा में बसायी जाने वाली भाषा है हिन्दी,हृदय में उठने वाली कूक है हिन्दी, मन के अन्दर देश-भक्ति का जागरण कराने वाली है हिन्दी, हर भारतवासी की पुकार है हिन्दी, पर विडंबना यह है कि भारत वर्ष में भी रट लगाई जा रही है अंग्रेजी की। भाषा के ज्ञान के लिए किसी भाषा की जानकारी हासिल करना कतई गलत नहीं, किन्तु दूसरों की भाषा के आगे निज भाषा का सम्मान न करना देश द्रोह से कम नहीं। हिन्दी की मिठास का आभास करना, हिन्दी में की गई अभिव्यक्ति का व्यापक असर दिखाई पड़ना और हिन्दी की वकालत करने वाले भारत वासियों द्वारा मन से हदय से उनका अनुसरण न करना समझ में न आने वाली बात है। गहराई में देखा जाए तो हम चाहते हैं कि हिन्दी में वार्तालाप करें, उसे प्रगति की भाषा बनाएं, किन्तु जहां किसी अन्य पर प्रभुत्व सिद्ध करने की बात आती है तब हमारी मातृभाषा की सारी खूबियां भूल कर विदेशी भाषा अंग्रेजी का दामन थाम लेते हैं। यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। यह हम भूल जाते हैं कि हमारी पहचान,पहनावे, अथवा रंगरूप से नहीं वरन् हमारी अपनी भाषा से होती है। भाषा की लड़ाई में आज विपरित स्थिति के बावजूद यदि हिन्दी अच्छी है तो इसके लिए हमारे साहित्यकारों का सबसे बड़ा योगदान रहा है। भारतीय बाजार में भी हिन्दी को एक पुष्ट मुकाम प्रदान किया है। आज अमेरिका, इंग्लैंड सहित यूरोपीय देश हमारी सरहदों और बड़े शहरों में व्यापार करने के उद्देश्य से हिन्दीं सीख रहे हैं। हिन्दी की महिमा को इन लाईनों में बताया जा सकता है -
हम हिन्दी ही अपनाएंगे, इसको ऊंचा ले जायेंगे।
हिन्दी विश्व की भाषा है,हम दुनिया को दिखलायेंगे।।
यह सौ फीसदी सत्य है कि हिन्दी की जो दशा आज हमारे अपने हिन्दुस्तान तथा विश्व स्तर पर है उसके लिए जिम्मेदार भी हमारा हिन्दी समाज ही है। मैं प्रायः देखता हूं कि दो सिंधी भाई आपस में मिलते हैं तो अपनी भाषा में वार्तालाप करते हैं ,मारवाड़ी भाई भी राजस्थानी में बतियाते देखे जाते हैं,दो तमिलों का मिलन भी हमें तमिल भाषा से अवगत करा जाता है, हम गर्व कर सकते हैं अपने ऐसे प्रादेशिक भाईचारे पर किन्तु उम्मीद करना भी गलत न होगा कि जब उक्त सभी प्रदेशवासी किसी ऐसे स्थान पर मिलें जहां विभिन्न भाषा- भाषायी मौजूद हों तो प्राथमिकता के तौर पर उन्हें अपनी मातृभाषा का सम्मान करते हुए उसी हिन्दी में वार्तालाप करना चाहिए। देखा जाए तो हिन्दी का बौद्धिक समाज और समृद्ध समाज अलग अलग दिशाओं में महक रहा है। जरूरत है मन के अंदर की सोच को एक करने का ताकि हमारी अपनी भाषा को सम्मान मिले। हिन्दी समाज का दिखावा ,पाखन्ड और दोगलापन ही वह कारण है जो हमारी भाषा के मार्ग में आड़े आ रहा है । यह स्वयंसिद्ध स्थिति है कि दुनिया में जब भी भाषा ने अपना वर्चस्व व सम्मान स्थापित किया है तो उसमें सरकार का योगदान कम,समाज का अधिक रहा है। हमें स्वयं की हिन्दी समाज का सदस्य मानना होगा, फिर चाहे हम हिन्दू हों, मुसलमान हों,सिक्ख हों, या ईसाई हों या फिर किसी विशेष प्रांत की प्रांतीय भाषा क े अनुयायी क्यों न हों। सोचने वाली बात यह है कि छोटे- छोटे देश जो महज कुछ करोड़ की आबादी को समेटे जीवन जी रहे हैं उन्होंने अपनी भाषा को समृद्ध बनाते हुए राष्ट्रभाषा का दर्जा दिला दिया है और एक हमारा देश है जो सवा-अरब की जनसंख्या के बाद भी अपनी भाषा को सम्मान नहीं दिला पाया। हम तो सिर्फ आशा कर सकते हैं और कह सकते हैं -
स्याही से लिख दो आज, तुम अपना वर्तमान।
हिन्दी हो तुम, हिन्दी से सीखो करना प्यार।
हिन्दी के प्रति चिंता प्रकट करते हुए यदि यह हम कहें कि हिन्दी के पिछड़ेपन का कारण हम हैं तो यह गलत होगा, क्योंकि हिन्दी न तो कभी पिछड़ी थी और न ही पिछड़ेगी। हमारे अंदर हमारी अपनी हिन्दी को लेकर बसी भावना ने उसे उसके सम्मान से दूर कर रखा है। जी हां हमारा यह सोचना कि बिना अंग्रेजी के हम अनपढ़ अथवा गंवार कहे जा सकते हैं हमारी भाषा के राष्ट्रभाषा बनने में सबसे बड़ी संकीर्ण सोच है। भारत का हर बच्चा और हर युवा यदि यह ठान ले कि वह अपना सभी काम हिन्दी में करेगा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी भाषा राष्ट्रभाषा के दर्जे से विभूषित कर दी जायेगी। अंग्रेजी का ज्ञान अथवा उसकी शिक्षा इस मार्ग में न तो बाधक थी और न ही है। हमें अपने क्रियाकलापों में परिवर्तन द्वारा भाषा का कष्ट दूर करने का प्रयास करना होगा। महज दिवस अथवा पखवाड़ा मना लेने से हिन्दी को उसका मान नहीं मिल पायेगा।
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
डॉ. सूर्यकाँत जी,
जवाब देंहटाएंआपका लेख पढ़ा. मन उद्वेलित हो गया और चुप बैठ नहीं पाया..
पहली बात आप भारत व भारत वासियों की बात कह रहे हैं. पहले-पहल मातृभाषा का जिक्र आप अपनी मातृभाषा के लिए कर रहे हैं. सारे देशवासियों की मातृभाषा हिंदी नहीं है.
दूसरा - राष्ट्रभाषा के रूप में भी आपने हिंदी को संबोधिक किया है. हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा कब बनी. मेरी जानकारी में हमारे देश में कोई राष्ट्रभाषा है ही नहीं. हाँ राजनेताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कोशिश की थी किंतु अब तक तो सफल नहीं हो पाए.
तीसरा - आप हिंदी केो नकार कर अंग्रेजी को गले लगाने की बात कह रहे हैं. जब ज्ञान वहीाँ है और सुविधा वहांँ है तो लोग जाएँगे ही. कम्प्यूटर की पूरी इंडस्ट्री अंग्रेजी की बदौलत चल रही है. विदेशों में पढ़ना हो तो अंग्रेजी सीखनी ही पड़ेगी.
चौथा - हिंदी के प्रति आत्म मुग्ध न हों तो अच्छा है. आज भी अँग्रएजी जितनी जानकारी हिंदी में उपलब्ध नहीं् है.
आज यदि हिंदी को उस स्तर तक लाना है तो हिंदी को इतना समृद्ध बनाना होगा कि हर व्यक्ति ( देश का ही नहीं विश्व का) ज्ञान वर्धन के लिए हिंदी सीखे. केवल बातें करते रहने से तो होगा नहीं.
मेरी राय पढ़कर आपको अच्छा तो नहीं लगा होगा इसका आभास मुझे हो रहा है. लेकिन मेरी हिंदी के बारे में विॉस्तृत राय जानने के लिए कृपया http://www.hindikunj.com/2014/09/bhasha-rajbhasha-ki.html#.VA7sisKSxA0
देखें. साथ ही श्शृंखला के अन्य लेख भी देखें . तब ही आपको विश्वास हो पाएगा कि मैं हिंदी का दुश्मन नहीं एक विद्यार्थी हूँ.
सादर एवं विनीत
अयंगर.
अयंगर जी एवं मिश्र जी, हिन्दी पर आप दोनों के विचारों को पढ़कर दोनों पहलुओं को जानने का मौका लगा। चूँकि हम हिन्दी ब्लॉगिंग कर रहे हैं, इसलिए हमारी हिन्दी सेवा हिन्दी सप्ताह तक ही सीमित नहीं है। कम से कम हम सब इतना तो कर ही सकते हैं, कि तमाम उपयोगी विषयों पर हिन्दी भाषा में जानकारी अपने ब्लॉगों पर प्रकाशित कर सकते हैं। यदि हममें से कोई भी किसी खास विषय पर अच्छी जानकारी रखता है, तो उसे अपने हिन्दी ब्लॉग पर साझा कर सकता है।
जवाब देंहटाएं